संदीप कुमार पैकरा, सहायक प्राध्यापक (सस्य विज्ञान),
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र, रायगढ़ (छ.ग.)

चना रबी ऋतु में उगायी जाने वाली प्रमुख दलहनी फसल हैं। इसका वानस्पतिक नाम साइसर एरिटीनम एवं कुल लेग्यूमिनेसी हैं। विश्व में चने के अर्न्तगत सर्वाधिक क्षेत्रफल एवं उत्पादन भारत का हैं। भारत में उगायी जाने वाली दलहनी फसलों में चने का प्रथम स्थान हैं, भारत में दलहनी फसलों का एक तिहाई क्षेत्रफल एवं उत्पादन का आधा हिस्सा चने के अर्न्तगत आता हैं। चने को भारत में 9.70 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल में उगाया जाता हैं जिसका उत्पादन लगभग 8.82 मिलियन टन होता हैं। भारत में इसका औसत उत्पादन 1142 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर हैं।
    क्षेत्रफल एवं उत्पादन की दृष्टि से मध्यप्रदेश का प्रथम स्थान हैं तथा सर्वाधिक उत्पादकता वाला राज्य बिहार हैं। छत्तीसगढ़ में चने की खेती लगभग सभी जिलों में की जाती हैं। चने के अर्न्तगत सर्वाधिक क्षेत्रफल एवं उत्पादन वाला जिला दुर्ग हैं तथा सर्वाधिक उत्पादकता वाला जिला धमतरी हें। छत्तीसगढ़ में चने के अर्न्तगत 321.50 हजार हे. क्षेत्रफल हैं, जिससे 32.99 लाख टन उत्पादन होता हैं एवं औसत उत्पादकता 1026 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर हैं।

महत्व एवं उपयोगिता
चना प्रमुख पोषक तत्वों से युक्त दलहनी फसल हैं। इसमें 18-22 प्रतिशत प्रोटीन, 52-70 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 4-10 प्रतिशत वसा, खनिज (कैल्सियम, फास्फोरस एवं आयरन) तथा विटामिन पाया जाता हैं। चने में कोलेस्ट्राल कम मात्रा में पाया जाता हैं जो कि स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभदायक होता हैं। चने का उपयोग दाल, सब्जी एवं इसके आटे (बेसन) से विभिन्न प्रकार के पकवान बनाये जाते हैं। इसके दाने को भूनकर खाया जाता हैं। चने के अंकुरित बीजों को सलाद के रूप में उपयोग किया जाता हैं। इसकी हरी कोमल पत्तियों से सब्जी बनायी जाती हैं। चने के भूसे, हरी पत्तियाँ एवं डण्ठलों का उपयोग पशु चारे के लिये करते हैं, सम्पूर्ण दाने को भी पीसकर पशुओं को खिलाया जाता हैं। इसके अलावा चना दलहनी फसल होने के कारण इसकी जड़ ग्रन्थियों के द्वारा लगभग 70 कि.ग्रा. वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का भूमि में स्थिरीकरण करती हैं, जिसके कारण इसको नाइट्रोजनयुक्त उर्वरक देने की कम आवश्यकता होती हैं।

जलवायु
चना रबी ऋतु की फसल हैं इसके वृद्धि एवं विकास के लिये ठण्डी जलवायु तथा पकते समय अधिक तापमान की आवश्यकता होती हैं। इसके लिये उपयुक्त तापमान 15-25 डिग्री सेन्टीग्रेट के मध्य अच्छा होता हैं। फूल आते समय एवं दाना बनते समय 5 डिग्री सेन्टीग्रेट से कम एवं 30 डिग्री सेन्टीग्रेट से अधिक तापमान हानिकारक होता हैं। चने की खेती सफलतापूर्वक उन स्थानों पर की जा सकती हैं, जहाँ की औसत वार्षिक वर्षा 60-100 से.मी. होती हैं। पाले से इस फसल को अधिक हानि होती हैं तथा ऐसे समय में रोग एवं कीटों का प्रकोप भी अधिक होता हैं।

भूमि
चने की खेती हल्के से लेकर भारी (क्षारीय एवं लवणीय मृदाओं को छोड़कर) सभी प्रकार की मृदाओं में की जा सकती हैं। चने के अच्छे उत्पादन के लिए उच्च कार्बनयुक्त, अधिक जलधारण क्षमता एवं अच्छे जल निकास वाली (जिसकी मृदा अभिक्रिया 5.5-8.5 हो) बलुई दोमट से चिकनी दोमट मृदा अच्छी मानी जाती हैं। क्षारीय मृदा का पोषक तत्वों जैसे- फास्फोरस, जिंक एवं आयरन आदि के अवशोषण तथा जड़ ग्रन्थियों के निर्माण में बुरा प्रभाव पड़ता हैं। उथली, कंकरीली एवं पथरीली मृदाओं में इसकी उपज कम हो जाती हैं।

चने की प्रजातियाँ
बीज के आकार एवं रंग के आधार पर चने को दो समूहों में बाँटा गया हैं-

1. देशी/भूरा चनाः- इसके दाने आकार में छोटे तथा विभिन्न रंगो जैसे- भूरे, काले, गुलाबी, पीले तथा हरे रंग के होते हैं। पौधे छोटे, सीधे तथा अधिक शाखा युक्त होते हैं, इसकी उपज क्षमता अधिक होती हैं। चने का सर्वाधिक उत्पादन एवं क्षेत्रफल भी इसी समूह के अर्न्तगत हैं।

2. काबुली/सफेद चनाः- इसके दाने सफेद रंग के एवं अपेक्षाकृत बड़े आकार के होते हैं। पौधे ऊँचे, पत्तियों का आकार बड़ा होता हैं तथा शाखाएँ भूरे चने की तुलना में कम निकलती हैं। फूल का रंग भी सफेद होता हैं, इसकी उपज क्षमता कम होती हैं।

देशी चने की उन्नत किस्में
क्षेत्र एवं जलवायु के आधार पर नव विकसित, रोग एवं कीट प्रतिरोधी तथा अधिक उपज क्षमता वाली किस्मों का चुनाव करना चाहियें। भूरे चने की प्रमुख उन्नत किस्में निम्नलिखित हैं-

किस्म

फसल अवधि (दिनों में)

उपज (क्विंटल /हे.)

उपयुक्त राज्य एवं अन्य विशेषताएँ

इन्दिरा चना-1

110-115

15-20

यह इं.गाँ.कृ.वि.वि. द्वारा विकसित किस्म हैं। इसके बीज बड़े आकार के, उकठा प्रतिरोधी, छ.ग. हेतु उपयुक्त।

जे.जी.-315

140-145

25-30

छ.ग. हेतु उपयुक्त, उकठा प्रतिरोधी, बीज मध्यम आकार के होते हैं।

राधे

140-150

25-30

छ.ग. एवं भारत के सम्पूर्ण राज्य हेतु उपयुक्त, उकठा प्रतिरोधी, पौधे ऊँचे तथा फैलने वाले, फूल पीले एवं बीज बड़े आकार के होते हैं।

अवरोधी

150-155

25-30

पौधे मध्यम ऊँचाई के उकठा प्रतिरोधी

विजय

120-125

15-20

उकठा प्रतिरोधी, सूखा सहनशील, छ.ग. हेतु उपयुक्त

जी.जी.-1

115-120

15-20

उकठा प्रतिरोधी, मध्यम आकार के बीज, छ.ग. हेतु उपयुक्त

जी.जी.-11

95-100

15-17

उकठा प्रतिरोधी, मध्यम आकार के बीज, छ.ग. हेतु उपयुक्त

जे.जी.-130

110-115

18-20

बीज बड़े आकार के, उकठा प्रतिरोधी, छ.ग. एवं म.प्र. हेतु उपयुक्त किस्म

वैभव

110-115

15-20

यह इं.गाँ.कृ.वि.वि. द्वारा विकसित किस्म हैं। इसके बीज बड़े आकार के, उकठा प्रतिरोधी, छ.ग. हेतु उपयुक्त, देरी से बुवाई हेतु उपयुक्त, सिंचित तथा असिंचित दोनों दशाओं हेतु।

जे.जी.-74

110-115

15-20

छ.ग. एवं भारत के सम्पूर्ण राज्य हेतु उपयुक्त, उकठा प्रतिरोधी, बीज मध्यम आकार के होते हैं।

जे.ए.के.आई.-9218

110-115

15-18

मध्य भारत के लिये उपयुक्त बीज बड़े आकार के, उकठा प्रतिरोधी।

पूसा-244

110-120

25-30

पौधे सीधे बढ़ने वाले अर्द्ध फैलाव, मध्य भारत-मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र राज्यों के लिये उपयुक्त, उकठा, जड़ सड़न प्रतिरोधी।

काबुली चने की उन्न्त किस्में

काक-2

120-125

17-18

बीज बड़े आकार के, उकठा प्रतिरोधी, छ.ग. एवं म.प्र. हेतु उपयुक्त किस्म

जे.जी.के.-1

130-135

15-20

उकठा प्रतिरोधी, छ.ग. एवं म.प्र., महाराष्ट्र हेतु उपयुक्त

जे.जी.के.-2

110-120

18-20

उकठा प्रतिरोधी, छ.ग. एवं म.प्र., महाराष्ट्र हेतु उपयुक्त

जे.जी.जी.-1

120-125

13-15

फूल पीले रंग के, उकठा प्रतिरोधी, छ.ग. एवं म.प्र., हेतु उपयुक्त

पूसा-1003

130-135

28

सिंचित क्षेत्र हेतु उपयुक्त, बीज बड़े आकार के, उकठा प्रतिरोधी, छ.ग. एवं म.प्र., हेतु उपयुक्त।

पूसा-1053

130-140

25

सिंचित क्षेत्र एवं समय पर बुवाई के लिये, बीज बड़े आकार के होते हैं, सम्पूर्ण राज्यों हेतु उपयुक्त।



भूमि की तैयारी
चने की बुवाई हेतु भूमि की तैयारी मृदा के प्रकार एवं फसल पद्धती पर निर्भर करती हैं। इसके लिये मिट्टी को अधिक भुरभुरी करना आवश्यक नहीं हैं, भली-भाँति जुताई की हुई, अच्छी रन्ध्रावकासयुक्त छोटे आकार के ढ़ेले वाली मिट्टी अच्छी होती हैं। खेत को मिट्टी पलट हल से एक गहरी जुताई करने के बाद दो बार कल्टीवेटर या देशी हल अथवा हैरो से जुताई करने पर खेत चने की बुवाई के लिये तैयार हो जाती हैं। हल्की मृदाओं में चने की बुवाई खरीफ फसल काटने के बाद सीधे जीरो ट्रील सीड-कम-फर्टीलाइजर ड्रील से की जा सकती हैं। असिंचित क्षेत्रों में सुबह अथवा शाम के समय करने के बाद पाटा चला देना चाहिए, जिससे मृदा में उपयुक्त नमी बनी रहे। खेत में मध्यम आकार के ढ़ेले रहने से मृदा वायु का संचार बना रहता हैं, जिससे चने के पौधों एवं जड़ों का विकास अच्छा होता हैं।

बुवाई का समय
चने की बुवाई का उपयुक्त समय 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर हैं, इसकी बुवाई खरीफ फसल जैसे मक्का, सोयाबीन एवं धान की कटाई के बाद की जाती हैं। सिंचाई की सुविधा होने पर इसकी बुवाई 15 दिसंबर तक की जा सकती हैं परन्तु देर से बुवाई करने पर उपज कम तथा रोग एवं कीटों का प्रकोप अधिक होता हैं। असिंचित अवस्था में चने की बुवाई मृदा में उपलब्ध नमी के आधार पर 15 नवम्बर तक उपयुक्त हैं।

बीज का चुनाव
अच्छे उत्पादन एवं खेत में उचित पौध स्थापन हेतु रोग एवं कीट रहित स्वस्थ, शुद्ध, प्रमाणित बीजों जिसका अंकुरण प्रतिशत अच्छी हो चयन करना चाहियें।

बीज की मात्रा
चने के बीज की मात्रा बीज का आकार, बोने की विधि, प्रजाति, बुवाई का समय तथा सिंचाई की सुविधा आदि पर निर्भर करता हैं। देशी चने की उपयुक्त समय पर एवं कतारों में सीड ड्रील से बुवाई करने पर 60-70 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा देर से एवं असिंचित क्षेत्रों में बुवाई करने पर 90-100 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती हैं। काबुली चने की उपयुक्त समय पर एवं कतारों में बोने पर 80-100 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा देर से तथा असिंचित क्षेत्रों में बुवाई करने पर 100-120 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती हैं।

पौध अन्तरण एवं बीज बोने की गहराई
देशी चने की बुवाई 25-30 से.मी. कतार से कतार एवं पौधे से पौधे 10 से.मी. रखना चाहिये तथा काबुली चने की 30-45 से.मी. कतार से कतार एवं पौधे से पौधे 10 से.मी. रखना चाहिये। बीज की बुवाई सतह से 8-10 से.मी. गहराई पर करनी चाहिए। असिंचित परन्तु समय पर बोने से 33 पौधे प्रति वर्ग मीटर तथा दिसम्बर में देर से सिंचित दशा में बुवाई करने पर 44 पौधे प्रति वर्ग मीटर आदर्श माने जाते हैं।

बीजोपचार
चने की अच्छी उपज प्राप्त करने एवं पौधे को मृदा जनित रोगों के संक्रमण से मुक्त रखने लिये बीज का उपचार करना अति आवश्यक हैं। बीज उपचार करने हेतु फफूँदनाशक दवा केप्टान 2.5 ग्राम अथवा बाविस्टीन 3 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए, इसके बाद ब्रेडीराइजोबियम नामक कल्चर से 5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें। बीज उपचार में कल्चर बीज से अच्छी तरह से चिपकी रहे इसके लिये 500 ग्राम गुड़ के घोल का प्रयोग बीज उपचार में करना चाहिये। बीज को उपचारित करके छाया में सूखाने के बाद बुवाई करनी चाहिए।

बुवाई की विधि
किसान चने की बुवाई मुख्यतः छिड़काव विधि से करते हैं जो कि अवैज्ञानिक तरिका हैं इसमें उपज कम आती हैं और बीज की अधिक मात्रा की आवश्यकता होती हैं। अच्छी उपज हेतु चने की बुवाई कतारों में ट्रैक्टर चलित अथवा बैल चलित सीड-कम-फट्रीलाइजर ड्रील या नारी हल से करना चाहिये। कतारों में बोने से बीज कम लगते हैं और उपज भी अधिक मिलती हैं। चने की बुवाई 1.5 मीटर चौड़ी पट्टी में जिसमें 2-4 कतार उथली कूँड बनाकर की जाती हैं, जिससे अधिक उपज प्राप्त होती हैं।

खाद एवं उर्वरक प्रबंधन
चने के खेत में गोबर की अच्छी सड़ी हुई खाद 10-12 टन प्रति हेक्टेयर जुताई से पूर्व छिड़क कर मिट्टी में मिला देना चाहिये। उर्वरकों का उपयोग मृदा परीक्षण के बाद मृदा में उपलब्ध पोषक तत्वों के आधार पर करनी चाहिये। सिंचित परिस्थिति में अधिक तथा असिंचित परिस्थिति में उर्वरक की कम मात्रा का प्रयोग किया जाता हैं। चने में सामान्यतः सिंचित दशा में क्रमशः 20-25ः 50-60ः 25-30 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा असिंचित दशा में 20ः40ः20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश के प्रयोग की सिफारिश की जाती हैं। उर्वरकों की सम्पूर्ण मात्रा का प्रयोग बुवाई सीड-कम-फर्टीलाइजर ड्रील से करना अच्छा रहता हैं। इसके अलावा आजकल लगभग सभी मृदाओं में जिंक तत्व की कमी देखी जा रही हैं अतः 20 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर प्रयोग की सिफारिश की जाती हैं जिससे सल्फर की भी पूर्ति हो जाती हैं। जिंक की कमी लक्षण दिखायी पड़ने पर 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट 0.25 प्रतिशत चूने के साथ मिलाकर पत्तियों पर छिड़काव करना चाहिये।


खरपतवार प्रबंधन
खरपतवारों से चने की फसल में 40-87 प्रतिशत तक उपज में कमी होती हैं। चने की फसल में खरपतवार प्रबंधन की क्रान्तिक अवस्था बुवाई के 40-50 दिन तक होती हैं, इस अवधि में फसल को खरपतवारों से मुक्त रखना चाहिये। चने के खेत में उगने वाले प्रमुख खरपतवार हैं-चिनौरी बथुआ, पीली-सेंजी, कृष्णनील, मोथा, आदि। खरपतवार नियंत्रण हाथ से करने पर प्रथम निंदाई बोने के 20-25 दिन बाद और दूसरी निंदाई 40-45 दिन के बीच में करनी चाहिए। रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण करने पर फ्लूक्लोरालीन की 1 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग बुवाई करने से पहले करना चाहिये अथवा पेण्डीमेथलीन की 1 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग बोने के बाद (1-2 दिन में) तथा पौध उगने से पहले करना चाहिये। पौध उगने के बाद यदि सँकरी पत्ती वाले खरपतवार अधिक हों तो क्यूजेलोफॉफइथाइल नामक दवा का 40-50 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर खरपतवारों की 3-4 पत्ती अवस्था तक छिड़काव करना चाहिये अथवा सेंकर (मेेट्रीबुजीन) का उपयोग खरपतवार के 6 से.मी. ऊँचाई अवस्था तक कर सकते हैं।

सिंचाई
चने को असिंचित और सिंचित दोनों परिस्थितियों में उगाया जाता हैं। यदि सिंचाई हेतु पानी पर्याप्त उपलब्धता होने पर बोने से पूर्व एक हल्की सिंचाई देकर बुवाई करनी चाहिये तथा बोने के 4 सप्ताह तक सिंचाई देकर बुवाई नहीं करनी चाहिये, जिससे पौधे के जड़ क्षेत्र में वायु का संचार बना रहता हैं तथा पौधे की वृद्धि अच्छी होती हैं और उकठा रोग भी कम फैलता हैं। चने की फसल में सिंचाई की क्रान्तिक अवस्था फूल आने से पहले एवं दाना बनते समय रहता हैं अतः इस अवस्था में सिंचाई अवश्य करनी चाहिये। चने की फसल को हमेशा हल्की सिंचाई करनी चाहिये। सिंचाई स्प्रींकलर से करनी चाहिये, चने में फूल आते समय सिंचाई नहीं करना चाहिये इससे फूल झड़ने की समस्या होती हैं और पौधे की वानस्पतिक वृद्धि होने लगती हैं।

चने की खुँटाई
सिंचित दशा में चने की वानस्पतिक वृद्धि अधिक हो जाती हैं। जब चने के पौधे 15-20 से.मी. ऊँचे हो जाये तब ऊपरी हिस्से की खुँटाई कर देनी चाहिये इससे पौधे कम ऊँचे एवं शाखाएँ अधिक निकलती हैं। 75 पी.पी.एम. ट्राइआइडो बेन्जोइक एसिड का छिड़काव कर खुँटाई के उद्धेश्य का पूरा किया जा सकता हैं।

कटाई
जब पत्तियाँ पीली होकर झड़ने लगे और फल्लियाँ भी सूखने लगे तब चने की कटाई करनी चाहिये। चने की कटाई हंसिये से काटकर अथवा कम्बाईन हारवेस्टर से की जाती हैं। चने की कटाई करने के बाद दो दिन तक धूप में सूखने देना चाहिये उसके बाद खलिहान में लाकर इसकी मड़ाई बैल के दांए चलाकर अथवा थ्रेसर से की जाती हैं। मड़ाई करने के बाद विनोवर अथवा बिजली चलित पंखे से दाने को भूसे से अलग कर लेते हैं। दाने को सूखाकर जब उसमें नमी लगभग 8-10 प्रतिशत हो तब भंडारण करना चाहिये।

कीड़े एवं रोकथाम

1. चने की इल्ली:- छोटी इल्लियां कोमल पत्तियों को खाते हैं, मध्य आकार एवं बड़ी इल्लियाँ फल्ली को छेदकर उसमें विकसित हो रहे दानों को क्षति पहुंचाते हैं।

रोकथाम:- न्यूक्लियर पालीहेडरोसिस वायरस 250 एल.ई. के घोल को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिये।

2. कुतरा कीट:- पत्तियों, शाखाओं एवं तनों को काटकर क्षति पहुंचाते हैं।

रोकथाम:- क्वीनालफास 25 ई.सी. का 1 लीटर दवा को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहियें।

3. सेमीलूपर:- इस कीट की सुड़िया हरे रंग की होती हैं जो लूप बनाकर चलती हैं। सुड़िया पत्तियों की कोमल टहनियों, कलियों, फलों एवं फलियों को खाकर नुकसान पहुंचती हैं।

रोकथाम:- प्रोफेक्स (प्रोफेनोफॉस$साइपरमेथ्रीन) का 1 मि.ली. दवा को प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये।

बीमारियाँ एवं रोकथाम

1. उकठा:- पौधे पीले होकर सूखने लगते हैं। रोग ग्रसित पौधे को उखाड़कर देखने पर अनियमित सिकुड़न भूमि की सतह के ठीक ऊपर तने के भाग पर दिखाई देती हैं।

रोकथाम:- बीज को केप्टान 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।
रोगरोधी किस्में जैसे- जे.जी.-315, इन्दिरा चना-1, अवरोधी, वैभव, जी.जी.-1 आदि को उगाना चाहिये।

2. चने का कालर रॉट:- रोग की प्रारंभिक अवस्था में पौधे हल्के पीले पड़ने लगते हैं बाद में गलकर नष्ट हो जाते हैं।

रोकथाम:- बीज को केप्टान 2.5 ग्राम या थायरम 2 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।

3. जड़ सड़न:- जड़ भूरे रंग के होकर सूख जाते हैं, इस रोग फूल आने एवं फल्ली बनते समय होता हैं।

रोकथाम:- ग्रीष्मकालीन जुताई करनी चाहिये। ट्राइकोडर्मा विरडी 4 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।

उपज 
असिंचित दशा में चने की उपज 8-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, सिंचित दशा में 18-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती हैं। मिश्रित फसल से चने की उपज लगभग 3-5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती हैं।