काजल साहू (पी. एच. डी., (उद्यानिकी विभाग)
कृष्णा (पी. एच. डी., (सस्य विज्ञान विभाग)
(इंदिरा गांधी कृषि विश्वविधालय, रायपुर )
जैविक खेती क्या है?
जैविक खेती एक उत्पादन प्रणाली है जिसमें मिट्टी, परिस्थितिकी तंत्र, और लोगों के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर की जाती है जैविक खेती में जो मनुष्य के लिए और पर्यावरण के लिए हानिकारक इनपुट होते हैं जैसे-रासायनिक उर्वरक, खरपतवार नाशक रसायन, कीटनाशक रसायन, किसी भी प्रकार के रसायन का प्रयोग नहीं किया जाता है.जैविक खेती एक प्राकृतिक खेती प्रणाली है जिसमें संसाधनों का सही उपयोग करके पोषक और स्वास्थ्यपूर्ण फसलों की उत्पत्ति की जाती है। इसमें जीवाणु शक्ति, खेती अपशिष्ट, बायोडाइनामिक तत्व, बायोफर्टिलाइजर, और जैविक कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है। जैविक खेती उत्पादों के स्वास्थ्यपूर्ण गुणों को बढ़ाती है और माटी की उर्वरता और प्रजनन क्षमता को सुधारती है।
जैविक खेती, की विधि रासायनिक खेती की विधि की तुलना में बराबर या अधिक उत्पादन देती है अर्थात जैविक खेती मृदा की उर्वरता एवं कृषकों की उत्पादकता बढ़ाने में पूर्णतः सहायक है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में जैविक खेती की विधि और भी अधिक लाभदायक है । जैविक विधि द्वारा खेती करने से उत्पादन की लागत तो कम होती ही है इसके साथ ही कृषक भाइयों को आय अधिक प्राप्त होती है तथा अंतराष्ट्रीय बाजार की स्पर्धा में जैविक उत्पाद अधिक खरे उतरते हैं। जिसके फलस्वरूप सामान्य उत्पादन की अपेक्षा में कृषक भाई अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। आधुनिक समय में निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या, पर्यावरण प्रदूषण, भूमि की उर्वरा शक्ति का संरक्षण एवं मानव स्वास्थ्य के लिए जैविक खेती की राह अत्यन्त लाभदायक है । मानव जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए नितान्त आवश्यक है कि प्राकृतिक संसाधन प्रदूषित न हों, शुध्द वातावरण रहे एवं पौष्टिक आहार मिलता रहे, इसके लिये हमें जैविक खेती की कृषि पध्दतियाँ को अपनाना होगा जोकि हमारे नैसर्गिक संसाधनों एवं मानवीय पर्यावरण को प्रदूषित किये बगैर समस्त जनमानस को खाद्य सामग्री उपलब्ध करा सकेगी तथा हमें खुशहाल जीने की राह दिखा सकेगी।
जैविक खेती हेतु प्रमुख जैविक खाद एवं दवाईयाँ:-
जैविक खाद
- नाडेप
- बायोगैस स्लरी
- वर्मी कम्पोस्ट
- हरी खाद
- जैव उर्वरक (कल्चर)
- गोबर की खाद
- नाडेप फास्फो कम्पोस्ट
- पिट कम्पोस्ट (इंदौर विधि)
- मुर्गी का खाद
जैविक पध्दति द्वारा व्याधि नियंत्रण के कृषकों के अनुभव-
- गौ-मूत्र
- नीम- पत्ती का घोल/निबोली/खली
- मट्ठा
- मिर्च/लहसुन
- लकड़ी की राख
- नीम व करंज खली
जैविक खाद तैयार करने की विधियाँ-
नाडेपः इस विधि को ग्राम पूसर जिला यवतमाल महाराष्ट के नारायम देवराव पण्डरी पाण्डे द्वारा विकसित की गई है। इसलिये इसे नाडेप कहते हैं। इस विधि में कम से कम गोबर का उपयोग करके अधिक मात्रा में अच्छी खाद तैयार की जा सकती है। टांके भरने के लिये गोबर, कचरा (बायोमास) और बारीक छनी हुई मिटटी की आवश्यकता रहती हैं। जीवांश को 90 से 120 दिन पकाने में वायु संचार प्रक्रिया का उपयोग किया जाता है। इसके द्वारा उत्पादित की गई खाद में प्रमुख रूप से 0.5 से 1.5 प्रतिशत नत्रजन, 0.5 से 0.9 प्रतिशत स्फुर एवं 1.2 से 1.4 प्रतिशत पोटाश के अलावा अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व भी पाये जाते हैं। निम्नानुसार विभिन्न प्रकार के नाडेप टाकों से नाडेप कम्पोस्ट तैयार किया जा सकता है ।
पक्का नाडेपः पक्का नाडेप ईटों के द्वारा बनाया जाता है । नाडेप टांके का आकार 10 फीट लंबा, 6 फीट चैड़ा और 3 फीट ऊंचा या 12’5’3 फीट का बनाया जाता है। ईटों को जोडते समय तीसरे, छठवे एवं नवें रद्दे में मधुमक्खी के छत्ते के समान 6’’-7’’ के ब्लाक/छेद छोड़ दिये जाते है जिससे टांके के अन्दर रखे पदार्थ को बाहृय वायु मिलती रहे। इससे एक वर्ष में एक ही टांके से तीन बार खाद तैयार किया जा सकता है ।
कच्चा नाडेप (भू नाडेप): भू-नाडेप/ कच्चा नाडेप परम्परागत तरीके के विपरित बिना गड्डा खोदे जमीन पर एक निश्चित आकार (12फीट’5फीट’3फीट अथवा 10फीट’6फीट’3फीट) का लेआउट देकर व्यवस्थित ढ़ेर बनाया जाता है । इसकी भराई नाडेप टांके अनुसार की जाती है। इस प्रकार लगभग 5 से 6 फीट तक सामग्री जम जाने के बाद एक आयताकार व व्यवस्थित ढेर को चारों ओर से गीली मिट्टी व गोबर से लीप कर बंदकर कर दिया जाता है। बंद करने के दूसरे अथवा तीसरे दिन जब गीली मिट्टी कुछ कड़ी हो जाये तब गोलाकार अथवा आयताकार टीन के डिब्बे से ढेर की लंबाई व चैड़ाई में 9-9 इंच के अंतर पर 7-8 इंच के गहरे छिद्र बनाये जावे। छिद्रो से हवा का अवागमन होता है और आवश्यकता पड़ने पर पानी भी डाला जा सकता है, ताकि बायोमास में पर्याप्त नमी रहे और विघटन क्रिया अच्छी तरह से हो सके। इस तरह से भरा बायोमास 3 से 4 माह के भीतर भली-भांति पक जाता है तथा अच्छी तरी पकी हुई, भुरभुरी र्दुगंध रहित भुरे रंग की उत्तम गुणवत्ता की जैविक खाद तैयार हो जाती है ।
नाडेप टांका कम्पोस्ट खाद तैयार करने की विधि-
- वानस्पतिक बेकार पदार्थ जैसे सूखे पत्तो, छिलके, डंठल, टहनिया, जड़े आदि 1400 से 1600 किलो, इसमें प्लास्टिक कांच एवं पत्थर नहीं रहे।
- गोबर 100 से 120 किलो (8 से 10 टोकरी) गोबर गैस से निकली स्लरी भी ली जा सकती है ।
- सूखी छनी हुई खेत या नाले की मिट्टी 600 से 800 किलो (120 टोकरी) गो-मूत्र से सनी मिट्टी विशेष लाभदायी होती है।
- साधारणतया 1500 से 2000 लीटर पानी, मौसम के अनुसार पानी की मात्रा कम या ज्यादा लग सकती है।
नाडेप बनाने की विधि-
टांका भरने की विधि:- खाद सामग्री पूरी तरह एकत्रित करने के बाद नीचे बताए क्रम अनुसार ही टांका भरें। अचार डालने की तर्ज पर ही नाडेप पध्दति खाद सामग्री एक ही दिन में या ज्यादा से ज्यादा 48 घंटे में पूरी तरह से टांका में भरकर सील कर दें।
प्रथम भराई:- टांका भरने से पहले टांके के अंदर की दीवार एवं फर्श गोबर व पानी के घोल से अच्छा गीला कर दें।
पहली परत:- वानस्पतिक पदार्थ कचरा, डंठल, टहनियां, पत्तिायाँ आदि पूरे टांके में छः इंच की ऊचाई तक भर दें। इस 30 घनफीट में 100 से 110 किलो वानस्पतिक सामग्री आएगी। इस परत में 3 से 4 प्रतिशत नीम या पलाश की हरी पत्तियाँ मिलाना लाभप्रद होगा। जिससे दीमक पर नियंत्रण होगा।
दूसरी परत:- गोबर का घोल 125 से 150 लीटर पानी में 4 किलो गोबर मिलाकर पहली परत के उपर इस तरह छिड़कें कि पूरी वानस्पतिक सामग्री अच्छी तरह भीग जाए। गर्मी में पानी की मात्रा अधिक रखें। यदि बायोगैस की स्लरी उपयोग करें तो 10 लीटर स्लरी को 125 से 150 लीटर पानी में घोल कर छिड़के।
तीसरी परत:- भीगी हुई दूसरी पतर के उपर, साफ छनी हुई मिट्टी 50 से 60 किलो के लगभग समान रूप से बिछा दें। परतों के इसी क्रम में टांके को उसके मुँह से 1.5 फीट उपर तक झोपड़ीनुमा आकार से भरें। सामान्यतः 11-12 परतों में टांका भर जावेगा। टांका भरने के बाद टांका सील करने के लिए 3 इंच मिट्टी (400 से 500 किलो) की परत जमा कर गोबर से लीप दें। इस पर दरारें पड़े तो उन्हे पुनः गोबर से लीप दें।
द्वितीय भराई:- 15-20 दिन बाद टांके में भरी सामग्री सिकुड़ कर 8-9 इंच नीचे चली जावेगी तब पहली भराई की तरह ही वानस्पतिक पदार्थ, गोबर का घोल एवं छनी मिट्टी की परतों से टांके को उनके मुँह से 1.5 फीट उपर तक भरकर पहले भराव के समान ही सील कर लीप दें।
सावधानियां:- नाडेप कम्पोस्ट को पकने के लिये 90 से 120 दिन लगते है। इस दौरान नमी बनी रहने के लिए एवं दरारे बंद करने के लिए गोबर पानी का घोल छिड़कते रहें व दरारें न पड़ने दें। घास आदि उगे तो उसे उखाड़ दे व नमी कायम रखें। कड़ी धूप हो तो घास-फूस से छाया कर दें।
खाद की परिपक्वता:- 3-4 महीने में खाद गहरे भूरे रंग की बन जाती है और दुर्गंध समाप्त होकर अच्छी खुशबू आती है। खाद सूखना नहीं चाहिये। इस खाद को एक फीट में 35 तार वाली चलनी से छान लेना चाहिये और फिर उपयोग में लाना चाहिये। छलनी के उपर से निकला अधपका कच्चा खाद फिर से खाद बनाने के काम में लेना चाहिये । एक टांके से निकला खाद 6-7 एकड़ भूमि को दिया जा सकता है। एक टांके से 160 से 175 घन फीट छना खाद व 40 से 50 घन फीट कच्चा माल मिलेगा। मतलब एक टांके से 3 टन (लगभग 6 बैलगाड़ी) अच्छा पका खाद मिलता है। नाडेप टांका विधि से कम से कम गोबर में अधिकाधिक मात्रा में अच्छी गुणवत्ताा का खाद तैयार होता है। मात्र एक गाय के साल भर के गोबर से 10 टन खाद मिलने की संभावना है। जिसमें नत्रजन 0.5 से 1.5 प्रतिशत स्फूर 0.5 से 0.9 प्रतिशत तथा पोटाश 1.2 से 1.4 प्रतिशत होता है।
बायोगैस स्लरीः बायोगैस संयंत्र में गोबर गैस की पाचन क्रिया के बाद 25 प्रतिशत ठोस पदार्थ रूपान्तरण गैस के रूप में होता है और 75 प्रतिशत ठोस पदार्थ का रूपान्तरण खाद के रूप में होता हैं। जिसे बायोगैस स्लरी कहा जाता हैं दो घनमीटर के बायोगैस संयंत्र में 50 किलोग्राम प्रतिदिन या 18.25 टन गोबर एक वर्ष में डाला जाता है। उस गोबर में 80 प्रतिशत नमी युक्त करीब 10 टन बायोगैस स्लेरी का खाद प्राप्त होता हैं। ये खेती के लिये अति उत्तम खाद होता है। इसमें 1.5 से 2: नत्रजन, 1: स्फुर एवं 1: पोटाश होता हैं।
बायोगैस संयंत्र में गोबर गैस की पाचन क्रिया के बाद 20 प्रतिशत नाइट्रोजन अमोनियम नाइट्रेट के रूप में होता है। अतः यदि इसका तुरंत उपयोग खेत में सिंचाई नाली के माध्यम से किया जाये तो इसका लाभ रासायनिक खाद की तरह फसल पर तुरंत होता है और उत्पादन में 10-20 प्रतिशत बढ़त हो जाती है। स्लरी के खाद में नत्रजन, स्फुर एवं पोटाश के अतिरिक्त सूक्ष्म पोषण तत्व एवं ह्यूमस भी होता हैं जिससे मिट्टी की संरचना में सुधार होता है तथा जल धारण क्षमता बढ़ती है। सूखी खाद असिंचित खेती में 5 टन एवं सिंचित खेती में 10 टन प्रति हैक्टर की आवश्यकता होगी। ताजी गोबर गैस स्लरी सिंचित खेती में 3-4 टन प्रति हैक्टर में लगेगी। सूखी खाद का उपयोग अन्तिम बखरनी के समय एवं ताजी स्लरी का उपयोग सिंचाई के दौरान करें। स्लरी के उपयोग से फसलों को तीन वर्ष तक पोषक तत्व धीरे-धीरे उपलब्ध होते रहते हैं।
वर्मी कम्पोस्ट (केंचुए खाद): केंचुआ कृषकों का मित्र एवं भूमि की आंत कहा जाता हैं। यह सेन्द्रिय पदार्थ ह्यूमस व मिट्टी को एकसार करके जमीन के अंदर अन्य परतों में फैलाता हैं । इससे जमीन पोली होती है व हवा का आवागमन बढ़ जाता है तथा जलधारण क्षमता में बढ़ोतरी होती है। केंचुओं के पेट में जो रसायनिक क्रिया व सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रिया होती है, जिससे भूमि में पाये जाने वाले नत्रजन, स्फुर एवं पोटाश एवं अन्य सूक्ष्म तत्वों की उपलब्धता बढ़ती हैं। वर्मी कम्पोस्ट में बदबू नहीं होती है और मक्खी एवं मच्छर नहीं बढ़ते है तथा वातावरण प्रदूषित नहीं होता है। तापमान नियंत्रित रहने से जीवाणु क्रियाशील तथा सक्रिय रहते हैं। वर्मी कम्पोस्ट डेढ़ से दो माह के अंदर तैयार हो जाता है। इसमें 2.5 से 3ः नत्रजन, 1.5 से 2ः स्फुर तथा 1.5 से 2ः पोटाश पाया जाता है।
तैयार करने की विधिः कचरे से खाद तैयार किया जाना है उसमें से कांच-पत्थर, धातु के टुकड़े अच्छी तरह अलग कर इसके पश्चात वर्मी कम्पोस्ट तैयार करने के लिये 10x4 फीट का प्लेटफार्म जमीन से 6 से 12 इंच तक ऊंचा तैयार किया जाता है। इस प्लेटफार्म के ऊपर 2 रद्दे ईट के जोडे जाते हैं तथा प्लेटफार्म के ऊपर छाया हेतु झोपड़ी बनाई जाती हैं प्लेटफार्म के ऊपर सूखा चारा, 3-4 क्विंटल गोबर की खाद तथा 7-8 क्विंटल कूड़ाकरकट (गार्वेज) बिछाकर झोपड़ीनुमा आकार देकर अधपका खाद तैयार हो जाता है जिसकी 10-15 दिन तक झारे से सिंचाई करते हैं जिससे कि अधपके खाद का तापमान कम हो जाए। इसके पश्चात 100 वर्ग फीट में 10 हजार केंचुए के हिसाब से छोड़े जाते हैं। केचुए छोड़ने के पश्चात् टांके को जूट के बोरे से ढंक दिया जाता हैं, और 4 दिन तक झारे से सिंचाई करते रहते हैं ताकि 45-50 प्रतिशत नमी बनी रहें। ध्यान रखे अधिक गीलापन रहने से हवा अवरूध्द हो जावेगी ओर सूक्ष्म जीवाणु तथा केंचुऐ मर जावेगें या कार्य नही कर पायेंगे।
45 दिन के पश्चात सिंचाई करना बंद कर दिया जाता है और जूट के बोरों को हटा दिया जाता है। बोरों को हटाने के बाद ऊपर का खाद सूख जाता है तथा केंचुए नीचे नमी में चले जाते है। तब ऊपर की सूखी हुई वर्मी कम्पोस्ट को अलग कर लेते हैं। इसके 4-5 दिन पश्चात पुनः टांके की ऊपरी खाद सूख जाती है और सूखी हुई खाद को ऊपर से अलग कर लेते हैं इस तरह 3-4 बार में पूरी खाद टांके से अलग हो जाती है और आखरी में केंचुए बच जाते हैं जिनकी संख्या 2 माह में टांके में, डाले गये केंचुओं की संख्या से, दोगुनी हो जाती हैं ध्यान रखें कि खाद हाथ से निकालें गैंती, कुदाल या खुरपी का प्रयोग न करें। टांकें से निकाले गये खाद को छाया में सुखा कर तथा छानकर छायादार स्थान में भण्डारित किया जाता है । वर्मी कम्पोस्ट की मात्रा गमलों में 100 ग्राम, एक वर्ष के पौधों में एक किलोग्राम तथा फसल में 6-8 किं्वटल प्रति एकड़ की आवश्यकता होती है। वर्मी वॉश का उपयोग करते हुए प्लेटफार्म पर दो निकास नालिया बना देना अच्छा होगा ताकि वर्मी वॉश को एकत्रित किया जा सकें।
केंचुए खाद के गुण
- इसमें नत्रजन, स्फुर, पोटाश के साथ अति आवश्यक सूक्ष्म कैल्श्यिम, मैग्नीशियम, तांबा, लोहा, जस्ता और मोलिवड्नम तथा बहुत अधिक मात्रा में जैविक कार्बन पाया जाता है ।
- केंचुएँ के खाद का उपयोग भूमि, पर्यावरण एवं अधिक उत्पादन की दृष्टि से लाभदायी है।
हरी खादः मिट्टी की उर्वरा शक्ति जीवाणुओं की मात्रा एवं क्रियाशीलता पर निर्भर रहती है क्योंकि बहुत सी रासायनिक क्रियाओं के लिए सूक्ष्म जीवाणुओं की आवश्यकता रहती है। जीवित व सक्रिय मिट्टी वही कहलाती है जिसमें अधिक से अधिक जीवांश हो। जीवाणुओं का भोजन प्रायः कार्बनिक पदार्थ ही होते है और इनकी अधिकता से मिट्टी की उर्वरा शक्ति पर प्रभाव पड़ता है। अर्थात केवल जीवाणुओं से मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाया जा सकता है। मिट्ट की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने की क्रियाओं में हरी खाद प्रमुख है। इस क्रिया में वानस्पतिक सामग्री को अधिकांशतः हरे दलहनी पौधों को उसी खेत में उगाकर जुताई कर मिट्टी में मिला देते है। हरी खाद हेतु मुख्य रूप से सन, ढेंचा, लाबिया, उड्द, मूंग इत्यादि फसलों का उपयोग किया जाता है।
नाडेप फास्फो कम्पोस्टः यह नाडेप के समान ही कम्पोस्ट खाद तैयार करने की विधि है । अंतर केवल इतना है कि इसमें अन्य सामग्री के साथ राक फास्फेट का उपयोग किया जाता है जिसके फलस्वरूप कम्पोट में फास्फेट की मात्रा बढ़ जाती है। प्रत्येक परत के उपर 12 से 15 किलो रांक फास्फेट की परत बिछाई जाती है शेष परत दर परत पक्के नाडेप टांके अनुसार ही टांके की भराई की जाती हैें और गोबर मिट्टी से लीप कर सील कर दिया जाता है । एक टांके में करीब 150 किलो राक फसस्फेट की आवश्यकता होंगी।
पिट कम्पोस्ः इस विधि को सर्वप्रथम 1931 में अलबर्ट हावर्ड और यशवंत बाड ने इन्दौर में विकसित की थी अतः इसे इंदौर विधि के नाम से भी जाना जाता है इस पध्दति में कम से कम 9Û5Û3 फीट व अधिक से अधिक 20’5’3 फीट आकार के गङ्ढे बनाए जाते हैं। इन गङ्ढो को 3 से 6 भागों में बांट दिया जाता है इस प्रकार प्रत्येक हिस्से का आकार 3’5’3 फीट से कम नहीं होना चाहिये। प्रत्येक हिस्से को अलग अलग भरा जावे एवं अंतिम हिस्सा खाद पलटने के लिए खाली छोड़ा जावें।
जैविक खेती के लाभ:
- किसानों को जैविक खेती से होने वाले लाभ- जिस तरह से जैविक खेती से फसल की उपज बढ़ रही है, उसको देखते हुए ये अनुमान लगाया जा सकता है कि किसानों को इसका प्रत्यक्ष लाभ मिल रहा है।
- रोज़-रोज़ नए तरीके खोज-खोज कर लोग जैविक खेती को बढ़ावा दे रहे हैं। किसानों की आय में वृद्धि हुई है और जैविक खेती से हुई फसलों को डिमांड बढ़ी है।
- वर्षा आधारित क्षेत्रों में जैविक खेती की विधि और भी अधिक लाभदायक है। जैविक विधि द्वारा खेती करने से उत्पादन की लागत तो कम होती है साथ ही साथ किसान भाइयों को आय अधिक प्राप्त होती है।
- अंतराष्ट्रीय बाजार की स्पर्धा में जैविक उत्पाद अधिक खरे उतरते हैं। जिसके फलस्वरूप सामान्य उत्पादन की अपेक्षा में किसान अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
जैविक खेती के कई लाभ होते हैं। कुछ मुख्य लाभ निम्नलिखित हैंः
- भूमि की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि हो जाती हैः बेहतर फसल उगाने के लिए मिट्टी की उर्वरता अति आवश्यक है और जैविक खेती के द्वारा इसकी उर्वरता बनी रहती है। मिट्टी में सम्मिलित पोटेशियम, फास्फोरस इत्यादि जैविक खेती द्वारा बने रहते हैं जो लाभदायक है।
- यदि हम मिट्टी की दृष्टि से देखें तो जैविक खाद के उपयोग से भूमि की गुणवत्ता में सुधार आता है, भूमि की जल धारण की क्षमता बढ़ती है और भूमि बंज़र होने से बची रहती है। साथ ही साथ भूमि से पानी का वाष्पीकरण भी कम होता है।
- स्वस्थ खाद्य प्रदान करनाः जैविक खेती से उत्पादित फल, सब्जियां और अन्य खाद्य पदार्थ स्वस्थ होते हैं क्योंकि इसमें कोई भी जहरीला कीटनाशक नहीं होता है जो कि उनमें तथा जो उनको खाते हैं, नुकसान पहुंचाता है।
- वातावरण के लिए अधिक उपयोगीः जैविक खेती से पैदा हुआ उत्पाद वातावरण के लिए बेहतर होता है क्योंकि उसमें कोई जहरीले विषाणु नहीं होते हैं जो कि मानव और पशुओं के स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक होते हैं।
- मानव स्वास्थ्य के लिए अधिक उपयोगीः जैविक खेती से उत्पादित फल, सब्जियां और अन्य खाद्य पदार्थ में अधिक पोषक तत्व होते हैं।
- अधिक नायाब महँगी फसलों की खेतीः जैविक खेती से पैदा हुए उत्पादों की बाजार मूल्य अधिक होती है जिससे किसानों की कमाई बढ़ती है।
- सोखाने के लिए कम पानी का उपयोगः जैविक खेती में फसल के लिए कम पानी का उपयोग होता है जिससे पर्यावरण को भी फ़ायदा होता है। ग्राउंड वाटर टेबल को भी लाभ होता है।
- आधुनिक समय में निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या, पर्यावरण प्रदूषण, भूमि की उर्वरा शक्ति का संरक्षण एवं मानव स्वास्थ्य के लिए जैविक खेती की राह अत्यन्त लाभदायक व प्रभावपूर्ण साबित हुई है।
- मानव जीवन के सम्पूर्ण विकास के लिए ये अत्यधिक आवश्यक है कि प्राकृतिक संसाधन प्रदूषित न हों, शुद्ध वातावरण रहे एवं पौष्टिक आहार मिलता रहे।
- इसके लिये हमें जैविक खेती की कृषि पद्धतियाँ अपनाना होगा जोकि हमारे अतिआवश्यक संसाधनों एवं मानवीय पर्यावरण को प्रदूषित किये बगैर मनुष्य जाती को खाद्य सामग्री उपलब्ध करा सकेगी तथा हमें खुशहाल जीने की राह दिखा सकेगी।
जैविक खेती के हानि
- जैविक खेती एक संतुलित, प्राकृतिक और वातावरण संरक्षण के दृष्टिकोण से बेहतर विकल्प होता है, हालांकि कुछ मुख्य हानियां भी होती हैं। निम्नलिखित कुछ मुख्य जैविक खेती की हानियां हैंः
- कम उत्पादकताः जैविक खेती में उत्पादकता कम हो सकती है जो पूर्ण रूप से स्थानिक और वातावरण की शर्तों पर निर्भर होती है।
- बढ़ती लागतः जैविक खेती में खाद और कीटनाशक के उपयोग की कमी से उत्पन्न उत्पादों की खरीद की लागत बढ़ सकती है।
- तकनीकी मुश्किलेंः जैविक खेती को संचालित करने के लिए विशेष तकनीक की आवश्यकता होती है जो स्थानिक और वातावरण की विशेषताओं के अनुसार होती है।
- खेतों के आकारः जैविक खेती के लिए बड़े क्षेत्रों की आवश्यकता होती है जो छोटे खेती कारों के लिए अधिक मुश्किल हो सकता है।
- जीवाणु जनित बीमारियों का सामनाः जैविक खेती में कीटनाशक के अभाव में, विभिन्न जीवाणुओं से उत्पन्न बीमार।
जैविक खेती के तरीके
जैविक खेती के तरीकों में निम्नलिखित विधियां शामिल होती हैंः
- जैविक खाद उपयोगः जैविक खाद जैविक संसाधनों से बनाई जाती है, जैसे कि खेती अपशिष्ट, नदी कीटाणु, वर्मीकंपोस्ट, आदि। इसे मिट्टी में मिश्रित करके खेती की उपज की गुणवत्ता बढ़ाई जा सकती है।
- जैविक कीटनाशकः जैविक कीटनाशक प्राकृतिक संसाधनों से बने होते हैं और नकारात्मक प्रभावों के बिना कीटों को नष्ट करने में मदद करते हैं। इनमें नीम पत्तियां, प्याज और लहसुन का पेस्ट, और जीवाणुशक्ति के उपयोग की जाती है।
- बायोडाइनामिक खेतीः बायोडाइनामिक खेती एक पूर्णतावादी तरीका है जहां खेती विधियों के साथ निर्मितियों की सुरक्षा, जीवाणुशक्ति, और नवीनतम प्राकृतिक तत्वों का ध्यान रखा जाता है। इसमें बायोडाइनामिक खाद, खेती अपशिष्ट, और पौधों की प्राकृतिक प्रबंधन की तकनीकें शामिल होती हैं।
जैविक खेती की आवश्यकता
जैविक खेती की आवश्यकता विभिन्न कारणों से होती है।
- वातावरण संरक्षण है। जैविक खेती में खाद, कीटनाशक और जलवायु न्यूनतम मात्रा में उपयोग किए जाते हैं, जो प्राकृतिक तरीके से पैदा होते हैं और वातावरण को नुकसान पहुंचाने वाले तत्वों का उपयोग नहीं करते हैं। इसलिए, जैविक खेती वातावरण संरक्षण के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।
- स्वस्थ खाद्य संसाधनों की आवश्यकता है। जैविक खेती में उपयोग किए जाने वाले उत्पादों का खाद्य तत्व मूल रूप से स्थानीय खेती से ही प्राप्त होता है, जिससे खेती के स्वस्थ विकास के लिए संतुलित पोषण में सुनिश्चित होता है।
- सामाजिक उत्थान की आवश्यकता है। जैविक खेती में उत्पादों की गुणवत्ता सुधार होती है जिससे खेतीकरों को बेहतर मूल्य मिलता है और साथ ही स्थानीय अर्थव्यवस्था में भी सुधार होता है।
- जैविक खेती संपूर्णता के दिशा में बदलाव लाती है और विभिन्न प्रकार के खेती रोगों का नियंत्रण करती है। यह स्वास्थ्यपूर्ण खाद्य उत्पादन को बढ़ाती है, पृथ्वी को संतुलित करती है, और पर्यावरण को संरक्षित रखती है। इसलिए, हमारी आज की जरूरतों को पूरा करने के लिए जैविक खेती की आवश्यकता बहुत महत्वपूर्ण है।
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