सुरेश कुमार वाकरे (पी.एच.डी. रिसर्च स्कॉलर),
सब्जि विज्ञान विभाग, उद्यानिकी महाविद्यालय सांकरा (छ.ग.)
नरोत्तम अत्री (पी.एच.डी. रिसर्च स्कॉलर)
कृषि अर्थशास्त्र विभाग, कृषि महाविद्यालय रायपुर (छ.ग.)
डॉ. देवेन्द्र कुर्रे (सहायक प्राध्यापक)
लिंगो मुढ़ियाल कृषि महाविद्यालय नारायणपुर (छ.ग.)
डॉ. अमित कुमार पैंकरा (अतिथि शिक्षक),
उद्यानिकी महाविद्यालय महाविद्यालय एवं अनुशन्धान केन्द्र कुनहारावनद जगदलपुर (छ.ग.)
प्रस्तावना
भारतवर्ष प्राचीन काल से ही कृषि प्रधान देश रहा है और यहाँ की मिट्टी में अनेक औषधीय गुणों से भरपूर फसलें उत्पन्न होती रही हैं। ऐसी ही एक चमत्कारी फसल है- हल्दी (Curcuma longa), जिसे आयुर्वेद में ‘हरिद्रा‘ के नाम से जाना जाता है। यह न केवल रसोई का एक आवश्यक मसाला है, बल्कि औषधीय, कॉस्मेटिक और औद्योगिक उपयोगों के कारण इसकी मांग विश्व स्तर पर बढ़ती जा रही है। आज जब विश्व जैविक और प्राकृतिक उत्पादों की ओर अग्रसर हो रहा है, तब हल्दी का महत्व और भी बढ़ गया है। ऐसे में हल्दी की आधुनिक उत्पादन तकनीकों को अपनाकर किसान अधिक लाभ अर्जित कर सकते हैं।
हल्दी की महत्ता
हल्दी को ‘सुनहरी मसाला‘ भी कहा जाता है। इसके औषधीय गुण जैसे एंटीसेप्टिक, एंटीऑक्सीडेंट, एंटी-इंफ्लेमेटरी और कैंसररोधी प्रभावों के कारण इसकी मांग दवा उद्योग में भी बहुत अधिक है। इसके अलावा, सौंदर्य प्रसाधन, खाद्य प्रसंस्करण और प्राकृतिक रंग उद्योगों में हल्दी का उपयोग किया जाता है। भारत विश्व में सबसे अधिक हल्दी का उत्पादक और निर्यातक देश है।
हल्दी की पारंपरिक खेती की सीमाएं
पारंपरिक खेती के तरीकों से हल्दी की खेती में अक्सर निम्न उपज, कीट-रोग का अधिक प्रभाव, अधिक श्रम लागत और असंगत गुणवत्ता की समस्याएं सामने आती हैं। इसके कारण किसानों को अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता। अतः समय की मांग है कि हल्दी की खेती को वैज्ञानिक और आधुनिक तकनीकों के साथ जोड़ा जाए, जिससे उत्पादकता और गुणवत्ता दोनों में सुधार हो सके।
1. उपयुक्त जलवायु और मिट्टी का चयन
हल्दी की सफल खेती के लिए निम्नलिखित जलवायु और मिट्टी की आवश्यकता होती हैः
- जलवायुः हल्दी उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय जलवायु में अच्छी होती है। 20°C से 35°C तापमान और 1500-2000 मिमी वार्षिक वर्षा इसकी वृद्धि के लिए आदर्श है।
- मिट्टीः दोमट या बलुई दोमट मिट्टी, जिसमें जैविक पदार्थ की मात्रा अधिक हो, अच्छी जलनिकासी हो और चभ् मान 5.5 से 7.0 के बीच हो, हल्दी के लिए उपयुक्त है।
2. उन्नत किस्मों का चयन
उन्नत किस्मों का चयन उत्पादन में गुणात्मक और मात्रात्मक सुधार लाता है। कुछ प्रमुख उन्नत किस्में निम्नलिखित हैंः
किस्म का नाम |
विशेषता |
सुधा |
अधिक उपज,
रोग प्रतिरोधक |
रोमक |
उच्च करक्यूमिन मात्रा |
सुगंधा |
सुगंधित हल्दी,
सौंदर्य प्रसाधन हेतु उपयुक्त |
राजेन्द्र सोना |
औद्योगिक प्रयोग हेतु उपयुक्त |
करक्यूमिन की मात्रा के आधार पर किस्मों का चयन करना बाजार मूल्य निर्धारित करने में सहायक होता है।
3. रोपण तकनीक
- बुवाई का समयः हल्दी की बुवाई मई-जून में की जाती है, जब मानसून आरंभ हो।
- बीज दरः 2000-2500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर अंकुरित अंगुलियों (rhizome fingerss) का उपयोग।
- विधिः 30×25 सेंटीमीटर की दूरी पर कतारों में रोपण करें।
- रोगमुक्त बीजः 0.3% बोर्डो मिश्रण या ट्राइकोडर्मा से उपचारित बीजों का प्रयोग करें।
4. उन्नत सिंचाई तकनीक
- ड्रिप इरिगेशनः हल्दी को नियमित नमी की आवश्यकता होती है। ड्रिप सिंचाई प्रणाली जल की बचत करते हुए पौधों को आवश्यकतानुसार नमी प्रदान करती है।
- मल्चिंग: जैविक मल्चिंग से नमी संरक्षण, खरपतवार नियंत्रण और तापमान संतुलन में सहायता मिलती है।
5. पोषक तत्व प्रबंधन
हल्दी को उच्च जैविक पदार्थों की आवश्यकता होती है। इसके लिएः
- खादः प्रति हेक्टेयर 20-25 टन गोबर की खाद।
उर्वरकः
- नाइट्रोजन (N) - 100 किग्रा
- फास्फोरस (P2O5) - 60 किग्रा
- पोटाश (K2O) - 60 किग्रा
ये उर्वरक दो-तीन खुराकों में, 30, 60 और 90 दिन बाद दें।
- सूक्ष्म पोषक तत्वः जिंक, बोरॉन व आयरन की पूर्ति हेतु फोलियर स्प्रे करें।
6. खरपतवार और रोग प्रबंधन
खरपतवार नियंत्रण
- प्रारंभिक 2 महीनों में खरपतवारों की रोकथाम अत्यंत आवश्यक है।
- हाथ से निराई या बायो-हर्बिसाइड्स का प्रयोग करें।
- मल्चिंग से खरपतवार का प्रसार रोका जा सकता है।
रोग और कीट नियंत्रण
- पत्तियों का झुलसन रोगः कवकनाशी जैसे मैन्कोजेब का छिड़काव करें।
- राइजोम सड़नः ट्राइकोडर्मा के साथ मिट्टी उपचार।
- दीमक और सफेद लटः नीम की खली या जैविक कीटनाशकों का प्रयोग।
7. कटाई और उपज बढ़ाने के उपाय
- हल्दी की कटाई 7-9 माह के पश्चात तब की जाती है जब पत्तियाँ पीली होकर सूखने लगती हैं।
- कटाई के पश्चात राइजोम को साफ पानी से धोकर उबालना, सुखाना और चमकाना आवश्यक होता है।
- उबालने की आधुनिक तकनीक जैसे स्टील ड्रम में भाप द्वारा उबालना उत्पाद की गुणवत्ता को बढ़ाता है।
8. प्रसंस्करण और मूल्यवर्धन
प्रसंस्करण से हल्दी का बाजार मूल्य कई गुना बढ़ जाता हैः
- हल्दी पाउडर निर्माण
- करक्यूमिन निष्कर्षण- दवा उद्योग में प्रयोग हेतु।
- हल्दी तेल व अर्क- कॉस्मेटिक और आयुर्वेदिक उत्पादों में उपयोग।
- ब्रांडेड पैकिंग- उपभोक्ता तक सीधा पहुंच।
आज ‘हैंडमेड’, ‘ऑर्गेनिक’ और ‘क्लीन लेबल’ उत्पादों की माँग है। किसान समूह या FPO (Farmer Producer Organization) मिलकर मूल्यवर्धन में बेहतर लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
9. विपणन और निर्यात की संभावनाएँ
- ई-मार्केटिंग प्लेटफार्म जैसे eNAM, Amazon, Flipkart और GeM (Government e-Marketplace) किसानों को सीधे उपभोक्ताओं से जोड़ते हैं।
- निर्यात के लिए गुणवत्ता, पैकेजिंग और FSSAI व APEDA जैसी एजेंसियों से प्रमाणन आवश्यक है।
भारत हल्दी का सबसे बड़ा निर्यातक है और इसके मुख्य खरीदार देश अमेरिका, UAE ईरान और मलेशिया हैं।
10. हल्दी की जैविक खेती
आज जैविक खेती का चलन बढ़ रहा है। हल्दी एक आदर्श जैविक फसल है क्योंकि इसमें कीटनाशकों की आवश्यकता कम होती है। जैविक खेती सेः
- उत्पाद की कीमत दोगुनी हो सकती है।
- स्वास्थ्य व पर्यावरण की रक्षा होती है।
- निर्यात की संभावनाएं बढ़ती हैं।
11. सरकारी योजनाएं और सहायता
सरकार किसानों को हल्दी की उन्नत खेती हेतु विभिन्न योजनाएं चला रही हैः
- राष्ट्रीय मसाला मिशन
- प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना
- FPO के माध्यम से समूह आधारित खेती
- कृषि विज्ञान केंद्रों से प्रशिक्षण एवं मार्गदर्शन
निष्कर्ष
हल्दी सिर्फ एक मसाला नहीं, बल्कि किसानों के लिए सुनहरा अवसर है। यदि वे आधुनिक कृषि तकनीकों, वैज्ञानिक ज्ञान, प्रसंस्करण और विपणन कौशल को अपनाएं, तो न केवल उत्पादन और लाभ में वृद्धि हो सकती है, बल्कि भारत विश्व बाजार में हल्दी के क्षेत्र में अपनी पकड़ और मजबूत कर सकता है।
“सुनहरी फसल, उज्जवल भविष्य” का सपना तब साकार होगा, जब किसान परंपरा और तकनीक के संतुलन के साथ हल्दी उत्पादन में क्रांति लाएंगे।
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