खुशबू साहू, पीएचडी रिसर्च स्कॉलर, सब्जी विज्ञान विभाग
डॉ. मनमोहन सिंह बिसेन, कृषि कीटविज्ञान विभाग
कृषि महाविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

परिचय
प्याज कुल के सदस्य लहसुन का वानस्पतिक नाम ‘एलियम सेटाइवम’ है। लहसुन एलिएसी कुल का सदस्य है। लहसुन मसाले की एक महत्वपूर्ण फसल है। लहसुन का उपयोग सम्पूर्ण विश्व में मसालों एवं विभिन्न दवाइयों के निर्माण में किया जाता है। मुख्यतः रबी के मौसम में उगाई जाती है। इसका उपयोग अचार,चटनी,सब्जी बनाने आदि में होता है। इसमें कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन व फॉस्फोरस प्रचुर मात्रा में होता है। लहसुन के प्रसंस्करण के लिए लघु उद्योग स्थापित कर रोजगार को उत्पन्न किया जा सकता हैं। हमारे देश में उत्पादित गुणवक्ता वाले लहसुन की अन्य देशों में बहुत मांग है।

इसलिए इससे निर्यात कर इससे विदेशी मुद्रा भी प्राप्त की जाती है। लहसुन के गुणों की बात करे तो इसमें गंधक युक्त यौगिक एलाएल प्रोपाइल डाईसल्फाइड तथा एलिन नामक अमीनो अम्ल पाये जाते है। सामान्य दशा में एलिन रंगहीन, गंधहीन और जल में घुलनशील होता हैं।

उपयोगिता
  • औषधीय गुण- भोजन को पचाने व अवाण में लहसुन काफी लाभदायक है। यह रक्त कोलेस्ट्रोल की सांद्रता को कम करता है। इसका सेवन करने से कई बीमारियों जैसे- गठिया, बन्धयता, तपेदिक, कमजोरी, कफ और लाल आंखे आदि से छुटकारा पाया जा सकता है।
  • कीटनाशी गुण- लहसुन के रस में कीटनाशी गुण के कारण 10 मिलीलीटर अर्क प्रति लीटर पानी में घोलकर प्रयोग करने से मच्छर व घरेलू मक्खी की रोकथाम के लिए प्रभावकारी होता है।
  • जीवाणुनाशी प्रभाव- स्टेफाइलोकोकस आरियस नामक जीवाणु की रोकथाम लहसुन के प्रयोग से की जा सकती हैद्य खाद्य पदार्थों में 2 प्रतिशत से अधिक लहसुन की मात्रा जहर पैदा करने वाले जीवाणु क्लोस्ट्रीडियम परिफ्रिन्जेन्स से रक्षा करती हैद्य इसके अतिरिक्त इसमें अन्य कई प्रकार के हानिकारक जीवाणुओं से बचाने की क्षमता विद्यामान हैद्य

जलवायु
लहसुन की वृद्धि के समय ठण्ड़ा व नम जलवायु और कंद परिपक्वता के समय शुष्क जलवायु उपयुक्त रहती हैद्य लहसुन पाले के प्रति सहनशील होता है परन्तु पौधों के उचित बढ़वार एवं विकास हेतु ठंडे तथा आद्र जलवायु की आवश्यकता होती है. कंदों के परिपक्वता के लिए शुष्क जलवायु उचित रहता है.गर्म एवं बड़े दिन पौधों की वृद्धि पर विपरीत प्रभाव डालते हैं अतः वृद्धिकाल में ठंडी एवं नम जलवायु चाहिये । अधिक तापमान व नमी में कलियों के सड़ने की संभावना रहती है और अंकुरण विपरित प्रभाव पड़ता है ।

लहसुन की खेती के लिए मृदा एवं मृदा की तैयारी:-लहसुन की खेती के लिए उच्च उर्वरता वाली उचित जल निकास युक्त दोमट या चिकनी दोमट जिसका पी.एच. मान 6-7 हो, उपयुक्त होता है. भारी, चिकनी मिट्टी में कन्द का आकार छोटा व खुदाई में कठिनाई होती है। यह लवणीयता को भी कुछ स्तर तक सहन कर सकती हैद्यलहसुन की उच्च उत्पादन के लिए खेत को एक बार मिट्टी पलट हल से तथा एक बार रोटावेटर या दो से तीन बार कल्टीवेटर से जुताई करके पाटा लगा दें जिससे बड़े मिट्टी के ढ़ेले टूट जाये और मिट्टी मुलायम तथा भूरभूरी हो जाये। यदि खेत में नमी कम हो तो बुवाई से 10 दिन पहले ही पलेवा अवश्य कर दें। इससे कलियों का जमाव अच्छा होता है।

लहसुन की उन्नत प्रजातियाँ

यमुना सफेद-1
यह सफेद एवं मध्यम आकार वाली किस्म है। इसके एक कंद में 25-30 कलियां होती है, इसकी एक हेक्टेयर क्षेत्रफल से लगभग 150-175 कुन्तल तक उपज प्राप्त होती है।

यमुना सफेद-2
यह सफेद छिलके एवं मध्यम आकार की प्रजाति है. इसके एक कंद में 35-40 तक कलियां होती है. इसकी प्रति हेक्टेयर 150-200 कुन्तल तक उत्पादन मिल जाता है।

यमुना सफेद-3
यह सफेद एवं बड़े आकार के कंदों वाली किस्म है. इसकी पत्तियां चौड़ी होती है तथा इसके एक कंद में 15-16 बड़े आकार की कलियां होती है।

एग्रीफाउंड सफेद
यह सफेद रंग के छिलके वाली किस्म है। इसके एक कंद में 20-25 कलियां होती है. यह लगभग 120-125 दिनों में तैयार हो जाता है जिससे 120-130 कुन्तल प्रति हेक्टेयर तक उपज मिल जाता है।

एग्रीफाउंड पर्वती
यह सफेद छिलके वाली किस्म है. यह पर्वतीय क्षेत्रों के लिये बहुत अच्छा किस्म है। इसके बल्ब बडेग आकार के होते हैं जिसमें 10-16 बड़े आकार की कलियां होती है। यह लगभग 120-130 दिनों में तैयार हो जाता है तथा 175-225 कुन्तल प्रति हेक्टेयर तक उपज मिल जाता है।

प्रजातियाँ
जामनगर सफेद, गोदावरी (सेलेक्सन- 2), स्वेता (सेलेक्सन- 10), टी- 56-4, भीमा ओंकार, भीमा पर्पल, वीएल गार्लिक- 1 और वीएल लहसुन- 2 आदि प्रमुख है।

लहसुन की खेती के लिए बुवाई की पद्धति एवं बीज शोधन:-

1. पौधशाला में पौध तैयार करके बुवाई करना
यह पद्धति प्रतिकूल के लिए अच्छी रहती है. इस पद्धति में सबसे पहले पौधशाला में पौध तैयार करते हैं। छोटे-छोटे क्यारियों में कलियों को पास-पास लगा देते हैं। 40-45 दिन बाद छोटे पौधों को उखाड़कर खेत में 15 से.मी. कतार से कतार तथा 10 से.मी. पौधे से पौधे की दूरी पर रोपाई कर देते हैं,यह पूर्वांचल में नहीं है।

2. समतल क्यारियों में बुवाई
छोटे- छोटे समतल क्यारियों में कलियों को 10 से.मी.लाइन से लाइन तथा 7-8 से.मी. पौधे से पौधे की दूरी पर बुवाई करनी चाहिए।

3. मेंड़ों पर बुवाई
मेंड़ों पर बुवाई करने से लहसुन का कंद समतल क्यारियों में बोने के अपेक्षा जल्दी एवं बड़े आकार का होता है। इसमें 40-45 से.मी. चौडी़ मेंड़ बनाते हैं जिसके बीच में सिंचाई एवं जल निकास हेतु 30 से.मी. की नाली अवश्य होना चाहिए। कलियों को मेंड़ों पर 10 से.मी. की दूरी पर बुवाई कर देते हैं।

लहसुन की बुवाई कलियाँ (क्लोव्स) से सीधे खेत में की जाती है । बुवाई के पूर्व इन कलियों को गाँठ से अलग कर लिया जाता है । प्रत्येक गांठ में 18 से 25 कलियाँ होती हैं । बुवाई के लिए 8-10 मिलीमीटर की रोगरहित सुगठित और बड़े आकार की कलियों का चुनाव करें ।

गाँठ के बीच की सीधी, चपटी कलियों का उपयोग नहीं करें । इन्हें छाँटकर अलग कर देना चाहिये । बुवाई के लिए 5-7 क्विंटल लहसुन की कलियाँ आकार अनुसार पर्याप्त होती है । बुवाई के समय इसके लिए कतार से कतार की दूरी 15 सेंटीमीटर तथा पौध से पौध की दूरी 7 से 10 सेंटीमीटर रखनी चाहिएद्य लहसुन की अगेती बुवाई करने पर कली सड़न की समस्या अधिक होती है बुवाई 2 से 4-5 सेन्टीमीटर गहरी करें। लहसुन की बुवाई तीन प्रकार से की जाती है, ये हें-छिटकवाँ विधि, डिबलिंग विधि तथा कुंडों में लगाना । इनमें से कुंडों में लहसून की बुवाई करना सबसे अच्छा होता है।

बीज की मात्रा
लहसुन के लिए 5 से 6 क्विंटल प्रति हेक्टर बीज की आवश्यकता होती है। लेकिन मशीन द्वारा बुवाई करने पर इसकी मात्रा 6 से 7 क्विंटल तक होती है।

बुवाई का समय
उत्तर भारत में लहसुन की बुवाई अक्टूबर से नवम्बर माह में करते है सर्वोत्तम समय अक्टूबर द्वितीय सप्ताह से नवम्बर का प्रथम सप्ताह है । पर्वतीय क्षेत्रों में मार्च-अप्रैल माह में करते हैं।

खाद एवं उर्वरक
मृदा-परीक्षण के पश्चात खाद एवं उर्वरक का उपयोग करना चाहिये । सामान्य आवश्यकता को देखते हुए खेत की तैयारी के समय 200-250 क्विंटल गोबर की खाद प्रति हैक्टेयर के हिसाब से देनी चाहिये । इसके अलावा 160 किलोग्राम नत्रजन, 40 किलो फास्फोरस,100 किलो पोटाश और 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टर की दर से बुवाई से पूर्व आवश्यकता होती है व कलियों को पी एस बी से उपचारित करके बोयेद्य कलियाँ लगाने से पहले देना चाहिए । 60 किलोग्राम नत्रजन बुवाई के एक माह बाद देनी चाहिये ।

सिंचाई प्रबंधन
भूमि में नमी की कमी हो तो कलियों की बुवाई के बाद एक हल्की सिंचाई करते है, ताकि कलियों का अंकुरण अच्छा हो सके लहसुन एक उथली जड़ों वाली फसल है जिसकी अधिकांश जड़ें भूमि की ऊपरी सतह (15 सेन्टीमीटर) पर फैली रहती है, जहाँ से अपनी आवश्यकतानुसार पानी व अन्य पौषक तत्त्वों को ग्रहण करती है। दूसरी सिचाई एक सप्ताह में करनी चाहिये । इसके बाद 8-10 दिन के अन्तर या मृदा के प्रकार एवं मौसम के अनुसार सिंचाई करनी चाहिये । पौधों की आरम्भिक अवस्था में नमी की कमी नहीं रहनी चाहिये अन्यथा पौधों की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा ।

इसी प्रकार जिस समय गांठें बन रही है उस समय सिंचाई जल्दी-जल्दी करें अन्यथा गांठें छोटी रह जायेंगी, परन्तु लहसुन के कंद पक जाने के बाद लगातार सिंचाई करने पर उसकी जड़ों एवं कंदों के छिलके सड़ जाते हैं, साथ ही उनमें अंकुरण भी हो सकता है जिसके कारण कंदों का रंग खराब हो जाता है और उनका बाजार मूल्य कम मिलता है ।

इसी प्रकार लहसुन की फसल में लम्बे समय तक पानी की कमी रहने पर यदि बाद में सिंचाई की जाती है तब कैद फटकर बिखर जाते हैं अतः लहसुन में सिंचाई समय पर एवं आवश्यकतानुसार ही करना लाभप्रद होता है ।

निराई-गुड़ाई
लहसुन की खेती से अच्छी पैदावार के लिए 3 से 4 गुड़ाई अवश्य करेंद्य द्य प्रथम गुड़ाई 25-30 दिन बाद तथा इसके एक माह बाद अर्थात् बुवाई के 55-60 दिन बाद (पाँचवीं, छठी सिंचाई के बाद) निराई अवश्य करनी चाहिये। इससे नमी संरक्षण होगा तथा कंदों के विकास पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा । जिससे की कंद को हवा मिले और नई जड़ो का विकास हो सकें एक माह बाद सिंचाई के तुरन्त बाद डण्ड़े या रस्सी से पौधो को हिलाने से कंद का विकास अच्छा होता हैं।

खरपतवार नियंत्रण
लहसुन के खेत में खरपतवार नियंत्रण करने के लिए निराई-गुड़ाई करें। तथा रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिए अंकुरण से पूर्व प्रति हैक्टेयर एक किलोग्राम पेडीमिथालिन (3.3 किलोग्राम स्टॉम्प 34) अथवा 150 ग्राम आक्सीफ्ल्यूरफेन (600 ग्राम घोल) छिड़कने के पश्चात् 40 दिन बाद फसल में एक बार गुड़ाई करनी चाहिये ।

वृद्धि नियामक का प्रयोग
लहसुन की पैदावार में वृद्धि हेतु 0.05 मिलीलीटर प्लेनोफिक्स या 500 मिलीग्राम साईकोसिल या 0.05 मिलीलीटर इथेफान प्रतिलीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई के 60 से 90 दिन पश्चात छिड़काव करना उचित रहता है। कंद की खुदाई से दो सप्ताह पहले 3 ग्राम मैलिक हाइड्रोजाइड प्रति लीटर पानी में छिड़काव करने से भण्डारण के समय अंकुरण नहीं होता है और कंद 10 माह तक सुरक्षित रखे जा सकते है।

खुदाई
सामान्य लहसुन की गांठें 160-170 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। अक्टूबर-नवम्बर में बोयी गयी फसल की खुदाई मार्च-अप्रैल में की जाती है। कंदों की उपयुक्त अवस्था होने पर पत्तियाँ पीली पड़ने व मुरझाने लगती हैं फिर उसका बण्डल बनाकर 3 से 4 दिन तक धुप में सुखाया जाना चाहिए।

आमतौर पर भण्डारण के समय लहसुन की कलियों के सड़ने, सूखने व सिकुड़ने से भारी नुकसान होता है अतः कंदों का भण्डारण करें । कन्दीं की भण्डारण क्षमता 0 से 16 डिग्री सेल्सियस तापक्रम व 66-75 प्रतिशत सापेक्षिक आर्द्रता पर इन्हें कोल्ड स्टोरेज में भण्डारित करके बढ़ाई जा सकती है ।

इनको 9 डिग्री सेल्सियस तापक्रम व 65 प्रतिशत सापेक्षिक आर्द्रता पर 28 से 36 सप्ताह तक आसानी से भण्डारित किया जा सकता है । बोरिक एसिड से उपचारित करने पर भण्डारण में होने वाली बीमारियों में लहसुन को बचाया जा सकता है ।

भण्डारगह नमीरहित एवं हवादार होने चाहिये। भण्डारगह में कंदों का भण्डार नहीं लगाना चाहिये । कंदों को पत्तियों द्वारा बांधकर ऊपर बँधी रस्सियों से लटका दें या इन्हें बाँस की टोकरियों में रखें ।

उत्पादन
लहसुन की कंदों की उपज लगभग 80 से 120 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिल जाती है।

लहसुन की फसल पर लगने वाली बीमारियां

आद्र गलन
यह एक फफूँदी जनक रोग है जो अंकुरण से लेकर पौधे के बढ़वार तक प्रभावित करता है। इसमें पौधे का जमीन से लगने वाला भाग सड़ने लगता है और पौधा मर जाता है।

रोकथाम
बुवाई से पहले कैप्टान 2-3 ग्राम या ट्राइकोडर्मा विरिडी 4 ग्राम प्रति कि.ग्रा. कलियों को उपचारित अवश्य करें।

लहसुन का बैंगनी धब्बा रोग
यह एक बहुत घातक फफूँदी जनक रोग है. यह पौधे के किसी भी अवस्था में आ सकता है। प्रारम्भ में छोटे-छोटे बैंगनी धब्बे बनते है तथा बाद में काले हो जाते हैं और पत्तियां सूखकर गिर जाती है।

रोकथाम
नत्रजन युक्त उर्वरकों का प्रयोग बहुत अधिक नही करना चाहिए।
मैंकोजेब 2.5-3.0 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 10-12 दिन के अंतराल पर अदल-बदल कर छिड़काव करें.

लहसुन का आधार विगलन
यह कवक जनित रोग का प्रकोप अधिक ताप एवं आद्रता वाले क्षेत्रों में ज्यादा होता है. इसमें पौधों की जड़ें सड़ने लगती है और पौधे आसानी से उखड़ जाते है. अत्यधिक प्रकोप से कंद भी सड़ने लगता है और पौधा सूख जाता है।

रोकथाम
इस रोग के कारक मृदा में रहते हैं, अतः उचित फसल चक्र अवश्य अपनायें।
ट्रायकोडर्मा विरिडी 5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद में मिलाकर खेत में डालें।