डॉ. अभय बिसेन, वैज्ञानिक (फल विज्ञान),
पं शिव कुमार शास्त्री कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, राजनांदगांव
शुष्क क्षेत्र बागवानी में बेर का प्रमुख स्थान है। वर्षा आधारित उद्यानिकी में बेर एक ऐसा फलदार पेड़ है जो कि एक बार पूरक सिंचाई से स्थापित होने के पश्चात वर्षा के पानी पर निर्भर रहकर भी फलोत्पादन कर सकता है। इन्हीं गुणों के कारण इसे बारानी का बादशाह कहा जाता है। बेर भारत का प्राचीन लोकप्रिय फल है। यह रैमनैसी कुल का सदस्य है तथा जिजीफस जीनस (वंश) के अंतर्गत आता है। इस फल की उत्पत्ति दक्षिणी चीन, भारत एव मलाया में हुई है। इस जीनस के अंतर्गत लगभग 50 जातियाँ (स्पीसीज) हैं जिनमें लगभग 18-20 भारत में पाई जाती हैं। व्यावसायिक दृष्टि से कुछ ही जातियाँ उपयोगी हैं। हमारे देश में व्यावसायिक दृष्टि से बागवानी के लिये जिजीफस मोरीशियाना का उपयोग किया जाता है।यह एक बहुवर्षीय व बहुउपयोगी फलदार पेड़ है जिसके फलों के अतिरिक्त पेड़ के अन्य भागों का भी आर्थिक महत्व है। इसकी पत्तियाँ पशुओं के लिए पौष्टिक चारा प्रदान करती हैं जबकि इसमें प्रतिवर्ष अनिवार्य रूप से की जाने वाली कटाई-छंटाई से प्राप्त कांटेदार झाड़ियां खेतों की रक्षात्मक बाड़ बनाने व भण्डारित चारे की सुरक्षा के लिए उपयोगी है। शुष्क क्षेत्रों में अल्प, अनियमित व अनिश्चित वर्षा को देखते हुए बेर की खेती बहुत उपयोगी है क्योंकि पौधे एक बार स्थापित होने के बाद वर्ष के किसी भी समय होने वाली वर्षा का समुचित उपयोग कर सकते हैं।
बेर की खेती भारत के सभी राज्यों में कुछ न कुछ क्षेत्रों में होती है किन्तु मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ व आंध्र प्रदेश में अपेक्षाकृत अधिक होती है। छत्तीसगढ़ राज्य में वर्तमान समय में बेर की खेती व्यवासायिक रूप से की जा रही है। हमारे देश में इसकी खेती लगभग 50,000 हजार हेक्टेयर रकबे में तथा उत्पादन 5,13,000 मिलियन टनहो रहा है (राष्ट्रीय उद्यानिकी बोर्ड, 2023)। छत्तीसगढ़ राज्य में बेर की खेती 4,551 हेक्टेयर में की जाती है एवं उत्पादन 77,505 मेट्रिक टन होता है। बेर उत्पादन में कोरबा जिला छत्तीसगढ़ राज्य में अग्रणी है जहा इसकी खेती 1128 हेक्टेयर क्षेत्रफल में एवं उत्पादन 25041 मेट्रिक टन है (सांख्यिकी उद्यानिकी विभाग , छ.ग 2023 )।पड़ती भूमि में छत्तीसगढ़ राज्य में इसका रकबा दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।
जलवायु
बेर में जलवायु की प्रतिकूल दशाएँ को सहन करने की अदभुत क्षमता होती है। इसकी खेती देश के उष्ण कटिबन्धीय तथा उपोष्ण क्षेत्रों में, समुद्र की सतह से लगभग 1000 मी. की ऊँचाई तक सफलतापूर्वक की जा सकती है। इसकी खेती सभी प्रकार की जलवायु में की जा सकती है किन्तु अधिक उत्पादन तथा अच्छे आकार व गुणों वाले फल उत्पादन के लिये शुष्क एवं गर्म जलवायु उपयुक्त है। बेर अधिक तापमान तो सहन कर लेता है लेकिन शीत ऋतु में पड़ने वाले पाले के प्रति अति संवेदनशील होता है। अतः ऐसे क्षेत्रों में जहां नियमित रूप से पाला पड़ने की सम्भावना रहती है, इसकी खेती नहीं करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त उन क्षेत्रों में जहाँ भूमिगत जल काफी निचली सतह पर हो, वहां भी बेर की बागवानी की जा सकती है क्योकि इसमें कम पानी व सूखे से लड़ने की विशेष क्षमता होती है बेर में वानस्पतिक बढ़वार वर्षा ऋतु के दौरान व फूल वर्षा ऋतु के अंत में आते हैं तथा फल वर्षा की भूमिगत नमी के कम होने तथा तापमान बढ़ने से पहले ही पक जाते हैं। गर्मियों में पौधे सुषुप्तावस्था में प्रवेश कर जाते हैं व उस समय पत्तियाँ स्वतः ही झड़ जाती हैं तब बेर को पानी की आवश्यकता नहीं के बराबर होती है।
भूमि
बेर की बागवानी विभिन्न प्रकार की भूमि जैसे उथली, गहरी, कंकरीली, रेतीली, चिकनी आदि में की जा सकती है। इसके अतिरिक्त लवणीय, क्षारीय दशा में भी उगने की क्षमता रखता है। इसके पौधे 40-50 प्रतिशत विनिमयशील सोडियम (क्षारीय) तथा 12-15 मिलीम्होज प्रति सें.मी. विद्युत् चालकता वाली लवणीय भूमि में सफलता पूर्वक की जा रही है। व्यावसायिक बागवानी के लिये जीवांशयुक्त बलुई दोमट मिट्टी सर्वोत्तम मानी गई है। किन्तु वे क्षेत्र जहाँ की जमीन नीची, रेतीली, उसरीली, बंजर जहाँ अन्य फसलें व फल वृक्ष नही उगाये जा सकते, वहाँ भी सीमित साधनों के साथ बेर की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।
उन्नत किस्में
देश में बेर की लगभग 125 से भी अधिक किस्में उगाई जाती है। इन किस्मों का विकास विभिन्न क्षेत्रों में फल के भौतिक तथा रासायनिक गुणों जैसे फल का रंग, आकार, वजन, मिठास व खटास की मात्रा के आधार पर चयन द्वारा किया गया है। किस्मों के नामकरण की पद्धति एक समान नहीं है। कभी-कभी एक ही किस्म विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न नाम से जानी जाती है जैसे दृ बेर की उमरान किस्म जिसका विकास राजस्थान के अलवर क्षेत्र में हुआ किन्तु यही किस्म दूसरे स्थान पर काठा, कोठी, अजमेरी, चमेली, काठा बाम्बे, माधुरी आदि नामों से जानी जाती है। इसकी प्रकार गोला किस्म विभिन्न जगहों पर देलही गोला, नाजुक, सेब, लड्डू, अकरोटा आदि नामों से प्रचलित हैं।
व्यावसायिक किस्मों का वर्गीकरण फलों के पकने के समय के आधार पर किया गया है। बेर की कुछ किस्में अपने विशेष स्वाद, कुछ आकार व कुछ अधिक पैदावार के लिये प्रसिद्ध हैं।
कृषि विश्वविद्यालयों एवं अनुसंधान केन्द्रों के द्वारा विकसित किस्मों के अध्ययन के आधार पर यह पाया गया है कि मध्य भारत में विशेषकर छत्तीसगढ़ राज्य हेतु सात किस्में गोला, कालीगोरा, बनारसी कड़ाका, कैथिली, मुडिया, मुरहरा, पोंडा, उमराना व एप्पल बेर व्यावसायिक बागवानी के लिये उपयुक्त हैं। इन किस्मों का विवरण निम्नलिखित है।
अगेती किस्में
- गोला- फल का आकार गोल, माप 3.0 x 2.8 सें.मी. प्रति फल औसत भार 16.5 ग्रा., पकने पर रंग हल्का पीला व चमकदार, गूदा 95.2 प्रतिशत मुलायम, रसीला, मीठा, सफेद, कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 15.5 प्रतिशत खटास 0.12 प्रतिशत, विटामिन ‘सी’ 90 मिग्रा. प्रति100 ग्रा. गूदा, औसत पैदावार 80 कि.ग्रा. प्रति पौधा।
- काली गोराः फल का आकार लम्बा, माप 3.5 x 2.8 सें.मी. प्रति फल औसत भार 16.5 ग्रा., पकने पर रंग हल्का पीला व चमकदार, गूदा 95.2 प्रतिशत मुलायम, रसीला, मीठा सफेद कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 15.5 प्रतिशत खटास 0.12 प्रतिशत, विटामिन ‘सी’ 90 मिग्रा. प्रति 100 ग्रा. गुदा, औसत पैदावार 80 किग्रा. प्रति पौधा।
मध्य मौसमी किस्में
- बनारसी कड़ाकाः यह एक प्रसिद्ध किस्म है जिसकी बागवानी देश के अनेक भागों में काफी पहले से होती आ रही है। फल का आकार लम्बा, सिरा गुठल, माप 4.1 x 2.7 सें.मी., प्रति फल औसत भार 17.0 ग्राम, पकने पर रंग भूरापन लिये हुए पीला, छिलका पतला, गूदा 95.5 प्रतिशत, मुलायम, रसीला, मक्खन की तरह सफेद, मीठा, कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 15.0 प्रतिशत, खटास 0.15 प्रतिशत, विटामिन ‘सी’ 128 मिग्रा. प्रति 100 ग्राम गूदा, औसत पैदावार 125 किग्रा. प्रति पेड़।
- कैथलीः फल का आकार लम्बा, माप 3.5 x2.5 सें.मी., प्रति फल औसत वजन 18.0 ग्रा. पकने पर रंग भूरापन लिये हुए पीला, छिलका पतला, गूदा 96.4 प्रतिशत, सफेद, मुलायम, मीठा, कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 15.0 प्रतिशत, खटास 0.16 प्रतिशत, विटामिन ‘सी’ 85 मिग्रा./100 ग्रा. गूदा, औसत पैदावार लगभग 125 कि.ग्रा. प्रति पेड़। यह बारानी क्षेत्र के लिये अच्छी किस्म है।
- मुड़िया मुरहराः फल का आकार लगभग घंटी के आकार की तरह है। माप 4.8x3.0 सें.मी., प्रति फल औसत वजन 25.0 ग्रा. पकने पर रंग पीला, गूदा 95.1 प्रतिशत, मुलायम, मीठा, कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 17.0 प्रतिशत, खटास 0.13 प्रतिशत, विटामिन ‘सी’ 90 मिग्रा. प्रति 100 ग्रा. गूदा, पैदावार लगभग 125 कि.ग्रा. प्रति पेड़।
देर से तैयार होने वाली किस्में
उमरानः यह अधिक पैदावार देने वाली किस्म है। फल आकार में काफी बड़े माप 4.3x3.2 सें.मी., प्रतिफल वजन 24.0 ग्रा., पकने पर रंग भूरापन लिये हुए पीला, छिलका मोटा, गूदा 91.2 प्रतिशत, कुछ सख्त, मक्खनी रंग का तथा खाने में मीठा, कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 15.2 प्रतिशत, खटास 0.21 प्रतिशत, विटामिन ‘सी’ 115 मि.ग्रा. प्रति 100 ग्रा. गूदा, औसत पैदावार लगभग 150 कि.ग्रा. प्रति पेड़।
विदेशी किस्म
एप्पल बेर: यह थाइलैंड बेर की एक किस्म है जिसकी बनावट सेब की तरह होती है। इसे छत्तीसगढ़ की उपोष्ण जलवायु में आसानी से उगाया जा सकता है। एप्पल बेर का पौधा 0 से 50 डिग्री तापक्रम आसानी से सहन कर सकता है। बलोई, दोमट, एवं भाटा भूमि में इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।फल का उत्पादन छः महीने में बाद शुरू हो जाता है तथा साल में दो बार फसलोत्पादन होता है। फल आकार में काफी बड़े माप 4.98x4.42 सें.मी., प्रतिफल वजन 50-100 ग्रा., पकने पर रंग हरा पीला, छिलका मोटा, गूदा 92 से 95 प्रतिशत, कुछ सख्त, सफेद रंग का तथा खाने में मीठा, कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 8.4 -9.0 प्रतिशत, खटास 0.21 से 0.26 प्रतिशत, विटामिन ‘सी’ 65- 68 मि.ग्रा. प्रति 100 ग्रा. गूदा, अपचयित शर्करा 1.82 से 1.87 , पी. एच अम्लीय 4.9 से 5.0 , विशिष्ट धनत्व 0.34 से 0.45, औसत पैदावार लगभग 150 कि.ग्रा. प्रति पेड़। पौधो द्वारा फल नवम्बर से दिसम्बर माह में प्राप्त होना शुरू हो जाते है।प्रथम वर्ष प्रति पौधा 20 -25 किलों फल, दूसरे वर्ष से प्रति वर्ष 30-50 किलों एवं तृतीय वर्ष 70-100 किलों उचित प्रबंधन की दशा मे प्राप्त होता है।
प्रर्वधन
व्यावसायिक दृष्टि से बगीचा लगाने के लिये कायिक विधि से तैयार बेर के पौधे ही उपयोग में लाना चाहिए। बेर का प्रवर्धन चश्मा विधि द्वारा किया जाता है। चश्मा की कई विधियाँ जैसे पैबंद चश्मा, ढाल चश्मा व छल्ला चश्मा प्रचलित है। व्यवसायिक तौर पर पौधे बनाने के लिए पैबंद चश्मा (पैच बडिंग) सबसे सफल व प्रचलित विधि है इस विधि से पौध तैयार करने के लिये मूलवृंत (बीजू पौधा) व कलिकायुक्त टहनी (सांकुर) की आवश्यकता पड़ती है।
मूलवृन्त तैयार करनाः मूलवृंत के लिये देशी किस्म के बेर के बीज उपयोग में लाया जाता है। जंगली बेर की कई जातियाँ जैसे- जिजीफस रोटंडीफोलिया, जिजीफास रूगोसा, जिजीफस आइनोप्लिया, जिजीफस नुमूलिरया, जिजीफस जाइलोकार्पा हैं। इन सभी में जिजीफस रोटंडीफोलिया सबसे उपयुक्त है तथा यही उपयोग में लाया जा रहा है। हाल के वर्षो में चल रहे अनुसंधान के आधार पर जिजीफस रोटंडीफोलिया के अतिरिक्त, जिजीफस मोरीशियान किस्म सुखावनी मूलवृंत के रूप में अच्छा परिणाम दे रही है बीज मार्च के महीने में इक्ट्ठा किया जाता है। बीज के लिये पूर्ण पके फल रोग व कीट से मुक्त पेड़ से तोड़कर इक्ट्ठा करते हैं। पके फलों को 2-3 दिन तक पानी में रखा जाता है। ऐसा करने से बेर की गुठली गूदे से आसानी से अलग हो जाती है। बुआई के पहले इन गुठलियों को 17-18 प्रतिशत नमक के घोल में डुबोना चाहिए। जो गुठली पानी में डूब जाये उन्हीं को बुवाई के उपयोग में लाना चाहिए। बुवाई के पहले गुठलियों को 5-6 मिनट के लिये शुद्ध सल्फ्यूरिक अम्ल में डुबो कर तत्पश्चात अच्छी तरह पानी से धोने अथवा 48 घंटे के लिये पानी में भिगोकर बोने से शीघ्र अंकुरण होता है। बेर की एक गुठली में एक से अधिक (दो) बीज होते हैं। अतः गुठली को सावधानी पूर्वक तोड़कर प्रत्येक बीज को अलग भी किया जा सकता है। इस प्रकार गुठली से अलग किये गये बीज एक सप्ताह के अंदर ही अंकुरित हो जाते हैं। मूलवृंत क्यारियों मेंतैयार किया जा सकता है। इस विधि से मूलवृंत के लिये बीज की बुवाई क्यारियों में अप्रैल के प्रथम पखवारे तक कर दिया जाता है। बीज 30 सें.मी. की दूरी पर कतारों में 5 सें.मी. बीज से बीज की दूरी रखकर करते है। बीज की गहराई 2-3 सें.मी. रखी जाती है। बुवाई के समय क्यारी में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक होता है। बुवाई के बाद क्यारी को घास-फूस की परत से ढककर फौहारे से आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहते हैं। बुवाई से लगभग 40 दिन पश्चात कमजोर व सघन पौधों की छटाई करके कतार में पौधों के आपस की दूरी लगभग 20 सें.मी. रखी जाती है। समय-समय पर निराई-गुड़ाई, व सिंचाई करते रहते है। इस तरह क्यारियों में तैयार किये गये पौधे 80-90 दिनों पश्चात लगभग पेंसिल के बराबर मोटाई (0.5 सें.मी.) के हो जाते है जो चश्मा चढ़ाने के लिये उपयुक्त होते हैं।
सांकुर का चयन
पौध तैयार करने के लिए कली का चयन महत्वपूर्ण है। सांकुर टहनी का चयन किस्म के अनुरूप लगातार कई वर्षो से अच्छी फलत वाले वृक्ष से किया जाना चाहिए। टहनी 2-3 माह पुरानी तथा स्वस्थ व मोटी वानस्पतिक कलियों से युक्त होनी चाहिए। कली के लिये इस प्रकार की टहनी को मातृ वृक्ष से 15-20 सें.मी. की लम्बाई तक काटकर अलग कर लिया जाता है। एक टहनी पर 5-6 स्वस्थ कलियाँ मिल जाती हैं। जून माह में आवश्यकतानुसार सांकुर शाख हेतु अप्रैल में मातृ वृक्षों की गहरी छंटाई कर सिंचाई कर देनी चाहिए व कटाई-छंटाई विलम्ब से करने पर परिपक्व सांकुर शाखाएं आवश्यक मात्रा में नही उपलब्ध हो पाती। बेर में मध्य अगस्त से फूल की शुरुआत हो जाती है। फूल आने के बाद चश्मा हेतु कलिका सुगमता पूर्वक नहीं निकल पाती। अतः मध्य अप्रैल से 15 दिन के अतंराल पर कटाई-छंटाई करते रहने से आवश्यकतानुसार सांकुर शाखें प्राप्त होती रहेंगी। यदि कलिकायन के लिये सांकुर टहनी को दूर भेजना हो तो इन टहनियों को नम स्फेगनम माँस घास में लपेटकर पोलीथीन की थैलियों में बंद कर के आसानी से भेजा जा सकता है। इस प्रकार की टहनी 2-3 दिन तक स्वस्थ दशा में बनी रहती है।
कलिकायन करना (चश्मा चढ़ाना)
चश्मा चढ़ाने के लिए पैबंदी या विरूपित पैबंदी विधि अपनाना चाहिए। चश्मा चढ़ाने का कार्य 15 जून से 15 सितम्बर तक अच्छी सफलता के साथ किया जा सकता है। तैयार मूलवृंत पर चश्मा की क्रिया भूमि सतह से 15 सें.मी. की ऊँचाई पर किया जाता है। अधिक ऊँचाई पर कलिकायन से कलियों के फुटाव में कमी तथा अच्छा विकास नहीं होता है। पैबंदी चश्मा विधि के लिये मूलवृंत पर उचित ऊँचाई पर आयताकार निशान (2.5-3 सें.मी. लम्बा व तने की आधी मोटाई तक) तेज चाकू से लगाकर छिलके को आयत के आकार में निकाल दिया जाता है।
प्रत्यारोपित किस्म की समान आकार वाले कली सांकुर टहनी से सावधानी पूर्वक निकाल कर मूलवृंत पर बनाये गये स्थान पर अच्छी तरह बैठा दिया जाता है। टहनी पर यदि पत्तियाँ हो तो पत्तियों को इस तरह निकालें कि पत्ती की डंठल न टूटें। कलिका को बैठाने के बाद पोलीथीन की पट्टी से कसकर बाँधा जाता है। बाँधते समय ध्यान रहे कि कली की आँख खुली रहे। चश्मा चढ़ाने के बाद मूलवृंत का ऊपरी कुछ हिस्सा काटकर निकाल दिया जाता है इससे कली के विकसित होने में सहायता मिलती है। जैसे ही कली का विकास शुरू हो जाय, जुड़ाव बिंदु के ऊपर से मूलवृंत का शेष भाग पूरी तरह सिकेटियर से काटकर निकाल दिया जाता है। प्रत्यारोपित कलिका जब 8-10 पत्तियों वाली टहनी बन जाय तो पौधे स्थानांतरण योग्य हो जाते है। कलिकायन की इस विधि से लगभग 90 प्रतिशत तक सफलता मिलती है। चश्मा चढ़ाने के बाद मूलवृंत पर जुड़ाव बिंदु से नीचे जितनी भी कलियाँ निकल रहीं हो, उन्हें समय-समय पर निकालते रहते हैं।
कलमी पौधों की देख-रेख
पौधशाला में जब कलमी पौधों पर 10 से अधिक पत्तियाँ हो जाती हैं तो इस अवस्था के पौधों को अधिक दिन रखना उचित नहीं है तथा ऐसे पौधों में स्थानांतरण पश्चात मृत्युदर अधिक होती है। इस अवस्था के पौधों की सांकुर टहनी की वृद्धि तेजी से होती है। परिणामस्वरूप जड़ व शाखा का अनुपात बिगड़ जाता है। यदि इन पौधों को पौधशाला में रखना आवश्यक है तो इनकी उचित काट-छांट तथा पौधशाला में स्थान परिवर्तन आवश्यक है। इसके लिये अक्टूबर के महीने में कलमी पौधों की जुड़ाव बिंदु से 30 सें.मी. की ऊँचाई के बाद की शाखा को काटकर निकाल देते हैं जिससे पौधों की वृद्धि में कमी हो जाती है तथा जड़ व शाखा का अनुपात भी उचित बना रहता है। इस तरह रखरखाव से इन पौधों को आने वाली पौध रोपाई के मौसम (फरवरी-मार्च) में किया जा सकता है। इसके लिये जुड़ाव बिंदु से 10 सें.मी. की ऊँचाई से पौधों को काट देते हैं। ऐसा करने से कई नई शाखा निकलते हैं। इनमें से एक स्वस्थ व सीधी शाखा को रखकर उचित संधाई करते हैं तथा शेष को निकाल देते हैं।
शीर्ष रोपण
गाँव के आस-पास, बंजर जमीन, सड़कों के किनारे आदि स्थानों पर बहुत बड़ी संख्या में देशी बेर (जंगली बेर) के पौधे प्रायः दिखाई देते है। इस तरह के पेड़ पर आकार में छोटे व घटिया गुणों वाले फल लगते है। इस प्रकार अनुपयोगी देशी बेर के वृक्षों को शीर्ष रोपण विधि अपनाकर उपयोगी बनाया जा सकता है। शीर्ष रोपण के लिये इन देशी वृक्षों की मुख्य शाखायें एक मीटर लम्बी रखकर पूरी तरह काट दी जाती है। शाखाओं की कटाई का कार्य अप्रैल-मई के महीने में करते हैं। कटाई के 15-20 दिन पश्चात मुख्य शाखाओं पर कई नई शाखाएँ निकलती हैं। प्रत्येक मुख्य शाखा पर एक स्वस्थ टहनी को रखकर शेष निकाल देते हैं। ये टहनियाँ जुलाई-अगस्त तक कलिकायन के लिए तैयार हो जाती है। इन टहनियों पर अपनी पसंद की किस्म की सांकुर कली चयन कर कलिकायन किया जाता है। कलिकायन के लिए पैबंद चश्मा विधि उपयोग में लाई जाती है इस तरह अनुपयोगी वृक्ष 2 वर्षो में उपयोगी बन जाता है तथा इससे जो फल प्राप्त होते हैं, वे उच्च कोटि के होते है।
बगीचे की स्थापना
खेत की तैयारी
जहाँ तक संभव हो, खेत को समतल कर लें ताकि वर्षा ऋतु में जल भराव न हो। यदि भूमि भाठा, उसरीली, पड.ती या बंजर है तो हरी खाद द्वारा भी जीवांश की मात्रा बढ़ाकर भूमि को उपजाऊ बनाया जा सकता है। बारानी क्षेत्र में मेडबंदी आवश्यक है ताकि वर्षा के जल का समुचित उपयोग हो सके।
रोपण विधि
फलदार वृक्ष प्रायः वर्गाकार विधि द्वारा लगाये जाते हैं। जहाँ लाइन से लाइन तथा पौध से पौध की दूरी समान होती है। पौधों के आपस की दूरी भूमि की दशा पर भी निर्भर करती है। उपजाऊ मिट्टी में दूरी अधिक तथा अनुपजाऊ या उसरीली मृदा में दूरी कम रखी जाती है क्योंकि पौधों का विकास कम होता है। बेर का बगीचा 6x6, 7x7, 8x8 मीटर की दूरी पर प्रबंधन के आधार पर लगाया जाना चाहिए। एपल बेर को 3x3 से 5x5 मीटर पर लगाना अनुशंसित किया गया है। साथ आँवला या अमरुद पूरक फसल के रूप में लगाया जा सकता है।
गड्ढे की खुदाई एवं भराई
क्षारीय व लवणीय तथा मुरमयुक्त पथरीली मृदा में इसका विशेष महत्व है। इस तरह की भूमि में 1x1x1 मी. आकार के गड्ढों की खुदाई करके कठोर परत व कंकड़ की परत को तोड़कर निकालना आवश्यक है। जरूरत के अनुसार गड्ढे की गहराई बढ़ाई जा सकती है। यदि मिट्टी उपजाऊ है तो गड्ढे की दो तिहाई ऊपर की मिट्टी 50 कि.ग्रा. गोबर की खाद 50 ग्रा. क्लोरापायरीफास चूर्ण या 50 ग्राम फोरेट/कार्बाफयूरान ग्रेन्यूल का उपयोग चीटिं एवं दीमक से रक्षा करने हेतु उपयोग किया जाता है।
पौधा रोपण
बेर की बागवानी प्रायः शुष्क अर्ध शुष्क क्षेत्रों में की जाती है जो पूरी तरह वर्षा पर आधारित है इसलिए पौध स्थानांतरण वर्षा ऋतु (जुलाई-सितम्बर) में किया जाता है। नर्सरी से पौध निकालते समय ध्यान रखे कि जड़ों को कम से कम क्षति पहुंचे। यदि पौध पालीथीन की थैली उगाये गये है तो थैली को फाड़कर निकाल दें। सिंचाई की सुविधा होने की दशा में बेर के पौधे जनवरी-फरवरी में भी लगाये जा सकते हैं। इस समय रोपाई के लिए पौधों के साथ मिट्टी की पिंडी के साथ पौध निकालने की आवश्यकता नहीं होती। इस तरीके से लगाने में स्थानांतरण सफलता भी अच्छी है तथा पौधे दूर स्थान भेजने में खर्च भी बहुत कम हो जाता है। पौध सदैव शाम के समय लगाना चाहिए तथा रोपाई पश्चात हल्की सिंचाई अवश्य करें।
संधाई एवं कटाई छटाई
प्रारम्भिक अवस्था में स्वस्थ ढाँचा बनाने हेतु पौधों की कटाई-छंटाई आवश्यक है। ढाँचा प्रदान करने का काम 2-3 वर्ष में पूरा कर लिया जाता है तथा चौथे वर्ष पहली फलत ली जाती है। उचित संधाई के लिए पौध लगाने के पश्चात बांस की डंडियों की सहायता से पौधे को सीधा रखना चाहिए। भूमि से 75 सें.मी. तक की शाखायें निकाल देते हैं तथा इसके ऊपर 4-5 शाखायें, जो चारों दिशाओं में विकसित हों, ढाँचा बनाने के लिए चुनी जाती है। इन्हीं शाखों को पूरे पेड़ के रूप में विकसित किया जाता है।बेर में फूल नई बढ़वार के साथ पत्तियों के कक्ष से निकलती है। अतः स्वस्थ व उचित बढ़वार के लिए प्रति वर्ष नियमित कटाई-छंटाई आवश्यक है। नियमित कटाई न करने से पौधे की फलन शक्ति प्रति वर्ष घटती जाती है तथा फल भी अच्छे गुणों वाले नही मिलते। नियमित छंटाई न करने के कारण अंदर का भाग खाली हो जाता है तथा कुछ ही वर्षो में शीर्ष फलन होने लगती है। कटाई-छंटाई का कार्य फलों की तुड़ाई के पश्चात की जाती है। बेर में कटाई-छंटाई का सबसे अच्छा समय मई महीना है। इस दौरान पौधे पत्ती विहीन होते हैं। यदि बाग कमजोर व कम उपजाऊ भूमि में लगाया गया है तो कटाई के समय एक वर्ष पुरानी शाखाओं का 50 प्रतिशत भाग काटकर निकाल देते हैं। यदि भूमि उपजाऊ हो तो केवल 25-30 प्रतिशत भाग काटा जाता है। कटाई-छंटाई के समय एक दूसरे से रगड़ने वाली, सूखी व रोगी शाखाओं को भी समूल निकाल देना चाहिए। कटाई पश्चात ब्लाइटाक्स कवकनाशी का गाढ़ा घोल बनाकर कटे स्थान पर लगा देते हैं।
खाद एवं उर्वरक
बहुत कम किसान बेर के बगीचे में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग करते है। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे पौधों की उत्पादन क्षमता घटती जाती है। समुचित वृद्धि व लगातार अच्छे उत्पादन के लिए प्रतिवर्ष खाद एवं उर्वरक को निम्न मात्रा डालने की सिफारिश की जाती है।खाद एवं उर्वरकों की आवश्यकता क्षेत्र विशेष की मिट्टी की उर्वरता शक्ति के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकती है तथा पौधों की आयु पर भी निर्भर करती है फिर भी एक सामान्य जानकारी के लिए खाद एवं उर्वरकों की मात्रा पौधों की उम्र के अनुसार तालिका-1 में दर्शाई गई हैः-
पौधों की आयु (वर्ष ) |
किं ग्रा प्रति पौधा प्रति वर्ष |
ग्राम प्रति पौधा प्रति वर्ष |
||
गोबर की खाद |
सिंगल सुपर फास्फेट |
यूरिया |
म्यूरेट आफ पोटाश |
|
1 वर्ष |
10 |
300 |
220 |
80 |
2 वर्ष |
15 |
600 |
440 |
160 |
3 वर्ष |
20 |
900 |
660 |
250 |
4 वर्ष |
25 |
1200 |
1100 |
350 |
5 वर्ष से ऊपर |
30 |
1500 |
1300 |
400 |
देशी खाद, सुपर फास्फेट व म्यूरेट आफ पोटाश की पूरी मात्रा व नत्रजन युक्त उर्वरक यूरिया की आधी मात्रा जुलाई माह में पेड़ों के फैलाव के हिसाब से अच्छी तरह मिलाकर सिंचाई करें। शेष बची नत्रजन की आधी मात्रा नवम्बर माह में फल लगने के पश्चात देनी चाहिए।
सिंचाई
बेर में एक बार अच्छी तरह स्थापित हो जाने के बाद बहुत ही कम सिंचाई की जरूरत पड़ती है। गर्मी की सुषुप्तावस्था के बाद 15 जून तक अगर वर्षा नहीं हो तो सिंचाई आरम्भ करें ताकि नई बढ़वार समय पर शुरू हो सके। इसके बाद अगर मानसून की वर्षा का वितरण ठीक हो तो सितम्बर तक सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है, सितम्बर में फूल आना शुरू होते हैं और 15 अक्टूबर तक फल लग जाते हैं इस दौरान हल्की सिंचाई करें। इसके बाद अगर सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो तो 15 दिन के अन्तर पर सिंचाई कर सकते हैं। किस्म विशेष के सम्भावित पकने के समय से 15 दिन पहले सिंचाई बन्द कर देनी चाहिए ताकि फलों में मिठास व अन्य गुणों का विकास अच्छा हो सके।
पौध संरक्षण
बेर में लगने वाले प्रमुख कीट एवं रोग निम्नानुसार है ।
कीट एवं उनका नियंत्रण
फल की मक्खी
यह बेर की सबसे हानिकारक कीट है। इस कीट का प्रकोप फल बनने के बाद (सितम्बर-अक्टूबर) में होता है जो फलों की तुड़ाई तक बना रहता है। सुंडी की अवस्था में फल के अंदर रहता है तथा गूदे को खाता है। प्रभावित फल समानरूप से नहीं बढ़ते तथा देखने में बेडौल दिखाई देते हैं। इसकी रोकथाम के लिए नवम्बर से आरम्भ में जब फल लग जाए (मटर के आकार के हों) तब पौधों पर 1500 मिली.मेटासिस्ट्रोक्स 30 ई.सी. या 12.50 मिली. रोगार को 1250 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव किया जाता है। यह मात्रा एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए पर्याप्त है। गर्मियों में बाग की जुताई भी इसके प्रकोप को कम करने में सहायक है।
छाल खाने वाली सुंडी
कीड़े की सुंडी दिन के समय तने के भीतर सुरंग बनाकर छुपी रहती है तथा रात्रि के समय निकल कर छाल को खाती है। वृक्ष पर पाये जाने वाले जालों को देखकर इसके आक्रमण का पता लगाया जा सकता है। इस कीड़े की रोकथाम के लिए पहले वृक्ष पर पाये जाने वाले सुरंगों का पता लगाया जाता है। सुरंग के आसपास मल द्वारा तैयार जाला को साफ करके सितम्बर-अक्टूबर के महीने में 10 मिली. मोनाक्रोटाफास 30 ई.सी. या मेटासिड 50 ई.सी. को 10 लीटर पानी में घोलकर सुरंग में डाले तथा सुरंग को मिट्टी से बंद कर दें। यही उपचार दुबारा फरवरी-मार्च में दुहरायें। इस उपचार के स्थान पर 10 प्रतिशत मिट्टी का तेल (1 लीटर मिट्टी का तेल + 9 लीटर पानी + 100 ग्राम साबुन का घोल) भी प्रभावकारी पाया गया है।
बेर का बीटल
इसके प्रौढ़ कीड़े की लम्बाई 12-15 मि.मी. तक, रंग हल्का भूरा होता है। यह पत्तियों को खाती है तथा भयंकर प्रकोप की दशा में पेड़ पर पत्तियाँ नाममात्र की बचती है। परिणामस्वरूप उत्पादन बहुत घट जाता है। नियंत्रण के लिए 1250 मि.ली. इंडोसल्फान (थायोडानध्इंडोसेल) 35 ई.सी. या कार्बेरित (4.250 कि.ग्रा. सेबिन 50 प्रतिशत घु.पा.) या मैलाथियान (750 मि.ली. मैलाथियान 50 ई.सी. को 1250 लीटर) पानी में घोलकर पेड़ों पर छिड़काव करते हैं। यह मात्रा एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए पर्याप्त है।
लाख कीट
इसके कीट शाखाओं का रस चूसते हैं। जिससे धीरे-धीरे शाखायें सूख जाती है। प्रभावित शाखाओं को काटकर जला देते हैं। पूर्ण नियंत्रण के लिए 0.1 प्रतिशत रोगार का छिड़काव उपयोगी है।
रोग एवं उनका नियंत्रण
चूर्णी फफूंद
यह बहुत ही घातक रोग है। इस रोग का प्रकोप अक्टूबर-नवम्बर में शुरू होता है। इस रोग से फसल को काफी हानि पहुंचाती है। इस रोग के प्रकोप से पत्तियों व फलों की सतह पर सफेद पाउडर की परत दिखाई देती है, जिससे फलों का विकास रुक जाता है तथा फल देखने में गंदा दिखाई पड़ता है। भयंकर प्रकोप की दशा में फल झड़ने भी लगते हैं। इस बीमारी के शुरुआत होते ही केराथेन 0.1 प्रतिशत या 0.2 प्रतिशत सल्फेक्स के घोल का छिड़काव पौधों पर करें। पन्द्रह दिन के अंतर पर यही छिड़काव दुहरायें।
पत्तियों के काले धब्बों वाला रोग
यह रोग आइसरियाप्सिस नामक फफूंद से होता है। इसकी शुरुआत सितम्बर-अक्टूबर में होती है। इस रोग से पत्तियों के निचली सतह पर गहरे रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं कभी-कभी पत्ती की निचली सतह काली दिखाई पड़ती है। इस रोग के निदान के लिए पौधों पर 0.3 प्रतिशत कॉपर आक्सीक्लोराइड नामक कवकनाशी का छिड़काव उपयोगी है।
फल सडन रोग
यह रोग कई प्रकार के फफूंदी जैसे अल्टरनेलिया स्पीशीज, फोमास्पीशीज, पेस्टालोशिया स्पीशीज आदि से फैलती है। इस रोग के प्रकोप से फल के निचले हिस्से पर हल्के भूरे रंग के धब्बे दिखाई पड़ते है जो धीरे-धीरे पूरे फल पर दिखाई देने लगता है। धब्बों के ऊपर छोटे-छोटे काले धब्बे भी दिखाई देते है। कभी-कभी इन धब्बों पर गहरे भूरे रंग के छल्ले भी दिखाई देते हैं। इस रोग के नियंत्रण के लिए 0.2 प्रतिशत ब्लाइटौक्स कवकनाशी का छिड़काव रोग के लक्षण दिखाई देते ही करना लाभदायक है।
फलों की तुड़ाई
बेर नियमित फल देने वाला फल वृक्ष है। कलिकायन द्वारा तैयार पौधे से चैथे वर्ष फल लिया जाता है। फलों की तुड़ाई उत्तरी भारत में किस्म के अनुसार फरवरी से अप्रैल तक चलता है। दक्षिण भारत में तुड़ाई का मौसम नवम्बर से जनवरी का महीना है।पौधे पर सभी फल एक समय पककर नहीं तैयार होते। अतः तुड़ाई 4-5 बार में की जाती है। तुड़ाई परिपक्वता अवस्था पर ही करनी चाहिए। इसकी पहचान के लिए फल जब अपनी किस्म के अनुरूप रंग का हो जाय तब तोड़े जाने चाहिए। अधपके फलों का बाजार भाव ठीक नहीं मिलता। इस अवस्था में फलों की भंडारण क्षमता भी कम होती है। अतः फलों की तुड़ाई सही समय पर करना आवश्यक है। तुड़ाई हाथ द्वारा की जाती है। डंडे आदि का उपयोग करने पर फलों को चोट पहुंचती है। साथ ही फल को अच्छी दशा में लम्बे समय तक बनाये रखने के लिए फलों की तुड़ाई सुबह या शाम के समय करनी चाहिए।तुड़ाई उपरांत अच्छे बाजार भाव व लम्बे समय तक भंडारण के लिये फलों का वर्गीकरण आवश्यक है। अतः तुड़ाई के समय किस्म के अनुसार ल अलग-अलग रखा जाता है। इसके बाद फलों को उसके रंग व आकार के अनुसार छंटाई की जाती है। छंटाई उपरांत फलों को बांस की टोकरियों या लकड़ी या गत्ते के डिब्बों में बाजार भेजा जाता है।
उपज
यह एक तेजी से बढ़ने वाला फल वृक्ष है तथा इसकी पहली फसल दो से तीन वर्ष बाद प्राप्त होती है। इसे लगाने का प्रति इकाई खर्च अन्य फल वालीफसलों की तुलना में बहुत कम है किन्तु आय अधिक होती है। इसके पौधे प्रति वर्ष अच्छी पैदावार देते है। वानस्पतिक विधि से तैयार 8-10 वर्ष के एक पेड़ से किस्म के अनुसार 100-200 किग्रा. तक फल प्रति वर्ष आसानी से मिल जाता है। इस प्रकार प्रति हेक्टेयर बेर के फसल से प्रतिवर्ष 40-50 हजार रूपये आसानी से कमाया जा सकता है।इसकी विदेशी किस्म एपल बेर के पौधो द्वारा फल नवम्बर से दिसम्बर माह में प्राप्त होना शुरू हो जाते है। एपल बेर के द्वारा प्रथम वर्ष प्रति पौधा 20 - 25 किलों फल, दूसरे वर्ष से प्रति वर्ष 30- 50 किलों एवं तृतीय वर्ष 70-100 किलों उचित प्रबंधन की दशा मे प्राप्त होता है। एपल बेर की खेती कर किसान भाई प्रति वर्ष औसत 20 रूप्ये प्रति किलो की दर से बेचकर एक हेक्टेयर से 1.5 लाख रूपये तक कमा सकते है।
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