डॉ. निशी केशरी, सहायक प्राध्यापक (सूत्रकृमि), 
आर पी सी ए यू, पूसा

सूत्रकृमि एक प्रकार का जीव है जो मिट्टी में पाया जाता है और ये सूक्ष्मदर्र्शी होते हैं। इनका आकार 0.5 मिमी से 1 मिमी तक होता है। इसका शरीर बेलनाकार होता है।ये सांप की तरह चलते हैं और उन्हीं की तरह दिखते हैं। सूत्रकृमियों की विभिन्न प्रजातियां होती हैं जो मुख्यतः मिट्टी में ही पायी जाती हैं परन्तु कुछ प्रजातियां पौधों के उपरी भागों में जैसे पत्तियां, बीज, फल तथा फूलों इत्यादि से भी भोजन ग्रहण करती हैं। पौधाभक्षी सूत्रकृमि फसलों की जडों तथा उसके अन्य भागों को भेदकर उनके अंदर प्रवेश कर जाते हैं। इन सूत्रकृमियों के मुंह में भाले के आकार का एक अंग (स्टाइलेट) होता है जिससे ये कोशिकाओं को छेद करके उसके सारे द्रव को अपने शरीर के अंदर खींच लेते हैं। इसके कारण पौधे कमजोर पडने लगते हैं। इस आक्रमण के बाद जडें फिर मिट्टी से जल तथा खनिज तत्व को पौधों की टहनियों और पत्तों तक पहुंचा नहीं पाती हैं। नतीजतन पौधों की बढवार रूक जाती है तथा पैदावार कम हो जाती है। पत्तियां पतली तथा पीली पड जाती हैं। शाखाओं का निकलना कम हो जाता है। यदि पौधशाला में ही सूत्रकृमि का संक्रमण हो गया हो तब तो कई पौधे मर भी जाते हैं। 

परजीवी सूत्रकृमि की बड़ी जनसंख्या पौधों की जड़ों में उपस्थित होते हैं तो ये फसलों को भारी नुकसान पहुँचाते हैं। किसानों के द्वारा सूत्रकृमि नियंत्रण हेतु विभिन्न रासायनिक विधियों का प्रयोग किया जाता है जिनका विषैला प्रभाव पौधों तथा मनुष्य दोनों पर पड़ता है। प्राकृतिक खेती द्वारा फसलों में सूत्रकृमि नियंत्रण निम्नलिखित तरीेकों से किया जाता है -
1. मृदा सौर्यीकरण: इस विधि को सर्वप्रथम इजरायल में 1970 में जड़गाँठ सूत्रकृमि के नियंत्रण के लिए इस्तेमाल किया गया था जो अब सारे संसार में फैल गया है। इस तकनीक में पतले, पारदर्शी पॉलीथीन की चादर को जिसकी मोटाई 25-30 माइक्रोमीटर होती है, हल्के गीले मिट्टी के ऊपर डालकर अच्छे से किनारों को 6-12 सप्ताह के लिए बंद किया जाता है ताकि मिट्टी के अन्दर का तापमान इतना बढ़ जाये जो सूत्रकृमियों के लिए हानिकारक हो। पॉलीथीन मिट्टी से ताप एवं वाष्पोत्सर्जन को वातावरण में जाने से रोकता है। यह ताप पॉलीथीन के अन्दर की सतह पर छोटी-छोटी बूँदों के रूप में नजर आता है। यह विधि किसानों के लिए काफी फायदेमंद है क्योंकि यह विधि काफी सस्ती, आसानी से इस्तेमाल की जाने वाली, रसायनरोधी, कारगर तथा किसी भी बदबू तथा विष से रहित होती है। मृदा सौर्यीकरण के द्वारा मिट्टी के ऊपर की 30 सेमी मोटी सतह उपचारित हो जाती है, जो छोटे जड़ों वाली पौधों तथा कम समय वाले पौधों के लिए कारगर होती है।मृदा सौर्यीकरण को फसलों के अवशेषों, हरे अवशेषों, पशु अवशिष्ट तथा अजैविक खादों के साथ भी इस्तेमाल किया जा सकता है। ये सभी मृदा में कुछ यौगिकों का स्त्राव करते हैं जो फायदेमंद सूक्ष्मजीवों की संख्या को मृदा में बढ़ा देते हैं।

2. खर पतवार तथा पुरानी फसल की जडों को नष्ट करना: खर पतवारों में सूत्रकृमि मुख्य फसल के अभाव में अपना जीवन चक्र चलाने लगते हैं। अतः खर पतवार तथा पुरानी फसल की जडोंको नष्ट कर देना चाहिए। इससे अगली फसल को सूत्रकृमि के संक्रमण से बचा सकते हैं।

3. स्वस्थ बीज तथा बिचडों का इस्तेमाल करना: स्वस्थ बीज तथा बिचडों का इस्तेमाल करना चाहिए। मुख्य खेत में रोपनी से पहले बिचडों को नीम बीज पाउडर के घोल में एक घंटे तक डूबो कर रोपनी करनी चाहिए।

4. फसल चक्र: फसल चक्रखुले खेतों के लिए काफी उपयोगी है क्योंकि यहां किसानों को दूसरे फसल जिनपर सूत्रकृमि आक्रमण नहीं करते, को लगाने का विकल्प मिलता है। फसल चक्र की विधि उन फसलों के लिए सबसे ज्यादा असरकारक होती है जिन फसलों पर सूत्रकृमि का आक्रमण न होता हो। जडगााँठ सूत्रकृमि बहुत सारे फसलों पर आक्रमण करते हैं जिससे किसानों को फसल चक्र के लिए दूसरे फसलों का विकल्प नहीं मिल पाता। लेकिन फिर भी जडगााँठ सूत्रकृमि के आतंक से फसलों को बचाने के लिए फसल चक्र के रुप में जूट, सरसों, शक्करकंद, सूर्यमुखी, सोयाबीन, प्याज, तिल, चुकंदर आदि का व्यवहार कर सकते हैं।

5. कार्बनिक पदार्थों का मृदा में व्यवहार: कार्बनिक खाद जैसेनीम, सरसों, अण्डी, करंज, महुआ की खल्ली का व्यवहार खेतों में बुआई के 25 से 30 दिनों के पहले करें तथा उसके बाद खेत में सिंचाई करके 20 से 25 दिन तक छोड दें। इसकी मात्रा 2 से 8 टन प्रति हेक्टर की दर से किया जाता है।

6. कृषि अपशिष्टों के मृदा में व्यवहार द्वारा पादप रोगकारक सूत्रकृमि का नियंत्रण: कृषि अपशिष्टों का प्रयोग पादप परजीवी सूत्रकृमियों के प्रबंधन में भी किया जा सकता है। हरी खाद या फसल के सूखे अवशेषों, जैसे - विभिन्न प्रकार की खल्लियाँ (सरसों की खल्ली, नीम की खल्ली, करंज की खल्ली इत्यादि), लकड़ी के बुरादे, गन्ने का अपशिष्ट इत्यादि को सूत्रकृमि के प्रबंधन में उपयोग किया जाता रहा है।कृषि अपशिष्टों को सीधे पौधा परजीवी सूत्रकृमि के प्रबंधन में इस्तेमाल किया जा सकता है। सूत्रकृमि की सक्रियता पौधे, जलवायु एवं मिट्टी के वातावरण से प्रभावित होती है। इन तीनों कारकों में बदलाव से सूत्रकृमि की संख्या में भी बदलाव आता है। यह बदलाव मिट्टी में किसी भी कार्बनिक पदार्थों/भूमि सुधारकों के समायोजन से लाया जा सकता है। यह प्रक्रिया मिट्टी में हानिकारक सूत्रकृमि की संख्या को कम तथा पौधों में वृद्धि के द्वारा प्रदर्शित होती है। इनके इस्तेमाल से पौधों एवं मिट्टी के वातावरण में कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है। इन भूमि सुधारकों में तिलहन खल्लियाँ, हरी खाद, सूखे फसल के अवशेषों एवं खादों का इस्तेमाल होता है। इन्हें भूमि में मिलाकर जुताई की जाती है। मिट्टी के वातावरण को बदलने का सबसे कुशल तरीका होता है मिट्टी में सड़ने लायक कार्बनिक अवशेषों को मिलाना। इस प्रक्रिया से पौधे मजबूत होते हैं और उनमें बीमारियों से लड़ने की ताकत में वृद्धि होती है साथ ही सूत्रकृमि की संख्या में कमी आती है। इन तरीकों से सूत्रकृमि की संख्या को उनके हानिकारक स्तर से नीचे लाया जा सकता है न कि उनकी पूरी संख्या को खत्म किया जाता है। किसी भी जीव को वातावरण से पूरी तरह खत्म करना इंसान के वश में नहीं है बल्कि उनके संख्या को कम कर उनके द्वारा होने वाली हानि को कम किया जा सकता है। फसलों के अवशेष, जैसे गेहूँ की पुआल, धान का पुआल, धान के बीज के छिलकों को अगर मिट्टी में मिलाकर जुताई किया जाये तो सूत्रकृमि की संख्या में कमी आती है। ये चीेजें मिट्टी में जब पूरी तरह से विखंडित हाते हैं तब ये सूत्रकृमिनाशी के रूप में काम करती है।

7. तिलहन खल्लियों का इस्तेमाल: अण्डी की खल्लियों के इस्तेमाल से नींबू की प्रजातियों में हानि पहुँचाने वाला सूत्रकृमि, टायलेन्कुलस सेमीपेनिट्रांस की संख्या में कमी देखी गयी है। करंज खल्ली के इस्तेमाल से जड़गाँठ सूत्रकृमि की संख्या में 50-100 प्रतिशत की कमी हुई है। इसी तरह नीम, मूँगफली, तिल, सरसों, महुआ, कपास इत्यादि की खल्लियों से सूत्रकृमि की संख्या में कमी लायी जा सकती है। इनका इस्तेमाल पौधे लगाने के तीन सप्ताह पहले मिट्टी में किया जाना चाहिए। गेहूँ एवं जौ में सरसों एवं अण्डी की खल्ली के इस्तेमाल से सिस्ट सूत्रकृमि का प्रबंधन होता है जो इन फसलों को काफी हानि पहुँचाते हैं। यदि इन खल्लियों को गेहूँ के अवशेषों और खाद के साथ मिलाकर व्यवहार किया जाये तो ज्यादा सफलता मिलती है। नीम, धतुरा, गेंदा, भांग, पुदीना, मदार के पत्ते, सर्पगन्धा के जड़, तुलसी के पत्ते, मेथी के पत्ते, अण्डी के पत्ते इत्यादि कई ऐसे पौधे हैं जिनके पत्तों के मिट्टी में इस्तेमाल से पौधा परजीवी सूत्रकृमि की संख्या में कमी लायी जा सकती है।

8. कम्पोस्ट एवं खेतों की खाद का इस्तेमाल: कृषि अपशिष्टों को खाद के साथ मिलाकर मिट्टी में उपयोग करने से पौधा परजीवी सूत्रकृमि का नियंत्रण होता है। इससे पहले गर्मियों में खेतों की गहरी जुताई करने से बेहतर लाभ मिलता है।

9. हरी खाद का इस्तेमाल: इसमें पौधों को उगाना और उनके मुलायम अवस्था में ही मिट्टी में मिलाने से अच्छी तरह विखण्डित होने के बाद मुख्य फसल को पोषक तत्व प्रदान करते हैं। जैसे-सनई औरढैंचा के पौधों को 45 दिनों पर मिट्टी में मिलाने से, अनानास के हरे पत्ते 50-200 टन प्रति एकड़ की दर से मिट्टी में मिलाने से सूत्रकृमि की संख्या में कमी आती है। नीम, करंज, सनई, ढैंचा, गेंदा इत्यादि के हरे पत्तों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर मिट्टी में मिलाने से सूत्रकृमियों का नियंत्रण होता है।

कार्बनिक पदार्थों का मिट्टी में समावेश करने से मिट्टी का वातावरण बदल जाता है जो पौधा परजीवी सूत्रकृमि के लिए हानिकारक होता है। इस दौरान निम्नलिखित प्रक्रिया होती है-

1. कार्बनिक पदार्थों के विखण्डन से मिट्टी में मांसभक्षी जीवों, फफूँद, जीवाणु इत्यादि की संख्या बढ़ जाती है।

2. विखण्डित होने पर रासायनिक स्त्राव सूत्रकृमि को सीधे नुकसान पहुँचाते हैं।

3. सूक्ष्मजीवों की जैविक प्रक्रियाओं द्वारा उत्सर्जित पदार्थों से प्रत्यक्ष रूप से सूत्रकृमि की संख्या में कमी आती है।

4. कभी-कभी कार्बनिक पदार्थ सीधे तौर पर सूत्रकृमि को नुकसान पहुँचाते हैं।

5. इन पदार्थों के समावेश से मृदा का पी एच मान बदल जाता है जो सूत्रकृमि के लिए नुकसानदेह होता है।

6. विखण्डीकरण के दौरान मिट्टी के तापमान में अंतर होता है जो सूत्रकृमि के साधारण जीवन चक्र को प्रभावित करता है।

7. विखण्डीकरण के दौरान उत्पादित फैटी एसिड, फिनोल, अमोनिया, अमीनो एसिड इत्यादि सूत्रकृमियों के लिए हानिकारक होती है। ऐसा पाया गया है कि कृषि अपशिष्टों के विखण्डीकरण में बहुत तरह के एसिड का उत्पादन होता है जो शिशु सूत्रकृमि को 50 प्रतिशत तक समाप्त कर देता है।