डॉ.देवेन्द्र कुमार साहू, डॉ.लक्ष्मी प्रसाद भारद्वाज (पीएच.डी.), सब्जी विज्ञान
मुकेश खरसन, अजीत (पीएच.डी. स्कॉलर), सब्जी विज्ञान
इं.गां.कृ.वि.रायपुर (छ.ग.)

भारत देश में कद्दूवर्गीय सब्जियों में लौकी का प्रमुख स्थान हैं। लौकी एक बेहद फायदेमंद सब्जी है, जिसके इस्तेमाल से कई तरह की बीमारियों से राहत पा सकते हैं। यह कब्ज को कम करने, पेट को साफ करने, खांसी या बलगम दूर करने में बहुत फायदे मंद है। इस के मुलायम फलों में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट व खनिजलवण के अलावा प्रचुर मात्रा मे विटामिन पाए जाते हैं।

मृदा: 
लौकी की खेती को किसी भी क्षेत्र में सफलतापूर्वक की जा सकती है। इसकी खेती उचित जल निकासी वाली जगह पर किसी भी तरह की मृदा में की जा सकती है।किन्तु उचित जल धारण क्षमता वाली जीवाश्मयुक्त हल्की दोमट भूमि इसकी सफल खेती के लिए सर्वोत्तम मानी गयी है।लौकी की खेती में मृदा का पी.एच मान 6 से 7 के मध्य होना चाहिए।

जलवायु एवं तापमान: 
लौकी की खेती के लिए गर्म एवं आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है।इसकी बुआई गर्मी एवं वर्षा के समय में की जाती है। यह पाले को सहन करने में बिल्कुल असमर्थ होती है।इसकी खेती को अलग-अलग मौसम के अनुसार विभिन्न स्थानों पर किया जाता है, किन्तु शुष्क और अर्द्धशुष्क जैसे क्षेत्रों में इसकी पैदावार अच्छी होती है।लौकी की खेती में 30 डिग्री के आसपास का तापमान काफी अच्छा होता हैं।इसके बीज अंकुरण के लिए 30-35 डिग्री सेंटीग्रेड और पौधों की बढ़वार के लिए 32 से 38 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान उत्तम होता हैं।

नर्सरी विधि से लगाना करें: 
लौकी की जल्दी और अधिक पैदावार के लिए इसके पौधों को नर्सरी में तैयार करके सीधे खेत में लगा सकते हैं। पौधों को खेत में रोपाई से लगभग 20 से 25 दिन पहले तैयार किया जाता है। इसके लिए तैयार खेत में एक तरफ इसकी नर्सरी तैयार करें। नर्सरी तैयार करने के लिए पहले जो मिट्टी लेते हैं उसमें 50 प्रतिशत कंपोस्ट खाद और 50 प्रतिशत मिट्टी का प्रयोग करें। खाद एवं मिट्टी का अच्छे से मिश्रण बनाकर के क्यारियों का निर्माण करें। इन तैयार क्यारियों में पानी लगाकर लौकी के बीजों को लगभग 4 से.मी. की गहराई पर बुवाई करके मिट्टी की पतली परत बिछालें तथा हल्की सिंचाई करें। लगभग 20 से 25 दिन बाद पौधे खेत में लगाने के योग्य तैयार हो जाते हैं। इसके अलावा पौधे प्लास्टिक या फाइबर के गिलास (प्रो ट्रे ) में भी तैयार कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त बीजों को नर्सरी में बुवाई से पहले रोग मुक्त रखने के लिए बीज को बाविस्टीन से उपचारित कर लेना चाहिए।

बुवाई का समय एवं बीज की मात्रा:
ग्रीष्मकालीन फसल के लिए ‒जनवरी से मार्च, वर्षाकालीन फसल के लिए ‒जून से जुलाई, उत्तम होता है पंक्ति से पंक्ति की दूरी 1.5 मीटर एवं पौधे से पौधे की दूरी 1.0 मीटर पर बुवाई करनी चाहिए। जून-जुलाई वाली फसल के लिए 3‐4 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर, जनवरी से मार्च वाली फसल के लिए 4‒6 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर।

खाद एवं उर्वरकः 
खेत को तैयार करते समय प्रतिहेक्टेयर के हिसाब से गोबर की खाद 20‐30 टन, 50 किलो ग्राम नाइट्रोजन, 35 किलो ग्राम फास्फोरस और 30 किलो ग्राम पोटाश तत्व के रूप में दे सकते हैं।नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय देनी चाहिए। बची हुई नाइट्रोजन की आधी मात्रा 4 से 5 पत्ती की अवस्था में और बची आधी मात्रा पौधों में फूल बनने से पहले देनी चाहिए।

सिंचाई व जल प्रबंधन: 
लौकी की खेती की सिंचाई उसकी फसल के ऋतु पर निर्भर करती हैं। ग्रीष्म कालीन फसल के लिए 4‐5 दिन के अंतर सिंचाई की आवश्यकता होती है जबकि वर्षा कालीन फसल के लिए सिंचाई की आवश्यकता वर्षा नहीं होने पर पड़ती है।

लौकी की खेती हेतु उन्नतशील किस्मेंः 
अर्का बहार, पूसा समर प्रोलिफिक राउन्ड, पुसा समरप्रोलेफिक लाग, नरेंद्र रश्मि, पूसा संदेश, पूसा हाईब्रिड‐3, पूसा नवीन. काशी गंगा, काशी बहार

पौध संरक्षण:

फल मक्खी: यह फलों के छिलके के नीचे अंडे देती है जिनसे सूंडियाँ निकल कर गूदे में प्रवेश कर जाती हैं जिसके कारण फल सड़ कर जमीन पर गिर जाते है।

नियंत्रण: कीटों से प्रभावित फलों को तोड़ कर नष्ट कर देना चाहिए। फलों की प्रारम्भिक अवस्था में मैलाथियॉन (0.03 प्रतिशत) या कार्बेरील घुलनशील चूर्ण 50: 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर फसल पर स्प्रे करना चाहिए।

लाल कीटः यह लाल रंग का चमकीला, कीट होता है।इसका शरीर लाल रंग का होताहै। छोटे कीट पौधों की कोमल पत्तियों को खाकर नष्ट कर देते है, जिसके कारण पौधों का विकास एवं बढवार रुक जाता है।

नियंत्रण: सूर्योदय के पूर्व यह कीट सुस्त रहते है। अतः उस समय इन्हें हाथ से पकड़ कर मार देना चाहिए। पौधो  पर क्वीनालफॉस/क्लोरपाइरीफॉस (0.05 प्रतिशत) का छिडकाव करना चाहिए।

चैंपाः यह कीट पौधे के कोमल अंगों का रस चूसता है जिसके कारण पौधे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यह कीट विषाणु जनित रोग फैलाने में भी सहायता करता है।

नियंत्रण: इस कीट की रोकथाम हेतु 0.05 प्रतिशत मोनोक्रोटोफॉस का छिड़काव करना चाहिए।

मृदु रोमिल फफूंदी: यह रोग स्यूडोपेरोनोस्पोरा क्यूबेन्सिस नामक फफूंदी के कारण होता है। इस रोग के कारण पत्तियों के ऊपरी भाग पर पीले धब्बे दिखाई पड़ते है जबकि निचले भाग पर धब्बों का रंग बैंगनी होताहै।

नियंत्रण: फसल की प्रारम्भिक वृद्धि काल में मेन्कोजेब (0.25 प्रतिशत) का 10 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए।

चूर्णी फफूंदी: यह रोग ऐरीसाइफी सिकोरे सिएरम नामक फफूंदी के कारण होता है। इसरोग के कारण पुरानी पत्तियों की निचली सतह पर सफेद धब्बे उभर आते हैं। धीरे-धीरे इन धब्बों की संख्या एवं आकार में वृद्धि हो जाती है और बाद में पत्तियों के दोनों ओर चूर्णिल वृद्धि दिखाई देती है।

नियंत्रण: रोगग्रस्त पौधों को उखाड कर जला देना चाहिए। घुलनशील गंधक जैसे इलोसाल या सल्फैक्स की 3 किलो मात्रा को 1000 लीटर पानीमें घोल कर छिड़काव करना चाहिए।

फलों की तुड़ाई: 
फलों की तुड़ाई उगाई जाने वाली किस्मों पर निर्भर करती है। फलों को कोमल अवस्था में ही तोड़ना चाहिए अन्यथा कठोर अवस्था में यह खाने योग्य नहीं नहीं रहती है। फल उस अवस्था में तोड़े जब छिलका कोमल, चमकीला और रोयें वाला हो, साथ ही बीज भी कच्ची अवस्था में हों।

उपज:
लौकी की उपज भूमि की उर्वरा शक्ति, उगाई जाने वाली किस्म व फसल की देखभाल पर निर्भर करती है प्रतिहेक्टेयर लगभग 15-20 टन मिल जाते हैं।