प्रेरणा जयासवाल (पी.एच.डी. रिसर्च स्कालर,सस्य विज्ञान), 
डॉ. सुबुही निषाद एवं डॉ. संजय के. द्विवेदी (प्रमुख वैज्ञानिक, सस्य विज्ञान), 
मोनिका टिकरिहा (पी.एच.डी. रिसर्च स्कालर, मृदा विज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)

धान एक प्रमुख मुख्य भोजन है और ग्रामीण आबादी और उनकी खाद्य सुरक्षा का मुख्य आधार है। यह मुख्य रूप से उच्च कैलोरी या ऊर्जा वाला भोजन है। यह दुनियाभर में दूसरी सबसे अधिक खेती की जाने वाली अनाज की फसल है और दुनियाभर के अरबों लोगों के जीवन का केंद्र है। छत्तीसगढ़ देश का एक प्रमुख धान उत्पादक राज्य है जो सीमांकित भूमि पर विभिन्न जीनो टाइप के साथ विभिन्न प्रकार की खेती प्रथाओं के लिए जाना जाता है। इसलिए इसे ‘‘भारत का धान का कटोरा‘‘ कहा जाता है। छत्तीसगढ़ में चावल का क्षेत्रफल और उत्पादकता क्रमश: 3.89 मिलियन हेक्टेयर और 3.2 टन हेक्टेयर है। छत्तीसगढ़ सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 3100 रुपये प्रति क्विंटल पर धान खरीद रही है तथा प्रति एकड़ 21 क्विंटल धान खरीद रही है।

धान की खेती में ज्यादा संसाधन जैसे पानी, श्रम तथा ऊर्जा की आवश्यकता होती है एवं धान उत्पादन क्षेत्र में इन संसाधनों की कमी आती जा रही है। धान उत्पादन में जहाँ पानी खेतों में भरकर रखा जाता है जिसके कारण मीथेन गैस उत्सर्जन भी बढ़ता है जो की जलवायु परिवर्तन का एक मुख्य कारण है। रोपण पद्धति के लिए खेतों में पानी भरकर उसे ट्रैक्टर से मचाया जाता है जिससे मृदा के भौतिक गुण जैसे मृदा संरचना, मिट्टी संघनता तथा अंदरूनी सतह में जल की पारगम्यता आदि खराब हो जाती है जिससे आगामी फसलों की उत्पादकता में कमी आने लगती है। जलवायु परिवर्तन, मानसून की अनिश्चितता, भू-जल संकट, श्रमिकों की कमी और धान उत्पादन की बढ़ती लागत को देखते हुए हमें धान उपजाने की परंपरागत पद्धति- सीधी बुआई विधि को पुनः अपनाना होगा तभी हम आगामी समय में पर्याप्त धान पैदा करने में सक्षम हो सकते है।

धान में सीधी बुवाई की आवश्यकता क्यों
रोपण विधि से धान की खेती करने में पानी की अधिक आवश्यकता पड़ती है। अनुमान है की 1 किलो धान पैदा करने के लिए लगभग 4000-5000 लीटर पानी की खपत होती है। विश्व में उपलब्ध ताजे जल की सर्वाधिक खपत धान की खेती में होती है। पानी की अन्य क्षेत्रों में मांग बढने के कारण आने वाले समय में खेती के लिए पानी की उपलब्धता कम होना सुनिश्चित है। रोपण विधि से धान की खेती करने के लिए समय पर नर्सरी तैयार करना, खेत में पानी की उचित व्यवस्था करके मचाई करना एवं अंत में मजदूरों से रोपाई करने की आवश्यकता होती है। इससे धान की खेती की कुल लागत में बढ़ोतरी हो जाती है। समय पर वर्षा का पानी अथवा नहर का पानी न मिलने से खेतों की मचाई एवं पौध रोपण करने में विलम्ब हो जाता है। पौध रोपण हेतु लगातार खेत मचाने से मिट्टी की भौतिक दशा बिगड़ जाती है जो कि रबी फसलों की खेती के लिए उपयुक्त नहीं रहती है जिससे इन फसलों की उत्पादकता में कमी हो जाती है। लगातार धान-गेहूं फसल चक्र अपनाने से भूमि की भौतिक दशा खराब होने के साथ-साथ उनकी उर्वरता भी कम हो गई है। इन क्षेत्रों में पानी के अत्यधिक प्रयोग से भू-जल स्तर में निरंतर गिरावट दर्ज होती जा रही है। ऐसे में धान की रोपण विधि से खेती को हतोत्साहित करने की आवश्यकता है। धान की सीधी बुवाई तकनीक अपनाकर उपरोक्त समस्याओं को कम किया जा सकता है एवं उच्च उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

धान की बुआई के तरीके
उच्च फसल उपज प्राप्त करने के लिए एक अच्छे फसल स्टैंड की स्थापना एक पूर्व-आवश्यकता है। बुआई विधि एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारक है जो फसल की स्थिति और अंततः फसल की उपज को निर्धारित करती है। सीधी बुआई वाले धान (डीएसआर) जैसी फसल स्थापना विधियां पारंपरिक रोपाई वाली धान उत्पादन प्रणाली के विपरीत धान उत्पादन में पानी, श्रम और उत्पादन लागत को कम करने के विकल्प हो सकती हैं। डी.एस.आर. का अभ्यास तीन तरीकों से किया जा सकता है, अर्थात (1) सूखी बुआई (2) गीली बुआई और (3) नर्सरी और रोपाई से बचकर पानी की बुआई। सूखी बुआई के मामले में, प्री-मानसून बारिश के तुरंत बाद, बीजों को सीधे सूखी मिट्टी में 2-3 सेमी की गहराई पर बोया जाता है। यह विधि सटीक जल नियंत्रण के साथ वर्षा आधारित और सिंचित वातावरण के लिए उपयुक्त है। सिंचित क्षेत्रों में, नहरों से पानी की उपलब्धता के आधार पर सूखे बीज वाले खेतों को गीली विधि में परिवर्तित किया जा सकता है। बुआई के 45-60 दिन बाद सिंचाई प्रदान की जा सकती है और फिर गीली प्रणाली के रूप में प्रबंधित की जा सकती है। गीली बुआई में, पूर्व-अंकुरित बीजों को फैलाया जाता है या पोखर वाली मिट्टी में बोया जाता है। यह वर्षा आधारित तराई क्षेत्रों और अच्छी जल निकासी सुविधाओं वाले सिंचित क्षेत्रों के लिए सबसे अनुकूल है।

धान की सीधी बुवाई किसे कहते है
धान की सीधी बुआई एक ऐसी तकनीक है, जिसमे धान के पौधे को बिना नसरी तैयार किए हुए डायरेक्ट खेत में लगाया जाता है। इस प्रोसेस में धान की रोपाई की आवश्यकता नहीं होती है। सबसे खास बात यह है कि किसानों को धान की रोपाई में आने वाले खर्च और श्रम दोनों की बचत होती है। जहाँ पहले किसान भाई परंपरागत तरीके से जहां धान की रोपाई करते है और उससे पहले वह नसरी तैयार करते है। इन नसरी में बीजों को बोया जाता है और पौधों को उगाया जाता है। 25-35 दिनों के बाद इन पौधों को उखाड़ कर खेत में बो दिया जाता है। डी.एस.आर. तकनीक धान की सीधी बुवाई है। यहां बीज को रोपाई के बजाय सीधे खेत में बोया जाता है। बीजों को मिट्टी में खोदने के लए ट्रैक्टर से चलने वाली मशीन का उपयोग किया जाता है। डी.एस.आर. तकनीक में नर्सरी की तैयारी नहीं होती है। इस तकनीक से लागत में 6000 रूपए प्रति एकड़ की कमी आती है। इस विधि में 30 प्रतिशत कम पानी का उपयोग होता है। ऐसा इसिलए है क्योंकि रोपाई के दौरान 4-5 सेंटी मीटर पानी की गहराई को बनाएं रखते हुए खेत को लगभग रोजाना सिंचित करना पड़ता है।

छत्तीसगढ़ में धान की सीधी बुआई के लिए उपयुक्त प्रजातियाँ
छत्तीसगढ़ में सीधी बुआई के लिए उपयुक्त धान की कई किस्मों की खेती के लिए सिफारिश की गई है। ये किस्में क्षेत्र की कृषि आवश्यकताओं और पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुरूप कई विशेषताओं को समाहित करती हैं। पारंपरिक किस्मों में आईजीकेवी आर-1, आईजीकेवी आर-2, बस्तर धान-1, कर्मा, महसूरी, श्यामला, महामाया, सीजी धान-1919, सीजी तेजस्वी, धान और ट्रॉम्बे सीजी शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, इंदिरा सुगंधित धान, बदसाहा भोग सिलेक्शन-1, दुबराज, सिलेक्शन-1, सीजी देवभोग और विष्णु भोग सिलेक्शन-1 जैसी सुगंधित किस्में भी हैं, जो उपभोक्ताओं को वांछित सुगंधित गुण प्रदान करती हैं। बायो फोर्टिफाइड विकल्पों में सीजी जिंक धान-1 सीजी मधुराज धान-55 जिंको धान एसएस, प्रोटाजिन धान और सीजी जिंक धान-2 शामिल हैं, जो आवश्यक पोषक तत्वों से समृद्ध हैं। इसके अलावा, इंदिरा एरोबिक-1 इंदिरा बरनी धान-1 और सीजी बरानी धान-2 जैसी सूखा-सहिष्णु किस्मों को पानी की कमी का सामना करने के लिए बनाया गया है, जो प्रतिकूल जलवायु परिस्थितियों में लचीलापन सुनिश्चित करता है। ये विविध किस्में छत्तीसगढ़ में धान उत्पादकों की विभिन्न प्राथमिकताओं और कृषि चुनौतियों को पूरा करती हैं, जो राज्य के धान कृषि क्षेत्र की स्थिरता और उत्पादकता में योगदान करती हैं।

धान की सामान्य रोपाई तथा धान की सीधी बुआई
धान की रोपाई में किसान नर्सरी तैयार करते हैं, जहाँ धान के बीज को पहले बोया जाता है और युवा पौधों को रोपा जाता है। नर्सरी बीज क्यारी रोपित किए जाने वाले क्षेत्र का 5-10 प्रतिशत है। फिर इन पौधों को उखाड़कर 25-35 दिन बाद पोखरवाले खेत में लगा दिया जाता है। डी.एस.आर. में पहले से अंकुरित बीजों को ट्रैक्टर से चलने वाली मशीन द्वारा सीधे खेत में ड्रिल किया जाता है। इस पद्धति में कोई नर्सरी तैयारी या प्रत्यारोपण शामिल नहीं है। किसानों को सिर्फ अपनें खेत को समतलकर बुवाई से पहले सिंचाई करनी होती है।

रोपाई में पहले तीन हफ्तों तक पानी की गहराई 4-5 सेंटीमीटर बनाएं रखने के लिए पौधों को लगभग रोजाना सिंचाई करनी पड़ती है। जल, जल मग्न अवस्था में खरपतवारों को ऑक्सीजन से वंचित करके उनके विकास को रोकता है जबकि धान के पौधों में नरम वायु कोशिका ऊतक हवा को अपनी जड़ों के माध्यम से प्रवेश करने की अनुमति देते हैं। डी.एस.आर. में चूंकि बुवाई के दौरान खेतों में बाढ़ नहीं आती है, खरपतवारों को मारने के लिए रासायनिक शाकनाशी का उपयोग किया जाता है। इसलिए धान की रोपाई में अधिक पानी की मांग, श्रम साध्य तथा अधिक समय लगता है और नर्सरी को उगाने, उखाड़ने और रोपाई पर बहुत अधिक खर्च करना पड़ता है।

रोपाई की अवधि के दौरान श्रम की कमी, सिंचाई के पानी की अनिश्चित आपूर्ति, भूजल की कमी और उत्पादन लागत में वृद्धि ने धान की पारंपरिक पोखर रोपाई के विकल्प की तलाश को आवश्यक बना दिया है। पारंपरिक प्रणाली के लाभों में पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि (जैसे लोहा, जस्ता, फास्फोरस) और खरपतवार दमन शामिल हैं। दूसरी ओर सीधी बुवाई से सिंचाई में पानी, श्रम की बचत जैसे कुछ लाभ मिलते हैं।

डी.एस.आर. की खूबियां
बिना जुताई या कम जुताई के तहत सीधी बुआई वाला धान एक कुशल संसाधन संरक्षण तकनीक (आर.सी.टी.) है, जो धान की रोपाई की तुलना में निम्नलिखित फायदों के कारण आने वाले दिनों में अच्छा उत्पादन दे सकता है।
  • नर्सरी तैयार करने, पौधों को उखाड़ने और रोपाई के लिए आवश्यक श्रम की लगभग 40 प्रतिशत तक बचत होती है।
  • नर्सरी तैयार करने, नर्सरी बनाने और रिसाव को समाप्त करने से पानी की बचत (60 प्रतिशत तक) होती है।
  • जड़ क्षेत्र में उर्वरक देने से उर्वरक उपयोग दक्षता बढ़ जाती है।
  • शीघ्र परिपक्वता (7-10 दिन) आने वाली फसलों की समय पर बुआई में मदद करती है।
  • नर्सरी उगाने के लिए खेत की तैयारी और सिंचाई के लिए पानी के कम उपयोग के कारण ऊर्जा(60 प्रतिशत तक डीजल)की बचत होती है।
  • मीथेन उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग क्षमता में कमी आती है।
  • सीधे बोए गए धान में मिट्टी की संरचना में गड़बड़ी नहीं होती है जैसा कि रोपाई की गई प्रणाली में होता है।
  • रोपाई समाप्त होने से खेती हर महिला मजदूरों को कम मेहनत करनी पड़ेगी।
  • सिस्टम उत्पादकता बढ़ती है।
  • खेेती की लागत लगभग 5000-6000 हेक्टेयर कम हो जाती है।