डॉ. लता जैन एवं डॉ. विनय कुमार
आईसीएआर- राष्ट्रीय जैविक स्ट्रैस प्रबंधन संस्थान, रायपुर, छत्तीसगढ़

ब्रुसेलोसिस एक प्राणीरूजा अथवा ज़ूनोटिक बीमारी है जो पशुओं से मनुष्यों एवं मनुष्यों से पशुओं में फैलती है। मनुष्यों में यह उतार-चढ़ाव वाला बुखार (अन्डूलेंट फीवर / लहरदार बुखार / मेडिटरेनियन ज्वर) नामक बीमारी करता है। इसे माल्टा बुखार, मेडिटरेनियन ज्वर, अंडुलेंट ज्वर, बैंग डिजीज, भूमध्य ज्वर आदि नामों से भी जाना जाता हैं। यह एक जीवाणु जनित अत्यंत संक्रामक रोग है जो मुख्यतः गौवंशीय पशुओं (गाय, भैंस), भेड़, बकरी व कुत्तों में विभिन्न ब्रुसेल्ला प्रजातियों के जीवाणु द्वारा फैलता है। यह रोग भैंसों से ज्यादा गायों में होता है। इस रोग में गायों तथा भैंसों में गर्भवस्था के अन्तिम त्रैमास (7-9 महीने के गर्भकाल) में गर्भपात हो जाता है । पशुओं में गर्भपात से पहले, योनि से अपारदर्शी पदार्थ निकलता है तथा गर्भपात के बाद पशु की जेर रुक जाती है। इसके आलावा यह जोड़ों की सूजन (आर्थ्रायटिस) पैदा करता है। ब्रुसेलोसिस बीमारी से पशुओं में बांझपन भी होता है। ब्रुसेलोसिस बीमारी से पीड़ित पशु के पूरे जीवनकाल के दौरान 30 प्रतिशत तक दूध उत्पादन घट जाता है। यह रोग संक्रमित दूध, मूत्र, वीर्य और रक्त द्वारा त्वचा के संपर्क से फैलता है । इसके जीवाणु संक्रमित चारा पानी के सेवन से स्वस्थ पशुओं और मनुष्यों के शरीर में प्रवेश करते है । यह रोग पशुशाला में बड़े पैमाने पर फैलता है तथा पशुओं में गर्भपात हो जाता है जिससे अधिक नुकसान होता है। मवेशियों के साथ रहने वाले व्यक्ति भी इस बीमारी से प्रभावित हो सकते हैं। ब्रुसेलोसिस भारत में एक स्थानिक बीमारी है जो बाँझपन, गर्भपात, पशु के कमजोर बच्चे का जन्म, उत्पादकता में कमी का प्रमुख कारण है । इससे डेयरी उद्योग को भारी आर्थिक नुकसान होता है। साथ ही विश्व स्तर पर लगभग 5 लाख मनुष्य हर साल इस रोग से ग्रस्त हो जाते हैं।

रोग कैसे फैलता है
गाय, भैंस में यह रोग ब्रूसेल्ला एबोरटस नामक जीवाणु द्वारा होता है। ये जीवाणु गाभिन पशु की बच्चेदानी में रहता है तथा अंतिम तिमाही में गर्भपात करता है। एक बार संक्रमित हो जाने पर पशु जीवन काल तक इस जीवाणु को अपने दूध तथा गर्भाशय के स्त्राव में निकालता है । पशुओं में ब्रुसेलोसिस रोग संक्रमित पदार्थ के खाने से, जननांगों के स्त्राव के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्षण सम्पर्क से, योनि स्त्राव से संक्रमित चारे के प्रयोग से तथा संक्रमित वीर्य से कृत्रिम गर्भाधान द्वारा फैलता है। मनुष्यों में यह बीमारी ग्रसित पशु के सीधे संपर्क में आने से होती है। मनुष्यों में ब्रुसेलोसिस रोग ज्यादातर रोगग्रस्त पशु के कच्चे दूध या दूध से बने प्रदार्थ के सेवन करने से और मांस खाने से फैलता है। कई बार गर्भपात होने पर पशु चिकित्सक या पशु पालक असावधानी पूर्वक ग्रसित पशु के अंगों, जेर या गर्भाशय के स्त्राव को छूते है। जिससे ब्रुसेलोसिस रोग का जीवाणु त्वचा के किसी कटाव या घाव से शरीर में प्रवेश कर जाता है। ग्रसित पशु के ज्यादा नजदीक होने से भी यह रोग होता है। पशु एवं मवेशियों के संपर्क में रहने वाले व्यक्ति जैसे की पशु चिकित्सकों, पशु पालकों, मीट व्यापारी व कच्चे डेयरी प्रोडक्ट्स के सेवन करने वालो में इस बीमारी से ग्रसित होने की संभावना अधिक होती है।

बीमारी के कारण
  • ब्रुसेलोसिस बैक्टीरिया ब्रुसेला की विभिन्न पशुओं में अलग अलग प्रजातियों जैसे कि ब्रुसेला अबोर्टस, ब्रुसेला मेलिनटेंसिस, ब्रुसेला सुइस, ब्रुसेला केनिस के कारण होता है।
  • ये बैक्टीरिया संक्रमित जानवरों के मूत्र, दूध एवं गर्भनालीय तरल पदर्थों में अधिक संख्या में स्त्रावित होते है।
  • संक्रमित सामग्री जैसे कि जन्म के समय निकलने वाले पदार्थाे, रक्त, उघड़ी त्वचा, मूत्र, बलगम आदि का नेत्र श्लेष्मला झिल्ली के साथ सीधे संपर्क होने से संक्रमण फैलता है।
  • मनुष्यों में संक्रमण अप्रत्यक्ष रूप से कच्चे दूध से निर्मित चीज एवं अन्य पशु उत्पादों के सेवन से होता है।
  • ब्रुसेला प्रजाति के बैक्टीरिया धूल, गोबर, पानी, गर्भपात भ्रूण, मिट्टी, मांस और डेयरी उत्पादों में लंबी अवधि तक जीवित रह सकते हैं।
  • मनुष्य से मनुष्य में संक्रमण बेहद कम होता है।
  • ऊष्मायन अवधि (इन्क्यूबेशन पीरियड) आमतौर पर दो से चार सप्ताह होती है, लेकिन एक सप्ताह से दो महीने या उससे अधिक समय तक भी हो सकती हैं।

रोग के मुख्य लक्षण
पशुओं में अंतिम त्रेमास अर्थात छठे से नौवें माह में गर्भपात होना, तेज बुख़ार, बेचौनी, कमजोरी, भग में सूजन होना और गुलाबी रंग का स्त्राव निकलना, थन, गर्भाशय और जोड़ों में सूजन (हाइग्रोमा), जेर का समय पर न गिरना आदि प्रमुख लक्षण है। साथ ही गर्भपात होने के बाद गर्भ धारण में दिक्कत आती है। मरा हुआ बच्चा या समय से पहले ही कमजोर बच्चा पैदा होता है द्य दूध की पैदावार कम हो जाती है तथा पशु बाँझ हो जाता है। नर पशु में वृषणों में सूजन हो जाती है, और प्रजनन शक्ति काम हो जाती है द्य भेड़, बकरियों में भी गर्भपात हो जाता है द्य सूअर में गर्भपात के साथ जोड़ो और वृषणों में सूजन पाई जाती हैद्य मनुष्यों में उतार-चढ़ाव वाला बुखार, थकान और कमजोरी, सर्दी जुकाम जैसे लक्षण, ठंड के साथ कंपकपी और पसीना आना, बदन दर्द, माँसपेशियों व जोड़ों में दर्द, रीढ़ की हड्डी और अंडकोष में सूजन, भूख न लगना और वजन घटना आदि मुख्य लक्षण है। दीर्घकालिक रूप में धीरे-धीरे लक्षण प्रकट होते हैं। इस रोग के तथा इंफ्लुएंजा, मलेरिया, तपेदिक, मोतीझरा आदि रोगों के लक्षण सामान होने के कारण विशेष समूहन परिक्षण तथा त्वचा में टीका परीक्षण से रोग की पहचान होती है।

निदान
  • स्क्रीनिंग नैदानिक परीक्षण- लक्षणों द्वारा इस बीमारी का निदान स्पष्ट नहीं होता है इसलिए निदान के लिए प्रयोगशाला परीक्षणों के सहयोग की आवश्यकता होती है। ब्रुसेलोसिस का संभावित नैदानिक परीक्षण निम्न तरह का होता है- स्क्रीनिंग के लिए मिल्क रिंग टेस्ट, रोज़ बंगाल टेस्ट (आरबीटी) एवं स्टैण्डर्ड एग्लूटिनेशन टेस्ट (एसएटी) किया जाता है। यदि उपरोक्त स्क्रीनिंग नैदानिक परीक्षण सकारात्मक है, तो निम्नलिखित नैदानिक पुष्टि परीक्षण रोग की पुष्टि के लिए किया जाता है।
  • पुष्टि नैदानिक परीक्षण- रक्त या अन्य नैदानिक नमूने से लेबोरेटरी में पुष्टि के लिए ब्रुसेला प्रजाति के जीवाणुओं का पृथक्कनरण एवं संवर्धन किया जाता है। साथ ही रक्त या अन्य नमूनों में पी.सी.आर द्वारा ब्रूसेला प्रजाति के जीवाणुओं का डीएनए परीक्षण और एलिसा टेस्ट द्वारा इनके विरुध्द एंटीबाडी परीक्षणों के माध्यम से ब्रुसेलोसिस बीमारी की पुष्टि की जाती है।

उपचार
पशुओं में ब्रुसेलोसिस की अब तक कोई सफल प्रमाणित इलाज नहीं है। यदि किसी क्षेत्र में ब्रुसेलोसिस रोग के 5 प्रतिशत से अधिक पोजिटिव केस पाए जाते हो तो इस रोग की रोकथाम के लिए 3-6 माह की आयु वाले बछियों में ब्रूसेला अबोर्ट्स स्ट्रेन 19 के टीके लगाए जाते हैं। पशुओं में प्रजनन की कृत्रिम गर्भाधान पद्धति अपना कर इस रोग से बचा जा सकता है। मनुष्यों में इसकी रोकथाम के लिए ट्रेटासाइक्लिन, रिफैम्पिसिन, डोक्सीसाइक्लिन आदि जीवाणु नाशक दवाओं का लंबे समय तक प्रयोग करके इसका उपचार किया जा सकता है।

प्रबंधन
  • नए खरीदे गए पशुओं को ब्रुसेल्ला संक्रमण की जाँच किये बिना अन्य स्वस्थ पशुओं के साथ कभी नहीं रखना चाहिए।
  • अगर किसी पशु को गर्भकाल के तीसरी तिमाही में गर्भपात हुआ हो तो उसे तुरंत फार्म के अन्य पशुओं से अलग करना चाहिए, क्योंकि संक्रमित पशु के स्त्राव द्वारा अन्य पशुओं में संक्रमण फैल जाता है।
  • अगर पशु को गर्भपात हुआ है तो खून एवं भ्रूण की जाँच करावानी चाहिए।
  • गर्भपात के स्थान को फिनाइल के घोल द्वारा विसंक्रमित (कीटाणुरहित) करना चाहिए। आसपास के स्थान को भी जीवाणु रहित करना चाहिए।
  • स्वस्थ गाय भैसों के मादा बच्चों में 3-6 माह की आयु में ब्रुसेल्ला अबोर्ट्स एस-19 वैक्सीन से टीकाकरण करवाना चाहिए।
  • गर्भाशय से उत्पन्न मृत नवजात एवं जैर को चूने के साथ मिलाकर गहरे जमीन के अन्दर दबा देना चाहिए जिससे जंगली पशु एवं पक्षी उसे फैला न सकें। मृत भ्रूण, जैर एवं योनि स्त्राव को सावधानी पूर्वक निस्तारित करना चाहिए क्योंकि इनमें इस बीमारी के कीटाणु बहुत अधिक मात्रा में पाए जाते हैं एवं इनके माध्यम से ही जीवाणु स्वस्थ पशु एवं मनुष्यों में फैलते हैं।
  • ब्याने वाले पशुओं में गर्भपात होने पर पशुपालक उनके संक्रमित स्त्राव, मल-मूत्र आदि के सीधे सम्पर्क से बचना चाहिए क्योंकि इससे उनमें भी संक्रमण हो सकता है।
  • रोगी मादा पशु के कच्चे दूध को स्वस्थ नवजात पशुओं एवं मनुष्यों को नहीं पिलाना चाहिए। पास्चुराइज्ड दूध / विसंक्रमित दूध (दूध को उबाल कर) का ही उपयोग करना चाहिए। साथ ही पशु मांस को ठीक से पका कर ही सेवन करना चाहिए।
  • पशुओं में प्रजनन की कृत्रिम गर्भाधान पद्धति अपनाने से इस रोग से बचा जा सकता है।

रोकथाम के उपाय
  • गौशाला को सदैव साफ सुथरी रखना चाहिए तथा उसमें समय समय पर कीटाणु नाशक दवा का छिड़काव करना चाहिए।
  • गाभिन पशुओं को सन्तुलित और पौष्टिक आहार देना चाहिए।
  • गाभिन पशुओं को चिकने फर्श पर नहीं बांधना चाहिए और उनके देखभाल का पूरा ध्यान रखना चाहिए।
  • मद में आए पशु का सदैव कृत्रिम गर्भाधान पशु चिकित्सक अथवा प्रशिक्षित तकनीशियन द्वारा ही करना चाहिए।
  • गर्भपात की सम्भावना होने पर अतिशीघ्र पशु चिकित्सक से सलाह लेनी चाहिए। यदि किसी पशु में गर्भपात हो गया हो तो शीघ्र ही इसकी सूचना नजदीकी पशु चिकित्सालय में देनी चाहिए ताकि इसके कारण का सही पता चल सके।

पशु चिकित्सकों के लिए आवश्यक निर्देश
  • अगर पशु में गर्भपात तीसरी तिमाही में हो तो पशु चिकित्सक को सावधानी रखनी चाहिए। करीब 30 प्रतिशत मौकों पर यह ब्रुसेल्लोसिस रोग से होता है।
  • पशु चिकित्सक को दोनो हाथ में रबर के दस्ताने तथा गाउन या एप्रन पहन कर ही योनि द्वार में हाथ डालना चाहिए। यह काम करते समय ब्रुसेलोसिस से होने वाले जोखिम को कम करने में मदद करता है।
  • जेर निकालते समय नाक व मुंह पर मास्क या रूमाल जरूर बांधना चाहिए।
  • जेर निकालने के बाद एंटीसेप्टिक घोल से हाथ और मुंह अच्छी तरह धोना चाहिए।
  • अगर पशु चिकित्सक स्वयं को लम्बे समय तक बुखार हो, अंडकोष में सूजन हो तो उसे ब्रुसेल्ला टेस्ट अवश्य कराना चाहिए।