इंजी. आँचल जायसवाल, कृषि प्रसंसकरण एवं खाद्य अभियांत्रिकी 
मधु कुमारी पैंकरा, कीट विज्ञान 
कृषि महाविद्यालय अनुसंधान केंद्र कटघोरा, कोरबा

भारत में खरीफ में धान तथा रबी में गेहूं की खेती प्रमुखता से की जाती है। श्रमिकों का कटाई के समय उपलब्ध न होना, ज्यादा पैसे की मांग और अधिक समय लगना आदि ऐसे अनेक कारण हैं, जिनके फलस्वरूप कृषकों द्वारा कटाई के लिए मशीनों, कम्बाइन एवं रीपर का इस्तेमाल बहुतायत में किया जाने लगा है। इस कारण कटाई के उपरांत खेतांे में दाने के अतिरिक्त काफी मात्रा में फसल अवशेष रह जाते हैं। वभिन्न फसलों की कटाई के बाद बचे हुए डंठल तथा गहराई के बाद बचे हुए पुआल, भूसा, तना तथा जमीन पर पड़ी हुई पत्तियों आदि को फसल अवशेष कहा जाता है। विगत एक दशक से खेती में मशीनों का प्रयोग बढ़ा है। साथ ही खेतीहर मजदूरों की कमी की वजह से भी यह एक आवश्यकता बन गई है। ऐसे में कटाई व गहराई के लिए कंबाईन हार्वेस्टर का प्रचलन बहुत तेजी से बढ़ा है, जिसकी वजह से भारी मात्रा में फसल अवशेष खेत में पड़ा रह जाता है। जिसका समुचित प्रबन्धन एक चुनौती है। किसान अपनी सहुलियत के लिए इसे जलाकर प्रबन्धन करते हैं। इसके पीछे किसानों के अपने तर्क हैं। उनका कहना है कि फसल अवशेषों को जला देने से खेत साफ होता है। परन्तु इस तरह फसल अवशेष प्रबन्धन, खेत की मिट्टी, वातावरण व मनुष्य एवं पशुओं के स्वास्थ्य के लिए कितना घातक है इसका अंदाजा आज भी किसानों को नहीं है।
    हमारे देश में वार्षिक 630-635 मीट्रिक टन फसल अवशेष पैदा होता है। कुल पफसल अवशेष उत्पादन का 58 प्रतिशत धान्य फसलों से, 17 प्रतिशत गन्ना, 20 प्रतिशत रेशे वाली पफसलों से तथा 5 प्रतिशत तिलहनी पफसलों से प्राप्त होता है। किसान भाई अपनी समझ से अगली फसल की बुआई के लिए खेत खाली करने के उद्देश्य एवं कम लागत में खेत खाली हो जाए, इसके आधार पर फसल अवशेषों को जला देते हैं। इससे कई बार जन-धन की हानि होती है। इतना ही नहीं पफसल अवशेषों को जलाने से मृदा एवं वायु प्रदूषण भी होता है।
    एक शोध के अनुसार, एक टन पराली जलाने पर हवा में 3 कि.ग्रा. कार्बन कण, 60 कि.ग्रा. कार्बनमोनोऑक्साइड, 1500 कि.ग्रा कार्बनडाइऑक्साइड, 200 कि.ग्रा. राख व 2 कि.ग्रा. सल्पफरडाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। इससे लोगों में त्वचा व सांस संबंधी तकलीफें बढ़ जाती है। पराली जलाने से मृदा से 5.5 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 2.3 कि.ग्रा. पफॉस्पफोरस, 2.5 कि.ग्रा. पोटेशियम तथा 1.2 कि.ग्रा. सल्पफर का ह्रास होता है। इससे मृदा में मौजूद कीट भी नष्ट हो जाते हैं। एक ग्राम मृदा में करीब 20 करोड़ लाभकारी जीवाणु होते हैं। पराली जलाने पर उनमें से मात्रा 15 लाख के लगभग रह जाते हैं। इतना ही नहीं अगली फसल पर सिंचाई और खाद पर भी ज्यादा खर्च करना पड़ता है।

अवशेष प्रबन्धन विकल्प
मुख्यतः पशुचारा के लिए कुछ अवशेष इकट्ठा करने के उपरान्त शेष को जलाया जा रहा है जिससे पर्यावरण, मनुष्य एवं पशु स्वास्थ्य की हानि हो रही है। अवशेष प्रबन्धन विकल्प इस प्रकार हो सकते हैः

1. अवशेषों को पशुचारा अथवा औद्योगिक उपयोग के लिए इकट्ठा करना
  • पुआल को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर वाष्प से उपचारित कर चारा के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है।
  • स्ट्रों बेलर द्वारा खेत में पड़े फसल अवशेषों का ब्लॉक बनाकर कम जगह में भंडारित कर चारे में उपयोग।
  • रीपर का प्रयोग कर भूसा बनाना।
  • फसल अवशेषों का मशरुम की खेती में सार्थक प्रयोग किया जा सकता है।
  • फसल अवशेषों के प्रभावी प्रयोग जैसे, गत्ता बनाना आदि नए-नए वैकल्पिक उपयोगों का पता लगाने की नितान्त आवश्यकता।
2.  अवशेषों को मिट्टी में मिश्रित करना
  • फसल की कटाई के उपरांत रोटावेटर से जुताई कर एक पानी लगा देने से फसल अवशेष मिट्टी में मिल जाते हैं फिर बाद में अगली फसल की बिजाई या रोपाई आसानी से की जा सकती है।
  • धान व गेहूँ के अवशेषों की जुताई कर पानी लगा देने से प्रबन्धन सम्भव है। साथ ही 20-35 कि.ग्रा. यूरियाध्हे. की दर से डाल देने से अवशेषों के विगलन की प्रक्रिया तीव्र हो जाती है।बायोचार, कार्बनीकृत धान के अवशेषों द्वारा मृदा का बायोचार करने से मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ने के साथ-साथ उत्पादन दक्षता भी बढ़ जाती है।
3. अवशेष के भूमि के सतह पर रखना
  • गेहूँ की कटाई के बाद खड़े फानो में जीरो टिलेज मशीन या टबों हैप्पी सीडर से मूँग या ढैंटा की बुआई कर फसल अवशेष प्रबन्धन सम्भव है।
  • धान की कटाई के बाद गेहूँ की जीरो टिलेज तकनीक से बुआई द्वारा प्रभावी ढंग से फसल अवशेष प्रबन्धन किया जा सकता है।
  • गन्ने की कटाई के बाद रोटरी डिस्क ड्रिल से गेहूँ की बीजाई को बड़े पैमाने पर प्रचलित कर गन्ना फसल में प्रभावी अवशेष प्रबन्धन किया जा सकता है।
  • अवशेषों से पलवारध्मल्च को खेती में प्रयोग कर विभिन्न फसलों में खरपतवार के प्रकोप को भी कम किया जा सकता है साथ ही मृदा के सेहत में सुधार किया जा सकता है।
  • मृदा में पानी के प्रवेश की क्षमता में सुधार होता है।
  • मृदा के अपरदन में कमी।
  • तापमान का अनुकूलन अर्थात गर्मी में तापमान को कम रखता है तथा सर्दी में तापमान को बढ़ाता है।

फसल अवशेष प्रबन्धन से हानि
  • मृदा की भौतिक संरचना को हानि- फसल अवशेषों को जलाने से मृदा ताप में वृद्धि होती है और मृदा की सतह कड़ी हो जाती है। इससे मृदा सघनता में वृद्धि होती है तथा मृदा जलधारण क्षमता में कमी आती है। मृदा वातन पर भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है।
  • मृदा में लाभदायक सूक्ष्मजीवों की हानि- फसल अवशेषों के जलाने से मृदा में उपस्थित सूक्ष्मजीवों की संख्या पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसके कारण लाभदायक कीटों की संख्या में काफी कमी आती है। इसका मुख्य कारण यह है कि फसल अवशेषों को जलाने से कार्बनिक पदार्थों की मात्रा में गिरावट आने से सूक्ष्मजीवों को पर्याप्त मात्रा में आहार स्वरूप कार्बनिक पदार्थ नहीं मिल पाते हैं। इसका सीधा प्रभाव मृदा में पोषक तत्वों की उपलब्धता पर पड़ता है। सूक्ष्मजीव, कार्बनिक पदार्थों को उपलब्ध तत्वों में परिवर्तित करके पोषक तत्व पौधों में उपलब्ध करवाते हैं, जिसे खनिजीकरण; मिनरलाइजेशन कहते हैं। ये सूक्ष्मजीव मृदा में कई महत्वपूर्ण कार्य करते हैं, जिनमें वातावरण से नाइट्रोजन संचित करना, पौधों को पोषक तत्वों की पूर्ति करना एवं अघुलनशील पोषक तत्वों को घुलनशील बनाना आदि शामिल हैं।
  • पोषक तत्वों की उपलब्धता में कमी- फसल अवशेषों को जलाने से मृदा में उपस्थित मुख्य पोषक तत्व जैसे-नाइट्रोजन, फॉस्पफोरस एवं पोटाश की उपलब्धता कम हो जाती है।
  • वायु प्रदूषण में वृद्धि- खेतो में फसल अवशेषों को जलाने से अत्यधिक मात्रा में वायु प्रदूषण होता है। इसके साथ ही हरितगृह गैसें जैसे- कार्बनडाइऑक्साइड, नाइट्रसऑक्साइड आदि का उत्सर्जन ग्लोबल वार्मिंग के लिए उत्तरदायी होता है।
  • पशुओं के लिए चारे की कमी- फसल अवशेषों को पशुओं के लिए सूखे चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है। पफसल अवशेषों को जलाने से पशुओं को चारे की कमी का सामना करना पड़ता है।
  • स्वस्थ वृक्षों को नुकसान- फसल अवशेषों को जलाने के साथ अन्य वृक्ष एवं मेड़ पर लगे पौधे झुलस जाते हैं। इससे उनकी वृद्धि रुक जाती है।
    उपरोक्त हानिकारक प्रभावों से भारतीय कृषि को बचाने के लिए संरक्षित कृषि एक अभिनव पहल है। इसके अंतर्गत हम उपलब्ध स्रोतों का समुचित प्रयोग एवं उनके संरक्षण से कृषि उत्पादन में वृद्धि करते हुए उपलब्ध स्रोतों को टिकाऊ रख पाते हैं। कृषक भाई उपलब्ध फसल अवशेषों को जलाने की बजाय उनका निम्नलिखित तरीकों से प्रबंधन कर सकते हैंः
  • चारे के रूप मेंः धान तथा गेहूं के फसल अवशेष की एक बड़ी मात्रा का चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। यह प्रोटीनयुक्त तथा पौष्टिक होता है, जिसे पशुओं को हरा चारा जैसे-बरसीम के साथ मिलाकर खिलाते हैं।
  • कम्पोस्ट तथा वर्मीकम्पोस्ट के रूप मेंः फसल अवशेष का उपयोग करके पंजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ किसान उद्यमी कम्पोस्ट तथा वर्मीकम्पोस्ट तैयार करते हैं। इससे अच्छा पैसा अर्जित करने के साथ-साथ वर्मीकम्पोस्ट का प्रयोग करते हुए अपने खेतों की उर्वरा शक्ति, जलधारण क्षमता तथा वायु संचार बढ़ती है, इससे फसल उत्पादन अच्छा होता है।
  • ईंधन के रूप मेंः धान के पुआल का गैसीकरण कर कई कंपनियां बिजली उत्पादन कर रही हैं। सरसों के पफसल अवशेष का उपयोग ईंट भट्ठों में ईंधन के रूप में हो रहा है। अरहर के पफसल अवशेष का इस्तेमाल ग्रामीण महिलाएं घरेलू ईंधन के रूप में करती हैं।

फसल अवशेष प्रबंधन से लाभ
  • कार्बनिक पदार्थ की उपलब्धता में वृद्धिः कार्बनिक पदार्थ ही ऐसे स्रोत हैं, जो कि मृदा में उपस्थित पोषक तत्वों को पफसलों को उपलब्ध करवाते हैं। कार्बनिक पदार्थ मृदा के लिए च्यवनप्राश हैं। कटाई के बाद यदि फसल अवशेष न जलायें, तो ये खेत में सड़कर मृदा में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा में वृद्धि करते हैं।
  • मृदा की भौतिक संरचना में सुधारः मृदा में पफसल अवशेषों को मिलाने से कार्बनिक पदार्थ की वृद्धि के साथ-साथ मृदा सतह की कठोरता कम होती है। इसके अलावा जलधारण क्षमता एवं वायु संचार में वृद्धि होती है।
  • मृदा उर्वरा शक्ति में सुधारः पफसल अवशेषों को मृदा में मिलाने से उपलब्ध पोषक तत्वों की मात्रा, मृदा की विद्युत चालकता एवं पी-एच मान में सुधार होता है।
  • फसल उत्पादन में वृद्धि: उपरोक्त तीनों लाभों के कारण पफसल उत्पादन में अपेक्षित वृद्धि होती है। प्रयोगों द्वारा देखा गया है कि यदि पफसल अवशेषों को मृदा में रोटावेटर से मिला दिया जाए, तो फसलों की उत्पादकता में वृद्धि होती है।