द्विवेदी प्रसाद, सहायक प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)
पं. शिवकुमार शास्त्री कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र, राजनांदगांव (छ.ग.)
संदीप कुमार पैकरा ,सहायक प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र, रायगढ़ (छ.ग.)

छत्तीसगढ़ के असिंचित क्षेत्रों में रबी फसलों में चने के बाद मसूर मुख्य दलहनी फसल हैं। मसूर की खेती बड़े पैमाने पर की जाती हैं, चने तथा मटर के अपेक्षा मसूर कम तापमान, सुखा एवं नमी के प्रति अधिक सहनशील हैं। दलहनी वर्ग के फसलों में मसूर सबसे प्राचीनतम एवं महत्वपूर्ण फसल हैं। मसूर की संरचना ही कुछ ऐसी हैं कि यह पानी का उपयोग पूर्ण जीवनकाल में कम से कम करती हैं। इसकी पूरी ब्राह्ययाकृति छोटी सी झाड़ी जैसी हैं, तने पर सूक्ष्म रोयें पाये जाते हैं एवं पत्तियां बारीक एवं लम्बी होती हैं, यही कारण हैं कि अन्य दलहनी फसलों की अपेक्षा मसूर की खेती को प्रति इकाई उत्पादन में पानी की कम मात्रा की आवश्यकता होती हैं। मसूर की फसल पाले तथा ठण्ड के लिए अति संवेदनशील हैं, फिर भी अन्य रबी दलहन फसलों जैसे कि मटर, चना के अपेक्षा अधिक ठण्ड को सहन कर सकती हैं। कम सर्दी वाले इलाकों में इसकी उपज औसत से कम मिलती हैं। इस फसल को प्रारंभिक अवस्था में ठण्ड तथा पकते समय कम तापक्रम की आवश्यकता होती हैं। मसूर के दानों में 24.2 प्रतिशत प्रोटीन, 5 प्रतिशत कैल्शियम, 6 प्रतिशत ऑयरन एवं 60.8 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट होता हैं, इसके अतिरिक्त राइबोफ्लेबिन, नियासिन आदि प्रचुर मात्रा में पाया जाता हैं। इसका हरा व सूखा चारा जानवरों के लिए पौष्टिक व स्वादिष्ट होता हैं। दलहनी फसल होने के कारण इसके जड़ों में गाँठें पायी जाती हैं, जिनमें उपस्थित सूक्ष्म जीवाणु वायुमण्डल की स्वतंत्र नाइट्रोजन का स्थरीकरण भूमि में करते हैं जिससे भूमि की उर्वराशक्ति बढ़ती हैं। देश में मसूर की खेती अधिकांश उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं बिहार में होती हैं, छत्तीसगढ़ में इसकी खेती कवर्धा, राजनांदगांव, बिलासपुर, रायपुर एवं अन्य जिलों में की जा रही हैं।

भूमि का चुनाव एवं तैयारी
मसूर की खेती के लिये डोरसा तथा कन्हार भूमि उपयुक्त हैं जिसका पी.एच.मान सामान्य होना चाहिये। अधिक क्षारीय एवं अम्लीय मृदा इसकी खेती हेतु अनुपयुक्त हैं। अच्छी पैदावार हेतु खेत की दो-तीन बार गहरी जुताई करके पाटा चलावें। गोबर की खाद या नाडेप कम्पोस्ट उपलब्ध होने पर जुताई के समय खेत में दें। मध्यम अम्लीय भूमियों में एक से डेढ़ टन प्रति हेक्टेयर की दर से चूना अंतिम जुताई के पूर्व मिला कर तीन दिन इंतजार करें।

उन्नत किस्मों का चयन
रायपुर में कियक गये परीक्षणों के आधार पर निम्न किस्में यहां की जलवायु में उपयुक्त पाई गई हैं।

  • जे.एल.1:- यह 100-110 दिनों में पककर तैयार होने वाली उकठा एवं गेरूआ बीमारी हेतु निरोधी किस्म हैं इसके दाने बड़े एवं धूसर रंग के तथा औसत पैदावार 10 से 12 क्विंटल/हेक्टेयर देती हैं। यह छ.ग. के मैदानी भाग एवं सम्पूर्ण म.प्र. हेतु उपयुक्त जाति हैं।
  • जवाहर मसूर-2:- यह 110-115 दिनों में पकने वाली मध्यम अवधि की किस्म हैं। इसका दाना बड़ा एवं औसत पैदावार 10-15 क्विंटल/हेक्टेयर हैं। यह उकठा एवं गेरूआ रोग निरोधी हैं।
  • छत्तीसगढ़ मसूर-1:- इस किस्म की अवधि 88-95 दिन है एवं औसत उपज 10-12 क्विंटल/हेक्टेयर हैं। यह पाउडरी मिल्डयू एवं उकठा रोग निरोधी जाति है एवं असिंचित व सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त हैं।
  • जे.एल.-3:- यह 100-110 दिनों में पककर तैयार होने वाली जाति हैं जो 12-15 क्विंटल औसत उत्पादन देती हैं। यह बड़े दानों वाली एवं उकठा निरोधी जाति हैं।
  • लेन्स 4076:- यह मध्यम देरी (115-120 दिन) में पककर तैयार होने वाली, बड़े दानों वाली किस्म हैं। इसकी औसत उत्पादकता 15-18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हैं। यह भी गेरूआ एवं उकठा निरोधी एवं छ.ग. हेतु उपयुक्त किस्म हैं।
  • आई.पी.एल.-81:- यह मध्यम अवधि (113-115 दिन) में पकने वाली किस्म हैं जो उकठा एवं गेरूआ रोग के प्रति सहनशील पाई गई हैं तथा औसतन 15 क्विंटल/हे. तक पैदावार देती हैं। इसके दाने मध्यम आकार के होते हैं।
  • डी.पी.एल.-62:- यह मध्यम देरी (120-122 दिन) में पकने वाली बड़े दानों वाली किस्म हैं। जिनका दाना धूसर लालिमा लिये हुए होते हैं एवं औसतन 12-15 क्विंटल/हेक्टेयर तक उत्पादन देती हैं। यह उकठा एवं गेरूआ निरोधी किस्म हैं।
  • के-75:- यह 110-115 दिनों में पकने वाली उकठा निरोधी किस्म हैं। जो 12-15 क्विंटल/हेक्टेयर तक पैदावार देती हैं।



बीज दर
उन्नत किस्मों का 30-35 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती हैं। विलम्ब से बुवाई करने की दशा में 40 किलों ग्राम बीज प्रति हेक्टेयर बोना चाहिये।

बीजोपचार
स्वस्थ बीजों को बुवाई के पूर्व फफूंदनाशक साफ (मेनकोजेब 63% + कारबेन्डाजीम 12%) 3 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें। इसके उपरान्त बीजों को मसूर के राइजोबियम कल्चर तथा सुपर घोलक जीवाणु खाद प्रत्येक का 5 ग्राम प्रति किलों बीज की दर से उपचारित कर तुरन्त बुवाई करें। उपचारित बीज हमेशा छायादार स्थान में ही रखें।

बुवाई का समय एवं तरीका
बुवाई का समय मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर उपयुक्त हैं। ज्यादा विलम्ब से बुवाई करने पर कीट व्याधि का प्रकोप ज्यादा होता हैं। बुवाई नारी हल या सीड ड्रिल से कतारों में 23-25 से.मी. की दूरी पर करें।

उर्वरक की मात्रा
असिंचित दशा में 15ः30ः10 तथा सिंचित दशा में 20ः40ः20 कि.ग्रा. नत्रजनःस्फुरःपोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से बीज बुवाई करते समय डालना चाहिये।

सिंचाई
सिंचाई उपलब्ध होने की दशा में पहली सिंचाई शाखा निकलते समय अर्थात् बुवाई के 30-35 दिन बाद करें तथा दूसरी सिंचाई आवश्यकतानुसार बुवाई के 70-75 दिन बाद करें। ध्यान रखें की पानी अधिक न होने पावे। यथासंभव स्प्रिंकलर से ही सिंचाई करें या खेत में स्ट्रिप बनाकर हल्की सिंचाई करें। पानी अधिकता होने पर फसल पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं।

पौध संरक्षण प्रमुख कीट एवं उनका नियंत्रण
इस फसल में मुख्य रूप से माहों, थ्रिप्स तथा चने की इल्ली से नुकसान होता हैं। जिनमें माहों एवं थ्रिप्स प्रमुख हैं।

माहों
यह फसल की बढ़वार के समय से नुकसान पहुंचाना शुरू कर देता हैं। अतः इसके नियंत्रण हेतु इमिडाक्लोप्रिड 17.8% एस एल की 250 मि.ली./हे. दवा को पानी में घोल बनाकर 15 दिनों की अंतराल से छिड़काव करें।

थ्रिप्स
ये कीट अत्यंत छोटे, पतले, लम्बे तथा चपटे होते हैं जो करले भूरे रंग लिये होते हैं। ये पत्ती, फूल की बोड़ी तथा फलों का रस चूसते हैं। अतः अधिक प्रकोप की दशा में फूल मुड़ने लगते हैं। इसके नियंत्रण हेतु उपरोक्तानुसार दवा का प्रयोग करें या इमामेक्टिन बेन्जोएट 1.50 प्रतिशत + फिप्रोनिल 3.50 प्रतिशत एस.सी. 500-700 मि.ली. प्रति हेक्टेयर के दर से डालें।

चने की इल्ली
यह फली में छेद कर दानों को खा जाती हैं। नम एवं बादलयुक्त वातावरण में इसका प्रकोप अधिक होता हैं। इसकी रोकथाम हेतु इण्डोसल्फान 35 ई.सी. दवा का 1.5-2.0 मि.ली. अथवा पैराथियान 50 ई.सी. दवा 1.0 मि.ली. या क्यूनालुस 25 ई.सी. 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर 15 दिनों की अंतराल से छिड़काव करें।

बीमारियां एवं नियंत्रण
  • पौध गलन एवं जड़ सड़न:- यह प्रारंभिक अवस्था की व्याधि हैं जिसे फफूंदनाशी से बीजोपचार तथा खेत की निंदाई-गुड़ाई के माध्यम से रोका या कम किया जा सकता हैं।
  • उकठा रोग:- यह भूमि जनित रोग हैं जिसके प्रकोप से पौधा समूल सूखा कर मर जाता हैं। नियंत्रण हेतु निरोधी किस्मों का प्रयोग करें तथा फसल चक्र अपनावें।
  • गेरूआ रोग:- इसका प्रकोप छ.ग. में कदाचित होता हैं। इसके बचाव हेतु निरोधी किस्मों का प्रयोग करना लाभप्रद होगा। रोग की अवस्था में बाविस्टीन अथवा बेनलेट दवा 1.0 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

कटाई एवं उपज
फसल पकने पर ज्यादा सूखने से पूर्व ही कटाई करके साफ खलिहान में सूखाकर गहाई करें एवं 9-11 प्रतिशत् आद्रता रहने तक सूखाकर भण्डारण करें एवं अनुकूल परिस्थिति में 12-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती हैं।