सुरेश कुमार साहू (पीएचडी स्कॉलर) पादप रोग विज्ञानविभाग
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर (छ.ग.)
हमारे देश में धान का खाद्य फसलो में एक महत्वपूर्ण स्थान है और यह कार्बोहाइड्रेट का मुख्य स्रोत है। धान की फसल को बहुत से सूत्रकृमि प्रजातियाँ सक्रंमित करती है, जैसे जड़ गांठ सूत्रकृमि(मेलोइडोगायनी ग्रेमिनिकोला),उफरा रोग (डिटीलेंकस एंगस्टस), सफ़ेद पत्ती रोग (एफेलेन कोइड्सबेसेई), धान जड़ सूत्रकृमि (हार्समैनिएला ओराइजी), धान तना सूत्रकृमि (डिटीलेंकस एसपीपी), धान सिस्ट सूत्रकृमि (हेटेरोडेरा एसपीपी) इत्यादि। दुनिया के सभी कम वर्षा वाले क्षेत्रों में कुछ निमेटोड प्रजातियां जैसे कि प्रटिलेकंस स्पीसीज सबसे खतरनाक है। सूत्रकृमि के द्वारा धान की फसल में 25 प्रतिशत वार्षिक उपज हानि होती हैं।
1. सफ़ेद पत्ती(व्हाइट टिप) रोग
धान की सफ़ेदपत्ती(व्हाइट टिप) बीमारी एफेलेनकोइड्सबेसेई नामक सूत्रकृमि द्वारा होती है।धान में पत्तियों के शीर्ष भाग पर कीट के भोजन के कारण पत्ती का ऊपरी 3-5 सेमी भाग सफेद हो जाता है, जिसके कारण परिगलन (नेक्रोसिस) हो जाता है, जिसे "व्हाइट टिप" कहा जाता है।इस बीमारी को भारत में सर्वप्रथम दस्तूर ने वर्ष 1934 मे मध्य प्रदेश से खोजा था। इसके बाद इस बीमारी को जापान से भी वैज्ञानिकों ने खोज निकाला । जापान में धान की इस बीमारी को पैदा करने वाला सूत्रकृमि अफलेन्कोइड्स आरोही है। अन्त में 1952 मे ऐलन ने इस सूत्रकमि का नाम अफलेन्कोइड्स बेसेई रखा।
बीमारी का फैलाव
यह बीमारी जापान व भारत में बहुतायत से पायी जाती है, है, लेकिन यह बीमारी दक्षिणी अफ्रीका, दक्षिणी आस्ट्रेलिया में भी पायी जाती है। भारत में यह बीमारी उत्तर-प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, बिहार, उडीसा, केरल आदि धान की खेती खेती करने करने वाले वाले राज्यों राज्यों में पाई जाती है।
पोषक फसलें
यह बीमारी मूलरूप से धान की फसल में होती है, लेकिन बीमारी का जनक सूत्रकृमि कुछ खरपतवारों पर भी अपना जीवनचक्र पूरा कर लेता है।
जीवन चक
सूत्रकृमि की चौथी अवस्था का डिम्बक धान के तुर व दाने के मध्य मे सुसुप्ता अवस्था में बहुत दिनों तक बिना कुछ खाये बना रहता है। अगर इस प्रकार के धान का बीज को खेत में बोया जाता है, तो बीमारी स्वस्थ खेत में पहुच जाती है। और सुसुप्ता अवस्था का डिम्बक भूमि से नमी प्राप्त कर सक्रिय अवस्था में आ जाता है, जो कि प्रथम कलिका से अपना भोजन लेते हुए पुष्प अंगों तक पहुंच जाता है। पौधे की नम अवस्था सूत्रकृमि के विकास में सहायक होती है।
रोग की उत्पत्ति
धान की फसल की नवोदभिद जडो में सूत्रकृमि के डिम्बक प्रवेश कर जाते हैं। जहों वे अपना भोजन कुछ समय तक ग्रहण करते रहते हैं। द्वितीय अवस्था में डिम्बक पौधे की प्रथम विकासशील कलिका पर रहते हुए अपना भोजन ग्रहण करते हैं तथा पुष्प अंगों तक पहुच जाते हैं। जहां वे पूर्ण विकसित अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं। सुसुप्ता अवस्था में सूत्रकृमि कई वर्षों तक धान के तुर केनीचे छिप कर अगली फसल से अपना भोजन करता रहता है और अपना जीवन चक्र पूरा करता है, तथा फसलों के पक जाने पर पुनः चौथी अवस्था के डिम्बक में बदल कर सुसुप्ता अवस्था में पहुंच धान के दाने में बना रहता है।
मुख्य लक्षण
- धान की सफ़ेदपत्ती रोग एक बीज जनित सूत्रकृमि रोग है। धान की नर्सरी तथा फसल में बीमारी के निम्न लक्षण दिखाई देते हैं।
- नर्सरी में पौधे बौने रह जाते हैं।
- बीज का अंकुरण देरी से होता है।
- पत्तियों का 3-5 सेमी ऊपर भाग सफेद या पीला हो जाता है।
- कल्ले कम निकलते हैं।
- धान के पौधे की प्रथम पत्तियां छोटी होकर सिकुड़ जाती है।
- पौधों में दानों की संख्या कम हो जाती है या फिर बिल्कुल नहीं बनते हैं।
प्रबंधन
- सूत्रकृमि मुक्त बीज का उपयोग करके और सूत्रकृमि मुक्त क्षेत्रों में बीजाई करके इसके प्रकोप से बचा जा सकता है।
- धान के बीज का गर्म पानी से उपचार प्रभावी तरीका माना जाता है, जिसे तमिलनाडु में बहुतायत से उपयोग में लाया जाता है।
- बीज के बोने से पहले एक हिस्सा बीज व दो हिस्सा पानी एक बर्तन मे लेकर 52-55 डिग्री सेल्सियस पर 10-15 मिनट तक गर्म करें, साथ ही पानी को किसी लम्बी लकडी से हिलायें बीज को छाया में सुखा लें, जिससे सुसुप्ता अवस्था वाला सूत्रकृमि सक्रिय अवस्था में आ जाय व भोजन की कमी से मर जाय।
- फसल कटाई के बाद खेत में बचे बीज, खरपतवार, मलबे जैसे संक्रमित स्रोत को नष्ट कर देना चाहिए।
- धान के बीज को कार्बोफ्यूरान, फेनसल्फोथियान या एल्डीकार्व आदि दवाओं (0.1 प्रतिशत) की दर से उपचारित करना उत्तम रहता है।
2. धान जड़सूत्रकृमि
धान का जड़ सूत्रकृमि हिस्चमेनेला ओराइजी नामक सूत्रकृमिद्वारा उत्पन्न किया जाता है। ये सूत्रकृमि धान के पौधों की जड़ों में प्रवेश कर जड़ के अन्दर ही रहकर अपना जीवन चक्र पूरा करता है तथा जड़ों से ही अपना भोजन ग्रहण करता है।
रोग से हानि
यह रोग हिस्चमेनेला की ज्ञात बाइस प्रजातियों में से हिस्चमेनेला ओराइजी नामक प्रजाति द्वारा पैदा किया जाता है। इस सूत्रकृमि को धान कीमेनटेक बीमारी के कारक के रूप में भी जाना जाता है। यह सूत्रकृमि पौधों की जड़ों में प्रवेश कर अन्दरही अन्दर नलिकायें बनाकर उन्हीं में घूम-घूम करग्रहण करता है तथा अपने जीवन चक्र की सभी किया ये सम्पन्न करता है। इसके द्वितीयअवस्था के डिम्बक अथवा लार्वा जड़ के अन्दर ही अपनी कई अवस्थाओं में ही एक-एक कर अण्डे देते रहते हैं। जो बाद में बदल कर पुनः नये लार्वा मेपरिवर्तित हो जाते हैं।
लक्षण
- सूत्रकृमि के पौधे की जड़ोंमें प्रवेश से भूरे व काले रंग के जड़ोंपर लम्बाई में लीजन बन जाते हैं। जिससे खाद व पानी को अवशोषित करने वाली जड़ों की कोशिकाएं मर जाती है तथा जड़ें जरूरी तत्वों का भूमि से अवशोषण पूरी तरह नहीं कर पाती है।
- जड़ों में सूत्रकृमि के प्रवेश से नलिकायें बन जाती हैं। जो बाद में भूरे व काले रंग की हो जाती है। पौधों की जड़ें गहरे भूरे व काले रंग की जड़ों में परिवर्तित हो जाती हैं।
- पौधे में बाहरी लक्षण सामान्यतः पत्तियों का पीला पड़ना, पौधे का बौना रहना, कल्ले कम संख्या में निकलना, जैसे सूत्रकृमि द्वारा पैदा किये जाने वाले सामान्य लक्षण होते हैं।
- बालियों की संख्या कम हो जाती है।
प्रबंधन
- खेत में कोई भी खरपतवार न उगने दें।
- गर्मियों में पन्द्रह दिन के अन्तराल पर 2 से 3 गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें।
- खेत मे भरपूर कार्बनिक खादों का उपयोग करें।
- कार्बोफुरान 33 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करें।
3. उफरा रोग
धान का यह रोग बेहद नुकसानदाय है। यह रोग डिटीलेंकस एंगस्टसनामक सूत्रकृमि द्वारा पैदा किया जाता है। यह सूत्रकृमि भारत में सर्व प्रथम बटलर द्वारा वर्ष 1913 में धान की फसल में पश्चिम बंगाल (बांग्लादेश) में खोजा गया इस रोग का नाम बटलर के सहायक अफतार रहमान में सम्मान में उफरा रोग रखा गया ।
रोग का फैलाव
यह रोग धान उगाये जाने वाले देशों जैसे बांग्लादेश, भारत, फिलीपीन्स, थाईलैंड, मलेशिया, म्यांमार, मिश्र, मेडागास्कर व अफ्रीका आदि देशों में पाया जाता है। भारत में यह रोग पूर्वी राज्यों व मध्य क्षेत्रों में पाया जाता है।
लक्षण
- रोग का पहला लक्षण 3 माह पुरानी फसल की पत्तियों का पीला पड़ना तथा ऊपरी पत्तियों पर पीली धारियां दिखाई देना है।
- धान की बालियाँ कौथ में ही दबी रह जाती है।
- बालियों में दाने नहीं बनते हैं तथा बालियां का डंठल भूरे रंग का होता जाता हैं।
- रोग की तीव्रता पानी से भरी हुई फसल में ज्यादा होती हैं।
प्रबंधन
- कटे हुए धान की फसल के भूमि में बचे हुए जड़ वाले हिस्से को मिट्टी पलटने वाले हल से निकाल कर जला दें।
- जूट और सरसों की फसल उगाकर फसल चक्र अपनावें।
- खेत में संतुलित उर्वरक का प्रयोग करें और नाइट्रोजन के अत्यधिक प्रयोग से बचें।
- 100 पी.पी.एम. एलडीकार्ब का घोल बनाकर भूमि व फसल पर छिडकें।
4 जड़ गांठ सूत्रकृमि
धान का यह जड़ गांठ सूत्रकृमिमेलोइडोगायनी ग्रेमिनिकोलानामक सूत्रकृमि द्वारा होता है। यह रोग बेहद नुकसानदायक है।यह सूत्रकृमिधान की नर्सरियों, वर्षा आधारित उच्चभूमि धान और निम्नभूमि धान में पाया गया है, लेकिन गहरे पानी, सिंचित चावल उत्पादन प्रणालियों में भी व्यापक रूप से पाया जाता है। मेलोइडोगायनी ग्रेमिनिकोलाके कारण उपज का नुकसान रोग की गंभीरता और खेती के आधार पर 28-87 प्रतिशत तक होता है।
लक्षण
- जड़ों पर विशेषता हुक जैसे गांठे।
- नये उभरते पत्ते, विकृत और किनारे मुड़े होते है।
- पीलेपन से साथ छोटे पौधे।
- भारी सक्रंमित पौधे, फूल जल्दी पक जाते हैं।
- फूटाव कम होना।
- बाली छोटी और कम दाने।
प्रबंधन
- हमेशा जलमग्न स्थितियों में फसल को रखें।
- रोगरोधी किस्म जैसे टी के एम-6, मनोहर, पटनाई, इत्यादि लगाना चाहिए।
- कृषि क्रिया नियंत्रण, लगातार बाढ़ की स्थिती रखें, चावल की पनीरी को जल प्लावित स्थान पर उगाना और फसल चक्र। इन पद्धतियों से निमेटोड द्वारा जड़ पर आक्रमण को रोकने में मदद मिलती है।
- खेतों की तैयारी से पहले 3 सप्ताह के लिए मृदा सौर्यीकरण, 50-100 स्पष्ट पालिथीन शीट्स से।
- जड़ गांठ सूत्रकृमिको बायोकंट्रोल एजेंट पेसिलोमाइसेस लिलासिनस , पेस्टुरिया पेनेट्रांस और जुग्लोन से नियंत्रित किया जा सकता है ।
- धान के बीजों को कार्बोफुरान 0.1 प्रतिशत में 12 घंटे भिगोने से सूत्रकृमि प्रजनन कम हो जाता है।
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