डाॅ. विनम्रता जैन
सह-प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)
पं. शिवकुमार शास्त्री कृषि महाविद्यालय
एवं अनुसंधान केन्द्र राजनांदगांव (छ.ग.)
जलवायु
तिल उष्ण और उपोष्ण क्षेत्रों की फसल हैं, आमतौर पर इसकी खेती 1250 मीटर तक की ऊंचाई तक की जाती हैं। तिल की अच्छी बढ़वार और उपज के लिए 27-33 डिग्री से. तापमान को अनुकूल पाया गया हैं एवं 500-600 मि.मी. वर्षा की आवश्यकता पड़ती हैं। फसल पकने के समय अधिक वर्षा अच्छी नही होती है। इसी तरह फूल आने के समय भी अधिक वर्षा से फसल को नुकसान होता हैं। जल-भराव के कारण भी फसल को बहुत नुकसान होता हैं। तिल पानी की कमी को सहन करने की भी क्षमता रखती है, इसी कारण इसकी अधिकतर खेती वर्षा-आधारित क्षेत्रों में की जाती हैं।
मृदा
तिल हल्की से लेकर भारी मृदाओं में सफलतापूर्वक उगायी जा सकती है। लेकिन बलुई दोमट मिट्टी जिसमें उचित जल निकास हो और पीएच मान 6.0 से 7.5 के बीच हो, तिल की खेती के लिए अधिक उपयुक्त पाई गई है। अम्लीय एवं क्षारीय मृदाएं तिल की खेती के लिए अनुपयुक्त होती हैं।
भूमि की तैयारी
इस फसल का बीज छोटा होता है, इसलिए खेत की तैयारी अच्छी तरह से करनी चाहिए जिससे बीज का अंकुरण ठीक से हो सके। बुवाई से पहले एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करने के बाद 2-3 बार हैरो या देशी हल चला कर खेत तैयार करना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो हल चलाने के बाद पाटा लगायें।
फसल चक्र एवं प्रणाली
उत्तरी भारत में तिल के निम्नलिखित फसल चक्र एवं अन्र्तफसलीय प्रणाली प्रचलन में हैं-
तिल-गेहूं/जौ, तिल-सरसों/चना/मसूर/मटर, तिल-मक्का, तिल-मूंगफली, तिल-अरहर, तिल-कपास, तिल-मूंग, तिल-बाजरा, तिल-ज्वार।
उन्नत किस्में
किसी भी फसल की अधिक उपज लेने के लिए उन्नत किस्मों का विशेष योगदान होता हैं।
राज्य
|
बुवाई का मौसम
एवं उचित समय
|
उन्नत किसमें
|
मध्य प्रदेश/छत्तीसगढ़
|
खरीफः जुलाई के दूसरे
पखवाड़े में
जायदः फरवरी अन्त से
मार्च शुरू तक
|
एन-32, जे.टी.-2,
जे.टी.-7 (कंचन),
जे.टी.एस-8,
टी.के.जी-21,
टी.के.जी-22,
टी.के.जी-55,
टी.के.जी-306,
टी.के.जी-308,
उमा, बी-67, रमा, जवाहर
तिल-11, जवाहर तिल-12, जवाहर
तिल-14, सलेक्शन-5 (भूरा तिल)
|
बिहार/उड़ीसा
|
खरीफः जून-जुलाई
जायदः फरवरी
|
कृष्ण, पटना-64, कांके सफेद,
विनायक, कालिका, कनक उमा,
उषा, बी-67
|
राजस्थान
|
खरीफः जून के अंत
से जुलाई के
पहले सप्ताह तक
|
प्रताप, टी.सी.-25,
टी-13, आर.टी.-46,
आर.टी.-54, आर.टी.-103, आर.टी.-125
|
गुजरात
|
खरीफः जून के अंत
से जुलाई के
पहले सप्ताह तक
जायदः जनवरी-फरवरी
अर्ध रबीः अगस्त के
अंत में
|
गुजरात तिल नं 1, गुजरात
तिल नं 2, आर.टी.-54, आर.टी.-103,
पूरवा-1
|
उत्तरी भारत
|
खरीफः जुलाई के प्रथम
पखवाड़े में
|
पंजाब तिल-1, आर.टी.-125,
हरियाणा तिल-1, शेखर, टी-12,
टी-13, टी-14
|
बुवाई
अधिक उपज लेने के लिए बुवाई का समय विशेष महत्व रखता हैं। तापमान और प्रकाश की अवधि के प्रति संवेदनशील होने के कारण सर्दियों से तिल मुख्यतः खरीफ मौसम की फसल रही है। पिछले कुछ वर्षों में वैज्ञानिकों ने तिल की कुछ ऐसी प्रजातियां भी विकसित की है जिन्हे कुछ क्षेत्रों में जायद, रबी और अर्ध-रबी मौसम में उगाया जा सकता हैं। वर्षा पर आधारित होने के कारण एवं खरपतवारों, कीटों और बीमारियों का अधिक प्रकोप होने के कारण, खरीफ मौसम की फसल की औसतन उपज अन्य मौसमों की तुलना में काफी कम रहती है। खरीफ मौसम की फसल के लिए जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के प्रथम सप्ताह को तिल की अधिक उपज के लिए उपयुक्त पाया गया है। अर्ध-रबी की फसल अगस्त मध्य या सितंबर के शुरू में बुवाई की जाती है। जायद या ग्रीष्म कालीन फसल से अधिक उपज लेने के लिए फरवरी के प्रथम सप्ताह में भी बुवाई की जा सकती हैं।
किस्मों के चुनाव के साथ-साथ बीज की गुणवत्ता, तिल उत्पादन में बहुत महत्वपूर्ण है। राष्ट्रीय बीज निगम, राज्य बीज निगमों या अन्य विश्वसनीय संस्थानों से प्रमाणित बीज ही खरीदें। बुवाई से पहले बीज को थायरम, कैप्टान या बाविस्टिीन फफूंदनाशक दवा से 3 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज के हिसाब से उपचारित करें।
आमतौर पर तिल को छिड़क कर बोया जाता है। छिड़क कर बुवाई करने से अधिक बीज की आवश्यकता पड़ती है, खेत में सही पौध संख्या प्राप्त नही होती है और खरपतवार नियंत्रण ठीक से नहीं होता है। अतः इस विधि से बुवाई करने से कम उपज प्राप्त होता है। अधिक उपज लेने हेतु एवं निराई-गुड़ाई में आसानी के लिए, तिल को कतारों में बोना चाहिए। कतारों के बीच की दूरी 30 से 45 सें.मी. रखें। वांछित पौध संख्या प्राप्त करने के लिए 4 से 5 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर प्रयोग करें। बुवाई के 15 से 20 दिन बाद पौधों की छंटाई करते समय पौधे से पौधे की दूरी 10 से 15 सें.मी. रखें। बुवाई के समय बीज को 1.5 से 2.5 सें.मी. की गहराई पर डालें। तिल का बीज बहुत छोटा होता है, अतः बीज को समान रूप से कतार में बोने के लिए 8-10 गुनी बारिक सूखी रेत या मिट्टी या छनी हुई कम्पोस्ट खाद में मिला कर बुवाई करना चाहिए।
पोषक तत्व प्रबंधन
तिल की भरपूर पैदावार के लिए अनुमोदित और संतुलित मात्रा में उर्वरकों का उपयोग आवश्यक है। उर्वरकों की मात्रा, मिट्टी की जांच और पानी की उपलब्धता पर निर्भर करती है। मिट्टी की जांच संभव न होने की अवस्था में सिंचित क्षेत्रों में 40-50 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 20-30 कि.ग्रा. फाॅस्फोरस एवं 20 कि.ग्रा.पोटाश प्रति हेक्टेयर की मात्रा का प्रयोग करें लेकिन वर्षा आधारित फसल में 20-25 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 15-20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर फाॅस्फोरस की मात्रा देनी चाहिए। मुख्य तत्वों के अतिरिक्त 10 से 20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर गंधक का उपयोग करने से तिल की उपज में आशातीत वृद्धि की जा सकती है। सिंचित क्षेत्रों में नाइट्रोजन की आधी मात्रा और अन्य उर्वरकों की पूरी मात्रा जबकि असिंचित क्षेत्रों में सभी उर्वरकों की पूरी मात्रा बुवाई के समय बीज से 3-4 से.मी. गहराई पर प्रयोग करें। नाइट्रोजन की आधी मात्रा को बुवाई के 30-35 दिन बाद खड़ी फसल में प्रयोग करें। जिन क्षेत्रों में जिंक की कमी हो वहां पर दो वर्ष में एक बार 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर प्रयोग करें। आलू की फसल के बाद तिल में खाद की आवश्यकता नही पड़ती है। लंबे समय के लिए सूखा पड़ने की अवस्था में खड़ी फसल में यूरिया के 2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें।
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZ2AiwyA5asrAJYQQou8LeHivFIdALHPLSKZv0uN1wciFHra0WIaMuHMnbOjB_ow5t9iIuV7_cPRzDcxVVURiPQxI0U4CilI1hzoLmhvMKLkaiciHY8KYF_kKWQEWduqcksMBfI0ZjOUY/s320/Sesame-Indicum-White-Sesame-Seeds_adm_2019_10_17_01_26_37pm.jpg)
जल प्रबंधन
सिंचित क्षेत्रों में या तो सिंचाई के बाद खेत तैयार करके बुवाई करें या बुवाई के तुरंत बाद पहली सिंचाई करने से अंकुरण अच्छा आता है और पौधों की बढ़वार अच्छी होती है। जायद मौसम में फसल को 5-6 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है। प्रथम सिंचाई के बाद दो सिंचाइयां 20-25 दिन के अंतराल पर करें। बाद की सिंचाई 10-15 दिन के अंतर पर करें। रबी के मौसम में भी फसल को 4-5 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है। खरीफ की फसल में आवश्यकतानुसार सिंचाई करें। ध्यान रहे तिल में पुष्पन एवं फली में बीज भरने की अवस्था में मृदा में नमी की कमी न हो। इन अवस्थाओं पर नमी की कमी होने पर फसल की सिंचाई अवश्य करें। खरीफ के मौसम में आवश्यकतानुसार अधिक जल की निकासी अथवा नमी संरक्षण के उचित उपाय करें।
खरपतवार प्रबंधन
तिल की फसल में खरपतवारों से बहुत नुकसान होता हैं। अतः फसल से अधिक उपज लेने के लिए फसल की बुवाई के बाद 25-30 दिन तक खरपतवारों से मुक्त रखें। सामान्यतया दो निराई-गुड़ाई करने से खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। पहली निराई-गुड़ाई फसल बोने के 15 से 20 दिन के अंदर करनी चाहिए। अगर खरपतवार अधिक हों तो बुवाई के 35 से 40 दिन के अंदर दूसरी निराई-गुड़ाई करें। दूसरी निराई-गुड़ाई पर नाइट्रोजन की शेष मात्रा का भी प्रयोग करें। निराई-गुड़ाई के लिए मजदूरों की कमी होने पर, तिल में एक कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से फ्लूक्लोरेलिन सक्रिय दवा को 400-500 लीटर पानी में घोलकर बुवाई से पहले खेत में छिड़कने से भी खरपतवारों को नष्ट किया जा सकता है। फसल बोने से पहले दवाई को सतही मिट्टी में मिला दें। फ्लूक्लोरेलिन के अतिरिक्त एलाक्लोर (1.75 कि.ग्रा.) के प्रयोग से भी खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। इन दोनों खरपतवारों का प्रयोग बुवाई के बाद 2-3 दिन के अंदर करें। दवाई को 400-500 लीटर पानी में घोलकर बराबर छिड़काव करें। आवश्यकतानुसार खरपतवारनाशी दवा के प्रयोग के साथ-साथ फसल की 20 से 30 दिन की अवस्था पर एक निराई-गुड़ाई भी करें। सस्य विधियों जैसे कि अन्र्तफसलीकरण, ग्रीष्म में गहरी जुताई, उचित फसल चक्र, पलवार आदि को अपनाने से भी खरपतवारों को नियंत्रित किया जा सकता है।
कीट व रोग प्रबंधन
तिल में प्रमुख रूप से पत्ती मोड़क पत्ते खाने वाली सूंडी एवं फली भेदक कीटों का अधिक प्रकोप होता है। पत्ती व फूल की सूंडी कोमल पत्तियों और फलियों को खाती हैं। इन कीटों से बचाव के लिए क्विनालफाॅस (25 ई.सी.) 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से प्रथम पौधों में फूल की अवस्था, दूसरा फली लगने की शुरूआत व तीसरा पूर्ण फली लगने पर छिड़काव करें।
पुष्पगुच्छा या फाइलोडी नामक रोग से फसल को काफी नुकसान होता है। इस बीमारी के लक्षण फूल आने के समय नजर आते है। रोगग्रस्त पौधों में फलियांे की जगह हरी पत्तियों के गुच्छे बन जाते है। रोगी पौधे को उखाड़ कर नष्ट कर दें। फसल की बुवाई थोड़ी देर से करें। रोगरोधी किस्में जैसे ओ.एम.टी.-10 एवं आर.टी.-125 की बुवाई करें। यह रोग कीटों द्वारा फैलता है। अतः इन कीटों की रोकथाम के लिए खड़ी फसल में मिथाइल डेमेटान 25 ई.सी. (0.05 प्रतिशत) या डाइमेथोएट 30 ई.सी. (0.3 प्रतिशत) का घोल बनाकर छिड़काव करें। जड़ व तना सड़न की रोकथाम के लिए फफूंदनाशी से बीच उपचार करें। रोगरोधी किस्मों (आर.टी.-54 व आर.टी.-55) का प्रयोग करें। सर्कोस्पोरा ब्लाइट से भी तिल की फसल को नुकसान होता है। इस रोग से भूरे रंग के धब्बे पत्ती पर बनते है, बाद में इनका आकार बढ़ जाता है और ये धब्बे तने पर भी आ जाते है। रोग सहनशील किस्म टी.के.जी.-21 का प्रयोग करें। कार्बेन्डाजिम का 0.05 प्रतिशत घोल बनाकर 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें।
कटाई एवं मड़ाई
पौधों की फलियां जब चटकना शुरू होने लगे या फलियों और पत्तों का रंग पीला पड जाए तब फसल की कटाई कर लेनी चाहिए। देरी से कटाई करने पर फलियां के चटकने से बहुत नुकसान होता है। फसल को काटकर 4-5 दिन धूप में सुखाने के बाद मड़ाई करनी चाहिए। सूखे हुए पौधों को फर्श पर पीटने से दाने फलियों से अलग हो जाते है। उसके बाद दानों को अच्छी तरह साफ कर लें। साफ करने के बाद दानों को अच्छी तरह धूप में सुखाएं ताकि दाने में नमी की मात्रा लगभग 8-10 प्रतिशत रह जाए। सुखाने के बाद दानों को साफ बर्तनों में भर कर उनको अच्छी तरह बंद करें ताकि हवा का आदान-प्रदान न हो पाए।
उपज
तिल की खेती की उन्नत तकनीक अपनाने से किसान भाई 10 से 12 क्विंटल/हेक्टेयर उपज प्राप्त कर सकते है। तिल की न केवल भारत में बल्कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भी काफी मांग है। तिलहनी फसलों में तिल के दाम काफी अधिक है, अतः इसकी खेती से किसानों को अधिक लाभ प्राप्त होता हैं।
0 Comments