मुकेश कुमार पटेल एवं पल्लवीराय
(इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर, (छ.ग.)

अरहर खरीफ मौसम की महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। अरहर उत्पादन के क्षेत्र में भारत का विश्व स्तर पर प्रथम स्थान है। हमारे देश में अरहर मुख्यतः दाल के लिये उगाई जाती है, जबकि कुछ क्षेत्रों में इसे हरी सब्जी के रूप में भी इसका उपयोग किया जाता है। इसके डंठल का उपयोग ईंधन के रूप में तथा टोकरी, छप्पर आदि बनाने के लिए भी किया जाता है। अरहर की फसल मृदा क्षरण रोकने एवं मृदा उर्वरता बढ़ाने में भी सहायक होती है। अरहर की जड़ें भूमि में गहराई तक जाकर मृदा में वायु अनुपात बढ़ाती हैं तथा इनकी जड़ों में उपस्थित राइजोबियम बैक्टीरियम मृदा में नत्रजन की वृद्धि करता है। अरहर में औसतन 20 से 21 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा पाई जाती है। छत्तीसगढ़ में अरहरकी खेती प्रदेश के सभी भागों में की जाती है किंतु राजनांदगांव, कबीरधाम, दुर्ग, बेमेतरा, मुंगेली, सरगुजा, कोरिया, बस्तर एवं बिलासपुर जिले प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं।

हानिकारक कीट एवं उनका नियंत्रण

1. फलीभेदक
इस कीट की इल्ली फली के अंदर बनने वाले बीज को खाती है। इल्ली हरे रंग की एवं इसके शरीर के किनारों पर हल्की एवं गहरी धारियाँ पाई जाती हैं। यह फली में छेद बनाकर अपना सिर फली में घुसाकर दाने को खाती है। इस कीट के प्रकोप से फसल को काफी नुकसान होता है। इसलिए नियमित फसल निरीक्षण करें।

2. प्लूम मोथ
इस कीट की इल्ली हरेरंग की होती है। इसके शरीर पर छोटे रुएँ एवं धारियाँ पाई जाती हैं तथा इस कीट का वयस्क भूरे रंग का, अगले एवं पिछले पंख गहरे कटे हुये तथा पंखों पर धब्बे पाये जाते हैं।

3. फली मक्खी
मक्खी का लार्वा (इल्लियाँ) दानों को नुकसान पहुँचाता है। इसकी इल्ली दानों में सुरंग या छेद बना देती है। यह कीट मध्यम अवधि की अरहर की फसल को अधिक नुकसान पहुँचाता है।

4. चित्तीदार फली बेधक
इस कीट की इल्लिया फलियों में छेद बनाकर दानों को खाती हैं। प्रभावित फली को खोलकर देखने पर मटमैले-भूरे रंग की इल्लियाँ तथा उनके द्वारा निकली विष्ठा दिखाई देती है। इसकी इल्लियाँ सफेद (भूरा-सफेद) से हल्के रंग की होती हैं, जिसके शरीर पर काले रंग के छोटे-छोटे धब्बे पाये जाते हैं। ये इल्लियाँ सिर एवं उदर की ओर पतली तथा बीच में मोटी होती हैं। इस कीट का प्रकोप फली अवस्था में ही अधिक होता है।

समन्वित कीट प्रबंधन (आई.पी.एम.) तकनीक के प्रमुख बिन्दु
  • फफूँदनाशी रसायन या ट्राइकोडर्मा से बीजोपचार करें।
  • बीमारी से प्रभावित क्षेत्रों में बचाव हेतु रोगप्रतिरोधी किस्में उगाना। मध्यम अवधि वाली किस्मों का चयन करें
  • किस्मों की अवधि व वृद्धि के अनुरूप कतार की दूरी व प्रति हेक्टेयर पौधों की समुचित संख्या रखें। रिज एवं फरो (कुडी-मादा) पद्धति से बुवाई करें। हेक्टेयर के हिसाब से लगावें तथा हर 15 दिनों बाद से प्टा बदलें।
  • अरहर की बुवाई के समय से ही खेत में फेरोमोन ट्रैप लगाकर हेलिको वर्पा (फली छेदक सूँडी) का नियमित आँकलन करें तथा पाॅच फरोमोन ट्रेप लगाये तथा पैकेट में वर्णित अवधि में सेफ्टा को बदले।
  • सही समय पर संतुलित मात्रा में खाद का प्रयोग करें।
  • फसल की प्रारम्भिक अवस्था में समुचित खरपतवार नियंत्रण करें।
  • फसल में फूल आने पर नियमित देखभाल करें।
  • खेत में पक्षियों के बैठने की समुचित व्यवस्था सुनिश्चित करें। पक्षियों इल्लियों को खाती हैं।
  • फसल में फूल आने पर नीम के 5 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें।
  • एन.एच.पी.व्ही. के 500 लार्वा समतुल्य घोल का कीट के अण्डे देने की अवस्था से 2-3 बार व 15 से 20 दिनों के अन्तराल पर छिड़काव करें।
  • पौधों को हिलाकर लार्वा गिरायें तथा उन्हें नष्ट करें।
  • सघन कीट प्रकोप की दशा में यदि उपरोक्ततरी के से सन्तोसजनक कीट नियंत्रण नहीं हो पाता है तो सावधानीपूर्वक रासायनिक कीटनाशकों का छिड़काव करें।

अंतवर्ती फसल

क्रं.

अंत: फसल

अनुपात

1.

ज्वार + अरहर

2:1

2.

मक्का + अरहर

2:1

3.

मूंगफली + अरहर

2:1

4.

सोयाबीन + अरहर

2:1

5.

मूंग/उड़द +  अरहर

2:1


रासायनिक नियंत्रण

क्रं.

नाशीजीव का नाम

अनुशंसित कीटनाशक

कीटनाशक की मात्रा

1.

फलीछेदक सून्डी

प्रोफेनोफास 50 .सी.

क्लोरपायरीफास 20 .सी.

क्विनालफास 25 .सी.

एन.पी.व्ही. (Ha)

NSKE 5 प्रतिशत

2.0 मि.ली./ली.

2.5 मि.ली./ली.

2.0 मि.ली./ली.

250 से 500 LE/ हे.

50 ग्रा./ली.

2.

प्लूम मोथ

क्लोरपायरीफास 20 .सी.

क्विनालफास 25 .सी.

एसीफेट 75 एस.पी.

मिथोमिल 40 एस.पी.

2.5 मि.ली./ली.

2.0 मि.ली./ली.

1.0 ग्रा./ली.

0.6 ग्रा./ली.

3.

फली मक्खी

इमिडाक्लोप्रिड 17.5 एस.एल. + गुड़ (1 प्रतिशत)

थायोडीकार्ब 75 एस.पी. + गुड़ (1 प्रतिशत)

0.2 मि.ली./ली. + 10 ग्रा./ली.

0.6 मि.ली./ली. + 10 ग्रा./ली.

4.

चित्तीदारफलीछेदक

प्रोफेनोफास 50 .सी.

NSKE 5 प्रतिशत

2.0 मि.ली./ली.

50 ग्रा./ली.