पायल व्यास, अभय बिसेन योगेश्वरी साहू एवं आंचल जायसवाल
उद्यानिकी विभाग, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र कटघोरा, कोरबा (छ.ग.)
परिचय
भारत में आलू का उत्पादन मुख्यतः सब्जी के लिए किया जाता है। इसकी खेती रबी मौसम या शरदऋतु में की जाती है। इसकी उपज क्षमता समय के अनुसार सभी फसलों से ज्यादा है इसलिए इसको अकाल नाशक फसल भी कहते हैं। इसका प्रत्येक कंद पोषक तत्वों का भण्डार है, जो बच्चों से लेकर बूढों तक के शरीर का पोषण करता है। सब्जी के अलावा इसका उपयोग डॉइस, रवा, आटा, फलेक, चिप्स, फ्रेंच फ्राई, बिस्कुट इत्यादि बनाने में किया जाता है| इसके अतिरिक्त इस से अच्छे प्रकार का स्टार्च, अल्कोहल आदि और द्विपदार्थ के रूप में अच्छा प्रोटीन भी मिलता है|अब तो आलू एक उत्तम पोष्टिक आहार के रूप में व्यवहार होने लगा है। बढ़ती आबादी के कुपोषण एवं भुखमरी से बचाने में एक मात्र यही फसल मददगार है।
मिट्टी और जलवायु
दोमट तथा बलुई दोमट मिट्टियाँ जिसमें जैविक पदार्थ की बहुलता हो आलू की खेती के लिए उपयुक्त है। अच्छी जल निकासवाली, समतल और उपजाऊ जमीन आलू की खेती के लिए उत्तम मानी जाती है आलू की खेती में तापमान का अधिक महत्त्व है। आलू की अच्छी उपज के लिए औसत तापमान कंद बनने के समय 17 से 21 डिग्री सेंटीग्रेड उपयुक्त माना जाता है।
खेत का चयन
ऊपर वाली भीठ जमीन जो जल जमाव एवं ऊसर से रहित हो तथा जहाँ सिंचाई की सुविधा सुनिश्चित हो वह खेत आलू की खेती के लिए उपयुक्त है। खरीफ मक्का एवं अगात धान से खाली किए गए खेत में भीइसकी खेती की जाती है।
खेत की जुताई
ट्रैक्टर चालित मिट्टी पलटने वाले डिस्क प्लाउ या एम.बी. प्लाउ से एक जुताई करने के बाद डिस्क हैरो 12 तबा से एक बार करने के बाद कल्टी वेटर यानि नौफारा से एक बार करने के बाद खेत आलू की रोपनी योग्य तैयार हो जाता है। प्रत्येक जुताई में दो दिनों का अंतर रखने से खर-पतवार में कमी आती है तथा मिट्टी पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक जुताई के बाद ही तथा खर-पतवार निकालने की व्यवस्था की जाती है। ऐसा करने से खेत की नमी बनी रहेगी तथा खेत खर-पतवार से मुक्त हो जाएगा।
खर-पतवार से मुक्ति के लिए जुताई से एक सप्ताह पूर्व राउंड अप नामक तृणनाशी दवा जिसमें ग्लायफोसेट नामक रसायन (42 प्रतिशत) पाया जाता है उसका प्रति लीटर पानी में 2.5 मिली लीटर दवा का घोल बनाकर छिड़काव करने से फसल लगने के बाद खर-पतवार में काफी कमी हो जाती है।
खाद एवं उर्वरक
आलू बहुत खाद खाने वाली फसल है। यह मिट्टी के ऊपरी सतह से ही भोजन प्राप्त करती है। इसलिए इसे प्रचुर मात्रा में जैविक एवं रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता होती है। इसमें सड़े गोबर की खाद 200 क्विंटल तथा 5 क्विंटल खल्ली प्रति हें. की दर से डाला जाता है। खल्ली में अंडी, सरसों, नीम एवं करंज जो भी आसानी से मिल जाय उसका व्यवहार करे। ऐसा करने से मिट्टी की उर्वराशक्ति हमेशा कायम रहती है तथा रासायनिक उर्वरक पौधों को आवश्यकतानुसार सही समय पर मिलता रहता है।
रासायनिक उर्वरकों में 150 किलोग्राम नेत्रजन 330 किलोग्राम यूरिया के रूप में प्रति हें. की दर से डाला जाता है। यूरिया की आधी मात्रा यानि 165 किलोग्राम रोपनी के समय तथा शेष 165 किलोग्राम रोपनी के 30 दिन बाद मिट्टी चढ़ाने के समय डाला जाता है। 90 किलोग्राम स्फुर तथा 100 किलोग्राम पोटाश प्रति हें. की दर से डाला जाता है। स्फुर के लिए डी.ए.पी. या सिंगल सुपर फास्फेट दोनों में से किसी एक ही खाद का प्रयोग करें। डी.ए.पी. की मात्रा 200 किलोग्राम प्रति हें. तथा सिंगल सुपर फास्फेट की मात्रा 560 किलोग्राम प्रति हें. तथा पोटाश के लिए 170 किलोग्राम म्यूरिएट ऑफ़ पोटाश प्रति हें. की दर से व्यवहार करें।
सभी उर्वरकों को एक साथ मिलाकर अंतिम जुलाई के पहले खेत में छिंठ कर जुताई के बाद पाटा देकर मिट्टी में मिला दिया जाता है। रोपनी के समय आलू की पंक्तियों में खाद डालना अधिक लाभकर है परन्तु ध्यान रहे उर्वरक एवं आलू के कंद में सीधा सम्पर्क न हो नहीं तो कंद सड़ सकता है। इसलिए व्हील हो या लहसूनिया हल से नाला बनाकर उसी में खाद डालें। खाद की नाली से 5 से 10 सेंमी. की दूरी पर दूसरी नाली में आलू का कंद डालें। यदि पोटेटो प्लांटर उपलब्ध हो तो उसके अनुसार उर्वरक प्रयोग में परिवर्तन किया जा सकता है।
रोपनी का समय
हस्त नक्षत्र के बाद एवं दीपावली के दिन तक आलू रोपनी का उत्तम समय है। वैसे अक्टूबर के प्रथम सप्ताह से लेकर दिसम्बर के अंतिम सप्ताह तक आलू की रोपनी की जाती है। परन्तु अधिक उपज के लिए मुख्यकालीन रोप 5 नवम्बर से 20 नवम्बर तक पूरा कर लें।
प्रभेदों का चयन
आवश्यकता एवं इच्छा के अनुसार प्रभेदों का चयन करें। राजेन्द्र आलू -3, कुफ्री ज्योति, कुफ्री बादशाह, कुफ्री पोखराज, कुफ्री सतलज, कुफ्री आनन्द एवं कुफ्री बहार मधय अगात के लिए प्रचलित प्रभेद हैं जो 90 दिन से लेकर 105 दिनों में परिपक्व हो जाता है।
राजेन्द्र आलू -1, कुफ्री सिंदुरी एवं कुफ्री लालिमा आलू के प्रचलित पिछात प्रभेद हैं जो 120 दिन से लेकर 130 दिन तक परिपक्व हो जाते है।
बीज दर
आलू का बीज दर इसके कंद के वजन, दो पंक्तियों के बीच की दूरी तथा प्रत्येक पंक्ति में दो पौधों के बीच की दूरी पर निर्भर करता है। प्रति कंद 10 ग्राम से 30 ग्राम तक वजन वाले आलू की रोपनी करने पर प्रति हें. 10 क्विंटल से लेकर 30 क्विंटल तक आलू के कंद की आवश्यकता होती है।
बीजोपचार
शीत-भंडार से आलू निकालने के बाद उसे त्रिपाल या पक्की फर्श पर छायादार एवं हवादार जगह में फैलाकर कम से कम एक सप्ताह तक रखा जाता है। सड़े एवं कटे कंद को प्रतिदिन निकालते रहना चाहिए। जब आलू के कंद में अंकुरण निकलना प्रारंभ हो जाय तब रासायनिक बीजोपचार के बाद रोपनी करनी चाहिए।
रासायनिक बीजोपचार
शीत भंडार से निकाले कंद को फफूंद एवं बैक्टिरिया जनित छुआ-छुत रोगों से सुरक्षा के लिए फफूंदनाशक एवं एन्टीवायोटिक दवा का व्यवहार किया जाता है। इसके लिए ड्राम, बाल्टी, नाद या टिन में नाप कर पानी लिया जाता है। प्रति लीटर पानी में 5 ग्राम इमिशान-6 तथा आधाग्राम यानि 500 मिलीग्राम स्ट्रोप्टोसाइक्लिन एन्टीवायोटिक दवा का पाउडर मिलाकर घोल तैयार किया जाता है। इस घोल में कंद को 15 मिनट तक डुबाकर रखने के बाद घोल से आलू को निकाल कर त्रिपाल या खल्ली बोरा पर छायादार स्थान में फैला कर रखा जाता है ताकि कंद की नमी कम हो जाय। घोल बहुत गंदा हो जाने पर या बहुत कम हो जाने पर उस घोल को फेंक कर फिर से पानी डालकर नया घोल तैयार कर लिया जाता है। फफूंदनाशक दवाओं में घोल तैयार करने वास्ते इमिशान-6 सस्ता पड़ता है। इसके अभाव में इन्डोफिल एम.-45, कैप्टाफ या ब्लाइटाक्स 2.5 ग्राम मात्र प्रति लीटर पानी में घोलकर घोल बनाया जा सकता है। इसका मतलब है कि रासायनिक बीजोपचार आवश्यक है। ऐसा करने से खेत में आलू की सड़न रुक जाती है तथा कंद की अंकुरण क्षमता बढ़ जाती है।
रोपने की दूरी
आलू को शुद्ध फसल के लिए दो पंक्तियों के बीच की दूरी 40 सें.मी. से लेकर 600 सें.मी. तक रखें परन्तु, मक्का में आलू की अंतरवर्ती खेती के लिए दो पंक्तियों के बीच की दूरी 60 सें.मी. रखें। यदि ईख में आलू की अंतरवर्ती खेती करनी हो तो ईख की दो पंक्तियों के बीच की दूरी के आधार पर ईख को दो पंक्तियों के बीच में 40 सें.मी. से लेकर 50 सें.मी. की दूरी पर आलू की दो पंक्तियाँ रखें। प्रत्येक कतार में दो कंद के बीच की दूरी 15 सें.मी. से लेकर 20 सें.मी. तक रखें। छोटे कंद को 15 सें.मी. की दूरी पर तथा बड़े कंद को 20 सें.मी. की दूरी पर रोपनी करें।
रोपनी की विधि
आलू रोपने के समय ही कुदाली से मिट्टी चढ़ाकर लगभग 15 सें.मी. ऊँचा मेड बना दिया जाता है तथा उसे कुदाली से हल्का थप-थप कर मिट्टी दबा दिया जाता है ताकि मिट्टी की नमी बनी रहे तथा सिंचाई में भी सुविधा हो। यदि सुविधा हो तो बड़े खेत में पोटेटो प्लांटर से भी रोपनी की जाती है। इसके द्वारा समय एवं श्रम दोनों की बचत होती है।
यदि आलू में मक्का लगाना चाहते है तो आलू की मेड के ठीक नीचे सटाकर आलू रोपनी के पाँच दिन के अंदर खुरपी से 30 सें.मी. की दूरी पर मक्का बीज की बुआई कर दें। ऐसा करने से आलू के साथ सिंचाई में भी बाधा न होगी। मक्का-आलू साथ लगाने पर मक्का के लिए पूरी खाद की मात्रा तथा आलू के लिए आधी खाद की मात्रा का प्रयोग करें। मक्का-आलू साथ लगाने पर एक ही खेत से एक ही सीजन में कम लागत में दोनों फसल की प्राप्ति हो जाती है तथा आलू का क्षेत्रफल भी बढ़ सकता है। बचे हुए खेत में दूसरी फसल लगायी जा सकती है।
सिंचाई
चूँकि खाद की मात्रा ज्यादा रखी जाती है इसलिए रोपनी के 10 दिन बाद परन्तु 20 दिन के अंदर ही प्रथम सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। ऐसा करने से अकुरण शीघ्र होगा तथा प्रति पौधा कंद की संख्या बढ़ जाती है जिसके कारण उपज में दो गुणी वृद्धि हो जाती है। प्रथम सिंचाई समय पर करने से खेत में डाले गए खाद का उपयोग फसलों द्वारा प्रारंभ से ही आवश्यकतानुसार होने लगता है। दो सिंचाई के बीज का समय खेत की मिट्टी की दशा एवं अनुभव के आधार पर घटाया बढ़ाया जा सकता है। फिर भी दो सिंचाई के बीच 20 दिन से ज्यादा अंतर न रखें। खुदाई के 10 दिन पूर्व सिंचाई बंद कर दें। ऐसा करने से खुदाई के समय कंद स्वच्छ निकलेंगे। ध्यान रखें प्रत्येक सिंचाई में आधी नाली तक ही पानी दें ताकि शेष भाग रिसाब द्वारा जम हो जाय।
अंतरकर्षण
प्रथम सिंचाई के बाद यानि रोपनी के 25 दिन बाद खुरपी से खर-पतवार निकाल दिया जाता है। पूरी फसल अवधि में दो बार निकाई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है।
मिट्टी चढ़ाना
रोपनी के 30 दिन बाद दो पंक्तियों के बीच में यूरिया का शेष आधी मात्रा यानि 165 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डालकर कुदाली से मिट्टी बनाकर प्रत्येक पंक्ति में मिट्टी चढ़ा दिया जाता है तथा कुदाली से हल्का थप-थपाकर दबा दिया जाता है ताकि मिट्टी में पकड़ बनी रहें।
पौध संरक्षण
भूमिगत कीटों से सुरक्षा हेतु रोपनी के समय ही फोरेट-10 जी या डर्सभान 10 जी. जिसमें क्लोरोपायरिफास नामक कीट नाशी दवा रहता है उसका 10 किलोग्राम प्रति हें. की दर से उर्वरकों के साथ ही मिलाकर रोपनी पूर्व व्यवहार किया जाता है। ऐसा करने से धड़ छेदक कीटों से जी मिट्टी में ही दबे रहते हैं उसे सुरक्षा मिल जाती है।
पिछात झुलसा रोग से बचाव के लिए 20 दिसम्बर से लेकर 20 जनवरी तक 10 से 15 दिन के अंतराल पर फफूंदनाशक दवा का छिड़काव करें। प्रथम छिड़काव में इन्ड़ोफिल एम-45, दूसरे छिड़काव में ब्लाइटॉक्स एवं तीसरे छिड़काव में इन्ड़ोफिल एम-45, दूसरे छिड़काव में ब्लाइटॉक्स एवं तीसरे छिड़काव में आवश्यकतानुसार रीडोमील फफूंदनाशक दवा का 2.5 ग्राम/लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। प्रति हेक्टेयर 2.5 किलोग्राम दवा एवं 1000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। लगभग 60 टिन पानी प्रति हें. लग जाता है। ऐसा करने से फसल सुरक्षा बढ़ जाती है।
14 जनवरी के आस-पास लाही गिरने का समय हो जाता है। यदि लाही का प्रकोप हो तो मेटासिस्टोक्स नामक कीटनाशी दवा का प्रति लीटर पानी में एक मिली. दवा डालकर स्प्रे किया जाता है। दवा नापने के लिए प्लास्टिक सिरीज का व्यवहार करें। लाही नियंत्रण से आलू में कुकरी रोग यानि लीफ रोल नाम विषाणु रोग का खतरा कम हो जाता है।
पाला से फसल का बचाव
आमतौर पर पछेती फसल पर पाला का असर ज्यादा होता हैं। अगेती फसल की खुदाई जनवरी माह तक हो जाती है। इसलिए इस पर पाला का असर नहीं होता| पछेते आलू में दिसम्बर और जनवरी माह के अधिक ठंढा की आंशका होने पर फसल की सिचाई कर देनी चाहिये| जमीन भींगी रहने पर पाला का असर कम हो जाता है।
देखभाल
आलू रोपनी के 60 दिन बाद प्रत्येक पंक्ति में घूमकर फसल को देखा करें। यदि आलू का कंद दिखलाई पड़े तो उसे मिट्टी से ढँक दें नहीं तो उसका रंग हरा जो जायगा। तथा कंदों का बढ़ना रुक जायगा। चूहा द्वारा क्षति का भी अंदाज लग जायगा। चूहा के आक्रमण पर प्रत्येक बिल में 10 ग्राम थीमेट नामक कीटनाशी दवा डालकर छेद को बंद कर दें। ऐसा करने से चूहा बिल में ही मर जायगा या नहीं तो खेत छोड़कर भाग जायगा।
लत्तर काटना
यदि आलू को बीज के लिए या अधिक दिनों तक रखना हो तो परिपक्वता अवधि पूरी होने पर लत्तर काट दें। लत्तर काटने के 10 दिन बाद खुदाई करें। ऐसा करने से कंद का छिलका मुटाता है। जिससे आलू की भंडारण क्षमता बढ़ती है तथा सडन में कमी आती है।
खुदाई
बाजार भाव एवं आवश्यकता को देखते हुए रोपनी के 60 दिन बाद आलू का खुदाई की जाती है। यदि भंडारण के लिए आलू रखना हो तो कंद की परिपक्वता की जाँच के बाद ही खुदाई करें। परिपक्वता की जाँच के लिए कंद को हाथ में रखकर अंगूठा से दवाकर फिसलाया जाता है यदि ऐसा करने पर कंद का छिलका अगल नहीं होता है तो समझा जाता है कि कंद परिपक्व हो गया है। ऐसे कंद की खुदाई करने से भंडारण के कंद सड़ता नहीं है। खुदाई दिन के 12.00 बजे तक पूरा कर लेनी चाहिए। खुदे कंद को खुले धूप में न रखकर छायादार जगह में रखा जाता है। धूप में रखने पर भंडारण क्षमता घट जाती है। 15 मार्च तक आलू के सभी प्रभेदों की खुदाई अवश्य पूरी कर लेनी चाहिए। खुरपी या पोटेटो डीगर से खुदाई की जाती है। खुरपी से खुदाई करने पर ध्यान रहे आलू कटने न पावें। कहावत है – आलू नहीं कटती हैं, तकदीर कट जाती है।
यदि आलू को शीत भंडार भेजना है तो कटे एवं सड़े आलू की छाँटकर खुदाई के एक सप्ताह बाद बोरा में बंद कर भेज दें। प्रत्येक बोरा के अंदर प्रभेद का नाम लिख दें तथा बोरा के ऊपर भी अपना पता लिख दें।
उपज
परिपक्वता अवधि एवं अनुशंसित फसल प्रणाली को अपनाने पर रोपनी के 60 दिन बाद 100 क्विंटल, 75 दिन बाद 200 क्विंटल, 90 दिन बाद, 300 क्विंटल तथा 105 दिन बाद प्रभेद के अनुसार 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज प्राप्त की जाती है।
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