तरुण प्रधान, डॉ. नन्दन मेहता, डॉ. आशुलता कौशल एवं डॉ. सोनल उपाध्याय 
 आनुवंशिकी एवं पादप प्रजनन विभाग
इन्दिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)

 छत्तीसगढ़ मे उगाई जाने वाली तिलहनी फसलों मे अलसी एक प्रमुख रबी तिलहन फसल है, इसकी खेती इस क्षेत्र मे लगभग 83 हजार हेक्टयेर मे की जाती है। उपयोगिता के आधार पर अलसी को तीन प्रकार मे बाँटा गया है ,प्रजाति जो केवल बीज/तेल निकालने के लिए बोया जाता है उसे अलसी ,जबकि जो प्रजाति केवल रेशा प्राप्त करने के लिए उगाया जाता है उसे फ़्लेक्स अलसी कहते है, तथा जो प्रजाति अलसी व रेशा दोनों निकालने के कम आता है उसे दुकाजी अलसी कहते है। तीनों अलसी की प्रजाति को पादप ऊंचाई के आधार पर आसानी से पहचान सकते है। अलसी के दानो’ का प्रयोग तेल निकालने के लिए प्रमुख रूप से की जाती है। अलसी मे तेल की मात्रा 43 प्रतिशत तक होती है। अलसी के दानों से तेल निकालने के बाद बचा हुआ उत्पाद (खली) पशुओ के लिए आहार के रूप मे उपयोग किया जाता है। अलसी के तेल का उपयोग खाने, साबुन बनाने, रंग,पेंट, छपाई के लिए प्रयूक्त स्याही,पेपर उद्योग,दवाई के रूप मे,सुरक्षा मानक उपकरणो मे,खाद्य उत्पादो मे,प्रसाधन सामाग्री तैयार करने आदि के लिए किया जाता है। आधुनिक कृषि तकनीकों को अपनाकर अलसी का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है एवं अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। छत्तीसगढ़ अंचल मे अलसी की खेती दो पद्धतियों से होती है।

बोता पद्धतियों द्वारा अलसी की खेती :-
1) भूमि का चुनाव:- इसकी खेती के लिए भारी भूमि जैसे भर्री एवं कन्हार अधिक उपयूक्त होती है। फसल की उतम उपज के लिए मध्यम उपजाऊ दोमट मिट्टी सबसे उत्तम होती है,भारी भूमि मे अलसी की खेती वर्षा के आधार पर ही की जाती है। हल्की भूमि मे सिंचाई के साधन उपलब्ध होना आवश्यक है। अलसी की उतम फसल के लिए भूमि मे जल निकास का उत्तम प्रबंध होना चाहिये।

2) भूमि की तैयारी:- अलसी के अच्छे उत्पादन के लिए खेत की तैयारी करना जरूरी है, भूमि की तैयारी के लिए दो-तीन बार गहरी जुताई करके 2-3 बार डिस्क हेरो चलाकर मिट्टी को भुरभुरी बना लेना चाहिये,खेत को अच्छी तरह से खरपतवार रहित कर साफ कर लेना चाहिये। इसके अच्छे उत्पादन के लिए बलुई दोमट या चिकनी दोमट मिट्टी जिसका पी.एच मान 5.5 से 7.0 हो, खेती करना उपयूक्त है।

3) जलवायु:- इस फसल की अधिक उपज के लिए अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से नवम्बर के तीसरे सप्ताह तक बुवाई करना चाहिए, अलसी के उपज के लिए ठंडी नमी के साथ हल्के तापमान की आवश्यकता होती है, अलसी के लिए 10 डिग्री सेन्टीग्रेड से 27 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान, वर्षा 155 से 200 मिमी व उच्च मध्यम आद्रर्ता (60-65 प्रतिशत) पर्याप्त होती है, परंतु सूखा व उच्च तापमान पुष्पन के समय उत्पादन /उपज को कम कर देता है।

4) बीज की मात्रा:- अलसी मे असिंचित अवस्था मे 30 किग्रा॰/हेक्टेयर, सिंचित अवस्था मे 25 किग्रा॰/हेक्टेयर, उतेरा 40 किग्रा॰/हेक्टेयर एवं मिश्रित फसल हेतु 8-10 किग्रा॰/हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है, बुवाई के पूर्व बीजो को फफूंदनाशक दवा बाविस्टीन/थायराम 2-3 ग्रा॰/किग्रा॰ व जैव उर्वरक पी॰एस॰बी॰,एजेटोबेक्टर 5-5 ग्रा॰/किग्रा॰ बीज की दर से उपचरित करना चाहिए।

5) अलसी की उन्नतशील प्रजातियां:-

प्रजाति

अवधि (दिन)

तेल (प्रतिशत)

विशेषताएं

आर.एल.सी.-167

118-122

34.3

उकठा के लिए मध्यम रूप से संवेदनशील और रतुआ के लिए अत्यधिक प्रतिरोधीजबकिअल्टरनेरिया ब्लाइट के लिए मध्यम प्रतिरोधी

आर.एल.सी.-164

117 -124

32.6

रतुआ प्रतिरोधीअल्टरनेरिया ब्लाइट के लिए मध्यम प्रतिरोधी और कृत्रिम परिस्थितियों में उकठा और चूर्णी फफूंदी के लिए मध्यम रूप से संवेदनशील

आर.एल.सी.-161

118 -125

32.1

उकठा और रतुआ के लिए प्रतिरोधी,प्राकृतिक स्थिति में अल्टरनेरिया ब्लाइट और चूर्णी फफूंदी के लिए मामूली रूप से संवेदनशील

आर.एल.सी.-153

118-120

34.8

रतुआ के प्रति प्रतिरोधी,उकठा के प्रति मध्यम प्रतिरोधीउतेरा फसल के लिए उपयूक्त

दीपिका

112

41

नीला फूल,हल्का भूरा दाना,रतुआ,उकठा,अंगमारी रोग कालिका मक्खी के लिए सहनशील

कार्तिका

106

43

नीला फूल,बौनी,हल्का भूरा दाना,चूर्णी फफूंद तथा कालिका मक्खी से मध्यम प्रतिरोधी



बुवाई का समय:- अलसी के अधिक उपज के लिए अक्टूबर के अंतिम सप्ताह उपयूक्त है, हालाकि अक्टूबर के दूसरे सप्ताह से नवम्बर के दूसरे सप्ताह तक जमीन मे नमी रहने पर बुवाई करना चाहिए, इसके पहले या बाद मे बोयी गई फसल पर रोगों व कीट का प्रकोप के कारण नुकसान होता है। अलसी को कतार विधि से बोना चाहिए ,कतार से कतार की दूरी 25-30 सेमी. रखना चाहिए, बुवाई के लिए चाड़ी वाले नारी हल का उपयोग करना अच्छा होता है, आगे वाली चाड़ी से खाद तथा पीछे वाली चाड़ी से बीज डालना चाहिए, अलसी की बुवाई सीड ड्रिल से भी की जा सकती है, जिसमे खाद व बीज दोनों उचित मात्रा व विन्यास के साथ बुवाई हो जाती है।



6) अंतरवर्तीय फसल:- अलसी सह चना, अलसी सह मसूर, अलसी सह सरसों

7) खाद एवं उर्वरक:- अलसी के लिए पाँच से दस टन प्रति हेक्टेयर की दर से अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद अंतिम जुताई के पहले खेत मे मिला देना चाहिए।

क्र.

परिस्थिति

पोषक तत्व किग्रा॰/हे.

नत्रजन

फोस्फोरस

पोटाश

1॰

सिंचित

60

30

30

2॰

असिंचित

40

20

20

3॰

उतेरा

20

--

--


असिंचित अवस्था मे खाद की पूरी मात्रा बुवाई के समय डाले, सिंचित अवस्था मे नत्रजन की आधी मात्रा व फोस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय छिड़काव करें, जबकि शेष नत्रजन की मात्रा को बुवाई के 3-4 सप्ताह बाद छिड़काव करें, फोस्फोरस हेतु सिंगल सुपर फोस्फेट खाद का उपयोग करें। पर्णीय छिड़काव के लिए यूरिया 2 प्रतिशत या 18:18:18 या 19:19:19 (नत्रजन:स्फुर:पोटाश) घुलनशील तरल का 0.5 प्रतिशत घोल का छिड़काव पत्तियों पर बुवाई के लगभग 25 दिन एवं पुष्पन की प्रारम्भिक अवस्था मे करें।

8) खरपतवार नियंत्रण:- बुवाई के 35-60 दिन तक खेत मे खरपतवार कम होना बहुत आवश्यक है, इसलिए समय-समय पर आवश्यकतानुसार निंदाई-गुड़ाई करना चाहिए,खरपतवार को कम करने के लिए बुवाई के 4-7 सप्ताह के बाद दो बार हाथ से खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए,खरपतवार नियंत्रण के लिए रसायन का भी प्रयोग कर सकते है जैसे पेंडिमेथिलीन 30 ईसी 3 ली./हे. बुवाई के 48 घंटे के अंदर या आईसोप्रोटूरोन 1.0 किग्रा. सक्रिय तत्व 1.67 किग्रा. प्रति हेक्टेयर दवा के हिसाब से बुवाई के 25-30 दिनों बाद छिड़काव करना चाहिए।

अमरबेल भी अलसी के पौधों मे पाया जाने वाला परजीवी है जो स्वयं के बीज से उगता है परंतु जीवित पौधे के संपर्क मे आने पर उसी मे ही जीवन यापन करता है , इसलिए बुवाई के समय प्रमाणित बीजों का ही उपयोग करना चाहिए या प्रकोपित फसल से बीज नहीं लेना चाहिए ,और यदि बुवाई की फसल मे अमरबेल का प्रकोप हो चुका है तो प्रभावित पौधों को जड़ से अमरबेल सहित निकाल दे।

9) सिंचाई:- अलसी की जल मांग बहुत कम है, अर्थात यह कम पानी की फसल है। इसके लिए 2 सिंचाई ही पर्याप्त है प्रथम सिंचाई बुवाई के 30-35 दिन बाद तथा दूसरी सिंचाई बुवाई के 60-65 दिन बाद करना अलसी के उत्पादन के लिए अच्छा होता है यदि तीसरी सिंचाई की उपलब्धता है तो पुष्पन के बाद कर सकते है, अलसी मे नालियो के माध्यम से सिंचाई करना चाहिए।

10) पौध संरक्षण:- रोग प्रबंधन:

क) आल्टरनेरिया झुलसन: इस रोग के लक्षण पत्तियों,तनों एवं पुष्पकलिकाओं पर बनते है,सर्वप्रथम लक्षण निचली पत्तियों पर काले बिंदु के रूप में प्रकट होते हैं जो धीरे-धीरे आकार में बढ़ते हुए अंडाकार या अनियमित आकार के हो जाते हैं गंभीर संक्रमण के दौरान, धब्बे आपस में जुड़ जाते हैं और पत्तियों के बड़े क्षेत्र को ढक लेते हैं। पुष्प कलियों के ठीक नीचे पुष्पवृंत पर भूरे रंग की वलय बनती है,जिससे कलियाँ सुख जाती है व टूट कर गिर जाती है। 

प्रबंधन: अलसी के बीज को बोने से पहले 3 ग्राम थायरम/बाविस्टीन प्रति किलो बीज की दर से उपचरित करना चाहिए, रोग के लक्षण दिखने पर डाइथेन एम-45 का 0.25 प्रतिशत का घोल बना कर छिड़काव करे आवश्यकता पड़ने पर 8-10 दिन बाद फिर छिड़काव करे।

ख) उकठा रोग: इस रोग का प्रकोप किसी भी अवस्था मे हो सकता है। फसल लगने के प्रारंभिक अवस्था मे रोग का प्रकोप होने पर सीडलिंग अवस्था मे ही पौधा मर जाता है जबकि देर से प्रकोप होने पर पत्तियों के पीलापन व मुरझावन के बाद पौधे भूरे होकर मरने लगते है। मृत पौधे के जड़ राख़ के समान हो जाता है। उकठा रोग से प्रभावित पौधे के शीर्ष भाग नीचे की ओर झुक कर “उल्टी छड़ी” के समान संरचना बनाते है

प्रबंधन: रोग के रोकथाम के लिए रोगरोधी प्रजातीय कार्तिका,दीपिका,शेखर आदि का उपयोग ही इस रोग का रोगथाम का सर्वोतम उपाय है। बुवाई के पहले बीजो को बाविस्टीन/थायराम 3 ग्राम/किलो बीज के हिसाब से उपचारित करना चाहिए।

ग) भभूतिया रोग: इस रोग के लक्षण पौधो के पत्तियों पर सफ़ेद पाउडर के समान छोटे छोटे बिन्दु समान दिखाई देते हुए पूरे पत्तों पर फैल जाते है ,रोगग्रस्त पौधो के पत्तियाँ सुख कर गिर जाती है , रोग जल्दी आने की दशा मे पूर्णरूप से पत्तियाँ झड़ जाती है, दाने छोटे व सिकुड़ जाते है, तेल की मात्रा भी कम हो जाती है।

प्रबंधन: रोग प्रबंध हेतु समय पर बुवाई करना चाहिए, रोग रोधी प्रजाति आर.एल.सी.164, कर्तिका जैसे अन्य किस्मे का चयन करना चाहिए, रोग के लक्षण आने पर सल्फर कवकनाशी 0.3 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए। घ) रतुआ/किट्ट रोग: इस रोग का प्रकोप पौधों के ऊपरी भागों जैसे पत्ते, तनों, फल्लियों पर चमकीले नारंगी रंग के फूंसिया बन जाती है, ठंडी रात मे नमी व दिन मे हल्की गर्मी इस रोग के बढ़वार के लिए अनुकूल होते है, जैसे जैसे फसल परिपक्व होती जाती है नारंगी रंग की फुंसिया काले रंग मे बदल जाती है, जो की पौधे के तनों मे ज्यादा दिखाई देती है ,तथा पौधे मरने लगते है।

प्रबंधन:रोग के प्रकोप से बचाने के लिए बीजों को कवकनाशी से उपचारित करना चाहिए। रोग रोधी प्रजाति आर.एल.सी.164,161,153 जैसे अन्य किस्मे का चयन करना चाहिए। रोग के लक्षण आने पर डाइथेन-ज़ेड 78 प्रतिशत/इंडोफिल-एम-45 का छिड़काव करना चाहिए।

11) कीट प्रबंधन: 

कलिका मक्खी:
क) यह अलसी की प्रमुख कीट है, इसकी ईल्लिया कलियों व फूलों को खाती है जिससे फल्ली काली होकर सुखने लगती है, तथा बीज नहीं बनते है, इसके नियंत्रण के लिए सहनशील प्रजाति जैसे आर.एल.सी.-92, छत्तीसगढ़ अलसी-1 अन्य का चयन कर सकते है। कीट संख्या अधिक होने पर पुष्प कलिका निकलते ही पहला छिड़काव ईमिडाक्लोप्रिड 100 मिली. प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें एवं 15 दिन के अंतराल से दूसरा छिड़काव आवश्यकता पड़ने पर करें।

12) कटाई:- अलसी को सही अवस्था मे काटना जरूरी है, इसके लिए अलसी के तने पीले पड़ने के साथ तने के नीचे की पत्तिया पीली होकर झड़ने लगते है तथा फलियां भी हल्के भूरे होने लगते है। फसल की कटाई भूमि की सतह से करने चाहिए ,काटने के बाद अच्छी तरह से धूप मे सूखाकर गहाई करे। सफाई के बाद सूखे स्थान पर भंडारण करना चाहिए। भंडारण के लिए 8-10 प्रतिशत तक नमी की मात्रा उपयूक्त होती है।

13) रेशा उत्पादन:-

अ) बीज हटाना- काटे गए फसल को सबसे पहले छोटे-छोटे बंडल बना लेते है, बीजों को तनों से अलग करने के लिए तनों को लकड़ी के डंडे से पीट-पीट अलग करते है, उसके बाद तनों को सतह से लेकर प्रथम पुष्पन की ऊंचाई तक काटते है।

ब) रेशा सड़ाना- रेशे की सड़न एक आंशिक सड़न प्रकिया है जिसमे अलसी के तने को पानी मे डुबोकर आंशिक सड़न के बाद रेशा निकालने से है। रेशे का सड़न एक जटिल जैव रासायनिक एंजाइम प्रक्रिया है जिसमे स्वाभाविक रूप से पानी मे मौजूद जीवाणु द्वारा रेशे को अपघटित किया जाता है। रेशे का सड़न एक मुख्य कारक है जो रेशे की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। सड़न की प्रक्रिया साफ, धीरे बहते हुए पानी मे उपयूक्त होती है, केनाल या नदी का पानी भी रेशे के सड़न के लिए के उपयूक्त है। अलसी के तने के बण्डल को तैरने के लिए भी पानी की गहराई भी पर्याप्त होनी चाहिए। नदी या केनाल उपलब्ध न हो तो 1.8 मी. गहराई के टंकी, तालाब या पिट का उपयोग कर सकते है। जब सड़न प्रक्रिया ठहरे हुए पानी मे करते है तो डंठल व पानी का अनुपात 1:20 होना चाहिए तथा पीएच 6-7 के बीच होना चाहिए। सड़न प्रक्रिया के लिए डंठल को 3-4 दिन तक पानी मे डुबाते है , सड़न की प्रक्रिया पूर्ण होने की स्थिति जानने के लिए डंठल को अंगुली व अंगूठे से दबाते है तथा तने से बिना टूटे रेशे को निकालते है,यदि यह प्रक्रिया तने के टूटे बिना होती है तो सड़न प्रक्रिया पूर्ण हो गई है,अन्यथा इसे और सड़ने दे।

स) डंठल से रेशा निकालना: रेशे के सड़न के बाद रेशे निकालने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है, डंठल को पीटकर या खुरच कर रेशा निकाला जाता है इसके लिए या तो हाथ से या फिर मशीन से निकाला जाता है। हाथ द्वारा रेशा निकालने के लिए सढ़े तथा सूखे हुए डंठल के छोटे –छोटे बंडल बनाकर उनको कुटेला(कठोर लकड़ी)से समतल जगह पर पीटते है जिससे डंठल और रेशा अलग अलग हो जाते है, यह प्रक्रिया घरेलू स्तर पर छोटे किसानो द्वारा किया जाता है।

मशीन से: सढ़े तथा सूखे हुए डंठल के छोटे –छोटे बंडल बनाकर उसको मशीन के अंदर डालते है मशीन घूमने पर डंठल टूट कर रेशा अलग हो जाता है, यदि रेशा पूरी तरह से अलग नहीं हुआ है तो यह विधि को बार –बार दोहराते है, जब तक की रेशा डंठल से अलग नहीं होता है।

द) कंघी करना: सढ़े तथा सूखे हुए डंठल से रेशा निकालने के बाद फ़ाइन रेशा निकालने के लिए रेशे को कंघी करते है ताकि छोटे फ़ाइबर निकल जाए व एक समान लंबाई के रेशे प्राप्त हो तथा रेशे से लगे अन्य पदार्थ निकाल जाये, यह प्रक्रिया भी हाथो से या मशीन से किया जा सकता है।