डॉ.गुलाब दास बर्मन, डॉ.देवेन्द्र कुमार साहू, सब्जी विज्ञान, डॉ.मीनाक्षी मेश्राम, कृषि विस्तार
(एमजीयूवीवी) सांकरा पाटन दुर्ग (छ.ग.)

खीरे का वानस्पतिक नाम कुकुमिस सेटाइवस है। खीरे का मूल स्थान भारत है। यह एक बेल की तरह लटकने वाला पौधा है। खीरे के फल को कच्चा, सलाद या सब्जियों के रूप में प्रयोग किया जाता है। खीरे के बीजों का प्रयोग तेल निकालने के लिए किया जाता है जो शरीर और दिमाग के लिए बहुत बढ़िया है।खीरे में 96 प्रतिशत पानी होता हैं, जो गर्मी के मौसम में अच्छा होता है।इस पौधे का आकार बड़ा और इसके फूल पीले रंग के होते हैं। खीरा विटामिन ए, बी और सी से भरपूर होता है। इसके अलावा, यह प्रतिरक्षा को बढ़ाता है, आपको ऊर्जा देता है, और खीरे का प्रयोग त्वचा, किडनी और दिल की समस्याओं के इलाजरूप में किया जाता है।

मिट्टीः-
वैसे तो खीरा की खेती किसी भी उपजाऊ भूमि में की जा सकती है, लेकिन बलुई दोमट मिट्टी में इसकी खेती के लिए सबसे अच्छी मानी जाती है। इसकी खेती के लिए भूमि का पी.एच मान 6 से 7 के बीच होना चाहिए। इसके अलावा खीरे की खेती से अच्छी उपज लेने के लिए उसमें सिंचाई का भी विशेष ध्यान रखें। इसकी फसल अधिकतम 40 डिग्री तथा न्यूनतम 20 डिग्री तापमान को ही सहन कर सकती है।

खेती का समयः-
ग्रीष्म ऋतु में उपज लेने के लिए खीरे की बुवाई फरवरी व मार्च के महीने में की जाती है और वर्षा ऋतु के लिए इसकी बुवाई जून से जुलाई में करते है। वहीं, पर्वतीय क्षेत्रों में खीरे की खेती मार्च व अप्रैल महीने में की जाती है। ध्यान रहे बुवाई से पहले बीजों का उपचार जरूर करें, ताकि फसल में कीटों व रोगों का खतरा कम हो सके।

गर्मी के मौसम में उत्पादन देने वाली किस्में:

स्वर्ण शीतलः- खीरा की हाइब्रिड किस्म स्वर्ण शीतल किस्म के फल ठोस और हरे रंग के होते है। इन के फल का आकार भी माध्यम होता है। और इस स्वर्ण शीतल किस्म की एक और भी खासियत है। जो चूर्णी फफूंदी और श्याम वर्ण रोग के सामने बहुत सहनशील वैरायटी है।

स्वर्ण पूर्णिमाः- खीरे की उन्नत किस्म यह स्वर्ण पूर्णिमा किस्म के फल ठोस और हल्के हरे रंग के होते है। इन के फल की लंबाई भी अधिक होती है और फसल एकदम सीधे होते है। खीरे की यह उन्नत किस्म माध्यम अवधि में यानी के बुवाई के बाद 40 से 50 दिन में पहेली तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है। इन की खासियत भी यह ही है की फल लंबे होते है फिर भी सीधे होते है।

स्वर्ण पूर्णाः- खीरा की वैरायटी यह स्वर्ण पूर्णा किस्म के फल माध्यम आकार के होते है और फल ठोस और हरे रंग के होते है। यह भी बुवाई के बाद 45 से 50 दिन में पहेली तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है। इन की खासियत यह ही है की फफूंदी रोग से प्रतिरोधक है।

अन्य उन्नत किस्में हैं:

हिमांगीः- यह पोइनसेट एक्स कल्याणपुर अगेती का एक क्रॉस है। फल सफेद रंग के होते हैं, 12-15 सेमी लंबे होते हैं।

फुले शुभांगीः- यह पाउडर फफूंदी के प्रति सहनशील है। इसके अलावा, यह वार्स पूना खिरा और हिमांगी से अधिक पैदावार देता है।

फुले प्राचीः- यह एग्नोएशियस एफ हाइब्रिड किस्म है। यह उच्च निषेचन, ड्रिप सिंचाई, निषेचन, स्टेकिंग आदि जैसी बेहतर कृषि तकनीकों के लिए अच्छी तरह से प्रतिक्रिया करता है।

शीतलः- इस किस्म के फल हरे, बेलनाकार, लंबे और अच्छी गुणवत्ता वाले होते हैं।

फुले चंपाः- यह खुले मैदान के साथ-साथ ग्रीनहाउस स्थितियों के लिए एक अनुशंसित किस्म है। इसमें उच्च उपज क्षमता है। इसके अलावा, फल हल्के हरे रंग के, सीधे और लंबे होते हैं।

जलवायु व मिट्टीः- 
वैसे तो खीरे को रेतीली दोमट व भारी मिट्टी में भी उगाया जा सकता है, लेकिन इसकी खेती के लिए अच्छे जल निकास वाली बलुई एवं दोमट मिट्टी में अच्छी रहती है। खीरे की खेती के लिए मिट्टी का पीएच मान 6-7 के बीच होना चाहिए। इसकी खेती उच्च तापमान में अच्छी होती है। वहीं ये पाल सहन नहीं कर सकता है। इसलिए इसकी खेती जायद सीजन में करना अच्छा रहता है।

बुवाई का समयः- 
ग्रीष्म ऋतु के लिए इसकी बुवाई फरवरी व मार्च के महीने में की जाती है। वर्षा ऋतु के लिए इसकी बुवाई जून-जुलाई में करते हैं। वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी बुवाई मार्च व अप्रैल माह में की जाती है। सबसे पहले खेत को तैयार करके 1.5-2 मीटर की दूरी पर लगभग 60-75 से.मी चैड़ी नाली बना लें। इसके बाद नाली के दोनों ओर मेड़ के पास 1-1 मी. के अंतर पर 3-4 बीज की एक स्थान पर बुवाई करते हैं।

खेत की तैयारीः- 
खेत को तैयार करने के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करके 2-3 जुताई देशी हल से कर देनी चाहिए। इसके साथ ही 2-3 बार पाटा लगाकर मिट्टी को भुरभुरा बनाकर समतल कर देना चाहिए।

बीज की मात्रा व उपचारः- 
एक एकड़ खेत के लिए 1.0 किलोग्राम बीज की मात्रा काफी है। ध्यान रहे बिजाई से पहले, फसल को कीटों और बीमारियों से बचाने के लिए और जीवनकाल बढ़ाने के लिए, अनुकूल रासायनिक के साथ उपचार जरूर करें। बिजाई से पहले बीजों का 2 ग्राम कप्तान के साथ उपचारित किया जाना चाहिए।

नर्सरी तैयार कैसे होती हैः- 
सामान्यतःखेत में खीरे की बुवाई सीधी कीजाती है परंतु पॉली हाउस में फसल सघनता बढ़ाने के लिए प्रो-ट्रे में पौधे तैयार किए जाते हैं। मौसम के अनुसार खीरे की पौध 12 से 15 दिन में तैयार हो जाती है। जब पौधों में बीजपत्रों के अलावा दो पत्तियां आ जाती है तब पौधा स्नानांतरण योग्य माना जाता है। क्यारियों की ऊंचाई 30 सेमी, चैड़ाई 1 मीटर एवं पॉली हाउस के आकार के अनुसार रखी जाती है। 2 बेड के बीच में 60 सेमी रिक्त स्थानरखा जाना चाहिए।

खाद व उर्वरकः-
खेती की तैयारी के 15-20 दिन पहले 20-25 टन प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी गोबर की खाद मिला देते हैं। खेती की अंतिम जुताई के समय 20 कि.ग्रा नाइट्रोजन, 50 कि.ग्रा फास्फोरस व 50 कि. ग्रा पोटाशयुक्त उर्वरक मिला देते हैं। फिर बुवाई के 40-45 दिन बाद टॉप ड्रेसिंग से 30 कि.ग्रा नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से खड़ी फसल में प्रयोग की जाती है।

सिंचाईः-
गर्मी के मौसम में इसको बार-बार सिंचाई की जरूरत होती है और बारिश के मौसम में सिंचाई की जरूरत नहीं होती है। इसको कुल 10-12 सिंचाइयों की आवश्यकता होती हैं।बिजाई से पहले एक सिंचाई जरूरी होती है, इसके बाद 2-3 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें। दूसरी बिजाई के बाद, 4-5 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें।

निराई-गुड़ाईः- 
खेत में खुरपी या हो के द्वारा खरपतवार निकालते रहना चाहिए। ग्रीष्मकालीन फसल में 15-20 दिन के अंतर पर 2-3 निराई-गुड़ाई करनी चाहिए तथा वर्षाकालीन फसल में 15-20 दिन के अंतर पर 4-5 बार निराई-गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है। वर्षाकालीन फसल के लिए जड़़ों में मिट्टी चढ़ा देना चाहिए।

पौधे की देखभाल:

विषाणु रोग:- खीरे में विषाणु रोग एक आम रोग होता है। यह रोग पौधों के पत्तियों से शुरू होती है और इसका प्रभाव फलों पर पड़ता है। पत्तियों पर पीले धब्बों का निशान पड़ जाता है और पत्तियां सिकुडऩे लगती है। इस बीमारी का असर फलों पर भी पड़ता है। फल छोटी और टेड़ी-मेड़ी हो जाती है। इस रोग को नीम का काढ़ा या गौमूत्र में माइक्रो झाइम मिलाकर इसे 250 एमएल प्रति पंप फसलों पर छिडक़ाव करके से दूर किया जा सकता है।

एन्थ्रेक्नोज:- यह रोग मौसम में परिवर्तन के कारण होता है। इस रोग में फलों तथा पत्तियों पर धब्बे हो जाते हैं। इस रोग को नीम का काढ़ा या गौमूत्र में माइक्रो झाइम मिलकाकर इसे 250 एमएल प्रति पंप फसलों पर छिडक़ाव करके दूर किया जा सकता है।

चूर्णिल असिता:- यह रोग ऐरीसाइफी सिकोरेसिएरम नाम के एक फफूंदी के कारण होता है। यह रोग मुख्यतःपत्तियों पर होता है और यह धीरे-धीरे तना, फूल और फलों पर हमला करने लगता है। नीम का काढ़ा या गौमूत्र में माइक्रो झाइम को मिलाकर इसे 250 मिमी प्रति पंप फसलों पर छिडक़ाव करने से इस रोग को दूर किया जा सकता है।

कीट नियंत्रण

एपिफड:- ये बहुत छोटे-छोटे कीट होते हैं। ये कीट पौधे के छोटे हिस्सों पर हमला करते हैं तथा उनसे रस चूसते हैं। इन कीटों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ती है और ये वायरस फैलाने का काम करती है। इन कीटों की वजह से पत्तियां पीली पडऩे लगती है। इस कीट से बचने के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र में माइक्रो झाइम को मिलाकर इसे 250 एमएल प्रति पंप फसलों पर छिडक़ाव करना चाहिए।

रेड पम्पकिन बीटिल:- ये लाल रंग तथा 5-8 सेमी लंबे आकार के कीट होते हैं। ये कीट पत्तियों के बीच वाले भाग को खा जाते हैं जिसके कारण पौधों का अच्छे से विकास नहीं होता है। इस कीट से बचने के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र में माइक्रोझाइम को मिलाकर इसे 250 एमएल प्रति पंप फसलों पर छिडक़ाव करने की सलाह दी जाती है।

एपिलैकना बीटिल:- ये कीट इन सभी वाइन प्लांट पर हमला करते हैं। ये कीट पौधों के पत्तियों पर आकमण करती है। ये बीटिल पत्तियों को खाकर उन्हें नष्ट कर देती है।

तोड़ाई एवं उपज:- 
बुवाई से 45-50 दिनों बाद पौधे पैदावार देनी शुरू कर देते हैं।इसकी 10-12 तुड़ाइयां की जा सकती हैं। खीरे की तोड़ाई मुख्य तौर पर जब फल अच्छे मुलायम तथा उत्तम आकार के हो जायें तो उन्हें सावधानीपूर्वक लताओं से तोडक़र अलग करना चाहिए।कटाई के लिए तेज़ चाकू या किसी और नुकीली चीज़ का प्रयोग करें। इसकी औसतन पैदावार 33-42 क्विंटल प्रति एकड़ होता है।