श्रीमति गुंजन झा, विषय वस्तु विशेषज्ञ (उद्यानिकी)
तोरन लाल निषाद एवं प्रवीण बनवासी (यंग प्रोफेशनल)
कृषि विज्ञान केंद्र, राजनांदगांव
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर

मल्चिंग का उपयोग विश्व में सर्वप्रथम डाॅ.एमरी एम.के.इमर्ट ने केटंकी के विश्वविद्यालय में किया एवं गीली घास का उपयोग मल्चिंग के रूप में 1950 में किया गया। मल्चिंग वह तकनीक है जिसमें पौधों के चारों तरफ की मृदा सतह को ढकना जिससे कि पौधों की जड़ों के पास नमी को संरक्षित किया जा सके, खरपतवारों के नियंत्रण आदि के द्वारा पौधों की वृद्धि व विकास होना ही मल्चिंग की तकनीक कहलाती है। मल्चिंग के रूप में कई प्रकार के प्राकृतिक मल्च जैसे-भूसा, कम्पोस्ट, सूखी पत्तियां, पत्थर आदि का उपयोग किया जाता है। किन्तु आज के युग में आसानी से विघटित होने वाले पाॅलीथीन पेपर के विकास होने से फसल उत्पादन के बाद इन मल्चिंग पदार्थो केा खेत की मिट्टी में ही दबाकर अपघटित कर नष्ट कर सकते है। इस प्रकार इनकों खेत में लगाने पर आने वाले खर्च को कम किया जा सकता है।

मल्चिंग के लाभ
खेती में मल्चिंग अपनाने से निम्नलिखित लाभ मिलते है

  • मृदा तापमान में बढोतरी:- मृदा में दो इंच की गहराई में काली पोलिथिन से 45-55 फैरनहाईट तथा पारदर्शक मल्च के उपयेाग से 8-10 फैरनहाईट तापमान बढता है।
  • मृदा का भूरभूरी होना:- मल्च के उपयोग से मृदा ढीली भूरभूरी तथा वायु युक्त हो जाती है, जिससे पौधों की जडो को पर्याप्त आक्सीजन मिलती है तथा सुक्ष्मजीवी गतिविधियां अच्छी तरह से होती है।
  • उर्वरको का रिसना कम होता हैः- मल्चिंग से पानी बहकर बाहर कम जा पाता है अतः मल्च द्वारा उर्वरकों को जड़ क्षेत्रों में लिप्त किया जा सकता है। अतः पोषक तत्व जड़ क्षेत्र से बाहर नहीं जा पाते है। इसलिये मल्चिंग अपनाने से उपयोगी पोषक तत्वों का नुकसान नहीं हो पाता है।
  • जलमग्नता में कमी:- मल्चिंग में भूमि का अधिकांश क्षेत्र मल्च से ढका होने से अतिरिक्त पानी बहकर बाहर निकल जाता है। जिससे फसल को जल भराव से होने वाले दुष्प्रभाव से बचाया जा सकता है।
  • वाष्पन दर को कम करता है:- मल्च के उपयेाग से भू सतह का पानी उड़ नहीं पाता है कभी कभी पौध वृद्वि दो गुनी तक होती पाई गई है। जब मल्च इस्तेमाल की जाती है।
  • जीवाश पदार्थ में बढोतरी:- कार्बनिक मल्च के उपयेाग से भूमि में जीवाश पदार्थ में बढोतरी होती है। जिससे मृदा स्वास्थ्य में सुधार आता है।
  • गुणवत्ता वाली फसल उत्पादन होना:- फल सब्जियों वाली फसलों में मल्चिंग उपयोग में लाने से फल भूमि के सीधे सम्पर्क में नहीं आते है। जिससे मिट्टी नहीं लगने के कारण सड़ते या गंदे नहीं होते है अतः अच्छी गुणवत्ता वाला उत्पादन प्राप्त होता है।
  • जड़ नहीं टुटती है:- मल्च वाले क्षेत्रों में अनतः कार्बन की आवश्यकता नहीं होती है जिससे फसल के पौधों की जड़ टुटने से होने वाले दुश्प्रभाव से बचा जा सकता है।
  • खरपतवारों की समस्या कम होती है:- फसलों की लाइनों के बीच खाली लाइनों में अपारदर्शी (काली) प्लास्टिक की मल्च बिछाने से खरपतवारों पर नियंत्रण किया जा सकता है।
  • फसल शीघ्र तैयार होती है:- काली मल्च के उपयोग से 2 स 14 दिन पूर्व फसल उत्पाद ले सकते है। जबकी पारदर्शी मल्च से 21 दिन पूर्व फसल उत्पादन तैयार हो जाता है।
  • फसलों की वृद्धि को बढाती हैः- प्लास्टिक मल्च व्यावहारिक रूप से कार्बन डाई आक्साईड के लिए प्रतिरोधी है, यह गैस पौधों की बढ़वार हेतु आवश्यक प्रकाश संश्लेशण के लिए आवश्यक है। प्लास्टिक मल्च के नीचे अत्यधिक सीमा में कार्बन डाईआक्साईड बढ जाती है।
  • मृदा रोगों में कमी लाना:- मल्चिंग से तापमान बढने तथा फलों के सीधे सम्पर्क में न आने से मृदा द्वारा फैलने वाले रोगजनकों से बचाया जा सकता है।
  • कीड़ो  से बचाना:- परावर्तक मल्च से कुछ कीड़े फसल क्षेत्र से दूर चले जाते है।

हानियां
  • शुरूवाती खर्चीली:- प्लास्टिक मल्च बिछाने में काफी महंगी पड़ती है जिससे फसल की लागत बढ़ जाती हैइसलिए वर्तमान में महंगी फसले-मसाले फलो आदि में प्लास्टिक मल्च का उपयोग किया जा रहा है।
  • प्रबन्धन कार्य बढ़ जाता हैः- मल्च के उपयोग में लाने पर उसकी सफलता तभी है जब उचित प्रबन्धन कियाजाये।
  • मृदा क्षरण में बढोतरी:- मल्च की पत्तियों के मध्य खाली पट्टियों में मृदा क्षरण बढ़ जाता है।
  • फसल खरपतवार प्रतियोगित बढ़ जाती हैः- पौधों हेतु मल्च में किये गये छिद्रों में खरपतवार उग आते है। यहखरपतवार फसल पौधों के बिल्कुल करीब होने से फसल तथा खरपतवारों के पौधों के बीच प्रतियोगिता बढ़जाती है।
  • उपयोग के बाद हटाना महंगा पड़ता है:- प्लास्टिक मल्च को प्रति वर्ष जमीन से हटाना पड़ता है, काली मल्चभूमि में नष्ट नहीं हो पाती अतः जुताई करते समय भूमि में दबाने का प्रयास नहीं करना चाहिए।

मल्चिंग का प्रयोग क्षेत्र
निजी क्षेत्र में मल्चिंग का प्रयोग होता है:-
  • शुष्क क्षेत्रों में नमी के संरक्षण के लिए।
  • शुष्क क्षेत्रों में सिंचाई की संख्या को कम करके पानी की बचत करने के लिए।
  • ग्रीन हाउस में भूमि के तापमान को बनाये रखने के लिए।
  • मृदा सौंदर्यीकरण द्वारा मृदा जनित रोगों के रोकथाम के लिए।
  • जिन फसलों का बाजार मूल्य अधिक होता है उनके लिए उपयोगी होता है।

मल्च के प्रकार
1. मृदा मल्च या धुल मल्च:-यदि मृदा उपरी सतह को ढीली कर दी जाये तो इससे अपरदन कम हो जाती है तथा यह मल्य की तरह कार्य करने लगती है। इस भूरभूरी या ढीली सतह को मृदा मल्य या धूमल्य कहते है।

2. फसल अवशेष मल्च:- फसल अवशेष जैसे गेंहू के कुंट या कपास के तने को भूमि पर छोड़ देना फसल अवशेष मल्य कहलाता है, इस प्रकार की मल्चिंग से मृदा अपरदन कम होता है, तथा वाधन द्वारा होने वालीमृदा नमी की हानि को कम किया जा सकता है।

3. स्ट्रा मल्च:- जब मल्च के रूप में भूसा को भूमि पर फैला दिया जाता है। इसे मृदा अपरदन तथा वजन कम होता है। इसे स्ट्रा मल्च या भूसा पलवार कहते है।

4. संश्लेषित मल्च:- आजकल इस प्रकार की मल्च का उपयोग हो रहा है, इससे संश्लेषण पदार्थ पाॅलीथीन वाली बिनायल क्लोराईड (पी.वी.सी.) की बहुत पतली (30-120) माइकोन झिल्ली को भूमि की सतह परमल्च के रूप में बिछा दिया जाता है, यह झिल्ली भू-सतह को 30-60 प्रतिशत ढक लेती है, इस प्रकारमल्य उत्पादन की विभिन्न महत्वपूर्ण कारक जैसे - मृदा तापमान, आर्द्रता, मृदा संरचना, खरपतवारनाइट्रोटन एवं कार्बन डाईआॅक्साईड को नियंत्रित करती है, इससे जड़ों का समुचित विकास होता है,जिससे पौधों की उचित बढवार होती है।

क. काली प्लास्टिक मल्च-ऐसी काली प्लास्टिक फिल्म जो सूर्य की रोशनी को पार नहीं करने देती जिससे कि फिल्म के नीचे फोटोसिन्थेसिस की क्रिया नही हो पाती और इस प्रकार से पूरी तरह से खरपतवारका नियंत्रण हो जाता है एवं यह मल्च आद्रता को भी संरक्षित करके मृदा के तापमान को नियंत्रित करती है।

ख. पारदर्शी मल्च-इसका मुख्य उपयोग रूप से पहाड़ी क्षेत्रों में मृदा का तापमान बढ़ाने के लिए इसका उपयोगकिया जाता है एवं मैदानी क्षेत्रों में इसका उपयोग गर्मी के मौसम में किया जाता है। इस प्रकार की मल्च का प्रयोग मृदा में उपस्थित मृदा जनिक रोगों को नियंत्रित करने के लिए मृदा सोलेराॅइजेशन के रूप में भी इसकाउपयोग किया जाता है।

ग. दोनो तरफ से रंगीन मल्च-ऐसी मल्च को तरंग दैध्र्य यह प्रकाश सेल्किटिव फिल्म के नाम से भी जाना जाता है।इस मल्च की यह खासियत होती है कि यह सूर्य की रोशनी में से चूनी हुई तरंग दैध्र्य को भी अवशोषित करके पौधों तक पहुचाती है एवं जब यह सूर्य की रोशनी इस फिल्म से होकर गुजरती है तो उसका स्पेक्ट्रम् परिवर्तितहो जाता है जो पौधों की वृध्द् िवा विकास में अच्छा प्रभाव डालता है। इस प्रकार कि फिल्म का प्रयोग मृदा कातापमान बढ़ाने, खरपतवार नियंत्रण, विकसित होते फलों के रंगों के विकास एवं उसमें कार्बोहाइड्रेड के परिवहनमें भी उपयोगी होती है।

5. लम्बवत मल्च:-एक निश्चित गहराई तक लगातार जुताई आदि करने से भूमि के नीचे एक कठोर सतह को तोड़ा जा सकता है। जिससे जड़े आसानी से गहराई में चली जाती है तथा मृदा वायु का विकास होता है इस क्रिया से जलमग्नता से बचा जा सकता है, सब - सोय लिंग के प्रभाव अधिक समय बाद इस प्रकार बनायी गयी नालियां बंद होना प्रारम्भ हो जाती है। इस प्रकार सब - सोय लिंग की प्रक्रिया दोहराने की आवश्यकता रहती है। सब - सोय लिंगके गुणकारी प्रभावों को अधिक समय तक बनाये रखने की विधि को लम्बवत मल्च कहते है।

6. परावर्तन करने वाली प्लास्टिक मल्च:- प्रकाश को परावर्तन करने के गुण के कारण माहु को प्रवेश करते में अवरोध पैदा करते है। जो कि तरबुजा-खरबुज वर्गीय फसलों में मोजेक वायरस-2 को फैलाते है इस पलवार के प्रयोग से किसान कम तापमान की स्थिति में उत्पादन को अधिक दुरी तक ले जा सकते है यदि प्लास्टिक मल्य को एल्युमिनियम से पेंट कर दिया जाये तो सफेद रंग के कारण उनका परावर्तन करने का गुण बढ़ जाता है, जिससे देरी से लगने वाली फसल ढकी रहती है, परिणाम स्वरूप उच्च गुणवत्ता का उत्पादन प्राप्त होता है, इसे चमकीली प्लास्टिक पलवार कहते है।

7. इनफ्रा रेड संसरण पलवार:- इसे अवरकल (इनका रेड मल्च भी कहते है। इनका विकास अभी हुआ है, इनमें ये गुणहोता है। कि सूर्य की प्रकाश की उन तरंग लम्बाई की किरणों को पार जाते है, जिनसे तापमान बढता है, परन्तु उनकोनहीं जाने देते है। जिनसे खरपतवार उगते है परिणाम स्वरूप ये पदार्थ ये पदार्थ काली प्लास्टिक मल्च की तुलना में ठण्डा रखते है। इससे खरपतवारों का उगना कम हो जाता है इनमें पैदा की हुई फसल काली प्लास्टिक मल्च कीतुलना में 7 से 10 दिन पहले तैयार हो जाती है।

मल्च का प्रभाव
फसलों के के लिए मल्च का चुनाव विभिन्न परिस्थिति पर निर्भर करता है। जैसे
  1. वर्षा ऋतु - प्रिफोरेटेड मल्च का प्रयोग
  2. बगिचा- मोटे फिल्म वाले मल्च का प्रयोग
  3. मृदा सोलेराईजेसन - पतला पारदर्शी किल्म का प्रयोग
  4. खरपतवार नियंत्रण - काली फिल्म का प्रयोग
  5. रेतीली मिट्टी - काली फिल्म का प्रयोग
  6. लवणीय जल - काली फिल्म का प्रयोग
  7. कीट रिपलेन्ट - चांदी कलर की फिल्म का प्रयोग
  8. जल्दी अंकुरण - मोटे फिल्म का प्रयोग
मल्चिंग करने से पूर्व भूमि की तैयारी
मल्च लगाने से पहले मिट्टी के दो नमुने उसी खेत में ले जहां मल्चिंग करना है उसेपरिक्षक करव ले उनमें से एक नमुना मृदा में उपस्थित पदार्थ के लिए व दुसरा निमेटोड के लिये परीक्षण करवा लेवे। आवश्यकतानुसार मृदा सुधारक चुना, मैगनिशियम, जिप्सम आदि डालना हो उसे डाल दे ताकि उसकी पी.एच. 6-6.5 तक आ जावे। यदि निमेटोड कीसमस्या है तो मल्चिंग के समय ही प्लास्टिक मल्य बिछाने के साथ-साथ धूमण मिथाईल ब्रोमाइड आदि से कर दे। इससे निमेटोड,खरपतवार व मृदा जनित बीमारियां कम हो जाती है । मल्चिंग और धुमण करने स पूर्व भूमि कचरे से मुक्त अच्छी भौतिक दशा एवं बैडबना लेना चाहिये।

मृदा का बैड बनाना
ट्रैक्टर चलित चैड़ी रगड़ बनाने वाली मशीन उपलब्ध है, जिनसे एक या अधिक बेड बनाए जा सकते है।उसके बाद ही ड्रिप की लेटरल वाली धुमड करना एवं प्लास्टिक मल्च बिछाते है। इसके कई फायदे होते है। इससे कम श्रम और कार्यजल्दी होता है, एवं मल्च व ड्रिप की स्थापना ठीक तरह से हो जाती है।



उर्वरक डालना
मृदा परीक्षण रिपोर्ट के आधार पर बैड बनाते समय खादों का प्रयोग कर लेना चाहिये यदि ड्रिप सिंचाई पद्वति काप्रयोग कर रहे हो तो प्लास्टिक मल्च के बाद भी घुलनशीन खादों का प्रयोग किया जा सकता है इनमें कैल्शियम, नाइट्रेट, सोडियम,नाइट्रेट 20/20/20/12ः32ः16 व पोटेशियम नाइट्रेट प्रमुख है।

मल्च की मोटाई
उपयोग किये जाने वाले पदार्थ के आधर पर मल्च की मोटाई 5-6 से.मी. रखी जाती है। इस गहराई पर मल्य के मुलभूत उद्देश्य जैसे खरपतवार नियंत्रण मृदा नमी का संरक्षण तथा तापमान नियंत्रण आदि भरपूर मिलते है। 5-6 से.मी. से कम मोटी मल्च संतोषप्रद कार्य नहीं करती है।

मल्च की मोटाई (माईक्रोन)

फसल

20-25

वार्षिक एवं कम अवधि वाले फसलें

40-50

द्विवर्षीय एवं मध्यम अवधि फसलें

50-100

बहुवर्षीय एवं लंबी अवधि फसलें



सिंचाई करना
टपक सिंचाई टपक सिंचाई प्लास्टिक मल्च के साथ प्रयेाग के लिए अनुशंसित है, इसके अलावा सिंचाईकी अन्य विधियों द्वारा भी अच्छी तरह से सिंचाई कार्य संभव है। 6 इंच 9 इंच 12 इंच गहराइयों पर टेन्शियोमिटर या अन्यनमी को नापने वाले यंत्र लगा देना चाहिये ताकि सिंचाई कब करना है, कितनी करना है। यह साफ होता रहे इन्ही टयुब केमाध्यम से निर्धारित घुलनशील खादों को भी फसलों में डालते है इसे फर्टीेगेशन कहते है।

द्वि-फसलीय फसल प्लास्टिक मल्च से लेना 
एक बार जब प्रथम फसल ले ली जाती है उसकी जगह का द्वितीय फसललेने की भी अनुशंसा की जाती है इसमें उसी जमीन के टुकड़े से सघन खेती कर सकते है। द्वितीय फसल में खाद टपक विधि से देते है ।

धूमण तथा प्लास्टिक मल्च व ड्रिप की लेटरल लाईन को लगाना
प्लास्टिक मल्च का उपयोग करने के दौरान रसायनों की मात्रा इस बातपर निर्भर करती है कि बेड की चैड़ाई क्या है, लाईन की चैड़ाई क्या है, कि बेड की चैड़ाई क्या है ध्रूमण केदौरान मृदा का तापमान कम से कम 10 से.ग्रेट. होना चाहिये। इसमें कम तापक्रम पर गैस नहीं बनती है। खेत में कचरा नहीं होनाचाहिये, मृदा में नमी पर्याप्त होनी चाहिए।


मल्चिंग का प्रभाव
मल्चिंग का निम्नलिखित प्रकार से प्रभाव है:-
  1. फसलों के उत्पादन पर प्रभाव
  2. मृदा गुणों पर मल्च का प्रभाव
  3. खरपतवारों पर मल्च का प्रभाव
1. फसलों के उत्पादन पर प्रभाव
पैमाने पर उपयोग करने से पूर्व देख लेना चाहिये। प्रयोग के आधार पर निम्नलिखित परिणाम प्राप्त हुए है –

क्र.

फसल का नाम

मोटाई (माइक्रोन)

चौड़ाई (मीटर में)

उत्पादन में वृद्धि (प्रतिशत)

कीमत प्रति हे.

1

तरबुज - खरबुज

30-40

1.2

50-60

20000

2

सेमवर्गीय

50-200

-

-

-

3

स्ट्राॅबेरी

40-80

1.0

40-50

20000

4

टमाटर

40

1.6

45-50

20000

5

खीरा वर्गीय

30

1.2

-

20000

6

मिर्च

25

4.0

50-60

20000

7

फलियां

40

1.2

12-15

20000

8

आलु

40

1.2

35-40

20000

9

मक्का

25-130

1.5

45-50

 

10

अंगुर

100-120

1.0

-

14000

11

नींबू वर्गीय

100

1.0

45-50

14000

12

अर्धशुष्क क्षेत्र

150

1.0

35-40

14000

13

फलबाग

100-120 

  1.6  

-

14000



2. मृदा गुणों पर मल्च का प्रभाव
मल्चिंग से मृदा गुणों में विभिन्न प्रकार से सुधार होता है-

क. मृदा नमी:- मल्चिंग से वाष्पन, वर्षा जल के बहाव की दर तथा खरपतवारांे की संख्या कम होती है और भूमि में जल अधिकउतरने से मृदा नमी में बढ़ोतरी होती है।

ख. मृदा तापमान:- पारदर्शक प्लास्टिक मल्य से मृदा ताप दिन मे 2-10 डिग्री सेन्टिग्रेट बढ़ता है जबकि रात्रि में 2-40 डिग्रीसेन्टिग्रेट तक बढ़ाया जा सकता है।

ग. मृदा क्षारियता:- शुष्क रोगों की मृदाओं में क्षारों ंकी अधिकता होती है। इनमें से अधिकांशत क्षार पानी में आसानी सेघुलनशील तथा पानी के साथ चलते है। यदि बरसात पर्याप्त होती है। तो ये क्षार निक्षालन के द्वारा भूमि दूर हो जाते है।लेकिन अपर्याप्त बरसात की स्थिति में ये क्षार सीमित क्षेत्र तक ही जा पाते है तथा वाष्पन होने पर शीघ्र ही मृदा सतह पर क्षारपहूच जाते है तथा वाष्पन होने पर शीघ्र ही मृदा में पानी अधिकाधिक प्रवेश हो तो मृदा सतह पर क्षारों का एकत्रीकरण कमकिया जा सकता है।

घ. मृदा संरचना:-कार्बनिक या जैविक मल्च जैसे भूसा फसल अवशेश आदि सड़ गल कर भूमि जीवांश पदार्थ की मात्रा बढाते है जिसमें मृदा संरचना में सुधार आता है।

3. खरपतवारों पर मल्च का प्रभाव
काले रंग की पालीथीन फिल्म का खरपतवारों पर नाशी प्रभाव पूर्ण रूप सेरहता है। ये घुसर रंग की पालीथीन का परत एवं पारदर्शी पालीथीन मल्च का नगण्य रूप नही के बराबर खरपतवारों को खत्म करने का प्रभाव रहता है। जिसमें उत्पादन में 30 से 50 प्रतिशत तक की वृद्धि की जा सकती है।

मल्च की लागत का लेखा जोखा
मल्य में मुख्यतः जमीन को ढकने की विधि उपयोग में लाई जाती है। यदिसमतल खेत में मल्य लगाना हो तो उसका क्षेत्रफल पूरे खेत के क्षेत्रफल के बराबर होता है, यदि खेत में नालियां व मेड बनी हो व पूरे खेत में मल्च लगाना हो तो मल्च का क्षेत्रफल खेत के क्षेत्रफल से अधिक होता है अतः मल्च समान्यतः पट्टियों के रूप मेंलगाई जाती है, जो कि 40 से 60 प्रतिशत तक अतिरिक्त हो सकती है।

खेत में जमीन को मल्च से ढकने का प्रतिशत

फसल

20-25

सभी लतायें वाली फसलें

40-50

फल बाग-बगीचे वाली फसलों की प्रारंभिक अवस्था

40-60

कद्दू वर्गीय सब्जियां एवं फल वाली फसलें

70-80

सब्जियां, पपीता एवं अनानाश