डॉ. जी. के. निगम एवं डॉ. एस. पी. सिंह
कृषि विज्ञान केंद्र, बलरामपुर, इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, छत्तीसगढ
डॉ. आशीष केरकेट्टा
कृषि महाविद्यालय एवं अनुशंधान केंद्र, 
कोरबा, इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, छत्तीसगढ

प्राकृतिक खेती एक रसायन मुक्त खेती है। इस प्रकार के खेती में केवल प्राकृतिक आदानों का उपयोग किया जाता है। प्राकृतिक खेती कृषि की प्राचीन पद्धति है। प्राकृतिक खेती देशी गाय पर आधारित कृषि पद्धति है, जिसमें एक गाय से लगभग 30 एकड की खेती की जा सकती है। प्राकृतिक खेती देशी गाय के गोबर एवं गोमूत्र पर आधारित है। यह भूमि के प्राकृतिक स्वरूप को बनाए रखती है। प्राकृतिक खेती में रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक का उपयोग नहीं किया जाता है। इस प्रकार की खेती में जो तत्व प्राकृति में पाए जाते है, उन्हीं को खेती में उर्वरक व कीटनाशक के रूप में उपयोग किया जाता है। प्राकृतिक खेती में फसलों को पोषण तत्व की आपूर्ति हेतु जीवाणु खाद, देशी प्रजाति के गौवंष के गोबर एवं मूत्र से जीवामृत, घनजीवामृत तथा बीजामृत, गोबर की खाद, कम्पोस्ट, फसल अवशेष आदि से किए जाते है। इनका खेत में उपयोग करने से मिट्टी में पोषण तत्वों की वृद्धि के साथ -साथ जैविक गतिविधियों का विस्तार होता है।

प्राकृतिक खेती का महत्व
  • मिट्टी की उर्वरता का संरक्षण
  • खेती की लागत में कमी
  • कुल आय में वृद्धि
  • मानव स्वास्थ्य की सुरक्षा
  • मिट्टी की जल धारण क्षमता (जल संचय) में वृद्धि
  • भूमि का कटाव को रोकना
  • पर्यावरण की सुरक्षा
  • प्राकृतिक कठिनाईयों से रक्षण

प्राकृतिक खेती का उद्देश्य
  • मृदा उर्वरता एवं उत्पादकता में वृद्धि।
  • उत्पादन लागत में कमी तथा फसल उत्पादन में वृद्धि।
  • प्राकृतिक कृषि आदानों का प्रयोग।
  • मानव व पशुधन स्वास्थय एवं जोखिम में कमी।
  • कृषि परिश्थितिकी एवं जैव विविधिता में सुधार।

प्राकृतिक खेती के अवयव
  • बीजामृत: बीज संस्कार
  • जीवामृत, घन जीवामृतः पोषक तत्व
  • ब्रह्मास्त्र, नीमास्त्र व अग्नि अस्त्रः पौधों की सुरक्षा
  • आच्छादन: सूक्ष्म जलवायु प्रबंधक
  • वाफसा: जल प्रबंधक

बीजामृत
प्राकृतिक खेती के अन्तर्गत ’बीजामृत’ में बीज का शोधन किया जाता है। इससे बीजोपचार करने से बीजों की अंकुरण क्षमता बढ़ने के साथ-साथ किसान का बहुत-सा धन अपव्यय हाने से बच जाता है। बीजामृत को किसान अपनें घर पर आसानी से तैयार कर सकता है। बीजामृत से बीजोपचारित करने के निम्नलिखित लाभ हैः
  • बीजों की अंकुरण क्षमता बढ़ती है।
  • बीज की सुशुप्तावस्था जल्दी टूटती है।
  • बीजों में एक समान अंकुरण होता है।
  • प्रारम्भिक अवस्था से ही मौसमी कीटों और रोगों से बचाव होता है।
  • स्वस्थ पौधे उगते है।
  • मिट्टी जनित रोगों से पौधों का बचाव होता है।
  • जड़े तेजी से बढ़ती है।
  • बीज से कीड़ों को हटाना।
  • फंगस/वायरस को रोकता है।

बीजामृत बनने की विधिः 
20.0 लीटर पानी में 5.0 लीटर गौमूत्र, 5.0 कि.ग्रा. देशी गाय का गोबर (ताजा या 3 दिन से अधिक पुराना नहीं), 50.0 ग्राम चूना, 50.0 ग्राम सजीव मृदा इन सभी को मिलाकर घोल तैयार करें। फिर उनको लकड़ी की डण्डी से घडी की सुई की दिशा में धीरे-धीरे घुमाते हुये मिलाएं। इसको 24 घण्टे के लिए छाया में बोरी से ढककर रखें। इस घोल को 24 घण्टे रखने के बाद बीजों पर छिड़काव करें। बीजामृत का उपयोग 100.0 कि.ग्रा. बीजों के उपचार के लिए किया जाता है।

जीवामृत
जीवामृत एक प्रभावशाली जैव उर्वरक, पौध वृद्धि नियामक तथा हार्मोन है जों फसल के सभी चरणों में विकास और पैदावार बढ़ाने में मदद करता है यह सूक्ष्मजीवों की संख्या को बढ़ाता है और इन्हें एक अनुकूल वातावरण प्रदान कारता है, जो पौधों को आवश्यक और मुख्य पोषक तत्व (नाइट्रोजन फास्फोरस और पोटाष ) और सूक्ष्म पोषक तत्व प्रदान करतें है। यह मिट्टी में केंचुआ की संख्या को बढ़ाता है जिससे भूमि हमेशा उपजाऊ बनी रहती है। फसल में जीवामृत प्रयोग करने का तरीका भी बहुत आसान है खेत की जुताई के समय, खेत में पानी लगाते समय, ड्रिप सिंचाई के माध्यम से, स्प्रिंकलर के द्वारा, खडी फसल में छिड़काव करके उपयोग किया जा सकता है। इसे सभी अनाज वाली फसलें, दलहनीें, तिलहनी फसलें, सब्जियों एवं फलदार पौधों में प्रयोग किया जा सकता है।

जीवामृत लाभः
  • सूक्ष्म जीवों की संख्या में अविश्वसनीय वृद्धि।
  • मिट्टी को कोमल व उपजाऊ बनाता है।
  • मिट्टी की नमी क्षमता में वृद्धि।
  • जमीन में प्राण वायु की मात्रा में वृद्धि।
  • जमीन में नत्र वायु का स्थापन ।
  • केंचुएं और अन्य उपयोगी जीवों को सक्रिय बनाते है और काम पर लगाते है।

जीवामृत बनाने की विधिः 
10 किलोगा्रम देशी गाय का ताजा गोबर, 10 लीटर देशी गाय का पुराना गोमूत्र, 01-02 किलोगा्रम बेसन, 01-02 किलोगा्रम पुराना गुड़ तथा एक मुट्ठी पीपल या बरगद के पेड़ के नीचे की मिट्टी/फसल की जड़ के पास मेढ़ की मिट्टी को 200 लीटर पानी में अच्छी तरह से लकड़ी की सहायता से मिलाया जाता है। अच्छी तरह से मिलाने के बाद इस ड्रम के मुंह को कपड़े से ढक्कर घोल को छाया में रख दें। एक दिन बाद इस घोल को लकड़ी के डण्डे की सहायता से दिन में दो या तीन बार घड़ी की सुई की दिशा में घुमाते हुये मिलाया जाता है। लगभग 5-6 दिनों तक प्रतिदिन इसी कार्य को करते रहना चाहिए। यह 200 लीटर जीवामृत एक एकड़ भूमि के लिए सिंचाई के साथ देने के लिए पर्याप्त है। जीवामृत तैयार होने के बाद 11-13 दिन तक उसका उपयोग कर सकते है

घन जीवामृत
घन जीवामृत एक जीवामृत का ही एक रूप हे इसमें जीवामृत को गोबर में मिक्स करके कुछ समय के लिये छाव में ढक कर छोड़ दिया जाये जिससे करोडो जैविक जीवाणु इसमें अच्छी तरह फेल जायेंगे इसमें जीवाणु सूक्ष्म अवस्था में होते है।

घन जीवामृत बनाने कि विधिः 
100 किलोग्राम देशी गाय का गोबर लें और उसमें 2 किलोग्राम देशी गुड़, 2 किलोग्राम दाल का बेसऩ, 05 लीटर देशी गाय का मूत्र और 1 किलोग्राम सजीव मिट्टी डालकर अच्छी तरह मिश्रण बना लें। इस मिश्रण में थोड़ा-थोड़ा गौमूत्र डालकर उसे अच्छी तरह मिलाकर गूंथ लें ताकि उसका घन जीवामृत बन जाये। अब इस गीले घन जीवामृत को छाँव में अच्छी तरह फैलाकर सुखा लें। सूखने के बाद इसको लकड़ी से ठोक कर बारीक कर लें तथा इसे बोरों में भरकर छाँव में रख दें। यह घन जीवामृत 6 महीने तक भंडारण करके रख सकते हैं। एक बार खेत जुताई के बाद घन जीवामृत का छिड़काव कर खेत तैयार करें।

नीमास्त्र
नीमास्त्र नीम से बनाये जाने वाला बहुत ही प्रभावी जैविक कीटनाशक है, जोकि रसचूसक कीट एवं इल्ली इत्यादि कीटो को नियंत्रित करने के लिए उपयोग में लाया जाताहै। नीमास्त्र हानिकारक कीड़ों के प्रजनन को नियंत्रित करने में मदद करता है और प्राकृतिक खेती के लिए यह सबसे अच्छा कीटनाशक है।

नीमास्त्र बनाने की विधि: 
ड्रम में 100 लीटर पानी ले उसमें 05 लीटर गौमूत्र, 01 किलो ग्राम देशी गाय का गोबर मिला लें। अब इसमें 05 किलो ग्राम नीम की पत्ती को कूट कर डालें। इस घोल को घड़ी की सुईयों की दिशा में अच्छे से धीरे-धीरे मिलाकर मिश्रण को 48 घण्टे बोरी से ढक कर छाया में रखें। इस मिश्रण को सुबह-शाम लकड़ी की डण्डी से घड़ी की सुईयों की दिशा में 1 मिनट तक घोलें।

ब्रह्मास्त्र
फसलों पर कीट से बचाव के लिए ब्रह्मास्त्र बहुत फायदेमंद होता है। ये बड़ी सूंडी इल्लियों और अन्य कई तरह के कीटों पर नियंत्रण के लिए काम आता है।

ब्रह्मास्त्र बनाने की विधिः 
10 लीटर गोमूत्र लें, उसमें 3 किलो नीम के पत्ते पीसकर डालें। उसमें 2 कि.ग्रा. करंज के पत्ते डालें, यदि करंज के पत्ते न मिलें तो 3 किलो की जगह 5 किलो नीम के पत्ते डालें, उसमें 2 किलो सीताफल के पत्ते़, 2 कि.ग्रा. सफेद धतूरे के पत्ते पीसकर इसमें डालें। अब इस सारे मिश्रण को गोमूत्र में घोलें और ढक कर लगभग 20-25 मिनट तक उबालें। 3-4 उबाल आने के बाद उसे आग से नीचे उतार लें। 48 घंटों तक उसे ठंडा होने दें। बाद में उसे कपड़े से छानकर किसी बड़े बर्तन में भरकर रख लें। 1 एकड़ फसल के लिए 3 लीटर ब्रह्मास्त्र को 100 लीटर पानी में मिलाकर फसल पर छिड़काव करें। इसका प्रयोग केवल 6 महीने तक किया जा सकता है।

अग्नि अस्त्र
अग्नि अस्त्र का प्रयोग पेड़ के तने या डंठलों में रहने वाले कीड़े, फलियों रहने वाली सुंडियो, फलो में रहने वाली सुंडियो, कपास के टिण्डो में रहने वाली सुंडियो, रस चूसने वाले कीड़े, छोटी सुंडी के नियंत्रण में किया जाता है।

अग्नि अस्त्र बनाने की विधिः 
सर्वप्रथम अग्नि अस्त्र बनाने के लिए 05 किलो ग्राम नीम के पत्ते को कूटकर 20 लीटर देशी गाय क गोमूत्र में मिलाते हैं, इसके बाद उसमें, 500 ग्राम हरी मिर्च, 500 ग्राम लहसुन की महीन पेस्ट, 500 ग्राम तंबाकू पाउडर को मिलाते हैं, तत्पश्चात मिश्रण को धीमी आंच पर एक उबाल आने तक उबालते हैं। इसके बाद मिश्रण को ढककर 48 घंटे के लिए छाया में छोड़ देते हैं एवं सुबह शाम घड़ी की सुई की दिशा में 5-10 मिनट तक चलाते हैं। इस प्रकार तैयार मिश्रण को कपड़े से छानकर फसल पर छिड़काव करें। 1 एकड़ फसल के लिए 6 से 8 लीटर अग्नि अस्त्र को 200 लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करें। इसको 3 महीने तक भण्डारित कर सकते हैं। 3 माह के बाद इसका प्रभाव कम हो जाता है।

मल्चिंग (आच्छादन)
मल्चिंग या आच्छादन एक ऐसी प्रक्रिया है,जिसमें भूमि की ऊपरी सतह को पौधों के अवशेषों जैसे कि पत्ते, घास, टहनियाँ, फसल के अवशेष आदि सामग्री से ढक दिया जाता है ताकि भूमि की नमी सजीवता और उर्वरा शक्ति सुरक्षित और संरक्षित रहें ।

मल्चिंग (आच्छादन) के लाभ:
  • जमीन में नमी का संग्रह।
  • जमीन के तापमान का व्यवस्थापन ।
  • केंचुओं का अनुकूलन वातावरण मिलता है।
  • केंचुओं का अन्य शत्रुओं से बचाव।
  • खरपतवार नियंत्रण में सहायक।

वाफसाः जल प्रबंधक
प्राकृतिक खेती में पौधें की जड़ को पानी नहीं बल्कि पौधों की जड़ों को केवल नमी की आवश्यकता अर्थात् वापसा की आवश्यकता होती है। भूमि के अंदर मिट्टी के दो कणों के बीच जो खाली जगह होती है, उसमें पानी का अस्तित्व नहीं होना चाहिए बल्कि उस खाली जगह में 50 प्रतिशत वाष्प और 50 प्रतिशत हवा का सम्मिश्रण होना चाहिए। इस स्थिति को वापसा कहते है।

वापसा का निर्माणः 
किसी भी वृक्ष या पौधे पर 12.00 बजे दोपहर में जो छाया पड़ती है, उसकी अंतिम सीमा पर वापसा लेने वाली जड़े होती है। छाया के अंदर वापसा लेने वाली जड़े नहीं होती। जब पानी छाया में भरता है, तब वापसा का निर्माण नहीं होता ,बल्कि जड़े सड़ने लगती है। इस नुकसान से बचने के लिए छाया से बाहर नाली निकालनी चाहिए व तने पर मिट्टी चढ़ानी चाहिए। बीजामृत से बीज संस्कार करने के बाद बीज या पौधे लगाने के बाद जब हम फसलों को या फलों के पेड़ों को सिंचने के पानी के साथ हर महीने में एक बार या दो बार जीवामृत देते एवं भूमि पर आच्छादन कर देने से भूमि के अंदर वापसा निर्माण होता है।