डॉ. चंदूलाल ठाकुर, विषय वस्तु विशेषज्ञ (सस्यविज्ञान) कृषि विज्ञान केंद्र, कांकेर (छ.ग.)
श्री हेमंत कुमार भूआर्य, विषय वस्तु विशेषज्ञ (कृषि मौसम विज्ञान) कृषि विज्ञान केंद्र, कांकेर (छ.ग.)
डॉ. द्विवेदी प्रसाद, सहायक प्राध्यापक, पंडित शिवकुमार शास्त्री कृषि महाविद्यालय अनुसंधान केंद्र सुरगी राजनांदगांव (छ.ग.)

रागी (मडिया/मंडुवा) भारत की प्राचीनतम व महत्वूर्ण अनाज फसल है और दक्षिण भारत में रागी को प्रमुख भोजन के रूप में महत्व दिया जाता है। उत्तर भारत में रागी को खरीफ़ में मुख्य फसल एवं दक्षिण भारत में रबी व ग्रीष्मकालीन फसल के रूप में उगायी जाती है। छत्तीसगढ़ में रागी की खेती पहाड़ी, पठारी तथा वनीय क्षेत्रों के शुष्क और अर्णशुष्क भागों में की जाती है।

रागी की खेती में ग्रीष्मकालीन की मात्र एक चौथाई पानी और से भी कम उवणरक की जरूरत होने के साथ-साथ कम देख-रेख की आवश्यकता होती है तथा ग्रीष्मकालीन रागी की उत्पादकता खरीफ रागी की अपेिकृत अधर्क होता है। मैदानी क्षेत्रों में खरीफ ससंधचत की कटाई देरी से होने के कारण रबी फसलों की बोनी समय पर नही हो पाती है और ग्रीष्मकालीन फसल हेतु पयाणप्त व उपयुक्त समय समलने से पैदावार अधर्क होती है। इसलिए रागी की खेती ग्रीष्मकालीन का अच्छा विकल्प है।

रागी छत्तीसगढ़ में उगायी जाने वाली लघु धान्य फसलों में सबसे महत्वपूर्ण एवं सबसे पहली अनाज फसल है। इसके दाने में लगभग 7.3 प्रतिशत प्रोटीन, 0.33 प्रतिशत कैल्शियम, 1.3 प्रतिशत वसा, 7.2 प्रतिशत कार्बाेहाइड्रेट, तथा विटामिन्स एवं आवश्यक अमीनो अम्ल प्रचुर मात्रा में पाये जाते है। मधुमेह पीड़ित व्यक्तियों के लिये चावल के स्थान पर इसका सेवन विशेष रूप से लाभप्रद है।  

रागी उच्च गुर्वत्ता पोषक तत्व मौजूद होने की दृश्य से अत्यधर्क पौष्टिक होने से इसका उपयोग ब्रत-उपवास में आहार, ववसभन्न प्रकार के पकवान बनाने एवं मल्टी-ग्रेन आटा में भी उपयोग होता है। छत्तीसगढ़ के वन क्षेत्रों में गमी में लू से बचने के सलए रागी का पेज खाया जाता है।

रागी में कैल्शियम, आयरन, फाइबर (रेशा), प्रोटीन और एंटी-ऑक्सीिेंट्स प्रचुर मात्रा में होने के कार इसका सेवन एनीसमक व गभणवती मदहलाओं; डिप्रेशन-माईग्रेन, डायबीटीज, हाई बी.पी. और मोटापा से ग्रससत एवं कुपोवषत बच्चों के सलए लाभकारी है।

भूमि का चयन - रागी की फसल को सभी प्रकार की भूमियों में उगाया जा सकता है, लेकिन अच्छे जल निकास वाली दोमट से हल्की दोमट मृदा अधिक उपयुक्त रहती है। छत्तीसगढ़ में यह हल्की रेतीली से भारी मृदा में उगायी जाती है। 

खेत की तैयारी - रबी फसल की कटाई पश्चात गर्मी में एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा मानसून प्रारम्भ होने के पश्चात दो गहरी जुताई कर पाटा लगाकर खेत समतल करना चाहिये। 

छत्तीसगढ़ के लिये रागी की अनुशंसित किस्में-
इंदिरा रागी-1, छ.ग. रागी-2, पी.आर.0 202- (गोदावरी), ही.एल.-149, बी.आर.-708 (चम्पावती), जी.पी.यू-28 

बोने का समय (खरीफ)- रागी को जून से लेकर अगस्त तक कभी भी बोया जा सकता है। रागी की सीधी बुवाई जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई मध्य तक तथा कतार से बुवाई जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक करना उपयुक्त रहता है। रागी फसल रोपाई करके भी उगायी जाती है। रागी की रोपाई के लिये रोपणी (नर्सरी) में बीज बोने का उपयुक्त समय जून के मध्य से जुलाई का प्रथम सप्ताह है।

बोने का समय (ग्रीष्मकालीन)- रागी को ग्रीष्मकालीन मौसम में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है, इसके लिए इसकी बुवाई 15 दिसम्बर से 15 जनवरी के मध्यम करना चाहिए। ग्रीष्मकाल में कम तापमान के कारण सीधी बुवाई करने पर कई बीज उग नहीं पाते जिससे पौध संख्या कम हो जाती है, एवं उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है इसलिए ग्रीष्मकाल में रोपाई उपयुक्त रहता है। इसके लिए नर्सरी में बुवाई दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक कर देना चाहिए तथा 20-25 दिन बाद खेत में रोपाई करना चाहिए। 

बीज की मात्रा - रागी की सीधी बुबाई के लिये 10-12 किग्रा. बीज, कतार में बुबाई करने के लिये 8-10 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर तथा एक हेक्टेयर खेत रोपाई के लिये 4 से 5 किग्रा. बीज पर्याप्त होता है।

बीज उपचार- बीजों के अच्छे अंकुरण तथा फफूंदजनित रोगों से बचाव के लिये बोने से पहले बीज का उपचार करना लाभदायक होता है। इसके लिये बीजों को फफूंदनाशक दवा कार्बाेक्सिन 75 प्रतिशत की 2 ग्राम अथवा थाइरम 75 प्रतिशत की 2 से 3 ग्राम मात्रा का प्रति किग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करें।

बोने की विधि - रागी की सीधी बोवाई, कतार में बोवाई लेही षवधि,  तथा रोपा पद्धति से बोवाई की जाती है। कतार में बोने के लिये बीज देशी हल द्वारा या सीडड्रिल द्वारा बोया जाता है। कतार विधि से बोनी करने पर कतार से कतार की दूरी 22.5 सेमी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी. रखते हैं एवं बीज को 3-4 सेमी. से कम गहराई पर नहीं बोना चाहिये।

रागी फसल की रोपाई पद्धति में बीजों को तैयार की गयी रोपणी (नर्सरी) में मई-जून के महीने में बोना चाहिये। 20 से 25 दिन की पौध होने पर रोपाई करें। पौधों को रोपणी (नर्सरी) से उखाड़ने के बाद एजोस्पाइरिलम के तैयार घोल में जड़वाले हिस्से को 15 से 30 मिनट तक डुबोकर रखने के बाद कतार से कतार की दूरी 22.5 सेमी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी. के फासले. पर रोपाई करें।

खाद एवं उर्वरक प्रबन्धन - अंतिम जुताई के समय 5 से 7 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की सड़ी खाद या कम्पोस्ट खाद को मिट्टी में मिलाना चाहिये। रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिये (सामान्यतः अच्छी पौदावार के लिये 40 किग्रा नाईट्रोजन, 30-40 किग्रा. फास्फोरस तथा 20-25 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिये। नाइट्रोजन की आधी मात्रा एवं फास्फोरस की पूरी मात्रा बोवाई के समय तथा नाइट्रोजन की शेष मात्रा बोबाई के 25 से 30 दिन बाद प्रथम निदाई के उपरान्त कूड़ों में समान रूप से डालें।

खरपतवार प्रबंधन- रागी फसल को बोने के 25 से 30 दिन तक खरपतवार का नियन्त्रण करना आवश्यक है। अन्यथा पैदावार में कमी आ जाती है। कतारों में बोई फसल को 2 से 3 निंदाई एवं 1 गुडाई की आवश्यकता होती है।
खरपतवारनाशी आइसोप्रोट्यूसन 80 प्रतिशत की 400 से 500 ग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर को बोवाई के तुरन्त बाद या अंकुरण के पूर्व छिड़काव करना चाहिये अथवा 2-4 डी 80 प्रतिशत सोडियम साल्ट की 750 ग्राम से 1 किग्रा. मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से बोनी के 20 से 25 दिनों बाद छिड़काव करने से चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का नियन्त्रण हो जाता है।

सिंचाई प्रबन्धन - रागी खरीफ की फसल होने के कारण इसको सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है अगर लम्बे अन्तराल तक बारिश न हो तो सिंचाई जरूरी है। उचित जल निकास हो सके इस हेतु जल निकास नालिया बनाना चाहिये।

रागी फसल में पौध संरक्षण
रागी फसल में कीटों एवं रोगों का प्रबन्धन न किया जाये तो पैदावार में बहुत कमी हो सकती है। इस फसल में तना छेदक कीट, सैनिक या आर्मीवर्म, पत्ती लपेट सुन्डी, बालियों का टिड्डा, तने का सफेद वर्म (व्हाईट वर्म) एवं चेपाकीट तथा ब्लास्टरोग, पत्तियों का झुलसा तथा वायरस जनित रोगों का प्रकोप होता है।

रागी के कीट एवं प्रबन्धन-

तना बंधक कीट- इस कीट का व्यस्क एक पतंगा होता है। इसके लार्वा द्वारा फसल को हानि पहुंचायी जाती है। गुलाबी रंग के इस कीट का लार्वा पौधे के तने को भेदकर अन्दर प्रवेश कर जाती है। इसके प्रकोप से प्रभावित पौधे पर डेड हर्ट दिखायी देती है।

प्रबंधन - कीट सहनशील किस्मों को बोना चाहिये। कीटनाशक कार्टपहाइड्रोक्लोराइड 4 प्रतिशत दानेदार 18 से 20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर या लेम्डासाइलोथ्रीन 9.5 प्रतिशत के साथ थायोमेक्सान 12.5 प्रतिशत की 200 मिली. मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से या क्लोरेंट्रोप्रोनील 18.5 प्रतिशत की 150 एमएल प्रति हेक्टर की दर से छिड़काव करें।
आर्मी वर्म (सैनिक कीट) - इस कीट की सुन्डी रात में शुरू के समय में पौधे के आधार को काट देती है। और दिन के समय जमीन की सतह या दरारों में छिप जाती है।

प्रबन्धन - इस कीट के अण्डों की रोकथाम के लिये अण्डा परजीवी कीट ट्राइकोग्रामा के एक हेक्टेयर में 100 स्थानों पर ट्राइकोकार्ड लगाना चाहिये या इमामिमेक्टीन बेन्जोयेट 5 प्रतिशत दानेदार घुलनशील की 2 मिली प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिडकाव करें।

पत्नी लपेटक कीट- इस कीट का लार्वा हरे पीले रंग की तथा सिर गहरे भूरे या काले रंग का होता है। कीट की सुन्डी मुडे हुये पत्तों के अन्दर रहकर नुकसान पहुंचाती रहती है।

प्रबन्धन- कीट के नियन्त्रण के लिये लेम्डासाइलोथ्रीन 9.5 प्रतिशत के साथ थायोमेक्सान 12.5 प्रतिशत की 200 मिली. मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से या प्रोफेनोफॉस व सायपरमेथ्रीन मिश्रित दवा 1 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।

रागी फसल में रोग प्रबन्धन-

झुलसा (ब्लास्ट) रोग- इस रोग का प्रकोप बढ़वार की प्रारम्भिक अवस्था से पकने तक की अवस्था तक हो सकता है। रोग प्रभावित पौधे की पत्तियों में आँख व नाव के आकार के जलसिक्त धब्बे बन जाते हैं। जो मध्य में धूसर व किनारों पर पीले भूरे रंग के होते है। इस फफूद का संक्रमण तने की ग्रीवा व डंठल पर भी होता है। रोग का अधिक प्रकोप होने पर बालियां सूख जाती है जिसके कारण फसल की उपज व गुणवत्ता प्रभावित होती है।

प्रबन्धन - रोगरोधी किस्से जैसे इंदिरा रागी 1, इंदिरा रागी 2, बी. एल. 149 का चयन करे।
बीज को बोने से पूर्व फफूंदनाशक दवा कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत की 1.5 से 2 ग्राम मात्रा प्रति किग्रा बीज अथवा कार्बोलिक्स 75 प्रतिशत की 2 ग्राम मात्रा प्रति कि.ग्रा. बीज के हिसाब से बीजोपचार करें।
रोपणी (नर्सरी) में रोग के लक्ष्ण दिखते ही कसुगामायसीन 2 मिली प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव करें।

भूरा धब्बा रोग - फफूंद जनित इस रोग का प्रकोप पौधे की सभी अवस्थाओं में हो सकता है। प्रारम्भ में प्रभावित पत्तियों पर छोटे-छोटे हल्के गोलाकार भूरे धब्बे बनते हैं। जो आकार में बढ़कर आपस में मिल जाते हैं। तथा समय से पूर्व पत्तियों को सुखा देते हैं। रोग का बालियों एवं दानों पर संक्रमण होने से उपज में कमी आ जाती है।

प्रबन्धन - बोने से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत की 1.5 2 ग्राम मात्रा का प्रति कि.ग्रा. बीज के हिसाब से बीज उपचार करें। रोग के लक्षण दिखाई देने पर फफूंदनाशक मन्कोजेब 75 प्रतिशत की 2.5 से 3 ग्राम मात्रा का प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर प्रभवित फसल पर छिड़काव करें।

फसल की कटाई और मिंजाई का तरीका:- रागी की फसल पकने के बाद बाली को पौधे सहित काट कर अलग कर लेवे उन्हें खेत मे ही एकत्रित कर कुछ दिन सूखा ले जब दाना अच्छा से सुख जाए तब थ्रेसर मशीन की सहायता से मिंजाई करे।

उपज:- उन्नत तरीका से रागी की खेती करने पर प्रति हेक्टेयर 20 से 25 कुंटल तक उपज प्राप्त होती है।