श्री प्रदीप कुमार साहू (यंग प्रोफेशनल-II)
श्री मनीष कुमार वर्मा (वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं प्रमुख)
 डॉ. दिब्येन्दु दास (विषय वस्तु विशेषज्ञ, मृदा विज्ञान)
श्री उत्तम कुमार दिवान (विषय वस्तु विशेषज्ञ, कृषि मौसम)
श्री राजे कुमार साहू (कृषि विज्ञान केन्द्र, नारायणपुर (छ.ग.)

भारत में केले की खेती प्राचीन काल से की जा रही है। केला भारत में पाये जाने वाले फलों में पोषण और धार्मिक महत्व के लिए विशिष्ट स्थान रखता है और लगभग वर्ष पर्यन्त आसानी से उपलब्ध रहता है। केले का उपयोग फल, इससे बने उत्पाद, पत्ती एवं अन्य घरेलू सामग्रियों के निर्माण के लिए किया जाता है। भारत में केला मुख्यतः तमिलनाडु, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश,असम, गुजरात, बिहार, केरल, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं पश्चिम बंगाल में उगाया जाता है। भारत में केला 8.22 लाख हेक्टेयर (2014-15) क्षेत्रफल में उगाया जा रहा है। क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से आम व नींबू फलों के बाद केला फल का तीसरा स्थान है, जबकि उप्पादन के दृष्टिकोण से 292.21 लाख मिट्रिक टन (2014-15) उत्पादन करके प्रथम स्थान पर है।

मृदा
केला सभी प्रकार की मृदाओं में उगाया जा सकता है, परन्तु व्यावसायिक रूप से खेती करने हेतु अच्छे जल निकास वाली गहरी दोमट मिट्टी जिसका पी.एच.6.5 से 7.5 के बीच हो, उपयुक्त होती है। अधिक रेतीली मृदा जो की पोषक तत्वों को अधिक समय तक रोकने में असमर्थ रहती है एवं अधिक चिकनी मृदा में पानी की कारण दरारें पड़ सकती है, केले की खेती हेतु उपयुक्त नही होती है।

जलवायु
केला उष्ण जलवायु का पौधा है। यह गर्म एवं आर्द्र जलवायु में भरपूर उत्पादन देता है। केले की खेती के लिए 20-35 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त रहता है। 500 से 2000 मिली मीटर वर्षा वाले क्षेत्रों में इसकी खेती आसानी से की जा सकती है। केला को पाला एवं शुष्क तेज हवाओं से नुकसान होता है।

किस्में

(1) ड्वार्फ कैवेन्ड़िस (एएए) - यह सबसे अधिक क्षेत्रफल में उगाई जाने वाली व्यावसायिक किस्म है। पौधे लगाने के लगभग 250-260 दिनों के बाद फुल आना शुरू होता है। फूल आने के 110-115 दिनों के बाद धार काटने योग्य हो जाती है। इस प्रकार पौधे लगाने के कुल 12-13 माह बाद धार तैयार हो जाती है। फल आकार में 15-20 सेमी. लम्बें और 3.0-3.5 सेमी. मोटे पीले से हरे रंग के होते हैं। धार का भार 20-27 कि.ग्रा. हेता है, जिसमें औसतन 130 फल होते है। यह किस्म पनामा रोग की प्रतिरोधी है, परन्तु शीर्ष गुच्छा रोग के प्रति संवेदनशील है।

(2) रोवस्टा (एएए)- इस किस्म के पौधे मध्यम ऊंचाई के होते हैं। फल 13-13 माह में पककर तैयार हो जाते हैं। फल आकार में 20-25 से.मी. लंबे एवं 3-4 सेमी. मोटे हेते हैं। धार का औसत भार 25-30 किग्रा. हेता है। यह किस्म पनामा रोग की प्रतिरोधी एवं सिगाटोका के लिए संवेदनशील है।

(3) रसस्थली (एएबी) - इस किस्म के फल बड़े आकार के पकने पर सुनहरी पीले रंग के होते हैं। गुदा सुगंधित, मीठा एवं स्वादिष्ट होता है। धार का भार 15-18 कि.ग्रा. हेता है। फसल 13 से 15 माह में पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म में फलों का फटना एक समस्या है।

(4) पूवन (एएबी) - यह दक्षिण एवं उत्तर-पूर्वी राज्यों में उगायी जाने वाली एक लोकप्रिय किस्म है। इसके पौधों की लंबाई अधिक होने के कारण उन्हें सहारे की आवश्यकता होती है। पौधा लगाने के 12-14 माह बाद धार काटने योग्य हो जाती है। धार में मध्यम लंबाई वाले फल सीधे ऊपर की दिशा में लगते हैं। फल पकने पर पीले एवं स्वाद में थोड़ा खट्टापन लिए हुए मीठे होते हैं। फलों की भंडारण क्षमता अच्छी होती है। इसलिए फल एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से भेजे जा सकतें है। धार का औसत वजन 20-24 कि.ग्राम. होता है। यह किस्म पनामा बीमारी के लिए प्रतिरोधी एवं स्ट्रीक विषाणु से प्रभावित होती है।

(5) नेन्द्रेन (एएबी)- इस किस्म का मुख्य उपयोग चिप्स एवं पाउडर बनाने के लिए होता है। इसे सब्जी केला भी कहते हैं। इसके फल लम्बे, मोटी छाल वाले थोड़े मुड़े हुए होते हैं। कच्चे फल पकने पर पीले रंग के हो जाते हैं। धार का भार 8-12 कि.ग्रा. हेता है। प्रति धार 30-35 फल होते हैं। इसकी खेती केरल व तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में की जाती है।

(6) मन्थन (एएबी) - इस किस्म के पौधें ऊंचे एवं मजबूत हेते हैं। धार का भार 18-20 कि.ग्रा. होता है। एक धार में औसतन 60-12 फल होते हैं। यह किस्म पनामा उकठा रोग से प्रभावित होती है, किंतु पत्ती धब्बा रोग और सूत्रकृमि के लिए सहिष्णु है।

(7)ग्रेण्ड नाइन (एएए)- इस किस्म के पौधों की ऊंचाई मध्यम तथा उत्पादकता अधिक होती है। फसल की अवधि 11-12 माह की होती है। धार का भार 25-30 कि.ग्रा. होता है। फल एक समान लंबाई के होते हैं।

(8) कर्पूरावल्लि (एबीबी)- इस किस्म के पौंधों की वृद्धि काफी अच्छी होती है। धार का भार 25-35 कि.ग्रा. होता है। प्रति धार 10-12 हस्त एवं 200 फल लगते हैं। फलों में मिठास तथा पेक्टिन की मात्रा अन्य किस्मों से अधिक हेती है। फलों की भंडारण क्षमता बहुत अच्छी हेती है। यह किस्म पनामा विल्ट रोग और तना छेदक कीट के लिए संवेदनशील एवं पत्ती धब्बा रोग के लिए सहिष्णु है। यह तमिलनाडु एवं केरल की एक महत्वपूर्ण किस्म है।


संकर किस्में

(1) एच. 1- इस किस्म के पौधे मध्यम ऊंचाई वाले होते हैं। धार का भार 14-28 कि.ग्रा. होता है। फल लंबे पकने पर सुनहरे पीले रंग के हो जाते हैं। फल थोड़े से अम्लीय प्रकृति के होते हैं। इस किस्म से तीन वर्ष के फसल चक्र में चार फसल ली जा सकती है।

(2) एच. 2- इसके पौधे मध्यम ऊंचाई (2.13 से 2.44 मीटर) के होते हैं। फल छोटे, गसे हुए, गहरे रंग के होते हैं। फल थोड़ा खट्टापन लिए हुए मीठी सुगंध वाले होते हैं।

(3) को. 1- इसके फल में विशिष्ट अम्लीय, सेब सुगंध बीरूपक्षी केले की भांति होती है। यह अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है।

(4) उफ.एच.आर. 1 (गोल्ड फिंगर)- यह किस्म पॉम समूह से संबंधित है धार का वजन 18-20 कि.ग्रा. होता है। यह किस्म सिगाटोका एवं फ्युजेरियम विल्ट के प्रति अवरोधी है।

प्रवर्धन
केला का मुख्य रूप से प्रवर्धन अंतः भूस्तारी द्वारा किया जाता है। केले के कंद से दो प्रकार के सकर निकलते हैं। तलवार सकर एवं जलीय सकर। व्यवसायिक दृष्टिकोण से तलवार सकर प्रवर्धन हेतु सबसे उपयुक्त हेते हैं। तलवार सकर की पत्तियां तलवारनुमा पतली एवं ऊपर उठी हुई रहती है। 0.5-1 मीटर ऊंचे तथा 3-4 माह पुराने तलवार सकर रोपण हेतु उपयुक्त होते हैं। सकर ऐसे पौधों से लेना चाहिए, जो ओजस्वी व परिपक्व हो और किसी प्रकार की बीमारी से ग्रसित न हो।

सूक्ष्म प्रवर्धन का समय
वर्तमान समय में केला का प्रवर्धन शूट टीप कल्चर, इन विट्रो, ऊतक प्रवर्धन विधि से भी किया जा रहा है। इस विधि से तैयार पौधे वृक्ष के समान गुण वाले एवं विषाणु रोग से रहित होते हैं।

रोपण का समय
पौधा रोपण का समय, जलवायु, किस्म का चुनाव एवं बाजार मांग पर निर्भर करता है। तमिलनाडु में ड्वार्फ कैवेन्डिश एवं नेन्द्रेन किस्मों को फरवरी से अप्रैल में जबकि पूवन एवं कर्पूरावल्ली किस्मों का नवम्बर-दिसम्बर में रोपण किया जाता है। महाराष्ट्र में रोपण वर्ष में दो बार जून-जुलाई एवं सितम्बर-अक्टुबर में किया जाता है।

रोपण पद्धति
खेत को 2-3 बार कल्टीवेटर चलाकर समतल कर लें। पौध रोपण के लिए 60x60x60 से.मी. आकार के गड्ढ़े खोदें। प्रत्येक गड्ढ़े को मिट्टी, रेत एवं गोबर की खाद 1ः1ः1 के अनुपात में भरें। सकर को गड्ढ़े के बीच से रोपण कर चारों ओर की मिट्टी को अच्छी तरह से दबाएं, पौधों को लगाने की दूरी, किस्म, भूमि की उर्वराशक्ति, एवं प्रबंधन पर निर्भर होती है। सामान्य रूप से केले के पौधों को लगाने की दूरी किस्मों के अनुसार तालिका में दी गई है। 


तलिका

क्रं.

किस्म

दूरी (मीटर)

पौधों की संख्या (प्रति हेक्ट.)

1.

गेण्ड नाइन

1.8 x 1.8

3.086

2.

ड्वार्फ कैवेण्डिश

1.5 x 1.5

4.444

3.

रोवस्टा, नेन्द्रेन        

1.8 x 1.8

3.086

4.

पूवन, माथंन, कर्पूरावल्ली

2.1 x 2.1

2.268


सघन रोपण
सघन रोपण पद्धति आर्थिक रूप से लाभदायी है। इस पद्धति में खरपतवारों की वृद्धि कम होती है तथा तेज हवाओं के कुप्रभावों से क्षति भी कम होती है। बोनी या मध्यम ऊंचाई वाली किस्में जैसे-कैवेण्डिश, बसराई तथा रोबस्टा सघन रोपण के लिए अधिक उपयुक्त होती है। रोबस्टा तथा ग्रेण्ड नाइन को 1.2ग्1.2 मीटर की दूरी पर रोपण से क्रमशः 68.98 व 94.07 टन प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त हुई है।

खाद एवं उर्वरक
केला अधिक पोषक तत्व लेने वाली फसल है। खाद एवं एवं उर्वरक की मात्रा मृदा की उर्वरा शक्ति, रोपण पद्धति, किस्म उर्वरक देने की विधि एवं कृषि जलवायु वर्षा पर निर्भर करती है। सामान्य वृद्धि एवं विकास हेतु 100-250 ग्राम नत्रजन, 20-50 ग्राम स्फुर एवं 200-300 ग्राम पोटाश प्रति पौधा आवश्यक होता है। नत्रजन एवं पोटाश को 4 से 5 भागों में बांटकर देना चाहिए एवं स्फुर की संपूर्ण मात्रा को रोपण के समय देना चाहिए।

सिंचाई जल के साथ उर्वरक उपयोग
टपक पद्धति से सिंचाई के साथ जल में घुलनशील उर्वरकों का प्रयोग फर्टिगेशन कहलाता है।

जल प्रबंधन
केला रोपण से लेकर तुड़ाई तक 1800-2200 मि.ली. मीटर जल की आवश्यकता हेती है। केले में मुख्यतः कुंड, थाला एवं टपक सिंचाई पद्धति द्वारा सिंचाई की जाती है। केले के ग्रीष्म ऋतु में 3-4 के अंतराल से सिंचाई की आवश्यकता होती है। ड्रिप पद्धति द्वारा सिंचाई भी कृषकों के बीच में लोकप्रिय हो रही है। इस पद्धति में 40-50 प्रतिशत पानी की बचत होती है। साथ ही प्रति इकाई क्षेत्रफल उत्पादन भी अधिक मिलता है। ड्रिप सिंचाई पद्धति में 5 से 18.6 लीटर पानी प्रतिदिन प्रति पौधा की दर से विभिन्न आवस्थाओं में आवश्यक हेता है।

मल्च का प्रयोग
मल्च के प्रयोग से भूमि नमी का संरक्षण होता है। साथ ही खरपतवारों की वृद्धि भी रूकती है। गुजरात कृषि विश्वविद्यालय, नवसारी में ड्रिप सिंचाई पद्धति के साथ गन्ने की खोई अथवा सुखी पत्ती 15 टन प्रति हेक्टेयर की दर से मल्च द्वारा केले के उत्पादन में 49 प्रतिशत की वृद्धि पाई गई है तथा 30 प्रतिशत पानी की बचत होती है। इसके अतिरिक्त पॉलीथिन सीट द्वारा मल्चिंग से अच्छे परिणाम प्राप्त हुए हैं।

देखभाल

(1) मिट्टी चढ़ाना - पौधों पर मिट्टी चढ़ाना आवश्यक होती है, क्योंकि इसकी जड़ें उथली होती है। कभी-कभी कंद भूमि में बाहर आ जाते हैं, जिससे कि उनकी वृद्धि रूक जाती है।

(2) अनावश्यक सकर निकलना - केले के पौधों में पुष्प गुच्छ निकलने के पहले तक सकर को नियमित रूप् से निकालते रहना चाहिए। जब 3-4 पौधों में पुष्प हो जाए तब एक सकर को रखकर शेष को काटते रहें।

(3) सहारा देना - केले के फलों का गुच्छा भारी होने के कारण पौधे नीचे को झुक जाते हैं। पौधों को गिरने से बचाने के लिए बाँस की बल्ली या दो बाँसों को आपस में बाँधकर कैंची की तरह बनाकर फलों के गुच्छों को सहारा देना चाहिए।

(4) गुच्छों को ढंकना- गुच्छों को सूर्य की सीधी तेज धूप से बचाने एवं फलों का आकर्षक रंग प्राप्त करने के लिए, गुच्छों को छिद्रदार पॉलीथीन बैग अथवा सूखी पत्तियों से ढ़कना चाहिए।

तुड़ाई
फलों की तुड़ाई किस्म, बाजार एवं परिवहन के साधन आदि पर निर्भर करती है। केला की बौनी किस्में 12 से 15 माह बाद और ऊँची किस्में 15 से 18 माह बाद तोड़ने के लिए तैयार हो जाती है। सामन्यतः फल की धारियाँ पूर्णतया गोल हो जाएं तथा फलों पर हरा पीलापन आ जाए, तब गुच्छों की तुड़ाई तेज धार वाले हंसिए सेे करना चाहिए। केले दूरस्थ बाजारों में भेजने के लिए जब 3-4 हिस्सा परिपक्व हो जाएं तब काटना चाहिए।

पकाना
केला एक क्लाइमैट्रिक फल है, जिसे पौधे से सही अवस्था में तोड़ने के बाद पकाया जाता है। केला को पकाने के लिए इथिलिन गैस का उपयोग किया जाता है। इथिलिन गैस फलों को पकाने का एक हार्मोन्स है, जो फलों के अन्दर श्वसन क्रिया को बढ़ाकर उनकी परिपक्वता में शीघ्रता लाता है। केलों को एक बंद कमरे में इकट्ठा करके 15-18 डिग्री सेल्सियस तापमान पर इथिलिन (1000 पीपीएम) से 24 घण्टे तक फलों के उपचार से पकाया जाता है।

पैकिंग
केला के आकार के अनुसार श्रेणीकरण करना चाहिए और उन्हें वर्ग के अनुसार अलग-अलग गत्ते के 5 प्रतिशत छिद्रों वाले छोटे-छोटे (12-13किग्रा.) डिब्बों में रखकर बाजार में भेजना चाहिए।