आदित्य शुक्ला एवम डॉ न मेहता
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर
अलसी एक लाभकारी तिलहनी फसल है। अलसी के दानों का प्रयोग तेल निकालने के लिये प्रमुख रूप से किया जाता है। अलसी में तेल की मात्रा 43 प्रतिशत होती है। अलसी के दानों से तेल निकालने के बाद बचा हुआ उत्पाद (खली) पशुओं के लिये आहार के रूप में उपयेाग किया जाता है। अलसी के तेल का उपयोग खाने, साबुन बनाने, रंग, पेंट्स छपाई के लिये प्रयुक्त स्याही तैयार करने आदि के लिये किया जाता है। अलसी के तने से उच्च गुणवत्ता वाला रेशा प्राप्त किया जाता है व रेशे से लिनेन तैयार किया जाता है।
भूमि का चुनाव:
इसकी खेती के लिये भारी भूमि काली एवं दोमट मृदायें अधिक उपयुक्त होती है। फसल की उत्तम उपज के लिये मध्यम उपजाऊ दोमट मिट्टी सबसे उत्तम होती है भारी भूमियों में अलसी की खेती वर्षा के आधार पर ही की जाती है लेकिन हल्की भूमि में सिंचाई के साधन उपलब्ध होना आवश्यक है। अलसी की उत्तम फसल के लिये भूमि में जल-निकास का उत्तम प्रबंध होना चाहिये। भूमि में उचित जल निकास का प्रबंध होना चाहिए। अच्छा अंकुरण प्राप्त करने के लिये खेत भुरभुरा एवं खरपतवार रहित होना चाहिए। अतः खेत को 2-3 बार हैरो चलाकर पाटा लगाना अवाश्यक है जिससे नमी संरक्षित रह सके। अलसी का दाना छोटा एवं महीन होता है, अतः अच्छे अंकुरण हेतु खेत का भुरभुरा होना अतिआवश्यक है।
भूमि की तैयारी:
भूमि की तैयारी के लिये दो-तीन बार गहरी जुताई करके पाटा लगाना चाहिए जिससे नमी संरक्षित रह सके मिट्टी भुरभुरी बना लेना चाहिये व खेत को खरपतवार रहित करके साफ कर लेना चाहिये। इसी समय दीमक तथा कटुआ कीट से बचाव के लिये क्लोरोपाइरीफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण 20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के समय खेत में मिलायें। अलसी का दाना छोटा एवं महीन होता है। अतः अच्छे अंकुरण हेतु खेत का भुरभुरा होना अति अवश्यक है।
बीज की मात्रा एवं बीज उपचारः
असिंचित अवस्था के लिये 30 कि.ग्रा./हे. एवं सिंचित अवस्था 20 कि.ग्रा./हे.।
बुवाई के पूर्व बीजों को फफूंदनाशक दवा बाविस्टिन 3 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें। बीजोपचार करने से बीज जनित एवं मृदा जनित रोगों से प्रारंभिक अवस्था में बचाव होने के कारण अंकुरण अच्छा होता है।
उन्नतशील जातियां
जातियां
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अवधि (दिन)
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उपज (कि./हे.)
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विशेषता
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आर. एल. सी. 92
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111
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1187
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भभूतिया, उकठा, रतुआ, प्रतिरोधी,
कली मक्खी एवं
अंगमारी के लिए
सहनशील
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इदिन्रा अलसी -32
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113
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180 (बा.)
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नीला फूल, बौनी गहरा
भूरा दाना, चूर्णी फफॅूद
से प्रतिरोधी
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कार्तिका
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106
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1076 (बा.)
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नीला फूल, बौनी, हल्का
भूरा दाना, उकठा, चूर्णी
फफॅूद तथा कली कीट
से मध्यम प्रतिरोधी
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दीपिका
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112
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1272 (सि.)
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नीला फूल, हल्का भूरा
दाना रतुआ, उकठा, अंगमारी
रोग तथा कली
कीट से मध्यम
प्रतिरोधी
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किरण
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120
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8-10 असिंचित
12-15 सिंचित
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बीज भूरे रंग का
तथा मध्यम आकार
का उकटा, भभूतिया
व गेरूआ रोग
के लिये प्रतिरोधी
है।
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आर 552
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120
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7-8 असिंचित
12-18 सिंचित
|
बीज भूरे रंग का
तथा मध्यम आकार
का उकटा, भभूतिया
व गेरूआ रोग
प्रतिरोधी एवं कली मक्खी
के लिये सहनशील
है।
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पदमिनी एल.एम.एच. 62
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120
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7-8 असिंचित
12-12 सिंचित
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उकटा एवं भभूतिया रोग
हेतु प्रतिरोध क्षमता
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बोने का समय:
असिंचित क्षेत्रों में अक्टूबर के प्रथम पखवाड़े में तथा सिंचित क्षेत्रों में नवम्बर के प्रथम पखवाड़े में बुवाई करना चाहिए इस फसल की अधिक उपज के लिये अक्टूबर के द्वितीय सप्ताह नवंबर द्वितीय सप्ताह तक जमीन में नमी रहने पर बुवाई करना चाहियें। इसके पहले बोई गई फसल पर कटुआ से तथा देर से बोयी गई फसल पर भभूतिया व गेरूआ रोग तथा कली मक्खी के कारण नुकसान होता है। उतेरा खेती के लिये धान कटने के 7 दिन पूर्व बुवाई की जानी चाहिए। जल्दी बोनी करने पर अलसी की फसल को फली मक्खी एवं पाउडरी मिल्डयू आदि से बचाया जा सकता है।
बोने की तरीका:
अलसी को कतार पद्धति से बोना चाहिये। कतार से कतार की दूरी 25-30 से.मी. रखे। कतार से कतार के बीच की दूरी 30 सेंमी तथा पौधे की दूरी 5 से 7 सेंमी रखनी चाहिए। बीज को भूमि में 2 से 3 सेंमी की गहराई पर बोना चाहिए।
उर्वरक की मात्रा:
असिंचित अवस्था में 30-40 कि.ग्रा. नत्रजन, 15-20 कि.ग्रा. स्फुर तथा नत्रजन, 25-30 कि.ग्रा. स्फुर थता 20 कि.ग्रा. पोटाश का उपयोग प्रति हेक्टेयर की दर से करना चाहिये। असिंचित अवस्था में खाद की पूरी मात्रा बुवाई के समय डालें। सिंचित अवस्था में अलसी फसल को नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की क्रमशः 60-80ः40ः20 कि.ग्रा./हे. दें। सिंचित खेती में नत्रजन की आधी मात्रा बोने के समय तथा शेष आधी मात्रा प्रथम सिंचाई पर देना चाहिये। स्फुर, सिंगल सुपर फास्ट खाद का उपयोग करें। अलसी में भी एजोटोबेक्टर एजोसपाईरिलम और फॉस्फोरस घोलकर जीवाणु आदि जैव उर्वरक उपयोग किए जा सकते हैं, बीज उपचार हेतु 10 ग्राम जैव उर्वरक प्रति किग्रा बीज की दर से अथवा मृदा उपचार हेतु 5 किग्रा हैक्टेयर जैव उर्वरकों की मात्रा को 50 किग्रा भुरभुरे गोबर की खाद के साथ मिलाकर अंतिम जुताई के पहले खेत में बराबर बिखेर देना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण:
समय-समय पर आवश्यकतानुसार निंदाई-गुड़ाई करें। दो कतारों की बीज मंें जब फसल लगभग एक माह की हो जाने तक देशी हल चलाने से निंदाई-गुड़ाई का काम शीघ्र व कम खर्च में हो जाता है। सिंचित फसल दूसरी गुड़ाई 40-45 दिन बाद करें। रासायनिकों द्वारा नींदा-नियंत्रण हेतु आइसोप्रोट्यूरॉन 1.0 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर (दवा की मात्रा 25 मि.ली. प्रति 10 लीटर पानी) के हिसाब से बुवाई के 25-30 दिनों बाद फ्लेट फन नोजल।
सिंचाई जल प्रबंधन:
अलसी में 2-3 क्रन्तिक अवस्थाओं में सिंचाई की आवश्यकता रहती है, अलसी की फसल को पानी के जमाव से नुकसान होता है प्रथम सिंचाई बुवाई के 30-40 दिन बाद तथा दूसरी सिंचाई 60-70 दिन बाद करना चाहिये। तथा तीसरी सिंचाई दाना बनते वक्त देने पर उपज में बढ़वार देखी गई है। एक ही सिंचाई उपलब्ध होने पर बोने के 40-50 दिन बाद सिंचाई करना चाहिये।
कटाई एवं गहाईः-
अलसी की पत्तियां पीली होकर झड़ जाये तथा फल्लियोें का रंग हल्का भूरा होने लगे तब फसल काटना चाहिये। काटने के बाद अच्छी तरह धूप में सुखाकर गहाई करें। सफाई के बाद सूखे स्थान पर भण्डारण करना चाहिये।
उपजः- असिंचित अवस्था में 7-8 किं. तथा सिंचित अवस्था में 20-22 कि./हे. उपज प्राप्त होती है।
पौध संरक्षण:
1. रोग नियंत्रण:
क. गेरूआ रोग:
इस रोग का प्रकोप पहले पत्तियों में तथा बाद में पौधों के सभी ऊपरी अंगों जैसे तना, पत्ती एवं फल्लियों में होता है। इसके कारण पत्तियों, तनों एवं फल्लियों पर चमकीले पीले रंग की छोटी-छोटी फुंसियां सी बन जाती है। रोग के उपयुक्त तापक्रम 15-16 सेन्टीग्रेड होने पर प्रकोप अधिक होतो पत्तियां अपरिपक्व अवस्था में ही गिर जाती हैं और पौधे धीरे-धीरे मरने लगते हैं। रोग की उग्र अवस्था में उपज 20 से 80 प्रतिशत तक कम हो जाती है। इस रोग के प्रकोप से बचाने के लिये बीज को सदैव ही फफुंदनाशक दवा से उपचारित करके ही बुवाई करना चाहियें प्रकोप होने पर सल्फेक्स 0.3 प्रतिशत या कैलिक्सीन 0.01 प्रतिशत या डायथेन जेड 78 (0.3 प्रतिशत) का छिड़काव 8-10 दिन के अंतर से आवश्यकतानुसार दो बार करें। कैलियक्सिन छिड़काव का अंतराल 15-20 दिन रखें। आर 552, आर.एल.सी-92, आई.एल-32, कर्तिका, दीपिका, शेखर आदि रोग प्रतिरोधी जातियों को बोने से रोग पर प्रभावी नियंत्रण रहता है।
ख. उकटा रोग:
यह अलसी का प्रमुख हानिकारक मृदा जनित रोग है, इस रोग का प्रकोप अंकुरण से लेकर परिपक्वता तक कभी भी हो सकता है। रोगग्रस्त पौधोें की पत्तियों के किनारे अन्दर की ओर मुड़कर मुरझा जाते हैं। इस रोग का प्रसार प्रक्षेत्र में पड़े फसल अवशेषों द्वारा होता है, इसके रोग जनक मृदा में उपस्थित फसल अवशेषों तथा मृदा में रहते हैं तथा अनुकूल वातावरण में पौधों पर संक्रमण करते है। इसके नियन्त्रण का सबसे अच्छा उपाय रोगरोधी किस्मों को बोना चाहिए। यह रोग फ्यूजेरियम नामक फफूंद से होता है। नीचे की पत्तियों का पीला पड़ना, उनका सूखना एवं समय से पहले झड़ जाना रोग का प्रमुख लक्षण है। ग्रसित पौधों की अग्रकलिका मुरझाने लगती है व पौधे पूरी तरह सूखकर मर जाते है। रोगरोधी जातियों जैसे आर-552, आर.एल.सी-92, दीपिका, शेखर आदि का उपयोग ही इस रोग की रोकथाम का सर्वोत्तम उपाय है। बीजों को बाविस्टिन 3 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करके ही बुवाई करें। गर्मी में खेत की गहरी जुताई करें। प्रत्येक वर्ष एक ही खेत में अलसी की फसल न लें तथा 2-3 साल का फसल चक्र अपनायें।
ग. अल्टरनेरिया पर्ण दाग रोग:
पत्तियों, तनों एवं पुष्प-कलिकाओं पर भूरे रंग के छोटे-छोटे धब्बे बनते हैं और पूरी पत्ती में फैलकर पत्तियों को सुखा देते हैं। पुष्प कलियेां के ठीक नीचे पुष्पवृंत पर भूरे रंग की वलय (अंगूठी) बनती है जिसके कारण कलियां सूख जाती है जो कि थोड़े से झटके में ही टूटकर गिर जाती है। सर्वाधिक संक्रमण पुष्प एवं मुख्य अंगों पर दिखाई देता है। रोग से बचाव हेतु 3 ग्राम थायरम या बाविस्टिन प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करके बोयें। रोगावस्था में 1 प्रतिशत बाविस्टिन या डायथेन एम-45 या फाइटोलान 0.3 प्रतिशत या रोवेराल - 2 ग्राम/लीटर पानी दवा का 8-10 दिन के अंतर पर आवश्यकतानुसार 2-3 बार छिड़काव करें। व आर. एल. सी. 92 का चयन करें।
घ. भभूतिया रोगः
अलसी का भभूतिया प्रमुख रेाग है। इस रोग के लक्षण पौधों की ऊपरी पत्तियों में सफेद आंटे जैसा पावडर समान बिखरे हुए दिखाई देतों हैं। इस रोग से ग्रसित पौधों के दाने छोटे एवं सिकुड़े होते हैं और दाने हल्के रह जाते हैं व उनमें तेल की मात्रा कम हो जाती है। रोग प्रबंध रेतु फसल को अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में लगायें तथा रोगरोधी जातियों जैसे आर 552, किरण, आर.एल.सी.-92 शेखर, पदभनी आदि का प्रयोग करें। रोग के लक्षण प्रगट होने पर सल्फेक्स या वेटसल्फ 0.3 प्रतिशत का छिड़काव 2 बार 8-10 दिन के अंतराल से करें।
2. कीट नियंत्रण:
क. कलिका मक्खी:
यह प्रमुख कीट है। इल्लियां कलियों एवं फूलों को खाती हैं जिससे फल्ली लौंग के समान दिखती है तथा बीज नहीं बनते हैं। एक मादा मक्खी 8-17 कलियों को नुकसान पहुंचाती है। इस कीट से बचाव हेतु फसल की बुवाई अक्टूबर मध्य से अक्टूबर अंत तक करें। कीट निरोधक/सहनशील प्रजातियों जैसे आर.एल.सी. 27, आर-17, गौरव, किरण, तथा नीला लगाये। जैविक नियंत्रण के लिये लेड बर्ड बीटल (कलिका मक्खी परभक्षी) या एपेन्टेलिस डेसीन्यूरा (कलिका मक्खी परजीवी) का संरक्षण करें। कीट संख्या अधिक होने पर आर्थिक क्षति स्तर (10 प्रतिशत क्षति) देखकर लेम्डासायहैलोथ्रिन 350 मिली./हे. अथवा डायमिथोएट 30 ई.सी. 7, 50 मिली./हे. अथवा कॉन्सीडोर 100 मिली./हे. 15 दिन के अंतराल पर दो बार छिड़काव करें।
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