प्रदीप कुमार साहू (यंग प्रोफेसनल-II)
डॉ. आई.एस. नरूका (वरिष्ठ वैज्ञानिक मसाला एवंरोपण फसल)
डॉ. अजय हलदार (वैज्ञानिक मसाला एवंरोपण फसल)
डॉ. आर.एस. चुण्डावत (वैज्ञानिक औषधीय एवं सुगंधित फसल) 
उद्यानिकी महाविद्यालय मंदसौर, राजमाता विजयाराजे सिंधिया 
कृषि विश्वविद्यालय ग्वालियर, मध्यप्रदेश

जीरा बीज मसाले के रूप में उत्पादित की जाने वाली नगदी फसल है। जिसमें औषधीय गुण भी होते हैं। राजस्थान, गुजरात एवं मध्यप्रदेश के इन क्षेत्रों मे जीरा उत्पादन अत्यधिक होता है। भारत का 90 प्रतिशत जीरा उत्पादन राजस्थान में किया जाता है। 100 से 110 दिन में तैयार होने वाली इस फसल का अंग्रेजी नाम क्यूमीन (क्यूमीनम साइमिनम) एवं कुल अम्बेलीफेरी है। इसमें सुगंध एल्कोहॉल, क्युमिनॉल के कारण होती है। इसके अलावा 18.7 प्रतिशत प्रोटिन एवं 2-4 प्रतिशत वाष्पशील तेल होता है। राष्ट्रीय औसत उत्पादन 283 किलो प्रति हेक्टेयर होता है। जबकि जीरे की अधिकतम उत्पादन क्षमता 1457 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर देखी गई है। मसाले के अलावा जीरा है जो पित्त, मस्तिष्क की कमजोरी, नजला जुकाम, अतिसार एवं पिलिया रोग में भी लाभदायक है।

जलवायु एवं मिट्टी
रबी मौसम में पाला रहित क्षेत्र में हल्की जल निकास वाली भूरी दोमट मिट्टी में इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। फरवरी मार्च में फसल पक रही हो तो शुष्क मौसम एवं बादल रहित होना चाहिए। अन्यथा कीट व्याधी से जीरे का उत्पादन अत्यधिक प्रभावित होता है। एक ही खेत में लगातार फसल लेने से भी कीट व्याधी का प्रकोप बढ़ता है। औसत वर्षा 750 से 900 मि.मि. उपयुक्त होती है। फूल एवं फल बनते समय पाला अत्यधिक घातक होता है।

किस्में:-
1. आर.एस. 1:- यह जल्दी पकने वाली किस्म है जो 80-90 दिन में पककर 6-10 क्वि. प्रति हेक्टेयर उत्पादन देती है। किस्म हल्की भूमी के लिए उपयुक्त होने के साथ-साथ उकठा रोगरोधी है।

2. एम.सी. 43:- आर.एस. 1 किस्म से मिलती-जुलती किस्म है जो स्थानीय किस्मों की तुलना में 10-12 प्रतिशत अधिक उत्पादन देती है।

3. यु.एस. 19 तथा यु.एस. 198:- इन किस्मों को रोगों के प्रतिरोधक क्षमता वाला माना जाता है। यह भी स्थानीय किस्म से अधिक उत्पादन देती है तथा दानों में 5-6 प्रतिशत तेल पाया जाता है।

4. गुजरात जीरा 1 एवं 2:- इन किस्मों का दाना आकर्षक एवं बड़ा होता है। उत्पादन भी स्थानीय किस्मों से अधिक होता है। गुजरात जीरा 1 अपेक्षाकृत अधिक अच्छा पाया गया है।

5. सेलेक्शन 7-3:- यह किस्म उकठा रोगरोधी क्षमता पाई गई है। उक्त किस्म के अलावा आर.जेड. 19 सी.जी.एस. 182 टी.-4 भी जीरे की किस्म है।

खेत की तैयारी
अच्छी तरह जुताई कर मिट्टी को भुरभुरा बना लिया जाता है। सिंचाई व्यवस्था के साथ-साथ समुचित जल निकास प्रबंध किया जाता है। खेत को छोटी-छोटी क्यारी में बांट दिया जाता है। जिससे आवश्यकता अनुसार सिंचाई की जा सके। जीरे में तीन सिंचाई देना चाहिए बोने के बाद 7 दिन तथा 27 दिन बाद इसके बाद सिंचाई नही करना चाहिए। फूल आने के पूर्व आवश्यकता होने पर एक सिंचाई और दी जा सकती है।

खाद एवं उर्वरक
जीरे की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 20-25 टन अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर खेत की तैयारी के अंतिम जुताई के समय मिट्टी में मिलाना चाहिए। साथ ही 20 किग्रा नाइट्रोजन, 25-30 किग्रा. फॉस्फोरस एवं 20 किग्रा. पोटाश भी देना चाहिए। 10 किग्रा. बोवाई के 30 दिनबादतथा 10 किग्रा. फूलआने के समय देवें।असिंचित क्षेत्र में 10 किग्रा. नाइट्रोजन एवं 10 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर बोवाई के समय देना चाहिए।

बीजदर एवं बोवाई
जीरे की अंकुरण क्षमता एक वर्ष तक रहती है तथा 70 प्रतिशत अंकुरण क्षमता अच्छा माना जाता है। प्रति हेक्टेयर 10-12 किग्रा. बीज छिटकवा विधि से बोवाई करने पर लगता है। जबकि कतारों में बोवाई करने पर यह मात्रा 8-9 किग्रा. प्रति हेक्टेयर लगती है। कतारों की दूरी 20-25 सेमी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 5-8 सेमी. रखना चाहिए बीजों को बाविस्टिन या डाइथेन एम.-45 या थायरम से 2-3 ग्राम प्रतिकिलो बीज की दर से उपयोग कर उपचारित करना चाहिए। बोवाई का समय 15 अक्टूबर से 15 नवंबर तक कर देना चाहिए। 20 नवंबर को बोने का उपयुक्त समय माना गया है। जीरे का अंकुरण 10-15 दिनों में हो जाता है। 10-15 सेमी. के पौधे होने पर पौधे की छंटाई की जाती है।

निंदाई-गुड़ाई एवं सिंचाई
बोवाई के बाद हल्की सिंचाई करना चाहिए। इस बात पर ध्यान देना चाहिए की बीज बहकर एकत्रित न होने पाये अथवा मिट्टी में गहरे दब न जायें। अंकुरण उपरांत पहली सिंचाई फल बनते समय देना चाहिए। ताकि फिर पानी देने की आवश्यकता न पड़े फल पकते समय पानी नही देना चाहिए। जिन क्षेत्रों में जीरे की वर्षा आधारित फसल (जुलाई में बोई जाती है) लेने पर जब वर्षा का अभाव होतो सिंचाई आवश्कता अनुसार करनी चाहिए। जीरे का एक खतरनाक खरपतवार (प्लान्टेगो पूमिला) जंगली है जो बीजों मे कई बार 20 प्रतिशत तक मिला हुआ पाया गया है। नियंत्रण के लिए फल आने के समय इसे सावधानीपूर्वक उखाड़कर अलग कर देना चाहिए। इसे रासायनिक खरपतावरनाशक फ्लुक्लोरिन 0.75 से 1 किग्रा. प्रति हेक्टेयर अंकुरण पूर्व छिड़काव कर नियंत्रित किया जा सकता है।

कीट व्याधी
जीरे की फसलमें पमुख कीट के रूप में माहू एवं पत्ती खाने वाली इल्ली का प्रकोप पाया जाता है। जिसके नियंत्रण के लिए फॉस्को मिडान एवं इल्ली के लिए मेटासिस्टॉक्स का छिड़काव करना चाहिए। जीरे के रोगों मे पावडरी मिल्डयू (सफेद चूर्ण) का पत्तियों एवं तनों पर दिखाई देता है जिससे पत्तियां झुलसकर पौधे सिर झुका देते हैं एवं उकठा रोग (हरे पौधे मुरझा जाते हैं) प्रमुख है। इससे फसल को अत्यधिक हानि होती है। पाउडरी मिल्डयू को नियंत्रित करने के लिए 20 से 25 किलोग्राम गंधक चूर्ण फूल आते समय छिड़काव करें अथवा 0.5 प्रतिशत डाइथेन एम. 45 या फाइटोलॉन का छिड़काव करें। 10 दिन बाद आवश्कता अनुसार होने पर पुनः छिड़काव करें। उकठा रोग हेतु रोगरोधी किस्म सेलेक्शन 7-3 अपनाएं और बीजोपचार करके बोवाई करें। रोगग्रसित खेत में 2-3 वर्ष तक जीरा की फसल नही लेना चाहिए फसल चक्र अपनावें। कटाई-गहाई एवंउपज:-जीरे की फसल बुवाई उपरांत 90-100 दिन में पककर तैयार हो जाती है। जब पौधे पीले पड़ जाए तो फसल की कटाई करके पहले हल्की धूप में सुखा लेते हैं। डण्डे से पीटकर जीरे को पौधों से अलग कर लिया जाता है। बीज साफकर के सूखाकर पॉलिथिन लगे बोरी में भरकर संग्रहित किया जाता है। जीरे की 12-15 क्विं. प्रति हेक्टेयर से अधिक उपज कृषकों द्वारा लिया जाता है।