पादप कार्यिकी विभाग
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)
भारत के शुष्क भागों में उगाई जाने वाली कुसुम प्रमुख तिलहनी फसल है जिसमें सूखा सहने की क्षमता अन्य फसलों से ज्यादा होती है। कुसुम की खेती तेल तथा रंग प्राप्त करने के लिए की जाती है। इसके दाने में तेल की मात्रा 30-35 प्रतिशत होती है। तेल खाने-पकाने व प्रकाश के लिए जलाने के काम आता है। यह साबुन, पेंट, वार्निश, लिनोलियम तथा इनसे सम्बन्धित पदार्थों को तैयार करने के काम में भी लिया जाता है। इसके तेल से तैयार पेंट व वार्निश में स्थाई चमक व सफेदी होती है जो कि अलसी के तेल से बेहतर होती है। इसके तेल में उपस्थित पोली अनसैचूरेटेड वसा अम्ल अर्थात लिनोलिक अम्ल (78%) खून में कोलेस्ट्रॉल स्तर को नियंत्रित करता है, जिससे हृदय रोगियों के लिए विशेष उपयुक्त रहता है। इसका तेल सफोला ब्रांड के नाम से बेचा जाता है। इसके तेल से वाटर प्रूफ कपड़ा भी तैयार किया जाता है। इसके तेल से रोगन तैयार किया जाता है जो शीशे जोड़ने के काम आता है। इसके हरे पत्तों में लोहा व केरोटीन (विटामिन ए) प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। अतः इसके हरे व कोमल भाग स्वादिष्ट व पौष्टिक सब्जी बनाने के लिए सर्वोत्तम है। इसके फूल की पंखुड़ियों की चाय स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद रहती है। कुसुम फूलों में मुख्यतः रंगों के दो पदार्थ कार्थामिन (0.03-0.06 प्रतिशत) व पीली रंग (26-26 प्रतिशत) पाया जाता है। भारत वर्ष से कार्थामिन का निर्यात करके विदेशी पूंजी अर्जित की जा सकती है। कपड़े व खाने के रंगों में कुसुम का प्रयोग किया जाता है। कुसुम के छिले दानों से प्रापत खली पशुओं को खिलाने, बिना दानों से प्राप्त खली खाद के रूप में प्रयोग की जाती है। कुसुम के छिले दानों की खली में 10.9 प्रतिशत वसा, 45.54 प्रतिशत प्रोटीन, 20.1 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 8.3 प्रतिशत रेशा, 7.5 प्रतिशत राख, 7.88 प्रतिशत नत्रजन, 1.92 प्रतिशत पोटाश व 2.2 प्रतिशत फॉस्फोरिका अम्ल पाया जाता है। अतः पशुओं को खिलाने के लिए इसकी खली मूॅंगफली की खली से भी उत्तम रहती है। बिना छिले दानों से प्राप्त खली का प्रयोग खाद के रूप में किया जाता है, क्योंकि इसमें रेशा अधिक (23.1 प्रतिशत) मात्रा में होता है।
छत्तीसगढ़ राज्य में कुसुम फसल के अन्तर्गत क्षेत्र विस्तार हो रहा है। औसत उपज के मामले में यह प्रदेश कुसुम की राष्ट्रीय उपज तथा अन्य राज्यों के मुकाबले काफी पीछे (251 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर) है। छत्तीसगढ़ में कुसुम की खेती दुर्ग, बिलासपुर, रायपुर, राजनांदगांव एवं जांजगीर जिलों में प्रमुखता से की जा रही है। सबसे अधिक उत्पादन देने वाले प्रथम तीन जिलों में दुर्ग, बिलासपुर एवं रायपुर जिले आते हैं। दुर्ग, बिलासपुर एवं राजनांदगांव जिलों से सर्वाधिक उत्पादन प्राप्त होता है। कुसुम की औसत उपज सबसे अधिक जगदलपुर एवं कांकेर (1010 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर) जिलों से प्राप्त होती है। कुसुम सूखा सह फसल है तथा कम पानी में अधिकतम उपज दे सकती है। अतः प्रदेश में कुसुम उत्पादन एवं उपज बढ़ाने की अच्छी संभावनाएं है।
कुसुम या करडी की फसल से अधिकतम लाभ लेने हेतु निम्न सस्य तकनीक अपनाना चाहिए-
कुसुम की खेती सूखे तथा ठण्डे मौसम में की जाती है। इसकी जड़ें काफी गहराई से मृदा नमी का अवशोषण कर सकती है, इससे यह फसल सूखे को सहन कर सकती है। इसकी खेती 60-90 से.मी वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलता पूर्वक की जा सकती है। बीज अंकुरण के लिए 15-16 डिग्री सेंटीग्रेट तथा फूल आने के समय 24-32 डिग्री सेंटीग्रेट तापक्रम के मध्य होने से उपज अच्छी प्राप्त होती है। कुसुम एक अप्रदीप्तकाल फसल है परन्तु लम्बे प्रकाशकाल में अधिक उपज देती है। पाले से कुसुम की फसल को क्षति होती है।
भूमि का चयन एवं खेती की तैयारी
रेतीली भूमि को छोड़कर कुसुम उत्तम जल निकास वाली सभी प्रकार की भूमि में उगाई जा सकती है। उत्तर भारत में कुसुम को सामान्यतः बलुई दोमट या दोमट भूमि में ही बोते हैं परन्तु दक्षिण भारत में इसकी खेती प्रायः भारी कपास की काली मिट्टी में की जाती है। मध्यम भारी किस्म की भूमि इसके लिए अधिक उपयुक्त होती है। हल्की एल्यूवियल मृदाओं में कुसुम की अच्छी उपज आती है। लवणीय मृदा में कुसुम को उगाया जा सकता है परन्तु अम्लीय भूमि में इसकी खेती नहीं की जा सकती है। बहुत अधिक उपजाऊॅं भूमि में पौध वृद्धि अधिक होती है तथा बीज कम बनते हैं।
कुसुम की खेती के लिए अधिक भूपरिष्करण की आवश्यकता नहीं रहती। खरीफ की फसल काटने के पश्चात् 2-3 बार हल या बखर से जुताई करके पाटा चलाकर खेत को ढेले रहित भुरभुरा एवं समतल कर लेना चाहिए।
कुसुम बुवाई का समय
वर्षा ऋतु समाप्त होने ही सितम्बर माह के अंतिम सप्ताह से लेकर अक्टूबर के प्रथम सप्ताह तक इसकी बोनी करनी चाहिए। बरानी क्षेत्रों में अक्टूबर माह के बाद इसकी बोनी करना लाभप्रद नहीं, क्योंकि देरी से बोनी करने से फसल पर न केव एफिड का प्रकोप अधिक हो जाता है, वरन प्रति हेक्टेयर उपज भी कम प्राप्त होती है। सिंचित क्षेत्रों में अक्टूबर के अंत तक इसकी बोनी की जा सकती है।
उन्नत किस्में
पहले कुसुम की कॉंटे दार किस्मों में सस्य क्रियाएं व कटाई-मड़ाई सम्पन्न करने में कठिनाई होती थी, परन्तु अब बिना कांटे वाली उन्नत किस्में भी विकसित हो चुकी है। आमतौर पर कॉंटेदार किस्में तेल के उद्देश्य से व कॉंटे रहित किस्में रंग, चारे व सब्जी के उद्देश्य से उगाई जाती है। कॉंटे रहित अर्थात रंग के लिए उगाई गई किस्मों में नारंगी या पीले स्कारलैट रंग के आते हैं। कॉंटेदार अर्थात तेल के लिए उगाई गई किस्मों में पीले रंग के फूल ही अक्सर आते हैं।
छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त कुसुम की प्रमुख संकर एवं उन्नत किस्मों की विशेषताएं यहां प्रस्तुत है-
जेएसए-1 (श्वेता): यह किस्म 135-145 दिन में तैयार होती है, जिसकी उत्पादन क्षमता 16-20 क्विंटल प्रति हैक्टेयर आंकी गई है। भुनगा (एफिड) की प्रतिरोधी किस्म है।
जेएसएफ-5 (जवाहर कुसुम): यह देरी से पकने वाली किस्म है जो लगभग 145 से 150 दिनों में पक जाती है। इसका दाना सफेद, ठोस तथा लम्बा एवं छोटा होता है। औसत पैदावार लगभग 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा बीज में तेल की मात्रा 35 से 36 प्रतिशत होती है । यह बिना कॉंटों वाली किस्म है। इस किस्म पर एफिड कीट प्रकोप कम होता है।
जेएसआई-7ः यह देरी से पकने वाली किस्म है जो लगभग 130 दिनों में पक जाती है। औसत उपज लगभग 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा इसके बीज में तेल की मात्रा 30 प्रतिशत होती है। यह बिना कॉंटों वाली किस्म है।
एनएआरआई-6ः यह 117-137 दिन में तैयार होती है। इसका दाना सफेद चमकीला होता है। औसतन पैदावर लगभग 10-11 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा तेल की मात्रा 35 प्रतिशत होती है। यह एक कॉंटेरहित किस्म है जो उकठा व पत्ती वाले रोगों के प्रति सहनशील पाई गई है।
डीएसएच-129ः कुसुम की यह संकर 129 दिन में तैयार होकर लगभग 19.89 क्विंटल उपज देती है। आल्टरनेरिया, लीफ ब्लाइट रोग तथा एफिड कीट रोगी है। इसके 100 दानों का भार 7 ग्राम तथा तेल की मात्रा 31 प्रतिशत होती है।
एनएआरआईएनएच-1ः यह 130 दिन में तैयार होने वाली विश्व की प्रथम कांटों रहित संकर कुसुम है। इसकी दानो की उपज 19.36 क्विंटल के अलावा 2.15 क्ंिवटल प्रति हैक्टेयर उपयोगी फूल भी प्राप्त होते हैं। इसके 100 दानों का भार 3.8 ग्राम तथा इनमें 35 प्रतिशत तेल पाया जाता है। उकठा रोग प्रतिरोधी है।
जे.एस.आई.-73ः यह देरी से पकने वाली किस्म है जो कि लगभग 147 दिन में पक जाती है। औसत उपज लगभग 14.50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा इसके बीज में तेल की मात्रा 31 प्रतिशत होती है। यह बिना कॉंटों वाली किस्म है।
जे.एस.एफ.-97ः यह 132 दिन में पकने वाली कॉंटेरहित किस्म है जो कि लगभग 15-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है तथा इसके बीज में तेल की मात्रा 30 प्रतिशत होती है। पौधों की लम्बाई 90 से.मी., पुष्प प्रारम्भ में पीले तथा बाद में मौसमी लाल रंग के हो जाते हैं।
जे.एल.एस.एफ.-414 (फुले कुसुम): यह सूखा सहनशील किस्म है जो 125-140 दिनों में पक जाती है। असिंचित अवस्था में औसतन 12-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है तथा इसके बीज में तेल की मात्रा 28-29 प्रतिशत होती है।
एमकेएच-11ः यह संकर 130 दिन में तैयार होती है जिसकी उपज क्षमता 19 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। दानों में तेल की मात्रा 31 प्रतिशत होती है।
बीज दर व बीजोपचार
बीज दर बोने की विधि, खेत में नमी की मात्रा, बोई जाने वाली किस्म तथा बीज की अंकुरण क्षमता पर निर्भर करती है। कुसुम की बुवाई के लिए सिंचित दशा में 10-15 कि.ग्रा. असिंचित दशा के लिए 15-20 कि.ग्रा. तथा मिश्रित फसल के लिए 4-5 कि.ग्रा. प्रति हे. बीज की आवश्यकता पड़ती है। बोनी के पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम (2 ग्राम प्रति किग्रा. बीज) से बीजोपचार करना चाहिए। इससे जड़ सड़न रोग नहीं लगता। कुसुम के बीज का बाहरी खोल बहुत अधिक सख्त रहता है। अतः बीज को करीब 24 घंटे तक पानी में भिगोकर बाद में बोना चाहिए। इससे बीज का खोल मुलायम पड़ जाता है और अंकुरण जल्दी हो जाता है।
बोआई की विधियॉं
कुसुम की बोआई छिंटकवां विधि, हल के पीछे कूंड में तथा सीड ड्रिल से करना उचित रहता है। कुसुम की सिंचित शुद्ध फसल 40-50 से.मी. तथा वर्षा पोषित फसल 60 सेमी की दूरी पर बोना चाहिए। दोनो ही परिस्थितियों में पौधे से पौधे की दूरी 20-25 सेमी रखना चाहिए। बारानी या असिंचित्वस्था में 111,000 पौधे तथा सिंचित दशा में 75000-80000 पौध संख्या प्रति हैक्टेयर अच्छी उपज के लिए आवश्यक रहती है। बुवाई 3-5 सेमी की गहराई पर करना चाहिए। खाद बीज से 2 से 4 सेमी नीचे तथा नमी में पड़ना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक देने से बढ़ती है उपज
बहुधा किसान कुसुम में खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग नहीं करते है। परन्तु कुसुम में उर्वरकों को सही और संतुलित मात्रा में देने से ही अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। खेत की अंतिम जुताई के समय 2 या 3 वर्ष में एक बार 10-12 टन गोबर की खाद प्रति हैक्टेयर के हिसाब से मिलाना चाहिए। असिंचित क्षेत्रों तथा हल्की जमीनों में 30 किलो नत्रजन एवं 30 किलो स्फूर प्रति हैक्टेयर के हिसाब से तथा भारी काली जमीन में 40 किलो नत्रजन तथा 40 किलो स्फूर प्रति हैक्टेयर देना चाहिए। इनके अलावा 10-20 किग्रा प्रति हैक्टेयर पोटाश देना लाभकारी पाया गया है। उर्वरक की मात्रा मृदा परीक्षण के आधार पर कम या अधिक की जा सकती है। उर्वरकों को बोनी के समय कू़ड़ों में ही डालना चाहिए। नत्रजन, फॉस्फोरस व पोटाश को क्रमशः अमोनियम सल्फेट, सिंगल सुपर फास्फेट व पोटेशियम सल्फेट उर्वरक से देना चाहिए। इन उर्वरकों से फसल को गन्धक भी प्राप्त हो जाता है, जिससे तेल की मात्रा व गुणों में सुधार होता है।
सीमित सिंचाई से बेहतर उपज
कुसुम की खेती प्रायः बारानी दशा में की जाती है और कुसुम को सुखा सह-फसल माना जाता है, परन्तु फसल की क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई करने से अधिक उपज प्राप्त होती है। सिंचाई की सुविधा होने पर दो सिंचाई, पहली बुवाई के 30 दिन बाद व दूसरी सिंचाई फूल आते समय देने पर अधिक उपज प्राप्त होती है। कुसुम की पुष्पावस्था व दाना भरने की अवस्था पन नमी की कमी से उपज में गिरावट आती है। खेत में जल निकास अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि थोड़ जल भराव से ही फसल को क्षति होती है।
खरपतवार नियंत्रण
कुसुम के बीज बोने के 4-6 दिन में अंकुरित हो जाते है। फसल की प्रारंभिक अवस्था में दो बार खुरपी या कुदाल से निराई-गुड़ाई की जाती है। पहली निराई-गुड़ाई बुआई के 20 दिन बाद तथा दूसरी बुआई के 40 दिन बाद करने से खरपतवार नियंत्रण में रहते हैं और पौध वृद्धि अच्छी होती है। बोने के 10-15 दिन बाद कुसुम के घने पौधों को उखाड़कर पौधों के बीच आवश्यक अंतरण स्थापित कर लेना चाहिए। उखाड़े गये पौधों का उपयोग भाजी के रूप में किया जा सकता है। फसल के जीवन काल में एक बार पौधों पर मिट्टी चढ़ाना भी लाभदायक पाया गया है, परन्तु यह क्रिया प्रचलन में नहीं है। खरपतवारों के रासायनिक नियंत्रण हेतु फ्लूक्लोरालिन 1.5 किग्रा. प्रति हे. को 800 लीटर पानी में घोलकर अंकुरण पूर्व खेत में छिड़कना चाहिए। अधिकतम पैदावार के लिए पौधे जब डेढ़ या दो माह के हो जावें तब उनकी ऊपरी शाखा (फगुनी) को तोड़ देना चाहिए। सर्वप्रथम पौध की मध्य शाखा पर फूल आता है जिसे तोड़ देने से अन्य फूल वाली शाखाएं बाजु से फूट पड़ती है और उपज बढ़ती है। तोड़ी गई कोमल शाखाओं एवं पत्तियों को हरे चारे एवं हरी सब्जी के लिए उपयोग में लाया जाता है। जानवरों के लिए भी यह एक पौष्टिक आहार है।
कीट एवं रोग नियंत्रण
कुसुम की फसल में कुसुम की मक्खी, माहू, कुसुम की सूंडी, तना मक्खी आदि कीटों का प्रकोप होता है। कुसुम की मक्खी की रोकथाम के लिए प्रभावित भाग को इकट्ठा कर नष्ट करें। फसल पर 0.1 प्रतिशत फेनिथियान या 0.03 प्रतिशत या डाइमेथोएट का छिड़काव करने से कुसुम की मक्खी की रोकथाम हो जाती है। माहूं के नियंत्रण के लिए डाइमेथोएट (0.05 प्रतिशत) या मोनोक्रोटाफॉस (0.05 प्रतिशत) का छिड़काव फसल पर करना चाहिए।
कुसुम में कीटों के अलावा गेरूई, उकठा, सरकोस्पोरा, लीफ स्पाट आदि रोगों का प्रकोप भी देखा गया है। गेरूई रोग की रोकथाम के लिए बीज फफूंदनाशक दवाई से उपचारित कर बोना चाहिए। खड़ी फसल में रोग का प्रकोप दिखते ही डाइथेन एम-45 या डाइथेन जेड-78 के 0.25 प्रतिशत घोल का छिड़काव 8-10 दिन के अन्तर पर करना चाहिए। आल्टरनेरिया लीफ स्पाट रोग फसल में फूल आने से पहले पौधे के सभी भागों पर दिखाई पड़ता है। इसकी रोकथाम के लिए 0.2 प्रतिशत जिनेब का छिड़काव फसल पर करना चाहिए। उकठा रोग की रोकथाम के लिए रोग रोधी किस्मों को लगाना चाहिए तथा फसल चक्र अपनाना चाहिए।
पक्षियों से सुरक्षा
कुसुम की फसल को पक्षियों विशेषकर तोतों से बहुत नुकसान होता है। नये क्षेत्र जहां कुसुम नहीं लगाई जाती वहां पक्षियों से अधिक हानि होती है। जब दाने पड़ने एवं पकने की अवस्था पर फसल की पक्षियों से सुरक्षा करना आवश्यक रहता है। कांटे वाली किस्मों में पक्षियों से क्षति कम होती है।
कटाई एवं गहाई
कुसुम की फसल लगभग 115 से 140 दिन में पककर तैयार हो जाती है। फसल पकने पर पत्तियॉं व कैपसूल पीने पड़ जाते हैं व सूखने लगते हैं। दाने सफेद चमकीले दिखाई देने लगते हैं। पकने पर दानों में 12-14 प्रतिशत नमी रह जाती है। देर से कटाई करन पर दाने खेत में ही झड़ने लगते हैं। समय से पूर्व कटाई करने पर उपज कम प्राप्त होती है साथ ही तेल के गुणों में भी गिरावट आती है। जब फसल पूरी तरह से पक जावे तब हंसिया या दराते से कटाई कर लेना चाहिए। सुबह के समय कटाई करने से पौधे टूटने से बच जाते हैं और कांटों का प्रभाव भी कम होता है। कॉंटों से बचाव के लिए हाथों में दास्ताने पहन कर या दो नाली लकड़ी के पाधों को फंसाकर करना चाहिए। कटाई के बाद फसल के छोटे-छोटे गट्ठर बना कर खलिहान में रखकर धूप में सुखा लेना चाहिए। फसल की गहाई, लकड़ी से पीटकर या गेहूं गहाई की मशीन (थ्रेसर) से कर लेना चाहिए। साफ दानों को 3-4 दिन धूप में सुखाकर (नमी का स्तर 8 प्रतिशत रहने पर) भण्डारण करना चाहिए।
कुसुम से रंग कैसे निकालें
कुसुम की फसल से बीज व रंग दोनों प्राप्त करने के लिए फूल में निषेचन की क्रिया के बाद पुष्पदल एकत्रित कर लिए जाते हैं तथा बीज पकने के लिए छोड़ देते हैं। गर्भाधान के पश्चात् फूलों की पंखु़िड़यों का रंग गहरा और चमकीला हो जाता है। इस समय इन्हें रंग प्राप्त करने के लिए तोड़ लेना चाहिए। पंखुड़ियां तोड़ने का कार्य 2-3 दिनों के अन्तर पर कई बार करना पड़ता है। उचित समय पर इन्हें न तोड़ने से कम मात्रा में और घटिया किस्म का रंग निकलता है। गर्भाधान समाप्त होने के कारण इन पंखुड़ियों को तोड़ लेने से बीज की उपज पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। फूलने के समय वर्षा हो जाने से रंग धुल जाता है और व्यापक हानि होती है।
फूलों से रंग प्राप्त करने के लिए पंखुड़ियों को छाया में सुखाया जाता है। सूखे फूलों को हल्के अम्लीय पानी में लगातार 3-4 दिन तक धोते हैं। इससे पानी में घुलनशील पीला रंग पानी में घुल जाता है। शेष पदार्थ को सुखाकर टिक्की के रूप में बिक्री के लिए तैयार करते हैं। व्यापारिक दृष्टिकोण से उपयोगी कार्थामिन धुले हुए पुष्प के भाग से निकाला जाता है। इसे सोडियम बाइकार्बोनेट से उपचारित किया जाता है तथा हल्के अम्लों से इसका प्रैसिपिटेट प्राप्त किया जाता है। कुसुम का कार्थामिन लुगदी के रूप में बाजार में बेचा जाता है। यह पदार्थ रंगाई के काम में आता है।
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