भूमिका कोमा, विनोद कुमार मरकाम एवं ऋषि कुमार महोबिया
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र, कुरूद, धमतरी (छ.ग.)


परिचय
पैरा मशरूम (वोल्वेरिएला वोल्वेसिया) जिसे चाईनीज मशरूम के नाम से भी जाना जाता है, बेसिडियोमाइसीट्स के प्लूटेसिया कुल से संम्बन्ध रखती है। यह उपोषण तथा उष्ण कटिबंध भाग की खाद्य मशरूम है। पैरा मशरूम को ‘गर्म मशरूम’ के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि ये सापेक्षतः उच्च तापमान पर उगती है। यह तेजी से उगने वाली मशरूम है तथा अनुकूल उत्पादन परिस्थितियों में इसका एक फसल चक्र 4 से 5 सप्ताह में पूर्ण हो जाता है। इस मशरूम के उत्पादन हेतु विभिन्न प्रकार के सेलुलोज युक्त पदार्थो का इस्तेमाल किया जा सकता है तथा इन पदार्थो में कार्बन व नाईट्रोजन के 40 से 60ः1 के अनुपात की आवश्यकता होती है, जो अन्य मशरूम के उत्पादन की तुलना में बहुत उच्च है।

जैविकीय विशेषताए:-
पैरा मशरूम के फलनकाय को छहः विभिन्न विकासात्मक अवस्थाओं में विभाजित किया जा सकता है। ये अवस्थाएं हैं खुम्ब कलिकाएं (पिन हैड), छोटे बटन, बटन, अडांकार, विस्तारण अवस्था तथा परिपक्व अवस्था। प्रत्येक की अपनी विशेष अकारिकी तथा आंतरिक रचना होती है।

1. खुम्ब कलिकाएं (पिन हैड)
इस अवस्था में इसका आकार सूक्ष्म दानों जैसा होता है। इसमें धब्बा रहित सफेद झिल्ली होती है। लम्बवत दिशा में काटने के बाद देखने पर इसमें छत्र तथा तना दिखाई नहीं देते है। सम्पूर्ण संरचना तन्तु कोशिकाओं की गाँठ जैसी होती है।

2. छोटे बटन
दोनों ही अवस्थाएं, छोटे बटन तथा खुम्ब कलिकाएं आपस में बुनी हुई तन्तु कोशिकाओं से बनती हैं। युवा छोटे बटन में झिल्ली का ऊपरी हिस्सा भूरा होता है जबकि शेष हिस्सा सफेद होता है । यह आकार में गोल होता है और यदि बटन को लम्बवत काट दिया जाये तो इसके पत्रक (लैमिली), छत्र के निचले तल पर संकरे बंद की तरह दिखाई देते है।

3. बटन अवस्था
पुआल मशरूम की इस अवस्था को उत्तम समझा जाता है तथा यह बाजार में अधिक मूल्य पर बेची जाती है। इस अवस्था में संपूर्ण संरचना एक झिल्ली द्वारा ढकी होती है। झिल्ली के अन्दर बन्द अवस्था में छत्रक विद्यमान होता है। हालांकि सामान्य तौर पर तना दिखाई नहीं देता है परन्तु मशरूम के अनुदैध्र्य खण्ड (खड़ी दिशा) में यह दिखाई देता है।

4. अंडाकार अवस्था
इस अवस्था को भी बहुत अच्छा माना जाता है तथा बाजार में इसकी अच्छी खासी रकम मिलती है। इस अवस्था में छत्रक झिल्ली से बाहर निकल आता है तथा झिल्ली वाॅल्वा के रूप में शेष रह जाती है। इस अवस्था में पत्रकों पर बीजाणु नहीं होते हैं। इस अवस्था तक छत्रक का आकार बहुत छोटा रहता है।

5. विस्तारण अवस्था
इस अवस्था पर छत्रक बन्द होता है तथा इसका आकार परिपक्व अवस्था से थेाड़ा छोटा होता है, जबकि तना अधिकतम लम्बाई प्राप्त कर चुका होता है। डण्डी जलसह स्याही के साथ चिन्हित होती है।

6. परिपक्व अवस्था
परिपक्व अवस्था में इसकी सरंचना को तीन हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है, 1- छत्रक या टोपी, 2- तना या डण्डी, 3- वाॅल्वाया कप। छत्रक तने के साथ मध्य में जुड़ा रहता है और साधारणतया इसका व्यास 6 से 12 सेंटीमीटर होता है। पूर्ण परिपक्व छत्रक सभी किनारों से आकार मे वष्ताकार होता है तथा इसकी सतह समतल होती है। इसकी सतह मध्य में गहरी स्लेटी तथा किनारों पर हल्की सलेटी होती है। छत्रक की निचली सतह पर पत्रदल होते हैं, जिनकी संख्या 280 से 380 तक हो सकती है। पत्रदल आकार में भी भिन्न होते हैं। पत्रदल छत्रक के पूरे आकार से लेकर एक चैथाई आकार तक के हो सकते हैं। सुक्ष्मदर्शी परिक्षण से प्रत्येक पत्रदल आपस में बुनी हुई तन्तु कोशिकाओं की तीन परतों से बना दिखाई देता है। सबसे बाहरी परत हायमिनियम कहलाती है। ये डण्डे के आकार की बेसिडिया व सिसटिडिया बनाती है। इस बेसिडिया में चार बीजाणु होते है। बीजाणु आकार में भिन्न-भिन्न होते है, ये अण्डाकार, गोलाकार तथा दीर्घवृत आकार के होते हैं। बीजाणुओं के रंग भी भिन्न-भिन्न होते हैं और ये हल्के पीले, गुलाबी या गहरे भूरे रंग के हो सकते हैं। तना एक परिपक्व फलनकाय का महत्वपूर्ण भाग होता है जो छत्रक तथा वाॅल्वा को जोड़ कर रखता है। तने की लम्बाई छत्रक के आकार पर निर्भर करती है, साधारणतया इसकी लम्बाई 3 से 8 सेंटीमीटर तथा व्यास 0.5 से 1.5 सेंटीमीटर होता है। यह सफेद, गूदेदार होता है तथा इसमें कोई छल्ला नहीं होता है। डण्डी के आधार पर वाॅल्वा होता है, जो वास्तव में आपस में बुनी हुई तन्तु कोषिकाओं की एक पतली चादर होती है तथा तने के आधार पर बल्बनुमा आकार के चारों तरफ होती है। वाॅल्वा, गूदेदार, सफेद तथा कप के आकार का होता है और इसके किनारे अव्यवस्थित होते है। वाॅल्वा के आधार पर कवक जाल (राईजोमार्फ्स) होता है जो पोषाधार से पोषण ग्रहण करने में सहायक होता है।

पौष्टिक गुण
मशरूम के शुखे भार के आधार पर, इसमें कच्चा प्रोटीन 30.43 प्रतिशत, वसा 1.6 प्रतिशत, कार्बोहाइड्राट्स् 12.48 प्रतिशत, कच्चा रेशा 4.10 प्रतिशत, तथा राख 5.13 प्रतिशत, पोषक तत्व पाये जाते हैं। ताजा प्रतिशत, के भार के आधार पर इसकी तत्व संरचना तालिका-1 में दर्षाइ गई है। वसा तत्व की बढोत्तरी परिपक्व अवस्था तक होती है तथा पूर्ण रूप से परिपक्व फलनकाय में यह काफी उच्च (5 प्रतिशत) होती है। नाइट्रोजन मुक्त कार्बोहाइडेªटस की बढोत्तरी बटन अवस्था से अण्डाकार अवस्था तक होती है। विस्तारण अवस्था में यह रूक जाती है तथा परिपक्व अवस्था में कम हो जाती है। पहली तीन अवस्थाओं में कच्चा रेशा लगभग समान स्तर पर रहता है तथा परिपक्व अवस्था मे बढ जाता है। सभी विकास की अवस्थाओं में राख तत्व लगभग समान रहता।

पैरा मशरूम के लिए जलवायु
इसके लिए तापमान बीज फैलाव हेतु (सेल्सियस) 32-38, एवं फलन हेतु (सेल्सियस) 28-32 तथा नमी 80-85 (प्रतिशत) तक हो।

पैरा मशरूम उगाने के लिए आवश्यक सामग्री
  • धान का पुआल- पैरा मशरूम की खेती में धान का पुआल सबसे महत्वपूर्ण है। यह धान के पौधे का उप-उत्पाद है। बिस्तर सामग्री के लिए इस्तेमाल किया जाता है। 1.5 फीट लंबे एवं 1.2 फीट चैड़े बंडल 1-2 किलो ग्राम पैरा बंडल की 16 से 20 बंडल की 1 बेड बनाने के लिए जरूरत होती है।
  • मशरूम स्पॉन- ‘स्पॉन’ या ‘मशरूम बीज पूरी प्रक्रिया की पहली आवश्यकता है। हमेशा उस पर सफेद माइसेलियम के साथ स्वस्थ स्पॉन खरीदें। अवांछित रंग जैसे, गहरे भूरे, काले और हरे रंग के साथ स्पॉन को त्यागें।
  • फॉर्मेलिन और कैल्शियम कार्बोनेट- पैरा को उपचारित करने के लिए 100 लीटर पानी के लिए 135 मिलीलीटर फॉर्मेलिन एवं कैल्शियम कार्बोनेट पैरा के पीएच को कम करने के लिए 100 लीटर पानी में 200 ग्राम डाला जाता है।
  • बेसन - 150 से 200 ग्राम प्रति बेड।
  • पारदर्शी पॉलीथिन शीट- पॉलीथिन शीट का उपयोग स्पॉन वाले मशरूम बेड को ढंकने के लिए किया जाता है।
  • पानी की टंकी या प्लास्टिक ड्रम- जरूरत के हिसाब से पानी की टंकी का आकार और संख्या बढ़ाई जा सकती है। 12*4*2 फीट के मानक आकार के टैंक को प्राथमिकता दी जाए। सीमेंट और ईंटों का उपयोग करके एक स्थायी टैंक का निर्माण किया जाता है।
  • पानी का स्रोत- हमेशा साफ पानी का उपयोग करें। कुंआ बोरवेल, नदी का ताजा पानी, मीठे पानी का अन्य स्रोत।
पैरा मशरूम उगाने की विधि
पैरा मशरूम की खेती खुले क्षेत्र व बंद कमरे में भी की जा सकती है। इसके लिए इस प्रकार से तैयारी की जाती है-
  • खुले में पैरा मशरूम की खेती- इस विधि से खेती करने के लिए 100 सेमी लंबी* 60 सेमी चौड़ी* 15 से 20 सेमी ऊंची ईंटों की या क्यारियां बनाई जाती हैं सीधी धूप तथा बारिश से बचाने के लिए इसके ऊपर शेड बना दिया जाता है। बाहरी खेती में बारिश, हवा या उच्च तापमान के संपर्क में आने के जोखिम होते हैं, जो उपज को कम करते हैं।
  • कमरे के अंदर पैरा मशरूम की खेती- कमरे के अंदर बांस या लोहे के एंगल से रैक बनाये। एक के ऊपर एक 45-50 सेमी ऊंची चार रैक बनाये और सबसे नीचे वाली रैक जमीन से 20-30 सेमी ऊपर हो। इस विधि में एक विशेष प्रकार के कंपोस्ट खाद तैयार की जाती है। यह महंगी विधि है।
  • जगह- सामान्य तौर पर 7-10 स्क्वायर फीट प्रति बेड की आवश्यकता होती है ।
पैरा मशरूम उत्पादन का तरीका
  • धान पैरा के 1.5 फीट लंबे एवं 1 से 2 फीट चौड़े बंडल 1-2 किलो ग्राम के एक बंडल तैयार करें उस बंडल के दोनों किनारे को बांधे रखें। एक क्यारी बनाने के लिये 12-16 बंडल की जरूरत होती है।
  • इस बंडल को 14-16 घंटों तक 200 ग्राम कैल्शियम कार्बोनेट, 135 मि. ली. फार्मेलिन प्रति 100 लीटर साफ पानी में भिगाते है उसके बाद पानी को निथार देते हैं।
  • उपचारित बंडलों से पानी निथार जाने के 1 घंटे बाद प्रति बेड 120-150 ग्राम पैरा मशरूम की बीज मिलाते हैं। बिजाई करते समय 4 बंडल को आड़ा बिछाकर उसके किनारे में बीज डालते हैं और उसमे थोड़ा बेसन उसके ऊपर 4 बंडल को तिरछा बिछाते है फिर उसके बाद बीज और बेसन मिलाते हैं। ऐसे ही चार परत तक इस विधि को दोहराते हैं। तब कहीं जाकर एक क्यारी बनता है।
  • बीज युक्त बंडलों को अच्छी तरह से चारों ओर से पालीथिन से 8-10 दिनों के लिए ढंक देते हैं।
  • कवकजाल फैल जाने के बाद पालीथिन सीट को हटाया जाता है। उसके बाद 5-6 दिनों तक हल्का पानी का छिडकाव सुबह शाम करते हैं।
  • पैरा मशरूम की कलिकायें 2-3 दिन में बनना प्रारंभ हो जाती है।
  • दिनों के भीतर मशरूम तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है।

बीमारियाँ, कीड़े-मकोड़े तथा उनका प्रबंधन
अ) कीडे
मुख्यतः पुआल मशरूम में माईट (बरूथी), मिलीपीड (सहस्रपाद), ग्रब्स (कीट), सूत्रकृमि तथा केंचुऐ हानि पहुँचाते हैं। बरूथी (माईट) कवक जाल तथा बटन को अधिकतम क्षति पहुँचाते है। अन्य कीड़ों में सूत्रकृमि आते हैं जो मशरूम को काफी क्षति पहुँचाते हैं। सूत्रकृमियों के बारे में विस्तार से चर्चा की जा रही है।

ब) सूत्रकृमि
यह समस्या तब आती है जब खाद को सही ढंग से पास्चुरीकृत न किया गया हो। खाद में अधिक मात्रा में पानी के तत्व की वजह से खाद पूरी तरह से नहीं सड़ती है तथा खाद का तापमान पूर्णतया नहीं बढता है, परिणाम स्वरूप खाद अपरिपक्व रहती है। अत्याधिक नमी की वजह से शैय्या के मध्य में सूत्रकृमियों को मारने के लिए जरूरी तापमान पर्याप्त मात्रा में नही बढता है (0.50 डिग्री सेल्सियस)। इस प्रकार पास्चुरीकरण के पश्चात भी सूत्रकृमि जीवित रहते है। बीजाई के समय खाद का तापमान फिर से कम किया जाता है जो सूत्रकृमियों के लिए सही होता है तथा उनकी वृद्धि गुणात्मक ढंग से होती है। सूत्रकृमि मशरूम के कवक जाल को खाते हैं जिसके परिणाम स्वरूप बढती हुई मशरूम कलिकाओं को पोषक तत्व नहीं मिल पाते हैं और वे मर जाती हैं। खुम्ब घरों, उपकरणों, पदार्थों तथा जिस स्थान पर खाद रखी जाती है, सभी सूत्रकृमि फैलाने में सक्षम होते है और समय के साथ सूत्रकृमि शैय्या की खाद में फैल जाते है। सूत्रकृमियों की क्रियाशील अवस्था 50 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान सहन नहीं कर सकती है। अतः उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, उच्च गुणवत्ता की खाद प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित सुविधाजनक नीति अपनाई जा सकती है।

स) बीमारियां
इस मशरूम की बीमारियों से सम्बन्धित पहलू पर अभी तक अधिक अनुसंधान कार्य नहीं किया गया है। केाप्राईनस प्रजाति की फँफूद इस मशरूम फसल को काफी हद तक नष्ट कर सकती है क्योंकि इसकी वृद्धि के लिए वही आवश्यकताएं होती हैं जो कि वाॅल्वेरिएला की वृद्धि के लिए आवश्यक होती हैं। अन्य प्रतिस्पर्धात्मक फँफूद जैसे ट्राईकोडर्मा प्रजाति, पेनसिलियिम प्रजाति तथा म्यूकर प्रजाति को हानि पहूँचाते पाया गया है। ये मुख्यतः माध्यम के सही तरीके से पास्चुरीकृत नहीं होने के कारण से या प्रदूषित स्पाॅन का उपयोग किये जाने की वजह से आते हैं।

कोप्राईनस
पुआल मशरूम के कुछ प्रतिस्पर्धात्मक फफूंद हैं और इनमें से कोप्राईनस एक है। ये पुआल मशरूम की अपेक्षा अपना पूरा जीवन चक्र बहुत कम अवधि (एक सप्ताह) में पूरा कर लेता है जबकि पुआल मशरूम 9.10 दिन का समय ले लेती है। इस प्रकार से कोप्राईनस, पुआल मशरूम का एक शक्तिशाली प्रतियोगी बन जाता है। कोप्राईनस की फलन कोशिका का छत्रक जल्दी खुल जाता है (आकृति- 28) और रात भर में इसका स्व-पाचन हो जाता है तथा काली स्याही जैसा तरल पदार्थ छोड देता है। इससे बचे हुए तने में तीव्र गंध उत्पन्न होती है तथा इससे ट्राईकोडर्मा नामक हरे फफूंद की वृद्धि होती है। कोप्राईनस फफूंद के लिए जरूरी वातावरणीय परिस्थितियां वैसी ही होती हंै जैसी की वाॅल्वेरिऐला वाॅल्वेसिएया के लिए आवश्यक होती हैं और इस प्रकार यह मशरूम की शैय्या को नष्ट कर देता है। इन दोनों फफूंदों में नाईट्रोजन के स्तर की आवश्यकता भिन्न होती है। कोप्राईनस के लिए नाईट्रोजन की मात्रा वाॅल्वेरिएला से लगभग 4 गुणा अधिक होती है। दोनो फफूंदो के लिए इष्टतम पी.एच. में भी भिन्नता होती वाॅल्वेरिएला की वृृृद्धि 9.0 पी. एच. पर बडिया होति है जबकि कोप्राईनस की वृद्धि 5.0 से 8.0 पी.एच. पर होती है। इन दो आवश्कताओं को ध्यान में रखते हुए उत्पादक कोप्राईनस की अपेक्षा वाॅल्वेरिएला के उत्पादन हेतु अनुकूल परिस्थितियां कुशलता पूर्वक उत्पन्न कर सकते हैं। इसके लिए मुख्यतः निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए।

1) खाद में कार्बन तथा नाईट्रोजन का अनुपात 40ः1 से 50ः1 तक होना चाहिए और यदि कोई नाईट्रोजन का स्रोत मिलाना भी पड़े तो ये खाद तैयार करते समय शुरूआत में ही मिला देना चाहिए, ताकि इसका खाद सड़ने की प्रक्रिया के दौरान ही सही तरह से उपयोग हो सके।

2) खाद में नमी की मात्रा 60 से 65 प्रतिशत तक बनाए रखनी चाहिए, ताकि निर्धारित उच्च तापमान आ सके और खाद सही प्रकार से किणवित हो सके।

3) अगर खाद में नमी की मात्रा ज्यादा होती है तो खाद सड़ जायेगी तथा इसमें कोप्राईनस की वृद्धि होगी।

फसल के दौरान आने वाली साधारण समस्यां व उनका स्रोत

1) फफूंद की अपर्याप्त वृद्धि
फफूंद की अपर्याप्त वृद्धि, अपर्याप्त भोजन या ज्यादा दबाकर भरी हुई खाद की शैय्या या स्पाॅन की खराब गुणवत्ता की वजह से हो सकती है।

2) प्रदूषकों की उपस्थिति
पास्चुरीकरण की प्रक्रिया के दौरान पर्याप्त उच्च तापमान न होने की वजह से प्रदूषकों का न मरना या खाद में भीतर तक भाप का पूरी तरह से नहीं पहुंच पाना या फिर खराब स्पाॅन के इस्तेमाल की वजह से भी प्रदूषकों की मौजूदगी हो सकती है।

3) अमोनिया की तीव्र गंध
नाईट्रोजन स्रोतों का अत्याधिक उपयोग या खाद तैयार करने की दूसरी अवस्था में गलत ढंग से कंण्डीशनिंग करना।
पानी की कमी या अत्याधिक संवातन।

5) फलन कोशिका बनाने में विफलता
प्रकाश का अभाव, खराब स्पाॅन या बहुत पुरानी स्पाॅन, अत्याधिक उच्च तापमान या संवातन सही ढंग से न करने की वजह से फलन कोशिकाओं के बनने में विफलता होती है।

6) छोटी मशरूम कलिकाओं की मौत
खराब स्पाॅन, कीड़ो का आक्रमण, अपर्याप्त आक्सीजन, अत्याधिक कार्बन डाईआक्साईड, तापमान का घटना या बढना तथा फफूंद अथवा विषाणु जनित बीमारियों की वजह से छोटी मशरूम कलिकाओं की मौत हो जाती है।

7) कोप्राईनस की वृद्धि
अत्याधिक नाईट्रोजन, खराब किस्म का पुआल या खाद की शैय्या में अतिरिक्त ताप होने की वजह से कोप्राईनस की वृद्धि होती है। 

अनुकूल नमी और तापमान की स्थिति में लगभग 20-25 दिनों के बाद मशरूम की कटाई होती है। अकेले धान के पुआल में, 15-18 किलोग्राम/100 किलोग्राम गीला सब्सट्रेट प्राप्त किया जा सकता है। मशरूम की कटाई तब की जाती है जब वोल्वा सिर्फ टूटता है और मशरूम अंदर से बाहर निकलता है। धान के पुआल मशरूम प्रकृति में बहुत नाजुक होते हैं और केवल 2-3 दिनों के लिए रेफ्रिजरेटर के स्थिति में संग्रहीत किए जा सकते हैं। मशरूम को छाया या धूप में सुखाया जा सकता है।

प्राप्त उपज और शुद्ध लाभ
पैरा मशरूम की प्रति बेड लगभग 4-5 किलो तक प्राप्त होती है। इसे उगाने में प्रति बेड लगभग 100-150 रुपए का खर्चा आता है। इसका फसल चक्र लगभग 40-45 दिनों की होती है। इसको रेफ्रीजरेटर में 2-3 दिन तक सुरक्षित रखा जा सकता है। अब बात करें इससे प्राप्त आय की तो ये मशरूम बाजार में करीब 150 से 250 रुपए प्रति किलो ग्राम की दर से बाजारों में बिकता है। यदि उत्पादन खर्च निकाल दिया जाए तो इसके बाद भी इससे प्रति बेड लगभग 250 से 350 रुपए शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है।