डॉ. रोहित (आनुवंशिकी एवं पादप प्रजनन विभाग)
डॉ. साधना साहा (आनुवंशिकी एवं पादप प्रजनन विभाग)

हाल ही में अमेरिका के एरिजोना विश्वविद्यालय द्वारा किये गए अध्ययन में यह दावा किया गया कि एशिया में मानसून लगातार कमजोर हो रहा है। इस अध्ययन में बताया गया है कि पिछले 80 वर्षों के दौरान मानसून सीजन में बारिश लगातार कम हुई है जिससे भारत में जल की उपलब्ध्ता, पारिस्थितिकी और कृषि पर गहरा प्रभाव पड़ा है।

एरिजोना यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट
  • भारत में 1940 के बाद से मानसून कमजोर हो रहा है जिसका मुख्य कारण औद्योगिक विकास एवं उत्तरी गोलार्द्ध में एयरोसोल (तरल एवं ठोस कण) का उत्सर्जन बड़ी वजह है।
  • वायु प्रदूषण वर्षा में कमी का एक मुख्य कारण है।
  • दुनिया की लगभग आधी आबादी एशियाई मानसून से प्रभावित होती है। कम बारिश के कारण भारत से साइबेरिया तक लोग पानी की किल्लत और कृषि संकट का सामना करते हैं।
  • एशियाई मानसून को कमजोर करने वाले घटकों में सौर परिवर्तनशीलता एवं ज्वालामुखी विस्फोट भी शामिल हैं।
  • एयरोसोल धुंध का कारण बनते हैं और ग्रीष्मकालीन मानसून को प्रभावित करते हैं।

मानसून शब्द की उत्पत्ति एवं प्रक्रिया
मानसून शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के ‘मौसिम’ अथवा मलायन भाषा के ‘मोनसिन’ से हुई है जिसका अभिप्राय ‘ट्टतु’ से है। अतः मानसूनी पवनें वे पवनें हैं जिनकी दिशा ट्टतु के कारण परिवर्तित होती है।

सूरज की तपिश से जमीन समुद्र के मुकाबले तेजी से गर्म होती है। समुद्र को गरम तथा ठंडा होने में ज्यादा वक्त की दरकार होती है। लिहाजा जमीन और समुद्र के बीच तापमान के फर्क के चलते भौगोलिक हलचल बढ़ जाती है। तपी हुई जमीन पर कम दबाव का क्षेत्र बनता है जिससे हवा की दिशा बदल जाती है।

समुद्र से जब जमीन की तरफ हवा चलती है तो वह नमी को समेटे आती है। हवा में घुली यह नमी मानसून के लिए बेहद महत्वपूर्ण है अर्थात यह कहा जा सकता है कि यही नमी बारिश का शुरूआती रूप है। आमतौर पर पानी जब भाप बनकर आसमान में पहुँचता है तो नमी धीरे-धीरे संघनित होकर बादल बन जाती है और फिर ये बादल बारिश में तब्दील होकर जमीन पर बरस जाता है। जमीन का पानी भी बहकर कहीं जमा होता है और फिर से वही चक्र दोहराता है। मोटे तौर पर बारिश की यही प्रक्रिया है। मई-जून के महीने में जब समुद्र से नमी से खुली हवा जमीन पर पहुँचती है तो कमोवेश इसी प्रक्रिया में तब्दील होकर मानसून में बदल जाती है। भारत समेत दक्षिण एशिया की भौगोलिक बनावट भी इसके लिए जिम्मेदार है, यानी अगर भारत के उत्तर में हिमालय नहीं होता तो शायद नमी घुली यह हवा वहाँ से टकराकर भारत में नहीं ठहरती और नतीजतन बारिश से भी भारत वंचित रह जाता।

हिमालय इन हवाओं को दूर जाने से रोकता है और वहाँ से टकराने के बाद ही भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में तेज बारिश होती है, इसी बारिश को हम मानसून कहते हैं, लेकिन एक वक्त आता है जब हवा में नमी की मात्रा घटने लगती है, फलस्वरूप बादल बनने की प्रक्रिया भी सुस्त हो जाती है। जैसे ही यह प्रक्रिया खास मोड़ पर पहुँचती है बारिश थम जाती है यानी तब तक समुद्र और जमीन के बीच वायुदाब का अंतर भी बराबर हो जाता है। इसके बाद उलटी प्रक्रिया शुरू होती है। अब हवाएँ समुद्र की तरफ लौटने लगती हैं। इस दौरान तमिलनाडु समेत देश के कई हिस्सों से ये लौटती हुई हवाएँ बारिश लाती हैं। हिमालय से जब ये हवाएँ टकराकर जब तमिलनाडु के तट पर पहुँचती है तो इस दौरान इन हवाओं को बंगाल की खाड़ी से गुजरना पड़ता है। नतीजतन हवाओं में फिर से नमी घुल जाती है, जिसे हम विंटर मानसून कहते हैं। मानसून मोटे तौर पर दक्षिण एशिया की परिघटना है लेकिन दुनिया के कई हिस्सों की बनावट दक्षिण एशिया से मिलती जुलती है, लिहाजा गर्मी के बाद वहाँ भी तेज बारिश देखने को मिलती है।

जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहा मानसून
पुणे के राष्ट्रीय जलवायु केन्द्र के अनुसार मानसून का चरित्र लगातार बदल रहा है। इस केन्द्र ने 1901 से लेकर 2003 के बीच सालाना बारिश का अध्ययन किया और पाया कि कुछ इलाकों में बारिश पहले से ज्यादा तेज हो रही है और कुछ इलाकों में इसकी मात्रा कम हुई है। पर्यावरणविदों का मानना है कि जुलाई और अगस्त के महीने में इलाकेवार बारिश की समानता कम हुई है। मानसून के इस अतिरेकी चरित्र ने सरकार को नई योजना बनाने की तरफ मोड़ा है। अगर एक खास इलाके में मानसून ने अपना चरित्र बदला तो इसका असर वहीं तक सीमिति नहीं रहता बल्कि ये देश के पूरी भौगोलिक संरचना को प्रभावित करता है। मानसून में आये इस बदलाव से संभावित खतरे को टालने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण हर साल तैयारी करता है। गंगा, ब्रह्मपुत्र और कृष्णा-गोदावरी बेसिन में बाढ़ लगभग हर वर्ष आती है। इसी तरह विदर्भ और बुंदेलखण्ड सूखे क्षेत्र हैं। प्राधिकरण ऐसे इलाकों के लिए वार्निग सिस्टम जारी तो कर रह है लेकिन उसे और ज्यादा तेज बनाने पर भी विचार चल रहा है।

भारत में कमजोर मानसून के कारण
  • भारत में मानसून के कमजोर होने का कारण अलनीनो या लानीला का प्रभाव है। उष्ण कटिबंधीय प्रशांत के मध्य क्षेत्र में समुद्र के तापमान और वायुमंडलीय परिस्थितियों में आए बदलावों के कारण उत्पन्न घटना अलनीनो कहलाती है। इसकी खासियत यह है कि यह ज्यादा वर्षा वाले क्षेत्र में कम वर्षा एवं कम वर्षा वाले क्षेत्र में अधिक वर्षा कराती है।
  • ला-नीना-अल-नीनों की विपरीत घटना है जो ला-नीना की स्थिति में प्रशान्त महासागर के पूर्वी तथा मध्य भाग में समुद्री सतह का तापमान असमान रूप से ठण्डा कर देती है।
  • भारतीय मानसून को मानसूनी गर्त भी प्रभावित करता है। गर्त का अर्थ है बड़े क्षेत्र में कम दबाव का बेल्ट बनना जो कि भारत में सामान्यतः उत्तर पश्चिमी राजस्थान से बंगाल की खाड़ी तक बनता है। जब गर्त दक्षिण में फैलता है तो वर्षा अच्छी होती है, परन्तु जब यह उत्तर में स्थानान्तरित होती है तो मानसून के समय वर्षा कम हो जाती है।
  • मानसून के कमजोर होने के पीछे एक कारण चक्रवात है। यदि चक्रवात बंगाल की खाड़ी के आस-पास बनता है तो यह मानसून के लिये मददगार होता है पर यदि स्थिति उलट जाए तो मानसून कमजोर हो जाता है।

देश की अर्थव्यवस्था पर कमजोर मानसून का प्रभाव
  • भारत की जलवायु मानसूनी प्रवृत्ति की है। ऐसे में देश की संपूर्ण अर्थव्यवस्था और जन-जीवन काफी हद तक इस पर निर्भर करता है।
  • देश के 6 राज्यों को छोड़ दें तो बाकी प्रदेशों में आधी जमीन तक भी सिंचाई के साधन नहीं हैं। असम व झारखंड जैसे राज्यों में तो 95 फीसदी खेती बारिश पर निर्भर है। यहाँ अगर मानसून सही नही रहा तो किसानो को अत्यधिक नुकसान हो सकता है।
  • बुंदेलखण्ड और विदर्भ बड़ी संख्या में पलायन और किसानों की आत्महत्या के लिए सुर्खियों में बना रहता है जिसके पीछे सूखा एक बड़ा कारण है।
  • मानसून पर देश का खाद्यान्न उत्पन्न काफी हद तक टिका है। अपवादों को छोड़ दें तो जिस वर्ष बारिश कम होती है उस दौरान खाद्यान्न उत्पादन में भी कमी देखी गई। इनमें कुछ महत्वपूर्ण वर्ष 1965-1966, 1971-1972, 1987-1988, 2001-2002 और 2008-2009 के हैं।
  • कमजोर मानसून खरीफ की फसल को प्रभावित करते हैं। पानी की कमी के कारण पर्याप्त पानी की आवश्यकता वाली फसल को काफी नुकसान होता है, जिनमें, चावल, दाल, सोयाबीन, काँटन आयल सीड्स आदि शामिल हैं।
  • कमजोर मानसून के कारण भारत का वह क्षेत्र जहाँ मानसून की कमजोर पहुंच के कारण कम वर्षा होती है। वहाँ सूखे की स्थिति उत्पन्न होती है।
  • कमजोर मानसून फसल उत्पादन में कमी, खाद्यान्न तथा नकदी फसलों की कीमतों में उछाल ला देती है जो कि मुद्रास्फीति को बढ़ाती है। कृषि क्षेत्र जिस पर भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था टिकी है वहाँ बेरोजगारी उत्पन्न हो सकती है।
  • खराब मानसून के कारण लोगों की खपत दर पर भी असर पड़ता क्योंकि उत्पादन की कमी से लाभ में भी कमी होती है लिहाजा लोग अपने खर्च को संतुलित करने के लिये खपत को कम कर देते हैं।
  • खराब मानसून से भौमिक जलस्तर लगातार गिरता है तथा उन नदियों पर भी इसका असर होता है जिनका प्रवाह स्तर मानसून पर निर्भर करता है। इस कारण भारत में बिजली उत्पादन में कमी, सिंचाई समस्या, पीने के पानी में कमी तथा उन उद्योगों जिनमें पानी की अधिक आवश्यकता होती है पर नकरात्मक असर पड़ सकता है।
  • कमजोर मानसून का प्रभाव शेयर बाजार पर भी पड़ सकता है। भारत की कुछ कंपनियां जो कि सीधे कृषि मार्केट से डील करती हैं जैसे कि कृषि-रसायन, उर्वरक, बीज आदि का उत्पादन करने वाली कंपनी उनको नुकसान उठाना पड़ सकता है।
  • मानसून की कमजोरी के कारण कर दाताओं में कमी और ट्टण लेने वालों की संख्या में वृद्धि हो सकती है।
  • कमजोर मानसून भारत की जीडीपी (GDP) वृद्धि दर को भी कम कर सकता है।

अच्छे मानसून से लाभ
  • अच्छे मानसून से जहां देश के कई आर्थिक आंकड़ों में सुधार दर्ज हो सकता है, वहीं इस दौरान सरकार को महंगाई के क्षेत्र में भी बड़ी राहत देखने को मिल सकती है।
  • मानसून का सीधा असर ग्रामीण आबादी पर पड़ता है। मानसून सामान्य और अच्छा रहने से ग्रामीण इलाकों में लोगों की आय बढ़ती है, जिससे मांग में भी तेजी आती है। ग्रामीण इलाकों में आय बढ़ने से इंडस्ट्री को भी फायदा मिलता है।
  • अच्छे मानसून से देश में बैंकिंग व्यवस्था को मजबूती मिलती है। देश में ज्यादातर किसान खरीफ फसल के लिए कर्ज की व्यवस्था सरकारी, को-ऑपरेटिव अथवा ग्रामीण बैंकों से करते हैं। मानसून बेहतर होने की स्थिति में इन बैंकों को कर्ज पर दिया पैसा वापस मिलने की गारंटी रहती है और उन्हें अपने एनपीए को काबू करने में मदद मिलती है।
  • वहीं किसानों की बढ़ी आमदनी से भी बैंकों को अपनी ग्रामीण शाखाओं के खाते में अच्छी सेविंग्स मिलती है जिससे गैर-कृषि क्षेत्र को नया कर्ज देने का काम आसान हो जाता है।

कमजोर मानसून से निपटने में सरकार के प्रयास
  • मानसून के आगे पीछे होने से फसल प्रभावित न हो इसके लिए लाइव सेविंग इरिगेशन (यह सिंचाई की वह पद्धति होती है जो अल्प वर्षा क्षेत्रें में की जाती है जिसके तहत थोड़ी-थोड़ी सिंचाई करके फसलों को जीवित रखा जाता है) पर जोर दिया जा रहा है। क्षेत्र विशेष योजनाएँ बन रहीं है और पानी की उपलब्धता के मुताबिक फसलों को बदलने की सलाह भी दी जा रही है।
  • कमजोर मानसून की स्थिति में सूखे से निपटने के लिये ऐसे बीजों का वितरण सुनिश्चित करना चाहिए जो कम पानी में भी फसल दे सकें।
  • भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने मानसून की अनिश्चितता को देखते हुए कुछ नये बीच खोजे हैं जो देर से बोये जाने के बावजूद बराबर उत्पादन देने के काबिल हैं।
  • स्थानीय स्तर पर लोगों को जागरूक करना चाहिए, अर्थात जल संचयन पर बल देने के साथ वैकल्पिक साधनों की तलाश करनी चाहिए।
  • किसानों की आय में कमी होने पर नकदी सहायता कोष का गठन किया जाना चाहिए तथा ऐसे स्थानों का चुनाव करना चाहिए जहाँ अधिक संकट हो इसके लिए वहाँ विशेष पैकेज सुविधा उपलब्ध करानी चाहिए।
  • राज्य सरकारों को निगरानी एजेंसी का गठन करने का निर्देश देना चाहिए जिससे जमीनी स्तर की समस्या से सरकार अवगत हो सके एवं आम लोगों को मदद पहुँचाई जा सके।

आगे की राह
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि कमजोर मानसून भारत के लिये मात्रा एक घटना नहीं है बल्कि एक चुनौती है। इस समस्या का समाधान भी तभी संभव हो सकेगा जब हम वैश्विक स्तर पर हो रहे जलवायु परिवर्तन को कम करने का प्रयास करें। अपनी उपभोगवादी संस्कृति को छोड़कर संतुलित एवं स्वस्थ्य विकास की नीति को अपनाएँ। इसके साथ ही साथ धरती को स्वच्छ एवं हरित बनाए रखने के लिये अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर आम जन की भागीदारी को बढ़ाएँ। यदि मानव अपने ही कृत्यों द्वारा मानव जीवन को संकट में डालेगा तो मानव का अस्तित्व समाप्ति की ओर बढ़ेगा। यह केवल हमारे लिये ही एक समस्या नहीं है बल्कि उन पशुओं एवं जीवों को भी नुकसान पहुंचाएगी जो वर्षा से प्रापत जल पर निर्भर होते हैं।