लक्षण
बीमारी के शरू होते ही पशु के शरीर का तापक्रम बढ़ जाता हैं जा कुछ दिन तक रहता हैं उसके बाद मुंह के अंदर छाले बनने शुरू हो जाते हैं, पशु की भुख खत्म हो जाती हैं तथा दूध देने वाले पशु का दूध उत्पादन एकदम कम हो जाता हैं। पशु के खुरों के बीच में घाव हो जाते हैं, कभी-कभी छाले, अयन तथा थनों पर भी हो जाते हैं। मुंह में छालों की वजह से पशु खा नहीं पाता हैं उसके मुंह से लार गिरती रहती हैं।
उपचार
बीमारी होने पर पशु के मुंह को लाल दवा, एक्रीफ्लेबिन अथवा फिटकरी के हल्के घोल से रोजाना दिन में दो बार धोना चाहिए। मुंह के छालों, जीभ आदि पर बोरोग्लिसरीन लगानी चाहिए। पैरों के घावों पर नीला थोथा (कापरसल्फेट) का एक प्रतिशत का घाल लगाना चाहिए। फिनाइल में बराबर मात्रा में सरसों का तेल मिलाकर खुरों के घावों पर लगाने से घाव जल्दी भर जाते हें तथा कीड़े पड़ने का डर भी नहीं रहता हैं। अगर बीमार पशुओं की संख्या ज्यादा हो तो जमीन में एक उथला गड्ढ़ा करके उसके फिनाइल का घोल अथवा नीला थोथा का घोल भर कर पशुओं को उसमें होकर गुजारते हैं जिससे उनके खुरों पर दवा लग जाती हैं। अगर थनों पर छाले पड़ गए हैं। तो उनपर बोरिक आॅइंटमेंट लगाएं। गंभीर हालात में पशुओं को विटामिन ए के इंजेक्शन लगवाने चाहिए उससे घाव जल्दी भर जाते हैं। पशु को सूखे भूसे की जगह नरम हरा चारा खिलाना चाहिए तथा गेहूं का दलिया उबालकर और उसमें गुड़ डालकर पतला करके पशु को देना चाहिए।
बचाव
मुंहपका खुरपका बीमारी का बचाव ही इसका असली इलाज हैं। इसके लिए भारतवर्ष में इस बीमारी का टीका हर पशु अस्पताल में उपलब्ध हैं। साल में दो बार इस टीके को लगवा लेने से बीमारी का प्रकोप नहीं होता। पशुपालकों को प्रति वर्ष यह टीका सभी पशुओं को लगवा लेना चाहिए।
स्त्रोतः- पशुपालन विभाग, भारत सरकार
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