डॉ.देवेन्द्र कुमार साहू ,(पीएच.डी.)
सब्जी विज्ञान, इं.गां.कृ.वि.रायपुर (छ.ग.)

भारत में चौलाई की खेती लगभग सभी जगह पर की जाती हैं। यह फसल पत्तियों वाली सब्जियों की मुख्य फसल है। यह शीघ्र तैयार होने वाली तथा बहुत कम उत्पादन लागत वाली फसल है जो गृहवाटिका एवं व्यावसायिक उत्पादन के लिए अच्छा है । सामन्यतः चौलाई की पत्तियों के साथ -साथ मुलायम डंठल भी खाया जाता है चौलाई गहरे हरे रंग की पत्तियों के साथ- साथ हल्का हरा ,लाल एवं बैंगनी रंग की होती है । यह न सिर्फ एक स्वादिष्ट सब्जी है बल्कि चौलाई के फायदे इतने होते हैं जो बहुत से रोगों को ठीक कर सकते हैं। चौलाई में अनेकों औषधीय गुण होते हैं, सबसे बड़ा गुण सभी प्रकार के विषों का निवारण करना है, इसलिए इसे विषदन भी कहा जाता है। इसकी डंडियों, पत्तियों में प्रोटीन, खनिज, विटामिन ए, सी प्रचुर मात्रा में मिलते है। चौलाई पेट के रोगों के लिए भी गुणकारी होती है क्योंकि इसमें रेशे, क्षार द्रव्य होते हैं जिससे पेट साफ होता है, कब्ज दूर होता है, पाचन संस्थान को शक्ति मिलती है। छोटे बच्चों के कब्ज में चौलाई का औषधि रूप में दो से तीन चम्मच रस लाभदायक होता है।

जलवायु और उपयुक्त मिट्टी:- 
चौलाई का उत्पादन शीतोष्ण और समशीतोष्ण दोनों तरह की जलवायु में किया जा सकता है। चौलाई को बरसात और गर्मी दोनों मौसम में उगाया जा सकता है। लेकिन गर्मी के मौसम को इसकी खेती के लिए उपयुक्त माना गया है। जबकि सर्दी का मौसम चौलाई की खेती के लिए अच्छा नहीं माना जाता है। सामान्य बारिश में भी इसकी खेती आसानी से की जा सकती है, किन्तु खेत में जल भराव का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। चौलाई के पौधों को अंकुरित होने के लिए करीब 20 से 25 डिग्री के बीच तापमान की आवश्यकता होती है। तथा इसके विकास के लिए लगभग 30 डिग्री के आसपास तापमान अच्छा होता है हालांकि गर्मी के मौसम में अधिकतम 40 डिग्री तापमान पर भी चौलाई के पौधे विकास होता है।इसकी खेती किसी भी कार्बनिक पदार्थों से भरपूर उपजाऊ उचित जल निकासी वाली मिट्टी में की जा सकती है। इसकी खेती के लिए भूमि का पी. एच मान 6 से 8 के बीच होना चाहिए।

चौलाई की उन्नत किस्में-

छोटी चौलाई:- चौलाई की इस किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा विकसित किया गया है। इसके पौधे सीधे बढ़वार वाले तथा छोटे आकार के होते है, पत्तियाँ छोटी तथा हरे रंग की होती है।

बङी चौलाई:- इस किस्म को भी भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित किया गया है। इसकी पत्तियाँ बङी तथा हरे रंग की होती है और तने मोटे, मुलायम एवं हरे रंग के होते हैं।

पूसा कीर्ति:- इसकी पत्तियाँ हरे रंग की काफी बड़ी, 6 से 8 सेमी. लम्बी और 4 से 6 सेमी चौङई होती है तथा डंठल 3 से 4 सेमी. लम्बा होता है। इसका तना हरा और मुलायम होता है। यह गर्मी में उगाने के लिए बहुत उपयुक्त किस्म है।

पूसा लाल चौलाई:- इस किस्म को भी भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा ही विकसित किया गया है। इसकी पत्तियाँ लाल रंग की काफी बङी लगभग 7.5 सेमी. लम्बी और 6.5 सेमी. चौङी होती हैं। इसकी पत्तियों के डंठल की लम्बाई 4 सेमी. होती है। इसका तना भी गहरे लाल रंग का होता है तथा तना और पत्ती का अनुपात 1ः 5 का होता है।

पूसा किरण:- यह बरसात के मौसम में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है। इसकी पत्तियाँ मुलायम हरे रंग की तथा चौङी होती है और पत्ती के डंठल की लम्बाई 5 से 6.5 सेमी. होती है।

कपिलासा:- यह चौलाई की जल्दी तैयार होने वाली किस्म है। इस किस्म के पौधों की लम्बाई लगभग दो मीटर के आसपास पाई जाती है। इस किस्म के पौधे हरी सब्जी के रूप में रोपाई के 30 से 40 दिन बाद ही पहली कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं।

अन्नपूर्णा:- इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के 120 से 130 दिन पश्चात् पैदावार देना आरम्भ कर देते है, तथा पत्तियों की कटाई 30 से 35 दिन बाद की जा सकती है। इसके पौधे दो मीटर तक लम्बे होता है।

सुवर्णा:- चौलाई की यह किस्म उत्तर भारत में अधिक पैदावार देने के लिए उगाई जाती है। इस किस्म में पौधों को पककर तैयार होने में 80 से 90 दिन का समय लग जाता है। जिसमे हरी फसल की कटाई बीज रोपाई के 30 दिन पश्चात् की जा सकती है।

गुजरत अमरेन्थस 2ः- इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के 90 दिन बाद पककर तैयार हो जाते है, तथा हरी फसल की कटाई 30 दिन बाद कर सकते है। इसमें निकलने वाले पौधे और पत्तियां दोनों ही आकार में लम्बे होते है।

खाद एवं उर्वरक का प्रबंधन:-
इसकी खेती से बार बार पत्तिया प्राप्त करने के लिए इसे अधिक पोषक तत्व देना पड़ता हैं। अधिक उपज प्राप्त करने के लिए खेत तैयार करते समय 15 से 20 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में देना चाहिए। जबकि रासायनिक उर्वरक के रूप में 30 किलों नाइट्रोजन, 40 किलो फास्फोरस और 20 किलो पोटाश की मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से आखिरी जुताई के वक्त मिट्टी में मिला देना होता हैं। इसके अलावा 20 किलोग्राम यूरिया की मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से प्रत्येक हरी फसल की कटाई के बाद पौधों में देनी चाहिए। इससे पौधे का जल्दी विकास होता हैं।

बुवाई का समय:- 
चौलाई खेती गर्मी और बरसात दोनों मौसम की जाती है। चौलाई पहली बुवाई फरवरी से मार्च के बीच और दूसरी बुवाई जुलाई में कर दी जाती है। मार्च और फरवरी के बीच बुवाई करने से गर्मी के मौसम में इसकी पत्तियां खाने को मिल जाती है, वहीं जुलाई में बुवाई करने के दौरान वर्षा ऋतु के मौसम में इसकी पत्तियां खाने को मिल जाती है।

बुवाई एवं बीज की मात्रा:-
एक हेक्टेयर खेत में बुवाई के लिए छोटी चौलाई की 3 किलोग्राम एवं बड़ी चौलाई की 2 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है चौलाई की बीज वाली फसल के लिए 1. 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज लगता है चौलाई क बीज बहुत छोटे होते है इसलिए बुवाई के समय एक स्थान पर अधिक बीज गिरने की समस्या से बचने के लिए रेत मिलाकर बुवाई करना चाहिए। चौलाई को छिड़काव एवं कतार दोनों विधिओ से बोया जाता है। सामान्यतः कतार से कतार एवं पौध से पौध की दूरी 20 सेमी रखा जाता है तथा बीजो की बुवाई 1 -2 सेमी गहराई पर करना चाहिए ।

सिंचाई प्रबंधन:- 
चौलाई के बीजों की बुवाई नम भूमि में की जाती है, इसलिए शुरुआत में बीजों की रोपाई के तुरंत बाद पानी नही देना होता। लेकिन बुवाई के 2 से 3 दिन बाद खेत में पर्याप्त नमी दिखाई नहीं दे तो इसकी पहली हल्की सिंचाई करें। और बीज अंकुरित होने तक खेत में नमी बनाकर रखनी चाहिए। बीजों के अंकुरित होने के बाद इसके पौधों की पहली सिंचाई 20 से 25 दिन बाद करनी चाहिए। लेकिन हरी फसल के रूप में इसकी पत्तियों को बेचने के लिए इसके पौधों को गर्मियों के मौसम में सप्ताह में एक बार पानी जरुर देना चाहिए। इसके अलावा बारिश के मौसम में पौधों को आवश्यकता के अनुसार पानी देना चाहिए।

खरपतवार पर नियंत्रण:- 
चौलाई की अच्छी पैदावार के लिए इसके खेत को खरपतवार मुक्त रखना जरूरी होता है। इसके खेत में खरपतवार नियंत्रण पर सबसे ज्यादा ध्यान देना होता है। क्योंकि खरपतवार में पाए जाने वाले कीड़े इसकी पत्तियों को अधिक नुकसान पहुंचाते हैं जिससे इसकी गुणवत्ता और पैदावार में कमी हो जाती है। इसके लिए सबसे पहले बीज बोने के करीब 10 से 12 दिन बाद ही खेत में हल्की गुड़ाई कर दें। इसके बाद दूसरी गुड़ाई 40 दिन बाद कर देनी चाहिए। गुड़ाई करने के दौरान चौलाई के पौधों की जड़ों पर हल्की मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए।

चौलाई की पौध में लगने वाले प्रमुख रोग एवं रोकथाम:

पर्ण जालक:- इस किस्म का रोग कीट के रूप में पौधों पर आक्रमण करता है। पर्ण जालक रोग की सुंडी पौधों की पत्तियों पर आक्रमण कर उन्हें खाकर नष्ट कर देती है, जिससे पत्तियां जालीदार दिखाई देने लगती है। इस रोग से बचाव के लिए क्यूनालफास या डाई मिथेएट का छिड़काव चौलाई के पौधों पर करे।

जड़ गलन:- चौलाई के पौधों पर इस किस्म का रोग फफूंद के रूप में देखने को मिलता है। जड़ गलन रोग खेत में अधिक समय तक जल भराव होने पर दिखाई देता है। चौलाई के पौधों को इस रोग से बचाने के लिए खेत में जल भराव की समस्या न होने दे, तथा रोग लगने के पश्चात् बोर्डो मिश्रण का छिड़काव पौधों की जड़ो पर करे।

पाउडरी मिल्ड्यू:- इस किस्म का रोग पौधों पर किसी भी अवस्था में देखने को मिल सकता है। यदि इस रोग की समय पर रोकथाम नहीं की जाती है, तो यह पैदावार को अधिक हानि पहुंचाता है। इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियों पर सफेद और भूरे रंग की चित्तियाँ बन जाती है, जो कुछ समय बाद ही सम्पूर्ण पत्ती के ऊपर पाउडर बना देती है। इस रोग से बचाव नीम के तेल का छिड़काव पौधों पर करनाचाहिए।

ग्रासहोपर:- इस किस्म का रोग चौलाई के पौधों पर कीट के रूप में आक्रमण करता है द्य यह कीट रोग पौधों की पत्तियों को अधिक हानि पहुँचाता है, जिससे सम्पूर्ण पैदावार के नष्ट होने का खतरा होता है। ग्रासहोपर रोग का कीट पौधों के तनो और पत्तियों को पूरी तरह से खाकर नष्ट कर देता है। चौलाई के पौधों पर फोरेट का हल्का छिड़काव कर इस रोग से फसल को बचा सकते है।

फसल की कटाई, और पैदावार:- 
चौलाई के पौधे की कटाई अलग-अलग समय पर की जाती है। इसकी पत्तियों का इस्तेमाल सब्जी के रूप में होता है तो चौलाई की लाल और हरी पत्तियों की कटाई बुवाई के करीब 25 से 30 दिन बाद करना चाहिए इसकी पत्तियों की गुणवत्ता के लिए इसकी तीन से चार बार कटाई करना चाहिए । तीन से चार कटाई के बाद इसका उत्पादन 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के आसपास होता है। इसके अलावा दानों की पैदावार के लिए फसल लेना हैं तो बालियां पीली पड़ने लगे तो इसकी कटाई कर ले। चौलाई की फसल करीब 90 से 100 दिनों में तैयार हो जाती है।