डॉ. दिनेश कुमार यादव, पी.एचडी स्कॉलर पशु औषधि विज्ञान विभाग
डॉ. एस.वी सिंह, डॉ. जे.पी सिंह, डॉ. रमाकांत, सहायक प्राध्यापक पशु औषधि विज्ञान विभाग
डॉ. नृपेंद्र सिंह, एम.वी.एससी स्कॉलर पशु शरीर रचना एवं उत्तक विज्ञान विभाग
डॉ. डी.पी. श्रीवास्तव, पी.एचडी स्कॉलर पशु विकृति विज्ञान विभाग
डॉ. विभा यादव, सहायक प्राध्यापक पशु सूक्ष्मजीव विज्ञान विभाग
पशु चिकित्सा विज्ञान एवं पशु पालन महाविद्यालय 
आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय कुमारगंज अयोध्या

सूकरों में बहुत से जीवाणु जनित रोग पाये जाते हैं जिनमें कुछ मुख्य-मुख्य रोगों का वर्णन यहाँ पर किया गया है।

1. ऐरिसिपेलस रोग
सूकरों का ऐरिसिपेलस रोग प्राथमिक रूप में शूकरों का और द्वितीय रूप से, भेड़ का एक संकामक जीवाणु जनित रोग होता है। इस रोग की विशेषतायें जहरवाद एवं त्वचा, हृदय व शरीर के जोड़ों में चिरकालिक विकार है।

रोग का कारण
इस रोग का कारण एक छोटा बेलनाकार, विभिन्न आकारों का दण्डाणु होता है। जो परिसिपेलोथ्रिक्स इन्सिडियोसा (रुजियोपैथी) नाम से जाना जाता है। यह जीवाणु सम्पुट अथवा बीजाणु नहीं बनाता है। यह सूक्ष्म वायुरोगी होता है। यह जीवाणु सामान्य ताप पर कई महीने तक शुष्कन जीवित रहता है।

लक्षण 
इस प्रकार के रोग के लक्षण मुख्यतः बुखार (105 डिग्री (फा० से. अधिक), सुस्ती, दूध पीने पाले बच्चों में दस्त और बृद्ध सूकरों में कब्ज आदि है। इसमें बुखार तथा सुधाकरण तीव्र प्रकार के तरह ही पाये जाते हैं। किन्तु वे अधिक समय तक नहीं रहतेद्ययह तीव्र अथवा कम तीच अवस्थाओं के बाद में देखी जाती है। किन्तु कभी कभी पशुओं में संक्रमण के बिना किसी पूर्व इतिहास के संधिशोथ अथवा अंतहंदशोय के लक्षण देखे जाते हैं।

रोग जनक विधि
यह जीवाणु शरीर में पाचन मार्ग अथवा वा द्वारा प्रवेश करता है। जय पशु की प्रतिरोधी क्षमता कम हो जाती है तो यह यंसिल अथवा आंतों में होता हुआ रक्त में पहुंचकर अपनी संख्या बढ़ता है। त्वचा के माध्यम से जाने वाले जीवाणु भी लसीका मार्ग से होते हुए रक्त में पहुँच जाते हैं।

शव परीक्षण 
इस रोग की तीव्र अवस्था में रक्त वाहिनियों में नुकसान पहुंचाता है। इसी कारण से इसमें उदर के नीचे शोध और हृदयावरण प्लूरा में रक्तस्राव तथा सीरम फाइब्रीबी निःखाव देखे जाते हैं। आमाशय, आंतों, हृदय एवं मूत्राशय के ऊपर रक्तयाब हो जाता है। आंतों में विकार भी मिल सकता है।

निदान 
इस रोग का निदान निम्नलिखित विधियों से कर सकते हैं रोग का इतिहास, लक्षण तथा शव परीक्षण करके हालांकि इस आधार पर रोग का निदान बहुत महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि समान लक्षण कुछ अन्य रोगों में भी मिलते हैं। शरीर के सभी अंगों, एक या अनेक संधियों तथा त्वचा से जीवाणु के पृथक्कीकरण करने के बाद पहचानकर चिरकालीन संक्रमण के निदान में सीरम परीक्षण जैसे प्लेट एग्लूटीनेशन परीक्षण का महत्व होता है।पशु इनकुलेशन द्वारा इस हेतु सफेद चूहे अथवा कबूतर प्रयोग किये जाते हैं।

चिकित्सा 
इस रोग का इलाज पेनिसिलीन तथा एंटी-ऐरीसिपेलस सीरम द्वारा किया जाता है। अक्सर पेनिसिलीन को इस ऐन्टीसीरम में मिलाकर देते हैं। अगर जीवाणु उपभेद कम उम्र होता है तो केवल पेनिसिलीन द्वारा ही इलाज पर्याप्त होता है। सीरम अयोत्वचा अथवा अंतः-मांसपेशीय विधि द्वारा भी दिया जा सकता है। चिरकारी प्रकार के रोश जोड़ों तथा हृदय की कपाटिका में चूँकि स्थायी परिवर्तन हो जाते हैं अतः इस अवस्था में कोई भी इलाज लाभकारी नहीं होता है।

2. सूकरों में क्षय रोग 
अन्य नाम- यक्ष्मा, पार्लरिंग, टी०बी०, तपेदिक अथवा राज रोग
यह स्तनधारी पशुओं का एक चिरकालिक संक्रामक रोग है जो कि माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस नामक जीवाणु से उत्पन्न होता है तथा जिसमें ट्यूबरकल्स जनित हो जाते हैं जिनके केन्द्र में किलाटीभवन और कैल्सीभवन हो जाते है।रोगी पशुओं के मल, मूत्र, सार और दूध में रोग कारक जीवाणु पाये जाते हैं। जिनसे यह मनुष्यों में फैल जाता है।

कारण 
सूकरों में क्षय रोग का कारण माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस वार एवियम नामक जीवाणु है। बार एवियम से सूकों में हलके प्रकार का क्षय रोग उत्पन्न होता है।सूकरों में रोग चिरकालिक होता है। जीवा की पर्विकाओं में सूजन, पाचन विकार, उपास्थियां तथा जोड़ों में वृद्धि तथा स्वत श्वसन तंत्र से संबंधित लक्षण पाये जाते हैं।

लक्षण 
शूकर में जो पशुओं के समान ही लक्षण होते हैं। शरीर की संधियों तथा मस्तिष्क आवरण प्रभावित होते हैं। अधिकतर फेफड़े, आहार नाल, हड्डियों तथा त्वचा में ही मिलते हैं।

निदान 
क्षय रोग के प्रभावकारी नियंत्रण के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि इस रोग का सही और शीघ्र निदान हो। आधार पर निदान किया जाता है

रोग लक्षण 
परीक्षण पशुओं का गंभीरतापूर्वक निरीक्षण करके क्षय रोग की शंका की जा सकती है। बाह्रय लसीका संधियों का जाँच करके, रोग के लक्षण एक्सरे इत्यादि द्वारा निदान में सहायता मिलती है।

शव परीक्षण 
पशुओं के शव परीक्षण करने पर फेफड़े में फिल्शीफिकेशन एवं केजियेशन पाया जाता है जिसके कारण फेफड़े को काटकर छूने पर कैल्शियम के कहाँ के कारण खुरदरापन महसूस होता है तथा रोग की अंतिम अवस्था में गायें के बन जाते हैं।

3. ब्रूसेल्लोसिस रोग 
अन्य नाम- बैग्स रोग, संकामक गर्भपात तथा सांसर्गिक गर्भपात इस रोग के कई अन्य नाम है जैसे- अंडूलेंट ज्वर, माल्य ज्वर, बैग्स ज्वर इत्यादि।
यह प्राथमिक रूप से गोपशुओं, बकरियों, शूकरों और द्वितीय रूप से अन्य पशुओं और मनुष्यों का एक सांसर्गिक रोग है, जो बूरोल्ला प्रजाति के जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता है। इस रोग में प्रजनन अंगों व भ्रूण की झिल्लियों का शोय, गर्भपात, बाँझपन तथा अन्य अंगों में स्थानीय क्षतियाँ उत्पन्न हो जाती है। इसेल्लोसिस रोग पशुओं से मनुष्यों में फैलता है अतः इस रोग का जन-स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत अधिक महत्व है। यह रोग बसेल्ला की एक प्रजाति ब्रूसेल्ला स्थीत से होती है।

लक्षण 
सूकरों में बाँझपन, गर्भपात, जोड़ों का रोग, लंगड़ापन, दुर्बल शुकरों का होना, जर सूकरों में वृषणशोध इत्यादि इस रोग के मुख्य लक्षण हैं।इस रोग का जीवाणु पाचन संस्थान, क्षेत्र श्लेष्म तथा योनिद्वार द्वारा शरीर में प्रविष्ट करता है।

चिकित्सा 
इरोल्लोसिस के चिकित्सा की सिफारिश नहीं की जाती क्योंकि दवाओं को प्रभाव लगभग नहीं के बराबर होता है।

4. लिस्टीरिया रुग्णता
अन्य नाम- मस्तिष्क आवरण शोध, सरकलिंग डिजीज
लिटीरिया रुग्णता भेड़, गोपशु सूर, बकरियों, खरगोध. गिनीपिंग, कुक्कुट और मनुष्यों का एक कदाचनिक संक्रामक रोग है, जो लिस्टीरिया मोनोसाइटोजेटिस नामक जीवाणु से उत्पन्न होता है। इस रोग में मस्तिष्कावरण शोध जीवाणु-विषरक्तता और गर्भपात उत्पन्न होते हैं।

कारण 
रोग कारक जीवाणु लिस्टीरिया मोनो साइटोजेनिस ग्राम धनात्मक दहाणु है। यह जीवाणु विष उत्पन्न नहीं करता।पशुपादिक लिस्टीरिया रुग्णता के प्रति भेड़, बकरी, सूकर, खरगोश, सिनपिंग, कुत्ता, कुक्कुट और मनुष्य संवेदनशील परपोषी है। कुछ न्य पशु भी रोग के प्रति संवेदनशील होते हैं।

लक्षण 
सूकरों में केन्द्रीय तंत्रिका संस्थान में रुग्णता उत्पन्न होती है तथा संबंधित लक्षण दिखाई देते हैं। रोगी पशुओं में 103 से 107 डिग्री फाट ज्वर, असंमजन, पिछले पैरों का घसीटना, अवसादन आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। दूध पीने वाले शूकरों में अत्यधिक मृत्यु होती है।

शव परीक्षण 
सामान्यतः शव परीक्षण करने पर कोई क्षति नहीं दिखाई देती। मुख्य रूप से रक्ताधिक्य तथा मस्तिष्कावरण में रक्तवाव दिखाई देता है। मस्तिष्क के विभिन्न अंगों व तंत्रिका रज्जु में अनेक सूक्ष्म फोड़े पाये जाते हैं।

निदान 
लिस्टीरिया रुग्णता का निदान निम्नलिखित आधार पर किया जाता है-
  • रोग का इतिहास, लक्षण और क्षतियों से रोग के विषय में संदेह किया जा सकता है।
  • मस्तिष्क ऊतक, मेडुला आल्लांगटा और तंत्रिका राज्जु के का घोल बनाकर जीवाणुओं का पृथक्कीकरण करना। अग्रभाग ऊतक विकृति विज्ञान द्वारा क्षतियों का अध्ययन तथा मस्तिष्क जीवाणुओं का प्रदर्शन।गिनीपिंग व खरगोश में इवाकुलेशन) मूषकों में मस्तिष्क विधि द्वारा इनाकुलेट करके उनके मस्तिष्क में अनेकों लिस्टीरिया जीवाणु प्राप्त किये जा सकते हैं।

5. गलाघोंटू रोग
अन्य नाम- इस रोग को बारबोन, शिपिंग ज्वर, धरँका, गलघोद, गरगति आदि नामों से जाना जाता है।
गलाघाँटू मुख्यतः गोपशुओं और मैंतों का रोग है, परन्तु यह भेड़, बकरियों व शूकरों में भी पाया जाता है।

रोग के कारण 
यह रोग पास्चुरेला मल्टोसीडा नामक जीवाणु से फैलता है। यह रोग सुकरा में दो तरह से होता है- पहला न्यूमोनिक पास्चुरोलोसिस कहलाता है। यह फेफड़ों में न्यूमोनिया रोग फैलाता है और दूसरा सेप्टिसिमिक फारचुरेलोसिस कहलाता है, यह अत्यन्त खतरनाक होता है और जानवर की 12 घंटे के अंदर मृत्यु हो जाती है। यह अधिकतर बच्चों में ज्यादा होता है। यह रोग दूषित पानी पीने से और दूषित चारागाह में चरने से होता है।

लक्षण 
इस रोग में तीव्र बुखार के साथ-साथ नाक और मुख से पानी गिरने लगता है। गले में सूजन आ जाती है और जानवर खाना-पीना त्याग देता है। गर्भवती सूकरों में गर्भपात होने की संभावना बढ़ जाती है। कान के नीचे एक ग्रंचि पायी जाती है जिसमें सूजन और लालिमा आ जाती है। सूजन आने पर सूकर घड़चड़ाहट की आवाज करने लगते

उपचार 
क्लोरटेट्रासाइक्लीन और आक्सी देद्रासाइक्लीन के इंजेक्शन प्रत्येक 6.से 8 घंटे पर 5 से 7 दिन तक देते रहना चाहिए। डेक्सानियासोन और एंटीहिस्टेमिनिक जैसे कि क्लोरफेनरागीन मेलिएट का इंजेक्शन भी साथ में देते रहना चाहिए। इसके अलावा एंटीबायोटिक या सल्फा दवाओं के देने पर जानवर की भूख कम हो जाती है अतः लीवर एक्सट्रेट तथा विटामिन बी-काम्पलेक्स भी साथ में देना चाहिए।

6. सूकरों में टिटनेस रोग
अन्य नाम- 
इसे बन्द जबड़े वाला रोग या काठ का घोड़ा वाला रोग भी कहते हैं।
कारण यह रोग क्लास्ट्रीडियम टिटैनाई नामक जीवाणु से होता है जो कई वर्षों तक मिट्टी या खुले आकाश में रहने के बाद भी नष्ट नहीं होता है और न ही अम्ल या क्षार का असर होता है। टिटेनस रोग सभी आयु वर्ग के लोगों में होता है गहरे घाव में इस रोग की संभावना बढ़ जाती है।

लक्षण 
टिटेनस रोग में शरीर की सभी मांस पेशियों जकड़ जाती है। ऐसा इस जीवाणु से न्यूरोटाक्सिन नामक पदार्थ के साथ के कारण होता है। जबड़ा पूरी तरह से बन्द हो जाता है। हाथ, पैर तथा कान बिलकुल कड़े हो जाते हैं। स्वास लेने में सहायक मांसपेशियों जकड़ जाती है जिससे जानवरों की मृत्यु हो जाती है।

उपचार
इस रोग में पैनसिलिन नामक दवा अधिक उपयोगी है। मंसिल रिलैक्जेन्ट भी देना चाहिए जैसे क्लोरप्रोमाजीन एंटीटाक्सिन का भी प्रयोग करना चाहिए।

टीकाकरण 
गर्भवती यूकरी में टेटबँक नामक टीका गर्भ के तीसरे महीने में 15 दिन के अंतराल पर दो टीके लगा देना चाहिए।