सोनाली हरिनखेरे (मृदा विज्ञान एवं कृषि रसायन) 
परमिंदर सिंह सैनी (आनुवंशिकी और पादप प्रजनन विभाग)
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, कटघोरा, कोरबा, (छत्तीसगढ़)

मृदा खेती का आधार है और मृदा उर्वरता व मृदा उत्पादकता में आपस में बहुत गहरा सम्बन्ध है। मृदा की उर्वरता घटती है तो मृदा के द्वारा फसल का उत्पादन बढ़ाने की क्षमता भी कम होती है। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि फसल उत्पादन के लिए मृदा की उर्वरता हमेशा अच्छी रहे। फसलों के उत्पादन के परिणाम स्वरुप जितना पोषक तत्व फसलें जमीन से उपयोग कर रही है उस मात्रा को हम किसी प्रकार पुनः धरती में लौटाने का ईमानदारी से प्रयास करें।
    दलहनी फसलों में अरहर का विशेष स्थान है। अरहर की दाल में लगभग 20-21 प्रतिशत तक प्रोटीन पाई जाती है साथ ही इस प्रोटीन का पाच्यमूल्य भी अन्य प्रोटीन से अच्छा होता है। अरहर की दीर्घकालीन प्रजातियॉं मृदा में 200 कि.ग्रा. तक वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का स्थरीकरण कर मृदा उर्वरकता एवं उत्पादकता में वृद्धि करती है। इसके अतिरिक्त अरहर मृदा क्षरण रोकने व वायु प्रतिरोधक फसल के रूप में भी उपयोगी है। इसे मिश्रित फसलों के रूप में अन्य फसल के साथ उगाकर भी अतिरिक्त आय प्राप्त की जा सकती है। शुष्क क्षेत्रों में अरहर किसानों द्वारा प्राथमिकता से बोई जाती है। असिंचित क्षेत्रों में इसकी खेती लाभकारी हो सकती है क्योंकि गहरी जड़ के एवं अधिक तापक्रम की स्थिति में पत्ती मोड़ने के गुण के कारण यह शुष्क क्षेत्रों में सर्वउपयुक्त फसल है। महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक एवं आन्ध्रप्रदेशदेश के प्रमुख अरहर उत्पादक राज्य हैं।

दलहनी फसलो का फसल चक्र में महत्व
जैविक कार्बन मृदा स्वास्थ्य के लिये और सभी आवश्यक पोषक तत्वों को उपलब्ध करने वाला आधार स्त्रोत माना जाता है। जैविक कार्बन की कमी का मुख्य कारण है लगातार पोषक तत्वों का दोहन किया जाना है। किसान जैविक कार्बन की पूर्ति के लिये समान्यतः गोबर की खाद का उपयोग करते हैं इसकी उपलब्धता में कमी के कारण पर्याप्त मात्रा में खाद उपलब्ध नहीं हो पाती है। इंडो-गंगा के मैदानी क्षेत्र (आईजीपी क्षेत्र) में एकल फसल चक्र (धान-गेहूँ) लेने से मृदा स्वास्थ्य में गिरावट आ रही है। कृषि उत्पादकता को बनाए रखने के लिए संतुलित पोषक तत्वों के प्रबंधन की आवश्यकता है। किसानों को एकल फसल प्रणाली में बदलाव के साथ फसल चक्र में दलहन का समावेश करने की आवश्यकता है।

अरहर की पत्तियों से खादबनाने की वैज्ञानिक विधि
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा नई दिल्ली ने पांच वर्षों तक अरहर की पत्तियों को खेत में गिराकर नया अनुसंधान किया है। खेत में लगभग 1.2 से 1.4 टन प्रति हैक्टर प्रति वर्ष पत्तियों के अवशेषों को खेत में मिलाया जाता है। इससे खेत में कार्बन की मात्रा में 0.4 से 0.6 प्रतिशत तक बढ़ोतरी पाई गई। अरहर की खेती दोमट या चिकनी दोमट एवं कपास की भारी काली मृदाओं, जिनमें जल निकास की उचित व्यवस्था हो, में सफलतापूर्वक की जा सकती है। आर्द्र व शुष्क दोनों प्रकार के गर्म जलवायु के क्षेत्रों में अरहर की खेती की जा सकती है। जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है, वहां 1 से 15 जून तक फसल की बुआई करनी चाहिए। हाल के वर्षों में अरहर की अतिरिक्त कम अवधि वाली किस्मों का विकास हुआ है। यह परंपरागत किस्मों से तीन से चार सप्ताह पहले परिपक्व हो जाती है। इन किस्मों को धान के स्थान परले सकते हैं। और रबी फसल की भी समय पर बुआई की जा सकती है।
    अरहर परिपक्वता के समय अर्थात जब पौधे की सभी फलियों में दाने भरजाएं और पत्तियां हल्की पीली हो जाएं तो 10 प्रतिशत यूरिया (एक लीटर पानी में 100 ग्राम) का घोल बनाकर पत्तियों पर छिड़काव करने से एक सप्ताह में अधिकांश पत्तियां खेत में ही गिरजाती हैं। इस प्रकार खेत में 1.2 से 1.4 टन प्रति हैक्टर पत्तियों के अवशेष/बायोमास समावेश होते हैं। ये अवशेष अन्य फसल के अवशेषों की तुलना में जल्दी विघटित होकर खाद का काम करते हैं। कम्पोस्टिंग के बाद अगली फसल के लिए 0.5 टन प्रति हेक्टेयर जैविक खाद की पूर्ति होती है। हरी पत्तियों में लगभग 4 प्रतिशत नाइट्रोजन होता है, जो अगली फसल की लगभग लगभग 50 कि.ग्रा. प्रति पूर्ति करती है। इस प्रकार अगली गेहूँ की फसल में 10-20 प्रतिशत अधिक उपज प्राप्त होती है।

अरहर के फसल अवशेष से मृदा स्वास्थ्य में सुधार
  • अरहर की पत्तियों के लिये उपयोग किये गये पौधों को जब जमीन में हल चलाकर दबाया जाता है तो उनके गलने-सड़ने से जड़ों की गांठां में जमा नाइट्रोजन जैविक रूप में मृदा में पुनः आकर लेकर उसकी-उर्वरा शक्तिको बढ़ाती है।
  • अरहर की पत्तियों से मृदा में जैविक कार्बन की मात्रा में बढ़ोतरी होती है। लगभग 40-50 कि.ग्रा. नाइट्रोजन अगली फसल को प्राप्त होती है।
  • मृदा में जैविक कार्बन की मात्रा बढ़ने से सूक्ष्म जीवाणुओं की गतिविधियां बढ़ती हैं। इससे पोषक तत्वों की उपलब्धता में बढ़ोतरी होती है।
  • अरहर की पत्तियों को मृदा में मिलाने से मृदा की भौतिक स्थिति में सुधार होता है और मृदा में जल धारण की क्षमता में वृद्धि होती है।
  • मृदा की संरचना में सुधार होने के कारण फसल की जड़ों का फैलाव अच्छा होता है ।
इस तकनीक को अपनाने से उपज में बढ़ोतरी के साथ खाद एवं उर्वरक का खर्चा भी कम होता है। अरहर की पत्तियों को खेत में गिराकर मृदा स्वास्थ्य में अत्यधिक सुधार कर सकते हैं। अरहर की अतिरिक्त कम अवधि (ईएसडी) वाली किस्मों को उगाकर गेहूँ की देरी से बुआई के प्रतिकूल प्रभाव कोभी दूर कर सकते हैं। साथ ही, जिन क्षेत्रों में पानी की कमी की स्थितियां हैं, वहां यह प्रोटीन-ऊर्जा-कुपोषण (पीईएम) से निपटने में भी वरदान सिद्ध होगी।