हर्षिका तिवारी, सृष्टि सिंह परिहार एवं बी.एस.परिहार
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)

गाजरघास का वैज्ञानिक नाम पारथेनियम हिस्टोफोरस है। गाजरघास को अन्य नामों जैसे - कांग्रेस घास, सफेद टोपी, चटक चांदनी, गंधी बूटी आदि नामों से भी जाना जाता है। यह एस्टोरेसी (कम्पोजिटी) कुल का पौधा है। इसका मूल स्थान मेक्सिको, मध्य व उत्तरी अमेरिका माना जाता है। भारत में सर्वप्रथम यह गाजरघास पूना (महाराष्ट्र) में 1955 में दिखाई दी थी। ऐसा माना जात है कि हमारे देश में इसका प्रवेश 1955 में अमेरिका से आयात किये गये गेहूं के साथ हुआ था। परन्तु अल्पकाल में ही यह गाजरघास पूरे देश में एक भीषण प्रकोप की तरह लगभग 35 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर फैल चुकी है। विश्व में यह गाजरघास भारत के अलावा 38 अन्य देशों जैसे अमेरिका, मैक्सिको, वेस्टइंडीज,भारत, नेपाल, चीन,वियतनाम, आस्ट्रेलिया आदि देशों के विभिन्न भागों में भी फैली हुई है।

कैसी होती है गाजरघास ?
यह एकवर्षीय शाकीय पौधा है, जिसकी लम्बाई लगभग 1.0 से 1.5 मी. तक हो सकती है। इसका तना रोयेदार एवं अत्याधिक शाखायुक्त होता है। इसकी पत्तियां गाजर की पत्ती की तरह नजर आती है जिन पर सूक्ष्म रोयें लगे रहते है। प्रत्येक पौधा लगभग 10000-25000 अत्यंत सूक्ष्म बीज पैदा कर सकता है। बीजों में शुषुप्तावस्था नही होने के कारण बीज पककर जमीन में गिरने के बाद नमी पाकर पुनः अंकुरित हो जाते है। गाजरघास का पौधा लगभग 3-4 महीने में अपना जीवन चक्र पूरा कर लेता है। अतः इस प्रकार यह एक वर्ष में 2-3पीढ़ी पूरी कर लेता है। चूॅकिं यह पौधा प्रकाश एवं तापक्रम के प्रति उदासीन होता है अतः पूरे वर्ष भर उगता एवं फूलता-फलता रहता है।

कहॉ उगती है गाजरघास ?
गाजरघास का पौधा हर तरह के वातावरण में उगने की अभूतपूर्व क्षमता रखता है। इसके बीज लगातार प्रकाश अथवा अंधकार दोनो ही परिस्थितियों में अंकुरित होते है। यह हर प्रकार की भूमि चाहे वह अम्लीय हो या क्षारीय, उग सकता है। इसलिए गाजरघास के पौधें समुद्र तट के किनारे एवं मध्यम से कम वर्षा वाले क्षेत्रों के साथ-साथ जलमग्न धान एवं पथरीली क्षेत्रों की शुष्क फसलों में भी देखने को मिलते है। बहुतायत रूप से गाजरघास के पौधे खाली स्थानों, अनुपयोगी भूमियों, औद्योगिक क्षेत्रों, सड़क के किनारों, रेलवे लाइनों आदि भूमि पर पाये जाते है। इसके अलावा इसका प्रकोप खाद्यान्न, दलहनी, तिलहनी फसलों, सब्जियों एवं उद्यान फसलों में भी देखने को मिलता है।

कैसें फैलती है गाजरघास ?
भारत में इसका फैलाव सिंचित से अधिक असिंचित भूमि में देखा गया है। गाजरघास का प्रसार, फैलाव एवं वितरण मुख्यतः इसके अति सूक्ष्म बीजों द्वारा हुआ है। शोध से ज्ञात होता है कि एक वर्गमीटर भूमि में गाजरघास लगभग 154000 बीज उत्पन्न कर सकता है। एक स्वस्थ गाजरघास के अकेले पौधे से ही लगभग 10000-25000 बीज उत्पन्न हो सकते है। इसके बीज अत्यंत सूक्ष्म, हल्के और पंखदार होते है। सड़क और रेल मार्गो पर होने वाले यातायात के कारण भी यह संपूर्ण भारत में आसानी से फैल गयी है। नदी, नालो और सिंचाई के पानी के माध्यम से भी गाजरघास के सूक्ष्म बीज एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से पहुंच जाते है।

गाजरघास से होने वाली हानियां ?
इस गाजरघास के लगातार संपर्क में आने से मनुष्यों में डरमेटाइटिस, एक्जिमा, एलर्जी, बुखार, दमा आदि जैसी बीमारियां हो जाती है। पशुओं के लिए यह गाजरघास अत्यधिक विषाक्त होता है। इसके खाने से पशुओं में अनेक प्रकार के रोग पैदा हो जाते है एवं दुधारू पशुओं के दूध में कड़ुआहट के साथ साथ दूध उत्पादन में भी कमी आने लगती है। इस खरपतवार द्वारा खाद्यन्न फसलों की पैदावार में लगभग 40 प्रतिशत तक की कमी आंकी गई है। पौधे के रासायनिक विश्लेषण से पता चतला है कि इसमें ‘‘ सेस्क्यूटरपिन लैक्टोन‘‘ नाम विषाक्त पदार्थ पाया जाता है जो फसलो के अंकुरण एवं वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।

कैसें पायें इस पर काबू?
चूॅकिं गाजरघास में हर ऋतु में अंकुरण की क्षमता होती है, अतः इसके नियंत्रण के लिए समन्वित तरीके अपनाना जरूरी है, जो निम्न प्रकार है -
  • खरपतवारों के प्रवेश एवं उनके फैलाव को रोकने हेतु नगर एवं राज्य स्तर पर कानून बनाकर उचित दंड का प्रावधान रख इस पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है। सभी राज्यों को गाजरघास को अधिनियम के अंतर्गत रखकर इसके प्रबंधन की प्रक्रिया युद्ध स्तर पर करनी चाहिए।
  • नम भूमि में इस खरपतवार को फूल आने से पहले हाथ से उखाड़कर इकट्ठा करके जला देने या इसका कम्पोष्ट बनाकर काफी हद तक नियन्त्रित किया जा सकता है। इसे उखाड़ते समय हाथ में दस्तानों तथा सुरक्षात्मक कपड़ो का प्रयोग करना चाहिए। चुकिं गाजरघास एक व्यक्ति की समस्या न होकर जन मानस की समस्या है अतः पार्को, कालोनी आदि में रहवासियों को समूह बनाकर इसे उखड़कर नष्ट करना चाहिये।
  • शाकनाशियों के प्रयोग से इस खरपतवार का नियन्त्रण आसानी से किया जा सकता है। इन शाकनाशी रासायनों में एट्राजिन, एलाक्लोर, डाइयूरान, मेट्रीव्यूजिन, 2,4-डी, ग्लाइफोसेट आदि प्रमुख है। अकृषित क्षेत्रों में गाजरघास के साथ सभी प्रकार की वनस्पतियों को नष्ट करने के लिए ग्लाइफोसेट (1 से 1.5 प्रतिशत) और घास कुल की वनस्पितियों को बचाते हुए केवल गाजरघास को नष्ट करने के लिए मेट्रीव्यूजिन (0.3 से 0.5 प्रतिशत) या 2,4-डी(1 से 1.5 प्रतिशत) नाम के शाकनाशियों का उपयोग करना चाहिए।
  • गाजरघास का नियंत्रण उनके प्राकृतिक शत्रुओ, मुख्यतः कीटों, रोग के जीवाणुओं एवं वनस्पतियों द्वारा किया जा सकता है। मेक्सिकन बीटल (जाइगोग्रामा बाइकोलोराटा) नामक केवल गाजरघास को खाने वाले कीट को गाजरघास से ग्रसित स्थानों पर छोड़ देना चाहिये। इस कीट के लार्वा और व्यस्क पत्तियों को चट कर गाजरघास को सुखा कर मार देते है। इस कीट के लगातार, आक्रमण के कारण शनःशनः गाजरघास कम हो जाती है। जिससे वहॉ अन्य वनस्पतियों को उगने का मौका मिल जाता है। यह कीड़े खरपतवार विज्ञान अनुसंधान निदेशालय से लिये जा सकते है।
  • प्रतिस्पर्धा वनस्पतियों जैसे - चरौटा, हिप्टिस, जंगली चौलाई आदि से गाजरघास को आसानी से विस्थापित किया जा सकता है। अक्टूबर-नवम्बर माह में चकोडा के बीज इकट्ठा कर उनका अप्रैल-मई में गाजरघास से ग्रसित स्थानों पर छिड़काव कर देना चाहिए। वर्षा होने पर शीघ्र ही वहां चरौटा गाजरघास को विस्थापित कर देता है।

संभव उपयोग
गाजरघास के पौधे की लुगदी से हस्त निर्मित कागज एवं कम्पोजिट तैयार किये जा सकते है। बायोगैस उत्पादन में इसकों गोबर के साथ मिलाया जा सकता है गरीब एवं झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले इसका प्रयोग ईंधन के रूप में भी करते है। किसान भाई इसका उपयोग बहुत अच्छा कम्पोस्ट बनाने में कर सकते है जिसमें पौष्टिक तत्व नाईट्रोजन प्रोटेशियम फासफोरस आदि गोबर खाद से अधिक होते है।