मुकेश कुमार पटेल (इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय रायपुर) 
अरविंद कुमार आयाम, कार्यक्रम सहायक (कीट विज्ञान) (छ.ग.)

मिट्टी में जैविक पदार्थ की मात्रा मृदा उर्वरता का आधार होती है। इसलिए मिट्टी की पोशक तत्व आपूर्ति की क्षमता का आधार जैविक पदार्थ होता है। निरंतर और अद्यन फसलीकरण के कारण मिट्टी के जैविक पदार्थ के स्तर में तीव्रता से ह्नास हो रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि सघन कृषि क्षेत्रों में हमारे किसानों ने गोबर की खाद, कम्पोस्ट, हरी खाद आदि का प्रयोग छोड़कर अंधाधुध रासायनिक उर्वरकों पर जोर दिया है। प्रारंभ में ऐसा करने से कृषि उत्पादन में उल्लेखिनीय वृद्धि हुई है, लेकिन तत्पश्चात् भूमि की उपजाऊ शक्ति, जैविक खादों के बिना गिरती जा रहीं है और भूमि की भौतिक दशा भी खराब होने लगी है। पोषक तत्वों जैसे, जिंक, लोहा, मैंगनीज, बोरान, मोलिब्डेनम, क्लोराइड, काॅपर आदि तत्वों की भी कमी आने लगी जो पहले जैविक खादों से भरपूर मात्रा में मिलते थे।

अतः मिट्टी की भौतिक, रासायनिक तथा जैविक दृष्टि से स्वस्थ और उत्पादक बनाये रखने के लिए जैविक उर्वरकों के साथ हरी खाद का भी प्रयोग किया जाना अति आवश्यक है। हरी खाद वह खाद है जो भूमि में जीवांश पदार्थ तथा उर्वरता में वृद्धि करने वाली फसलों को हरी अवस्था में दबाने से प्राप्त होती है।

हरी खाद की फसलें:-
मिट्टी में जाीवांश पदार्थ की मात्रा को कायम रखने या बढ़ाने के लिए जो फसलें उगाई जाती है वे हरी खाद की फसलें कहलाती है। हरी खाद के लिए प्रयोग की जाने वाली फसलों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

1. दलहनी फसलें:- फलीदार फसलों की जड़ों में ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं जो वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करके पौधों को उपलब्ध कराते हैं। इस प्रकार की ॅसलें भूमि की भौतिक दशा सुधारने के साथ भूमि को नाइट्रोजन उपलब्ध कराती है। सनई, ढैंचा, उर्द, मूंग, ग्वार, लोबिया, कुल्थी, बरसीम, मटर, मसूर आदि दलहनी फसलों को मुख्यतया हरी खाद के रूप में प्रयोग करते हैं।

2. अदलहनी फसलें:- दलहनी फसलों को हरी खाद के रूप में प्रायः उस भूमि में प्रयोग करते हैं जिनमें केवल जीवांश की वृद्धि करना होता है। अतः इन फसलों का प्रयोग नाइट्रोजन की बाहुल्यता वाली भूमियों में किया जाता है। अदलहनी फसलों में ज्वार, मक्का, सूरजमुखी, भांग, जौ इत्यादि आते हैं।

हरी खाद के लिए प्रयोग की जानी वाली फसल की विशषता -

1. फसल तेजी से बढ़ने वाली होना चाहिए।

2. फसल में वानस्पतिक वृद्धि ज्यादा होना चाहिए, ताकि उसमें हरी पत्तियाँ ज्यादा हो।

3. फसल कोमल तनें वाली हो, ताकि शीघ्र सड-गल सके।

4. फसल गहरी जड़ों वाली होना चाहिए, ताकि सड़ने के उपरांत भूमि की उर्वरक शक्ति में वृद्धि हो।

5. भूमि पर फसल का उच्छा अवशेष प्रभाव पड़ता हो।

हरी खाद का उपयोग विधि:-
मुख्यतः हरी खाद दो प्रकार से प्रयोग की जा सकती है।

अ. हरी खाद की फसलें उगाकर:- इस विधि में हरी खाद की फसल उसी खेत में उगाई जाती है, जिसमें उसे दबाना होता है इसमें हरी खाद के लिए प्रयोग की जाने वाली फसल को शुद्ध या मिश्रित फसल के रूप में उगाकर उसी खेत में दबा दिया जा है। यह विधि अच्छी वर्षा वाले क्षेत्रों में अधिक प्रचलित है।

ब. हरी पत्तियों की खाद:- इस विधि से हरी खाद दिये जाने वाले खेत में कोई फसल नहीं उगाई जाती बल्कि दूसरे खेतों से पत्तियाँ, पौधे काटकर खेत में फैलाकर इन्हें दबा दिया जाता है। यह विधि कम नमी वाले इलकों में प्रयोग की जाती है।

हरी खाद के लाभ -

1. हरी खाद के प्रयोग से मृदा में जीवांश की वृद्धि होती है इस प्रकार प्रदान किया गया पोषक तत्व पदार्थ अधिक स्थाई होता है।

2. हरी खाद के द्वारा दलहनी फसलों की जड़ ग्रंथियों में निवास करने वाले जीवाणुओं द्वारा नाइट्रोजन की वृद्धि होती है।

3. हरी खाद के द्वारा पोषक तत्वों की निछालन द्वारा हानि कम होती है।

4. मुख्य पोषक तत्वों के साथ गौण तथा सूक्ष्म तत्वों की उपलब्धता भी बढ़ती है।

5. मृदा कटाव की रोकथाम होती है इस प्रकार भूमि की ऊपरी सतह सुरक्षित रहती है।

6. खरपतवार की रोकथाम होती है।

7. मृदा में कार्य करने वाले लाभदायक जीवाणुओं की क्रिया शीलता में वृद्धि होती है।

8. मृदा की भौतिक संरचना में सुधार होता है।

9. फसलोत्पादन में सुधार होती है।

हरी खाद की खेती:-
हरी खाद की फसलों थ्की बुआई मौसम के अनुसार की जानी चाहिए। खरीफ ऋतु में सिंचाई की सुविधा वाले स्थानों पर मई में तथा अन्य स्थानों पर मानसून के प्रारंभ होने के साथ ही बुआई की जानी चाहिए। हरी खाद के लिए भूमि की अच्छी तैयारी की आवश्यकता नहीं होती है। केवल एक या दो जुताई करनी ही पर्याप्त होती है।

विभिन्न फसलों को हरी खाद के लिए बोने पर सामान्य से कुछ अधिक बीज प्रयोग किया जाता है। हरी खाद के लिए विभिन्न फसलों के बीज की मात्रा निम्न प्रकार है।

  • सनई: 70-80 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर
  • ढेंचा: 30-40 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर
  • उर्द, मूंग: 25-30 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर
  • लाबिया: 60 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर

हरी खाद की फसलों के लिए सामान्य रूप से खाद देने की आवश्यकता नहीं होती है। इस उद्येश्य से दलहनी फसलें उगाने पर 40 कि.ग्रा. फास्फेटिक खाद प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करने पर लाभ होता है। आमतौर पर हरी खाद की फसलों में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। सिंचाई की सुविधा वाले स्थानों पर आवश्यकतानुसार सिंचाई कर दी जानी चाहिए। हल्की और अद्ध जल निकास वाली भूमि पर सनई, उर्द तथा मूंग तथा भारी दलहनी और जल गठन भूमि के लिए ढेंचा उपयुक्त रहते हैं। हरी खाद के लिए उगाई गई फसलों को फूल निकलते समय पलटना विशष लाभदायक होता है। इस अवस्था में फसल की सर्वाधिक वानस्पतिक वृद्धि होती है और पौधों की शाखाएँ कोमल होती है एवं सर्वाधिक जीवांश पदार्थ तथा नाइट्रोजन प्राप्त होता है। पुष्पावस्था के बाद रेसा तंतुओं के विकास के कारण पौधे कठोर हो जाते हैं, जिससे सड़ाव में विलंभ होता है। इस प्रकार सनई की फसल बोने के 50-55 दिन, ढेंचा 40-50 दिन, मूंग, उर्द की फलियाँ तोड़कर पलटना लाभदायक होता है।

फसलों की फलटाई के पूर्व फसल में पाटा या रोलर चलाकर गिरा दिया जाना चाहिए इसके बाद मिट्टी पलटने वाले यंत्र से फसल को दबाकर पाटा चलाया जाना चाहिए, जिससे फसल भली प्रकार से मिट्टी से ढँक जाए। पलटाई के उपरांत मृदा में पर्याप्त नमी बनाए रखने के लिए आवश्यकतनुसार सिंचाई करना आवश्यक होता है। हरी खाद की फसल का सड़ाव, दबाने के एक से डेढ माह में पूर्ण हो जाता है, लेकिन धान जैसे अधिक पानी चाहने वाली फसल की रोपाई खेतों में हरी खाद की पलटाई के तत्काल बाद की जा सकती है। हरी खाद वाली दलहनी फसलों के साथ रासायनिक उर्वरकों के एकीकृत प्रयोग से यह नाइट्रोजन की आवश्यकता की पूर्ति करने के अतिरिक्त सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता व पोषक तत्व उपयोग क्षमता को बढ़ाता है।