कृष्णा गुप्ता, पी.एचडी. रिसर्च स्कॉलर
डॉ. गजेन्द्र चन्द्राकर, वरिष्ठ वैज्ञानिक
राजकुमारी, पी.एचडी. रिसर्च स्कॉलर
डॉ. मनमोहन सिंह बिसेन
कीट विज्ञान विभाग
कृषि महाविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

परिचय
ट्राइकोडर्मा पौधों के जड़ विन्यास क्षेत्र (राइजोस्फियर) में खामोशी से अनवरत कार्य करने वाला सूक्ष्म कार्यकर्ता है। यह एक आरोगकारक मृदोपजीवी कवक है, जो प्रायः कार्बनिक अवशेषों पर पाया जाता है। इसकी दो प्रजातियाँ विशेष रूप से प्रचलित है - ट्राइकोडर्मा विरिडी एवं ट्राइकोडर्मा हर्जियानम। यह बहुत ही महत्वपूर्ण एवं कृषि की दृष्टि से उपयोगी है। यह एक जैव कवकनाशी है और विभिन्न प्रकार की कवकजनित बीमारियों को रोकने में मदद करता है। इससे रासायनिक कवकनाशी के ऊपर निर्भरता कम हो जाती है। इसका प्रयोग प्रमुख रूप से रोगकारक जीवों की रोकथाम के लिये किया जाता है। इसका प्रयोग प्राकृतिक रूप से सुरक्षित माना जाता है क्योंकि इसके उपयोग का प्रकृति में कोई दुष्प्रभाव देखने को नहीं मिलता है।

ट्राइकोडर्मा एवं रोग नियंत्रण
ट्राइकोडर्मा मुख्यतः एक जैव कवकनाशी है। यह रोग उत्पन्न करने वाले कारकों जैसे- फ्यूजेरियम, पिथियम, फाइटोफ्थोरा, राइजोक्टोनिया, स्क्लेरोशिम, स्कलैराटिनिया इत्यादि मृदोपजनित रोगजनकों की वृद्धि को रोककर अथवा उन्हें मारकर पौधों में उनसे होने वाले रोगों से सुरक्षा करता है। इसके अलावा ये सूत्रकृमि से होने वाले रोगों से भी पौधों की रक्षा करते हैं। यह मुख्यतः दो प्रकार से रोगकारकों की वृद्धि को रोकता है। प्रथम, यह विशेष प्रकार के प्रतिजैविक रासायनों का संश्लेषण एवं उत्सर्जन करता है, जो रोगकारक जीवों के लिये विष का काम करते हैं। दूसरा, यह प्रकृति में रोगकारकों पर सीधा आक्रमण कर उसे अपना भोजन बना लेता है या उन्हें अपने विशेष एन्जाइम जैसे काइटिनेज, ”-1,3, ग्लूकानेज द्वारा तोड़ देता है। इस प्रकार रोगकारक जीवों की संख्या तथा उनसे होने वाले दुष्प्रभाव को कम करके पौधों की रखा करता है। यह पौधों में उपस्थित रोगरोधी जीन्स को सक्रिय कर पौधों की रोगकारकों से लड़ने की आन्तरिक क्षमता का भी विकास करता है।

ट्राइकोडर्मा के प्रयोग से लाभ
1. यह रोगकारक जीवों की वृद्धि को रोकता है या उन्हें मारकर पौधों को रोग मुक्त करता है। यह पौधों की रासायनिक प्रक्रियाओं को परिवर्तित कर पौधों में रोगरोधी क्षमता को बढ़ाता है। अतः इसके प्रयोग से रासायनिक दवाओं, विशेषकर कवकनाशी पर निर्भरता कम होती है।

2. यह पौधों में रोगकारकों के विरूद्ध तंत्रगत अधिग्रहित प्रतिरोधक क्षमता (सिस्टेमिक एक्वायर्ड रेसिस्टेन्स) की क्रियाविधि को सक्रिय करता है।

3. यह मृदा में कार्बनिक पदार्थों के अपघटन की दर बढ़ाता है अतः यह जैव उर्वरक की तरह काम करता है।

4. यह पौधों में एंटीऑक्सीडेंट गतिविधि को बढ़ाता है। टमाटर के पौधों में ऐसा देखा गया कि जहाँ मिट्टी ट्राइकोडर्मा डाला गया उन पौधों के फलों की पोषक तत्वों की गुणवत्ता, खनिज तत्व और इंटीऑक्सीडेंट, गतिविधि अधिक पाई गई।

5. यह पौधों की वृद्धि को बढ़ाता है क्योंकि यह फास्फेट एवं अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों को घुलनशील बनाता है। इसके प्रयोग से घास और कई अन्य पौधों में गहरी जड़ों की संख्या में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई जो उन्हें सूखे में भी बढ़ने की क्षमता प्रदान करती है।

6. ये कीटनाशकों, वनस्पतिनाशकों से दूषित मिट्टी के जैविक उपचार (बायोरिमेडिएशन) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनमें विविध प्रकार के कीटनाशक जैसे- ऑरगेनोक्लोरिन, ऑरगेनोफास्फेट एवं कार्बोनेट समूह के कीटनाशकों को को नष्ट करने की क्षमता होती है।

ट्राइकोडर्मा के प्रयोग में सावधानियाँ
1. ट्राइकोडर्मा कल्चर/फर्मूलेशन को उचित एवं प्रमाणित संस्था अथवा कम्पनी से ही खरीदें।

2. कल्चर/फार्मूलेशन छः महीने से ज्यादा पुराना न हो।

3. बीज-पौधे उपचार का कार्य छायादार एवं शुष्क स्थान पर करें।

4. ट्राइकोडर्मा के साथ-साथ अन्य कवकनाशी रसायनों का प्रयोग न करें।

5. ट्राइकोडर्मा के प्रयोग के 4-5 दिनों के पश्चात् तक रासायनिक कवकनाशी का प्रयोग न करें।

6. सूखी मिट्टी में ट्राइकोडर्मा का प्रयोग न करें। नमी इसके विकास और बचे रहने के लिये एक अनिवार्य पहलू है।

7. ट्राइकोडर्मा उपचारित बीज को सूर्य की सीधी धूप न लगने दें।

8. कार्बनिक खाद में मिलाने के बाद इसे लम्बी अवधि के लिये न रखें।

ट्राइकोडर्मा उत्पाद का रख-रखाव
ट्राइकोडर्मा एक कवक है, अतः सामान्य तीन-चार महीने तक इसकी संख्या में विशेष गिरावट नहीं आती है। समय बढ़ने के साथ इसकी प्रति ग्राम संख्या कम होने लगती है। इससे इसकी गुणवत्ता पर बहुत असर पड़ता है।, इसलिये पैकेट को अधिक दिन तक रखने के लिये 8 से 10 डिग्री सेल्सियस तापमान पर संग्रहित करना चाहिए।

ट्राइकोडर्मा की संगतता
यह जैविक/कार्बनिक खाद और अन्य बायोफर्टिलाइजर जैसे- राइजोबियम एजोस्पिरिलम, वैसिलस सब्टिलिस एवं फास्फोबैक्टीरिया के साथ संगत है। ट्राइकोडर्मा रासायनिक कवकनाशी मेटालेक्सिल और थीरम द्वारा उपचारित बीज के साथ प्रयोग किया जा सकता है पर अन्य किसी भी रासायनिक कवकनाशी (फंजीसाइड्स) के साथ नहीं।

ट्राइकोडर्मा उत्पाद की गुणवत्ता का भारतीय मानक
1. कॉलोनी फर्मिंग यूनिट (सी.एफ.यू.) कम से कम 2ग्106 प्रति ग्राम या मिली लीटर।

2. लक्ष्य सूक्ष्मजीव पर विरोधी मारक क्षमता।

3. उत्पाद में नमी की मात्रा-8 प्रतिशत, पी.एच 7।

4. प्रयोग करने की अंतिम तिथि कम से कम 6 महीना।

5. मानव और अन्य माइक्रोबियल दशकों के संख्या की अधिकतम स्वीकार्य सीमा 2ग्104 सी.एफ.यू. प्रति ग्राम या मिली लीटर।

ट्राइकोडर्मा आधारित बायोपेस्टीसाईड संभावनाएँ और चिंताएँ
आज हमारे देश में इस्तेमाल की जाने वाले जैविक कीटनाशी (बायोपेस्टीसाइड) उत्पादों में अकेले ट्राइकोडर्मा की हिस्सेदारी 60 प्रतिशत है। ट्राइकोडर्मा व्यवहार के बहुआयामी लाभ होने के साथ-साथ इसका उत्पादन भी अपेक्षाकृत कम लागत पर होता है और बाजार में यह कम कीमत पर उपलब्ध है, लेकिन इसके साथ ही दूसरा पहलू भी है- उत्पाद की गुणवत्ता के विनियमन का। उत्पादनकर्ता कंपनी द्वारा बायोपेस्टीसाइड का उत्पादन करने से पहले इसे भारत के कृषि मंत्रालय की केन्द्रीय कीटनाशक बोर्ड (सी.आई.बी.) के साथ पंजीकृत कराना अनिवार्य है। इसके तहत कीटनाशक अधिनियम, 1968 की धारा 9(3) (नियमित पंजीकरण) या 9 (3बी) (अंतिम पंजीकरण) के अंतर्गत उत्पादों को पंजीकृत करा सकते हैं। पंजीकरण के लिये आवेदन करते समय उत्पाद लक्षण वर्णन, प्रभावकारिता, सुरक्षा खतरे, विष ज्ञान और लेबलिंग पर डेटा प्रस्तुत करना होता है। इस प्रणाली में बायोपेस्टीसाइड को आमतौर पर सुरक्षित (जी.ए.आर.एस.) माना जाता है और अंतिम पंजीकरण की पात्रता होती है। सी.आई.बी. ने हर उत्पार के लिए मानक निर्धारित किये हैं, जिसमें मात्रा संख्या सी.एफ.यू. के रूप में, जीव की मारक क्षमता (विरूलेन्स) एल सी. 50 में रूप में नमी की मात्रा भंडारण में जीवनावधि, अन्य दूषित करने वाले जीव और अधिकतम गैर रोगजनक की संख्या आदि निर्धारत किये गए हैं।

गुणवत्ता संबंधी समस्याओं का समाधान
1. गुणवत्ता आश्वासन प्रणाली को मजबूत किया जाना चाहिए। निर्धारत प्रारूप का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये हैंडलिंग और प्रसंस्करण के विभिन्न चरणों में यादृच्छिक निरीक्षण किया जाना चाहिए।

2. अपंजीकृत और नियमित उत्पादों को सतर्कता से खत्म करना चाहिए।

3. जाली आश्वासनों वाले उत्पाद की उत्पत्ति का सुराग पता कर सख्तीपूर्ण कार्यवाही की जानी चाहिए।

4. गैर सरकारी और निजी एजेंसियों द्वारा जैव जीवनाशकों के विभिन्न पहलुओं जैसे गुणवत्ता, उपयोग, सक्रिय घटक पर उपभोक्ता जागरूकता पैदा किये जाने की जरूरत है।