डॉ. सत्येंद्र कुमार गुप्ता, यंग प्रोफेशनल-II,
बायोटेक किसान परियोजना कृषि विज्ञान केन्द्र, महासमुंद (छ.ग.)

तिलहनी फसलों में सरसों, खाद्य तेल का महत्वपूर्ण स्त्रोत हैं। छत्तीसगढ़ में सरसों की फसल का लगातार विस्तार हो रहा हैं। कृषि अनुसंधान परिणामों से यह स्पष्ट हो गया हैं कि छत्तीसगढ़ में सफलतापूर्वक खेती की जा सकती हैं। सरसों की खेती छत्तीसगढ़ में पहाड़ी क्षेत्र में एवं सरगुजा व मैदानी भाग में रायपुर, दुर्ग, राजनांदगांव, बिलासपुर एवं कवर्धा जिलों में सफलतापूर्वक की जा रही हैं। कुछ क्षेत्रों में सरसों को गेहूं, चना, मसूर, अलसी व अन्य रबी फसलों के साथ मिलाकर भी खेती की जाती हैं। सरसों में तेल की मात्रा 40-44 प्रतिशत तक पाई जाती हैं। सरसों से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए इसकी खेती की समस्त व आधुनिक तकनीक की पूर्ण जानकारी होना आवश्यक एवं सरसों की अच्छी पैदावार लेने के लिए उन्नत सस्य क्रियांए तथा उन्न्ात किस्मों को अपनाने के अतिरिक्त फसल में पौध संरक्षण कार्य भी अपनाने चाहिए जो कि इस लेख में प्रस्तुत हैं।

जलवायु
भारत में सरसों की खेती शरदऋतु में की जाती हैं। सरसों की फसल को 18 से 25 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती हैं। सरसों के फूल आते समय वर्षा अधिक, अधिक आर्द्रता एवं वायुमण्डल में बादल का छायें रहना अच्छा नहीं माना जाता हैं। इस प्रकार के मौसम में कीट के प्रकोप का खतरा बने रहता हैं।

खेत की तैयारी
सरसों हेतु दोमट व हल्की मिट्टी अधिक उपयुक्त होती हैं। अच्छे जल निकास वाली मिट्टी जो लवणीय एवं क्षारीय न हो ठीक रहती हैं। इसको हल्की ऊसर भूमि में भी बुवाई कर सकते हैं। सरसों की खेती बारानी एवं सिंचित दोनों ही प्रकार से की जाती हैं। बारानी खेती केलिये खेत को खरीफ में खाली छोड़ना चाहिए। पहली जुताई वर्षा ऋतु में मिट्टी पलटने वाले हल से करें। इसके बाद 3-4 जुताई हैरो या देशी हल से करें। सिंचित खेती के लिए भूमि की तैयारी बुवाई के 3-4 सप्ताह पूर्व प्रारम्भ करें। जहां सम्भव हो बारानी खेतों में बरसात होते ही ज्वार व चंवला मिलाकर चारे की फसल बोयें। दो महीने की फसल लेकर रबी हेतु खेत तैयार करें एवं समय पर सरसों बोयें। चारे हेतु 50 किलोग्राम नत्रजन एवं 30 किलोग्राम फास्फोरस दें।

उन्नत किस्में

किस्म का नाम

अवधि (दिनों में)

औसत उपज (कि.ग्रा./हे.)

विवरण

पूसा जय किसान (बी.डब्ल्यू.-902)

115-125

1900-2500

दाने बड़े आकार के, तेलांश 40-42%

पूसा बोल्ड

110-120

1600-2000

दाना बड़ा, भूरा काला, तेलांश 40-42%

क्रान्ति (पी.आर.-15)

110-115

1800-2000

डाउनी मिल्ड्यू और सफेद किट्ट (व्हाइट रस्ट) के लिए प्रतिरोधी, अल्टरनेरिया और पाला के लिए सहनशील, तेलांश 40%

वरदान (आर.के.-1467)

100-105

1200-1500

बीज भूरा-लाल, मध्यम आकार, तेलांश 40%

वरूणा (टी-59)

100-105

1800-2000

बीज बड़ा एवं दोनों का रंग भूरा, अल्टरनेरिया व्हाइट और माहो के लिये मध्यम प्रतिरोधी, तेलांश 40%

छत्तीसगढ़ सरसों-1

110-115

1000-1500

स्थानीय किस्म, तेलांश 40%

इंदिरा तोरिया-1

85-95

800-1000

तेलांश 42%


अन्य उन्नत किस्में
पूसा सरसों, पूसा सरसों-26, पूसा सरसों-27, आर.जी.एन.-145, एन.आर.सी.एच.बी.-101, टी-59, आर.एच.-30, बायो-902, जी.एम.-2, उर्वशी, जे.एम.-1, सी.एस.-2, आशीर्वाद।




बीज उपचार
बीज जनित रोगों से बचाव के लिये दो से तीन ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से बीज को थायरम या बाविस्टीन से बीज उपचारित करें। इसके बाद राइजोबियम कल्चर 5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचार करना चाहिए तथा एक किलो प्रति हेक्टेयर पी.एस.बी. कल्चर भी डाले। कल्चर के उपयोग से उत्पादन में वृद्धि होती हैं।

बुवाई का समय
सिंचित जमीन में 15 अक्टूबर से 15 नवंबर तक एवं असिंचित खेतों में 10 सितम्बर से 15 अक्टूबर तक बुवाई का समय उपयुक्त हैं। बुवाई के समय यह ध्यान रहे कि भूमि में पर्याप्त नमी होना आवश्यक हैं। देर से बुवाई करने पर व्हाईट रस्ट एवं माहु का प्रकोप अधिक होता हैं।

बीज दर/बुवाई की विधि
5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज पर्याप्त हैं। सरसों की बुवाई हमेशा कतारों में करें। बीज की गहराई 2.5 से 5 से.मी. की गहराई पर बोयें। सिंचित खेतों में दो कतारों के बीच की दूरी 30 से.मी. से 45 से.मी. और पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखें।

उर्वरक प्रयोग
सिंचित फसल के लिये 60 किलोग्राम नत्रजन, 30-40 किलोग्राम फास्फोरस एवं 250 किलोग्राम जिप्सम या 40 किलोग्राम गंधक चूर्ण प्रति हेक्टेयर दें। हल्की भूमि में 80 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर देना लाभदायक पाया गया हैं।

  • नत्रजन की आधी मात्रा व फास्फोरस की पूरी मात्रा बुवाई के समय तथा शेष नत्रजन पहली सिंचाई के साथ दें। असिंचित क्षेत्रों में ऊपर बतायें गये उर्वरकों की आधी मात्रा ही बुवाई के समय डालें।
  • राया की फसल में जैव उर्वरकों, एजोक्टोबेक्टर/ऐजोस्पिरिलम तथा फास्फोट घोलक जीवाणु (पी.एस.बी.) प्रत्येक 500 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीज को उपचारित कर बुवाई करने से उपज में वृद्धि होती हैं तथा 25 प्रतिशत नत्रजन तथा फास्फोरस तत्वों की बचत की जा सकती हैं।
  • पौधों की संख्या अधिक हो तो बुवाई के 20 से 25 दिन बाद निराई के साथ छंटाई कर पौधे निकाल दें तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से 12 सेन्टी मीटर कर देवें।

खरपतवार नियंत्रण
सरसों में कई प्रकार के खरपतवार उग जाते हैं। खरपतवार फसल के साथ पोषक तत्व, पानी, प्रकाश व स्थान के लिये स्पर्धा करते हैं। इतना ही नहीं खरपतवार भूमि में कई प्रकार के हानिकारक तत्व भी छोड़ते हैं तथा खरपतवार अप्रत्यक्ष रूप से फसल में रोग व नाशक-कीट भी फैलाते हैं। इन सभी कारणों से पौधे कमजोर हो जाते हैं। जिससे पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं। सरसों के बथुआ, खर बथुआ, पील सैजी, सफेद सैजी, जंगली पालक, कृष्ण नील, प्याजी आदि प्रमुख खरपतवार हैं। इनके अलावा सरसों में आग्या (ओरोबन्की) नामक पराश्रयी खरपतवार का भी प्रकोप होता हैं। ओरोबन्की बकुम्भा, गठंवा अथवा भूई फोड़ के नाम से भी जाना जाता हैं। स्थानीय भाषा में किसान इसे ’लोंकी मूला’ के नाम से भी पुकारते हैं। यह सरसों, बैंगन व तंबाकू के खेतों में जड़ों से अपनी खुराक चूस कर उन्हें नुकसान पहुंचाता हैं। सर्दियों की ऋतु में यह फलता व फूलता हैं। यह पराश्रयी पौधा भूरे रंग का होता हैं तथा इसके फूल नीले रंग के होते हैं। इसकी ऊँचाई एक फीट तक पाई जाती हैं। केवल बीजों द्वारा ही इसका नया पौधा जन्म पाता हैं। सरसों में खरपतवार नियंत्रण करने के लिये फ्लूक्लोरेलिन एक लीटर प्रति हेक्टेयर।

सिंचाई
राया को तीन सिंचाइयों की आवश्यकता होती हैं। पहली सिंचाई शाखा फूटते समय 21 से 30 दिन पर, दूसरी फूल आना शुरू होने पर 40-45 दिन एवं तीसरी सिंचाई फली बनते समय 70-80 दिन पर करें। यदि मिट्टी बलुई हैं और पानी पर्याप्त मात्रा में हो तो चौथी सिंचाई दाना पकते समय 95 दिन की अवस्था पर दें। फव्वारा विधि द्वारा तीन सिंचाई बुवाई के 30, 45 व 75वें दिन की अवस्था पर चार घण्टे फव्वारा चलाकर दें।

कटाई एवं गहाई
फसल की फलियां जब भूरे रंग की हो जावें एवं फसल में नम स्थिति रहें उस समय कटाई शुरू कर देना चाहिए। अत्याधिक फसल सूख जाने पर फलियां झड़ जाती हैं। फसल को काटकर खलिहान में 3-4 दिन सूखा लेने के बाद गहाई करें।

कीट और उनका प्रबंधन

माहू
लक्षण
सरसों में माहू पंखहीन या पंखयुक्त हल्के स्लेटी या हरे रंग के 1.5-3.0 मिमी. लम्बे चुभने एवं चूसने मुखांग वाले छोटे कीट होते हैं। इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ पौधों के कोमल तनों, पत्तियों, फूलों एवं नई फलियों से रस चूसकर उसे कमजोर एवं छतिग्रस्त तो करते ही हैं साथ-साथ रस चूसते समय पत्तियों पर मधुस्त्राव भी करते हैं। इस मधुस्त्राव पर काले कवक का प्रकोप हो जाता हैं तथा प्रकाश संश्लेष्ण की क्रिया बाधित हो जाती हैं। इस कीट का प्रकोप दिसम्बर-जनवरी से लेकर मार्च तक बना रहता हैं।

नियंत्रण
दिसंबर के अंतिम या जनवरी के प्रथम सप्ताह में जहां कीट के समूह दिखाई दें तो उन टहनियों के प्रभावित हिस्सों को कीट सहित तोड़कर नष्ट कर दें। जब खेत में कीटों का आक्रमण 20% पौधों पर हो जाए या औसतन 13-14 कीट प्रति पौधा हो जाए तो निम्नलिखित कीटनाशकों में से किसी एक का प्रयोग करें। छिड़काव संध्या के समय करें, जब फसल पर मधुमक्खियां कम होती हैं।

आरामक्खी (पेन्टेड बग) कीट
लक्षण
यह चित्तकबरा कीट प्रांरभिक अवस्था की फसल के छोटे-छोटे पौधों को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं, प्रौढ़ व शिशु दोनों ही पौधों से रस चूसते हैं जिससे पौधे मर जाते हैं। यह कीट बुवाई के समय अक्टूबर माह एवं कटाई के समय मार्च माह में ज्यादा हानि पहुंचाते हैं।

नियंत्रण
खेत की गर्मियों में गहरी जुताई करनी चाहिए। कीट प्रकोप होने पर बुवाई के 3-4 सप्ताह बाद यदि सम्भव हो तो पहली सिंचाई कर देना चाहिए जिससे कि मिट्टी के अन्दर दरारों में रहने वाले कीट मर जायें। छोटी फसल में यदि प्रकोप हो तो क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत धूल 15-20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव सुबह के समय करें। अत्याधिक प्रकोप के समय मेलाथियान 50 ई.सी. की 500 मि.ली. मात्रा को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।

प्रमुख रोग और उनका प्रबंधन

मुदुरोमिल आसिता
लक्षण
जब सरसों के पौधे 15 से 20 दिन के होते हैं तब पत्तों की निचली सतह पर हल्के बैंगनी से भूरे रंग के धब्बे नजर आते हैं बहुत अधिक नमी में इस रोग का कवक तने तथा ’स्टेग हैड’ पर भी दिखाई देता हैं। यह रोग फूलों वाली शाखाओं पर अधिकतर सफेद रतुआ के साथ ही आता हैं।

उपचार
फसल के रोग के लक्षण दिखाई देने पर मैन्कोजेब (डाइथेन एम-45) या रिडोमिल एम.जेड.-72 डब्लू.पी. फफूंदनाशी के 0.2% घोल का छिड़काव सरसों की खेती पर दो बार 15 दिन के अन्तर पर करें।

सफेद रेतुआ
लक्षण
जब तापमान 10-18 डिग्री सेल्सियस के आस-पास रहता हैं तब पौधों की पत्तियों की निचली सतह पर सफेद रंग के फफोले बनते हैं। रोग की उग्रता बढ़ने के साथ-साथ ये आपस में मिलकर अनियमित आकार के दिखाई देते हैं। पत्ती को ऊपर से देखने पर गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। रोग की अधिकता में कभी-कभी रोग फूल एवं फली पर केकड़े के समान फूला हुआ भी दिखाई देता हैं।

उपचार
समय पर बुवाई (1-20 अक्टूबर) करें। बीज उपचार मेटालेक्जिल (एप्रॉन 35 एस.डी.) 6 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से करें। रिडोमिल एम.जेड.-72 डब्लू.पी. अथवा मेनकोजेब 1250 ग्राम प्रति 500 लीटर पानी में घोल बनाकर 2 छिड़काव 10 दिन के अन्तराल से 45 एवं 55 दिन की फसल पर करें।

काले धब्बों या झुलसा का रोग
लक्षण
सरसों की पत्तियों पर छोटे-छोटे गहरे भूरे गोल धब्बे बनते हैं, जो बाद में तेजी से बढ़ कर काले और बड़े आकार के हो जाते हैं एवं इन धब्बों में गोल छल्ले साफ नजर आते हैं। रोग की अधिकता में बहुत से धवे आपस में मिलकर बड़ा रूप ले लेते हैं तथा फलस्वरूप पत्तियां सूख कर गिर जाती हैं, तने और फलों पर भी गोल गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं।

उपचार
इस रोग की रोकथाम हेतु आईप्रोडियॉन (रोवरॉल), मेन्कोजेब (डाइथेन एम-45) फफूंदनाशी 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव सरसों की खेती पर दो बार 15 दिन के अन्तर पर करें।

तना सड़न या पोलियों रोग
लक्षण
सरसों के तनों पर लम्बे व भूरे जलसिक्त धब्बे बनते हैं, जिन पर बाद में सफेद फफूंद की तह बन जाती हैं, यह सफेद फफूंद पत्तियों, टहनियों और फलियों पर भी नजर आ सकते हैं। उग्र आक्रमण यदि फूल निकलने या फलियाँ बनने के समय पर हो तो तने टूट जाते हैं एवं पौधे मुरझा कर सूख जाते हैं फसल की कटाई के उपरान्त ये फफूंद के पिण्ड भूमि में गिर जाते हैं या बचे हुए दूठों (अवशेषों) में पर्याप्त मात्रा में रहते हैं, जो खेत की तैयारी के समय भूमि में मिल जाते हैं।

उपचार
कार्बेन्डाजिम (0.1 प्रतिशत) फफूंदनाशक का छिड़काव दो बार फूल आने के समय 20 दिन के अन्तराल (बुवाई के 50वें व 70वें दिन पर) करने से रोग का बचाव किया जा सकता हैं।

अन्य उपाय
  • फसल कटने के उपरान्त गर्मी के मौसम में गहरी जुताई करें, ताकि जमीन में जो फफूंद हैं नष्ट हो जाएं।
  • खेत में पानी खड़ा न रहने दें, अन्यथा नमी रहने से विशेषकर तना गलन रोग का प्रकोप अधिक हो जाता हैं।

उपज
सरसों की उपरोक्त उन्नत तकनीक एवं चयनित किस्मों द्वारा खेती करने पर असिंचित क्षेत्रों में 8-10 क्विंटल तथा सिंचित क्षेत्रों में 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर दाने की उपज होती हैं।