चन्द्रकला (कृषि अर्थशास्त्र विभाग)
डॉ. हरेन्द्र कुमार (सस्य विज्ञान विभाग)
शुभी सिंह (कृषि अर्थशास्त्र विभाग)

विकासशील देशों के आर्थिक विकास में कृषि महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आर्थिक विकास में कृषि की भूमिका महत्वपूर्ण है क्योंकि विकासशील देशों की अधिकांश आबादी कृषि से अपना जीवन यापन करती है।किसी भी देश के आर्थिक विकास में कृषि का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान होता है। कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़ होती है। कृषि से केवल भोजन तथा कच्चे माल की प्राप्ति नहीं होती है, बल्कि जनसंख्या के एक बड़े भाग को रोजगार की उपलब्ध कराता है। कृषि तथा उद्योग परस्पर एक दूसरे पर निर्भर करते है। एक क्षेत्र का विकास होने पर दूसरे क्षेत्र का भी विकास होता है। एक क्षेत्र का उत्पादन दूसरे क्षेत्र के लिए आगत बन जाता है। एक क्षेत्र के विकास होने का अर्थ है दूसरे क्षेत्र को अधिक आगतों का प्रवाह। ‘‘दूसरे की सहायता करो यदि आप अपनी सहायता चाहते है।’’ यही दोनों क्षेत्रों की निर्भरता का सारांश है। जैसे-जैसे किसी देश का आर्थिक विकास होता है, वैसे-वैसे कृषि की भूमिका में भी परिवर्तन आ जाता है। जब द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्रों का विकास होता है तो कृषि की महत्ता कम हो जाती है। कुछ समय पश्चात् कृषि क्षेत्र का राष्ट्रीय आय में हिस्सा भी कम हो जाता है, परन्तु कृषि क्षेत्र का अन्य क्षेत्रों पर निर्भरता बढ़ जाती है।

कृषि तथा उद्योग दोनों एक दूसरे के पूरक है, प्रतियोगी नहीं। बिना कृषि के आधुनीकरण के औद्योगिक विकास सम्भव नहीं है क्योंकि यदि कृषि विकास नहीं होगा तो अधिकतर जनसंख्या के पास क्रयशक्ति नहीं होगी तथा बाजार का विस्तार भी नहीं होता। अतः यह बात भी सत्य है कि बिना औद्योगिकरण के कृषि विकास भी सम्भव नहीं है। अतः कृषि तथा औद्योगिक क्षेत्र का साथ-साथ विकास होना चाहिए। किसी भी अर्थव्यवस्था के विकास में कृषि का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है।

आर्थिक विकास में कृषि का महत्व

1. भोजन आवश्यकता की पूर्ति
सभी देश अपनी भोजन सम्बन्धी आवश्यकता को पूरा करने को पहली प्राथमिकता देते है। कोई भी देश अपनी सभी खाद्य आवश्यकताओं को दूसरे देश से आयात करके पूरा नहीं कर सकता है। अगर कोई देश अपनी खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आयात पर निर्भर है तो उसे बहुत अधिक मात्रा में आय को खर्च करना पडे़गा और खाद्य वस्तुओं पर ज्यादा ब्यय से सभी योजनाएं बिगड़ सकती है। इसलिए सरकार को खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता को बढ़ाने के प्रयास करने चाहिए।

इन विकासशील देशों में किसानों को अपनी शहरी आबादी को आवश्यक भोजन उपलब्ध कराने के लिए अपनी निर्वाह आवश्यकताओं से अधिक भोजन का उत्पादन करना पड़ता है। यदि औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों को विकास करना है, तो उनमें कार्यरत कार्यबल की खाद्य आवश्यकताओं को किसानों के विपणन योग्य अधिशेष से पूरा करना होगा।

यदि औद्योगिक विकास के साथ, कृषि की उत्पादकता पर्याप्त रूप से नहीं बढ़ती है और पर्याप्त विदेशी मुद्रा की अनुपलब्धता के कारण खाद्यान्नों का आयात संभव नहीं है, तो व्यापार की शर्तें औद्योगिक क्षेत्र के खिलाफ हो जाएंगी और जैसा कि विकास के कई मॉडल बताते हैं विकास प्रक्रिया अंततः रुक जाएगी क्योंकि औद्योगिक उत्पादन लाभहीन हो जाएगा।

परिणामस्वरूप, अर्थव्यवस्था स्थिर स्थिति में पहुंच जायेगी। इसके अलावा, रोस्टो के आर्थिक विकास के मॉडल के अनुसार, आर्थिक विकास के प्रारंभिक चरण से पहले कृषि क्रांति होनी चाहिए। वास्तव में, ब्रिटेन औद्योगिक क्रांति करने वाला पहला देश क्यों था, इसका कारण यह है कि ब्रिटेन में कृषि क्रांति हुई थी। भूदास प्रथा और बाड़ेबंदी आंदोलन के उन्मूलन से कृषि उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई जिससे कृषि को अपने बढ़ते औद्योगिक कार्यबल को खिलाने के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध कराने में सक्षम बनाया गया।

यहां विपणन योग्य अधिशेष की अवधारणा का उल्लेख करना उचित है। विपणन योग्य अधिशेष कृषि उत्पादन और इसका उत्पादन करने वाले किसानों की निर्वाह आवश्यकताओं के बीच का अंतर है। इस विपणन योग्य अधिशेष को औद्योगिक क्षेत्र के विस्तार के लिए उपयोग करने के लिए कृषि आबादी से निकाला जाना चाहिए।

2. कच्चे माल की उपलब्धता
आर्थिक विकास की प्रारम्भिक अवस्था में कृषि से सम्बन्धित उद्योगों का विकास होता है। जैसे चीनी, सूती वस्त्र, जूट उद्योग इत्यादि केवल तभी सफल हो सकते है जब उन्हें कच्चे माल की पर्याप्त उपलब्धता हो। अतः इन उद्योगों के तीव्र विकास के लिए पर्याप्त मात्रा में कच्चे माल की उपलब्धता होनी चाहिए।

3. क्रय शक्ति
यदि किसी देश की कृषि की स्थिति ठीक नही है तो कृषकों की आय भी कम होगी। कृषकों की आय कम होने से औद्योगिक वस्तुओं को नहीं खरीद पायेगें तथा औद्योगिक विकास रूक जायेगा। कृषि क्षेत्र की सम्पन्नता से ही औद्योगिक विकास होता है। किसी उद्योग का प्रमुख उद्देश्य अधिक से अधिक वस्तुओं का विक्रय करना होता है और यह तभी सम्भव है जब कृषि क्षेत्र विकसित हो।

4. बचत तथा पूंजी निर्माण
कृषि क्षेत्र के समृद्ध होने से कृषकों की आय में वृद्धि होती है। आय में वृद्धि होने से कृषकों की बचत में वृद्धि होती है और बचत कृषकों द्वारा बैंकों व अन्य बचत संस्थाओं में जमा होता है। इन बचतों का प्रयोग पूंजी निर्माण के लिए किया जाता है, जिससे आर्थिक विकास होता है। अगर कृषकों की आय कम होगी तो बचत भी कम होगी तथा पूंजी निर्माण भी कम होगा। आर्थिक विकास की प्रारम्भिक अवस्था में जनसंख्या का अधिकत्तर भाग कृषि में कार्यरत होता है, अतः औद्योगिक क्षेत्र के तीव्र विकास के लिए कृषि क्षेत्र की सम्पन्नता ज्यादा जरूरी है।

5. श्रम-शक्ति की पूर्ति
कृषि क्षेत्र में जनसंख्या का दबाव बहुत अधिक है। कृषि पर जनसंख्या का दबाव अधिक होने से कृषि उत्पादन भी विपरीत रूप से प्रभावित होता है। इसलिए जनसंख्या के कुछ हिस्से को हटाकर औद्योगिक क्षेत्र में लगाया जा सकता है, इससे औद्योगिक क्षेत्र का भी तेजी से विकास होगा। अधिक विकसित कृषि में श्रम की आवश्यकता कम होती है।

6. विदेशी मुद्रा की प्राप्ति
कृषि प्रधान देशों में औद्योगिक वस्तुएं अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतियोगिता नहीं कर पाती है, क्योंकि औद्योगिक वस्तुएं घटिया किस्म की होती है। अतः कृषि वस्तुएं ही ऐसी है जो कि अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतियोगिता का सामना कर सकती है तथा विदेशी मुद्रा प्राप्त कर सकती है।

7. कृषि एवं गरीबी उन्मूलन
अधिकांश गरीब लोग ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। आजादी के 75साल बाद भी भारत के ग्रामीण इलाकों में लगभग 40% आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती है और उनमें से अधिकांश छोटे और सीमांत किसान, भूमिहीन कृषि मजदूर, अनुसूचित जाति और जनजाति हैं। अन्य बातों के अलावा, भारतीय योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने यह दर्शाया है कि कृषि विकास के साथ गरीबी घटती है।

गरीबी उन्मूलन की किसी भी रणनीति में कृषि विकास एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कृषि विकास से छोटे और सीमांत किसानों की उत्पादकता और आय बढ़ती है, और कृषि श्रमिकों के रोजगार और वेतन में वृद्धि होती है। इससे गरीबी और छिपी बेरोजगारी को कम करने में मदद मिलती है। इसके अलावा, कृषि उत्पादकता में वृद्धि से खाद्य कीमतों में कमी आती है और मुद्रास्फीति नियंत्रण में रहती है जो गरीबी को कम करने में भी योगदान देती है।

रोजगार सृजन में कृषि का योगदान
यह पाया गया है कि कृषि विकास में रोजगार की अच्छी संभावना है, बशर्ते कृषि विकास की उचित रणनीति अपनाई जाए। HYV बीजों, उर्वरकों, कीटनाशकों के उपयोग के साथ-साथ सिंचाई जल की इष्टतम मात्रा के उपयोग द्वारा प्रस्तुत नई कृषि तकनीक से कृषि रोजगार में विस्तार होता है। उच्च उपज वाली प्रौद्योगिकी के इन आदानों का उपयोग किसानों को बहुफसली फसलें अपनाने में सक्षम बनाता है जिसमें रोजगार की बड़ी संभावना होती है।

बाज़ार योगदान
कृषि के बाज़ार योगदान का अर्थ है औद्योगिक उत्पादों की माँग। विकास के शुरुआती चरणों में जब शहरी क्षेत्र बहुत छोटा था और निर्यात के लिए बाजार अभी तक नहीं मिले थे, विकासशील देशों का कृषि क्षेत्र औद्योगिक उत्पादों के लिए मांग या बाजार का एक प्रमुख स्रोत था। किसान अक्सर चीनी, जूट, कपास जैसी नकदी फसलें पैदा करते हैं और उनकी बिक्री से उन्हें धन आय प्राप्त होती है जिसे वे औद्योगिक वस्तुओं पर खर्च कर सकते हैं। इसके अलावा, जिन किसानों के पास खाद्यान्न (अनाज और दालें) का विपणन योग्य अधिशेष होता है, वे उन्हें बाजार में बेचते हैं, जिससे उन्हें धन आय होती है, जो औद्योगिक वस्तुओं की मांग का स्रोत भी बन जाती है।

तेजी से बढ़ता कृषि क्षेत्र तीव्र औद्योगिक विकास के लिए पूर्व शर्त है। हालाँकि, इसका औद्योगिक वस्तुओं के सापेक्ष कृषि उत्पादों के मूल्य निर्धारण पर प्रभाव पड़ता है, यानी कृषि और उद्योग के बीच व्यापार की शर्तें। कम कृषि कीमतें उद्योग के लिए अच्छी हैं क्योंकि इससे उन्हें सस्ता भोजन और कच्चा माल मिलेगा, जिससे उनकी उत्पादन लागत कम होगी और उनकी लाभप्रदता बढ़ेगी। दूसरी ओर, कम कृषि कीमतें किसानों के लिए खराब हैं क्योंकि इससे उनकी आय कम हो जाती है और इसलिए औद्योगिक सामान खरीदने के लिए उनकी क्रय शक्ति कम हो जाती है।

इसके अलावा, कम कृषि कीमतें कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए हतोत्साहित करने वाली होंगी। इसलिए, कृषि और उद्योग के बीच व्यापार के संदर्भ में संतुलन बनाने की आवश्यकता है ताकि कृषि की कीमतें इतनी अधिक न हों कि वे औद्योगिक उत्पादन को अलाभकारी न बना दें। कृषि कीमतें भी बहुत कम नहीं होनी चाहिए ताकि किसानों को कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन मिल सके।