ईश्वर साहू ,सेवन दास खुंटे, सरिता एवं प्रेमचंद उइके
राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय ग्वालियर (म.प्र.) 474002
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर (छ.ग. ) 492006

परिचय
वर्तमान में वर्षा आधारित क्षेत्र विभिन्न प्रकार की समस्याओं से ग्रसित है इनमें मुख्यतरू नैसर्गिक प्राकृतिक समस्याओं, ढलान वाली भूमि सतह, मृदा में फसल पोषक तत्वों की कमी,मृदा जैविक कार्बन अंश का कम होना, कमजोर मृदा संरचना, अधिक तपमान इत्यादि का उल्लेख किया जा सकता है। इनके अतिरिक्त सामाजिक समस्याएँ (गरीबी,अशिक्षा, जनसंख्या, जोत विखंडीकरण इत्यादि), आर्थिक समस्याएं (कम निवेश क्षमता, कृषि ऋण की अनुपलाब्धता , समुचित बीमाकरण जसी सुविधा की कमी, कृषि विपणन इत्यादि), और अन्य समस्याएं (अपर्याप्त भंडारण सुविधा, कृषि आगतों की उपलब्धता में कमी, परिवाहन सुविधा की कमी, मंडी की अनुपलब्धता) इन क्षेत्रों की कृषि को और विकट बना देती है। उपरोक्त समस्याओं के अतिरिक्त कृषि वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई तकनीकियों का उचित समय पर किसानों तक न पहुँच पाना भी इन क्षेत्रों में कृषि उत्पादन की गिरावट का प्रमुख कारण है। यद्यपि इन समस्याओं के समाधान की दिशा में सरकार एव गैर सरकारी संगठनों द्वारा कई कारगर प्रयास किये जा रहे हैं। यही कारण है कि इन क्षेत्रों के किसानों की कृषि आय को दोगुना करने के लिए अधिक प्रयासों एवं योजनाओं की आवश्यकता है।
    वर्षा आधारित कृषि क्षेत्र देश के कुल कृषि क्षेत्रफल के लगभग 60 से 65 प्रतिशत भू भाग में फैला हुआ है। ये क्षेत्र महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटका, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, गुजरात, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु आदि राज्यों के साथ देश में लगभग पन्द्रह राज्यों के साथ देश में लगभग पंद्रह राज्यों में फैले हुए हैं। प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से इन क्षेत्र में देश में पाई जाने वाले सभी मृदाएँ (लाल, काली, जलोढ़ नवीन जलोढ़ तलछटी, मिश्रित मृदाएँ आदि) विद्यमान है। भा. कृ. अ. नु. प.- केन्द्रीय बारानी कृषि अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) के अनुसार व क्षेत्र जहाँ 30 प्रतिशत से कम सिंचित क्षेत्रफल हैं। इन क्षेत्रों में कृषि उत्पादन पूर्ण रूप से मानसूनी एवं गैर मानसूनी वर्षा पर निर्भर करता है। अक्सर ये क्षेत्र सूखे से ग्रसित होते हैं तथा प्रत्येक तीन वर्षों में अक्सर एक बार सूखा पड़ता है। पश्चिमी एवं पूर्वी राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु राज्य इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हैं।
    वर्तमान में ये क्षेत्र देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इन क्षेत्रों क्षेत्रों के अंतर्गत लगभग 48 प्रतिशत खाद्यान फसल क्षेत्र एवं लगभग 68 प्रतिशत अखाद्यान्न फसल क्षेत्र आते हैं। इन क्षेत्रों में ज्वार, बाजरा, मक्का, दलहन, मूंगफली, कपास और सोयाबीन की कुल बिजाई क्षेत्रफल का क्रमशः 92, 94, 80, 83, 73 और 99 प्रतिशत हिस्सा बोया जाता है। यह सर्वविदित है कि कृषि की समृद्धि मृदा की गुणवत्ता एवं जल की उपलब्धता तथा इन दोनों के विवेकपूर्ण उपयोग पर निर्भर करती है। इसके अलावा एकीकृत फार्म प्रबंधन के सभी महत्वपूर्ण घटकों (फसल, पशु, चारा, मछली, बागवानी, कृषि वानिकी, रोग एवं कीट, कृषि यांत्रिकीकरण, विपणन तंत्र प्रबंधन इत्यादि) का समावेश करना भी अति आवश्यक है। इन क्षेत्रों के किसानों की कृषि आय को दोगुना करने के लिए अन्य प्रयासों के साथ: साथ क्षेत्र में विशेष एवं फसल विशेष के लिए जारी की गई नवीनतम तकनीकियों का प्रयोग अति आवश्यक है।


वर्षा आधारित कृषि क्षेत्रों की प्रमुख समस्याएँ और उपयुक्त तकनीकें-

1. असंतुलित पोषक तत्व प्रबंधन
कारण- अन्य उपयोग (ईंधन, घर लेपना इत्यादि) के कारण लगातार जैविक खादों (गोबर की खाद) की उपलब्धता में गिरावट।
उपयुक्ततकनीक व सुझाव- कुल फसल पोषक तत्वों की मांग का 50 प्रतिशत भाग जैविक खादों द्वारा पूरा करना।
प्रभाव- 2 -10 टन प्रति हे. की दर से जैविक खाद (गोबर की खाद) देने से लगभग सभी फसलों में अपेक्षित बढ़ोतरी एवं मृदा स्वास्थ्य में सुधार।

2. असंतुलित मात्रा में रासायनिक खादों का उपयोग
कारण- मृदा परिक्षण सुविधाओं की कमी एवं समय पर सभी आवश्यक खादों की अनुपलब्धता।
उपयुक्ततकनीक व सुझाव- मृदा स्वास्थ्य परिक्षण के आधार पर क्षेत्र, फसल एवं मृदा विशेष के अनुसार रासायनिक खादों का प्रयोग करना।
प्रभाव- विभिन्न फसलो की उपज में 5 -50 प्रतिशत बढ़ोतरी के साथ मृदा स्वास्थ्य को इसके उच्चतर स्तर पर पाया गया है।

3. जैविक फसल अवशेषों की कमी
कारण- 1. ज्यादातर क्षेत्रों में एकल फसल प्रणाली का होना ।
2. जैविक फसल अवशेषों को मृदा में न मिलाकर अन्य उपयोगों में लाना।
उपयुक्त तकनीक व सुझाव -1. फसलों की कटाई मृदा सतह से 10 से 60 सें. मी. की ऊंचाई पर करना।
2. मृदा सतह को ढकने वाली फसलें (कूल्थी, मूँगबीन, सोयाबीन, उड़द, लोबिया इत्यादि) लगाना।
3. हरी खादों का प्रयोग करना।
4. खेती की सीमा पर जैवभार पैदा करने वाले वृक्षों सतह पर डालना।
प्रभाव- हैदराबाद की लाल मृदाओं मर गिरी पुष्पाद की टहनियों की कतरनों को 20 टन प्रति हे. की दर से डालने से ज्वार की उपज में आशातीत बढ़ोतरी देखी गई। इसी पाकर पालम पूर की मृदाओं में राई मुनिया (खरपतवार) को 20 तन प्रति हे. ताजा भार के अनुसार सतह पर डालने से मक्का की उपज में बढ़ोतरी।

4. वर्षा जल संग्रहण का उचित प्रबंधन न होना
कारण- 1. छोटी खेत जोत आकार। 
2. कई खेत जोतों पर प्राकृतिक ढलान न होना।
3. लागत की समस्या।
उपयुक्त तकनीक व सुझाव- बड़ी खेत जोतों के लिए खेत तालाब तकनीक एवं सामूहिक भूमि पर समुदायिक तालाब तकनीक।
प्रभाव- भाकृअनुप केंद्रीय बारानी कृषि अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद द्वारा किये गये अनुसंधान दर्शाते हैं कि संग्रहित जल से विभिन्न प्रकार की सब्जियां उगाई जा सकती है तथा फसल मध्य सूखे के दौरान जीवन रक्षा सिंचाई करके फसलों को बचाया जा सकता है। इससे उपज एवं आय में बढ़ोतरी।

5. अंतः फसलीकरण का अभाव
कारण- किसानों द्वारा उदासीनता एवं अधिक मेहनत न करने की वजह से परंपरागत रूप से एक ही फसल बोना।
उपयुक्त तकनीक व सुझाव- विभिन्न फसल प्रणालियों (कपास आधारित, चावल आधारित, सोयाबीन आधारित इत्यादि के लिए अंत फसलीकरण की तकनीकियाँ विकसित की गई है।
प्रभाव- अंतःफलीकरण ने केवल फार्म से आय में वृद्धि दर्ज की गी बल्कि बदलते हुए जलवायु परिवर्तन से मुकाबले करने में सहायता मिली है। अंतःफलीकरण का मृदा स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक प्रभाव।

6. उपयुक्त कृषि यंत्रों की अनुपलब्धता की कमी
कारण- कृषि यंत्रों की लागत की समस्या।
उपयुक्त तकनीक व सुझाव- केन्द्रीय बारानी कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा इस क्षेत्र के किसानों के लिए प्रिसिजन प्लान्टर, जिरोटिल सीडाड्रिल कम हर्बिसाईड एप्लीकेटर, अनाज एवं हरी पत्तियां सुखाने का यंत्र, हल्के जुताई यंत्रों इत्यादि का निर्माण किया है।
प्रभाव- प्रिसीजन प्लांटर से बिजाई करने से विभिन्न फसलों (मक्का, अरंडी) के बीजांकुर में 10 -12 प्रतिशत बढ़ोतरी।

7. वर्ष भर (हरे चारे की अनुपलब्धता)
कारण- किसानों द्वारा हरा चारा उत्पादन पर विशेष ध्यान न देना तथा सूखे चारे पर ही निर्भर रहना।
उपयुक्त तकनीक व सुझाव- भारतीय चारागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान, झाँसी द्वारा विभिन्न तकनीकियाँ विकसित की गई है। इनमें से एक अर्ध -शुष्क वर्षा आधारित क्षेत्रों के लिए सुबबूल पेनिसेटम ट्रेस्थोपनिक से ज्वार चारा अरहर अनुक्रमण सबसे प्रभावी तकनीक।
प्रभाव- उपरोक्त प्रणाली में हरा चारा 50 से 55 टन प्रति हे. प्रति वर्ष़सूखा चारा 13 से 14 टन प्रति हे. वर्ष 0.41 टन प्रति हे. वर्ष अनाज प्राप्त होता है तथा इस चारा उत्पादन प्रणाली की लागत केवल 25,000 रूपये प्रति हे. प्रति वर्ष है।

8. कृषि मौसम परामर्श सेवाओं का अभाव
कारण- 1. किसानों का कम शिक्षित होना।
2. अभी भी आम किसानों की पहुँच से दूर होना।
उपयुक्त तकनीक व सुझाव- केंद्रीय बारानी कृषि अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद से जारी नीक्रा परियोजना, एक्रीपड़ा एवं एक्रीपाम परियोजनाओं द्वारा सतत प्रयास जारी है।
प्रभाव- समय-समय पर कृषि परामर्श सेवाएँ प्रदान करके कुर्नूल (आंध्र प्रदेश), कानपुर (उत्तर प्रदेश), बेलगाम (कर्नाटक) और राजसमंद, (राजस्थान) में फसल उपज में बढ़ोतरी दर्ज की गई तथा किसानों को मौसमी जोखीम से बचाकर विभिन्न आगतों पर होने वाले खर्चे को कम किया जा सका।

वर्षा आधारित क्षेत्रों में किसानों की आय को दो गुना करने के लिए सुझाव:-
  • अनुसंधान, नीतियाँ एवं कार्यक्रमों का दायरा प्रत्येक किसान के खेत पर केंद्रित करने की आवश्यकता है, क्योंकि इन क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की विविधता विद्यमान है।
  • विकसित की गई कृषि तकनीकों को समय के साथ पुनः परिष्कृतध्संशोधित करके पूर्ण पैकेज के रूप में किसानों तक पंहुचाया जाना चाहिए।
  • प्राकृतिक संसाधनों में मृदा एवं जल के समुचित प्रबंधन को सर्वोपरी प्राथमिकता देते हुए, इस दिशा में और कार्य करने की आवश्यकता है।
  • तकनीक के सभी घटकों (बीज, रासायनिक खाद, बिजाई यंत्र, पशुधन की नस्लें, खेत तालाब इत्यादि) को एक साथ किसानों तक पहुंचाया जाए। साथ ही साथ यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि किसानों को उत्पादित माल की उचित कीमत प्राप्त हो।
  • माल की उचित विविधिकरण के साथ कृषि प्रणाली में पशुधन को शामिल करने की जरूरत है।
  • गाँव स्तर पर सामुदायिक बीज एवं चारा बैंक, सामुदायिक उपयोग केंद्र, कृषि बीमा, विपणन तंत्र इत्यादि पर नीतियाँ और क्रियान्वयन के लिए ठोस रणनीति बनाने की आवश्यकता है।
  • वर्तमान में कृषि, ज्ञान आधारित होती जा रही है। अतरू ऐसी रणनीति एवं योजनायें बनाने की जरूरत है, जिनसे शिक्षित युवा इस तरफ आकर्षित हो सकें।
  • कृषि मौसम सलाह को प्रत्येक गाँव के स्तर तक पहुँचाने की अति आवश्यकता है। इस दिशा में कृषि विस्तार तंत्र को और मजबूत करने की जरूरत है। साथ ही साथ कृषि विस्तार की नई विधाएं विकसित करने की आवश्यकता है, जिससे उपलब्ध तकनीकों एवं सूचनाओं को सरल भाषा एवं तीव्रता के साथ किसानों तक पहुँचाया जा सके।
  • कृषि आगतों (बीज, रासायनिक खाद, जीवाणु खाद, कृषि यंत्र, रोग एवं कीटनाशक दवाइयां इत्यादी) की सुगम एवं सुलभ उपलब्धता की दिशा में कार्य करने की आवश्यकता है।
  • इन क्षेत्रों में तकनीकी दक्षता हासिल करने के लिए वैज्ञानिकों के बहुआयामी एवं बहु संस्थान दल तैयार कर अनुसंधान का दायरा बढ़ाने की नितांत जरूरत है।
  • समय पर उपरोक्त सुझावों पर कार्रवाई की जाती है तो इससे कृषि प्रणाली में स्थिरता प्रतिस्पर्धा, विपरीत जलवायु से लड़ने की क्षमता के साथ ही उपलब्ध संसाधनों का सरंक्षण एवं समुचित उपयोग भी किया जा सकता है। इस प्रकार इन क्षेत्रों के कृषकों में कृषि आय को दोगुना करने की क्षमता भी विकसित की जा सकती है।