डॉ. दिनेश कुमार यादव, पी.एचडी स्कॉलर पशु औषधि विज्ञान विभाग
डॉ. एस.वी सिंह, डॉ. जे.पी सिंह एवं डॉ. रमाकांत, सहायक प्राध्यापक पशु औषधि विज्ञान विभाग
डॉ. नृपेंद्र सिंह, एम.वी.एससी स्कॉलर पशु शरीर रचना एवं उत्तक विज्ञान विभाग
डॉ. डी.पी. श्रीवास्तव, पी.एचडी स्कॉलर पशु विकृति विज्ञान विभाग
डॉ. विभा यादव, सहायक प्राध्यापक पशु सूक्ष्मजीव विज्ञान विभाग
पशु चिकित्सा विज्ञान एवं पशु पालन महाविद्यालय
आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या

थन (अयन या स्तन) के शोध को थनैला कहते है। यह विशेषकर अधिक दुग्ध उत्पादन वाले मादा पशुओं का प्रमुख रोग है। इस रोग के कारण पशुओं की दुग्ध उत्पादन क्षमता कम हो जाती है। दूध की गुणवत्ता में भी गिरावट आती है समय पर समुचित उपचार न मिलने पर अथवा उचित उपचार के अभाव में प्रभावित थन पूरी तरह अनुपयोगी हो जाता है। अत यह रोग पशुपालकों के लिए आर्थिक दृष्टि से बहुत हानिकारक होता है।

थनों में इन्फेक्शन कैसे होता है?
थनों में दूध के मार्ग के जरिये बाहर से इन्फेक्शन अन्दर प्रवेश करता है। पशु बांधने की जगह गंदगी गंदे हाथों से दूध निकालने तथा एक थन का खराब दूध दूसरे थन पर लगने से इन्फेक्शन फैलता है। प्रायः दूध दुहने के बाद दूध की कुछ बूंदे थन पर लगी रहती है। जब पशु नीचे बैठता है तो गंदगी के सम्पर्क में आने से इन्फेक्शन धनों के जरिये उपर गादी तक पहुंच जाता है। जबकि ट्युबरकुलोसिस मेस्टाइटिस पैदा करते है थनों की नली के जरिये बैक्टीरिया उपर गादी में पहुंचकर संख्या में भारी वृद्धि करते हैं अन्दर कोशिकाएं नष्ट होती है तथा बाद में इन ग्रन्थियों में फाइब्रोसिस हो जाने से कठोर हो जाती है। अन्त में दूध बनना बन्द हो जाता है।

कारण
थनैला बीमारी पशुओं में कई प्रकार के जीवाणु विषाणु एवं फफूंद के संक्रमण से होता है। इसके अलावा चोट अनुचित पशु प्रबन्धन तथा मौसमी प्रतिकूलताओं के कारण भी थनैला हो जाता हो

लक्षण

1. तीव्र थनैला रोगः- इस दशा में पशु के शरीर का तापमान बढ़ जाता है। अयन में सूजन करता है तथा वह लाल और गर्म प्रतीत होता है। पशु दर्द का अनुभव करता है। धनों से दूध का निकलना बन्द हो जाता है धन से दही के समान फटा फटा सा या मवाद की तरह या लार की तरह द्रव निकलता है।कभी-कभी पशु दूध रक्त मिला हुआ निकलता है।

2. कम तीव्र प्रकार थनैला रोग- इस प्रकार में रोग की तीव्रता काफी कम होती है सूजन काफी कम होता है। पशु दूध असमान्य रहता है। अवन भी सामान्य की अपेक्षा ज्यादा सख्त रहता है। पशु के शरीर का तापमान सामान्य होता है। यद्यपि प्रभावित पशु को कम परेशानी होती है, परन्तु अधिक दिनों तक इस रोग के रहने के कारण धनी के खराब होने की सम्भावना बढ़ जाती है।

3.चिरका {दीर्घ कारिक} थनैला रोग- इस प्रकार में रोग कई सप्ताहों एवं महीनो तक थन को प्रभावित किए रहता है और अन्त प्रभावित थन को बेकार बना देता है। अयन ठंडा व कठोर हो जाता है थन दबाने का अनुभव नहीं होता है।

उपचार
रोगी पशु का शीघ्र उपचार करवाना चाहिए। संक्रमण को ठीक करने के लिए पशु को नियमित रूप से सुबह शाम एन्टीबायोटिक औषधियों की सूई देनी चाहिए। यदि सम्भव हो तो प्रयोगशाला में दूध भेजकर यह पता लगवा लेना चाहिए कि कौन सी एन्टीबायोटिक सबसे अधिक कारगर है। ऐसा करने से पशु की दशा में तुरन्त सुधार देखा जा सकता है। साथ ही सूजन कम करने हेतू भी सुई लगवानी चाहिए। प्रभावित थनों में एन्टीबायोटिक औषधि चढ़ाई जा सकती है। थनों में लगी हुई चोटों का समुचित उपचार करना आवश्यक है।

रोकथाम
इस रोग की रोकथाम के लिए निम्न उपाय आवश्यक हैः-

1. पशुओं के अयन को दूध दुहने के पहले व बाद में स्वच्छ पानी से धोना चाहिए। इसके लिए लाल दया या डिटोल आदि का प्रयोग किया जा सकता है ।

2 . धोने के बाद अयन को साफ कपड़े से पोंछना चाहिए ।

3. दुहने के बाद पशु को कुछ देर तक बैठने नहीं देना चाहिए।

4. थनैला रोगी पशु का दूध बाद में निकालना चाहिए पहले स्वस्थ पशुओं को दुहना चाहिएद्य

5. प्रभावित पशु के स्वास्थ्य थन का दूध पहले निकालना चाहिए।

6. पशुओं का दूध दुहने वाले ग्वालों की साफ सफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए। खासी या अन्य रोग होने पर उन्हें पशुओं का दूध नहीं निकालने देना चाहिएद्य ग्वालों को हाथों और नाखूनों आदि की पूर्णतः सफाई रखनी चाहिए।

7. पशुशाला की सफाई पर विशेष ध्यान देना चाहिए पशुशाला के फर्श को कीटनाशक दवाओं के घोल से धोना चाहिए

8. दूध दुहने की तकनीकी सही होनी चाहिए, जिससे थन को किसी प्रकार की चोट न पहुँचे।

9. समय-समय पर दूध की जाँच प्रयोगशाला में करवाते रहना चाहिए।

10. पशु के अयन से पूर्ण रूप से दूध निकाल लेना चाहिए। यदि किसी कारणवश थन में दूध ठहर जाता है तो यह कारक कीटाणुओं की सख्या वृद्धि के लिए लाभदायक होते हैं।

11. पशुओं को संतुलित आहार देना चाहिए ।