डाॅ. अभय बिसेन, सहायक प्राध्यापक (उद्यानिकी) कृषि महाविद्यालय कोरबा (छ.ग.)
डाॅ. स्वाती बिसेन, कृषि वैज्ञानिक, कृषि विज्ञान केन्द्र रायपुर (छ.ग.)

हल्दी का वानस्पतिक नाम कुकुर्मा लाँगा हैं। हल्दी भारतवर्ष की एक महत्वपर्ण औषधियुक्त मसाले की फसल हैं। इससे रंग भी तैयार किया जाता हैं। हल्दी का उपयोग धार्मिक एवं पौराणिक रूपों में वर्णित हैं।

जलवायु
हल्दी की खेती गर्म एवं नम (आद्र) जलवायु वाले क्षेत्रों में सिंचित एवं असिंचित दोनों अवस्थाओं में की जा सकती हैं। इसके लिए 20-40 डिग्री सेल्सियस तापमान एवं वार्षिक वर्षा 750 से 1500 मि.मी. वाला क्षेत्र खेती के लिए उपयुक्त होती हैं। बीज अंकुरण के लिए 30 से 35 तापमान कंशेकाल में 25 से 30 एवं प्रकंद बनने के समय 20 से 25 डिग्री सेल्सियस तापमान अच्छे फसल के लिए सहायक हैं। अधिक उत्पादन हेतु फसल के जीवन काल में वर्षा का सुविस्तार आवश्यक होता हैं।

भूमि एवं तैयारी
जीवांष्मयुक्त 6.0 से 6.5 पी.एच. मान की जल विकास वाली रेतीली दोमेट भूमि अच्छा उत्पादन में सहायक हैं। समुचित जल विकास वाली चिकनी दोमट मृदा में भी खेती की जा सकती हैं परन्तु उत्पादन की दृष्टि से भारी भूमि ठीक नहीं होती हैं। भूमि को दो बार मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई कर चार बाद देशी हल या कल्टीवेटर से आड़ी-खड़ी जुताई के बाद पाटा लगाकर मृदा को भुरभुरी बनाना लाभप्रद होता हैं। खेत से पूर्व फसल के अवशेष पौधों की जड़, नींदा, कंकड़-पत्थर पौधों की जड़ इत्यादि निकाल कर खेत समतल बनाना चाहिए।
यथा संभव मिट्टी पलटने वाले हल का प्रयोग ग्रीष्मकालीन जुताई के रूप में किया जावें।

बुवाई तकनीक
हल्दी बुवाई का उपयुक्त समय सिंचाई सुविधानुसार जून-जुलाई हैं। फसल की 18-22 क्विंटल /हे. बीज का उपयोग बोनी में करना चाहिए। कतारों में 45-60 से.मी. की दूरी पर कूड़ बनाकर 20-25 से.मी. की दूरी एवं 10 से.मी. की गहराई में बीजों को बोना चाहिए। हल्दी की बुवाई सुविधानुसार तीन विधियों से की जा सकती हैं। इसका विवरण निम्न हैं-

1. क्यारी विधि- इस विधि में 1.20 मीटर चैड़ी एवं 3.0 मीटर लम्बी उभारयुक्त क्यारियाँ जो जमीन की सतह से 15-20 से मी. ऊँची हो, बनावें। प्रत्येक क्यारी के चारों तरफ 50 से.मी. चैड़ी नाली बनाएं। क्यारी में 30-20 से.मी. की दूरी पर 10 से.मी. की गहराई में बीज को बुवाई करना चाहिए। टपक सिंचाई पद्धति के लिए यह उपयुक्त विधि हैं।

2. मेड़ विधि- इस विधि में तैयार खेत में 60 से.मी. की दूरी पर कुदाली से हल्की कूड़ बनाकर उसमें खाद डालें व भूमि में अच्छी तरह खाद मिलाने के बाद 20 से.मी. की दूरी पर बीज की बुवाई करने के बाद मिट्टी चढ़ाकर मेड़ बनावें। इस बात का ध्यान रहे कि मेड़ में बीज 10 से.मी. की गहराई तक बोया रण प्राप्त हो सकें।

रोपण सामग्री एवं उपचार
बीज के रूप में रोगमुक्त एवं स्वस्थ मातृकंद एवं अंगूलिकायें का उपयोग किया जाता हैं। इनका वनज लगभग 25 ग्राम होना चाहिए। प्रत्येक प्रकंद में कम से कम 2-3 सुविकसित अंकुर आवश्यक होता हैं। मातृकंद को काटकर भी बोया जा सकता हैं। अंगुलिकाओं  की तुलना में मातृकंद ठीक होता हैं।
    बुवाई के पूर्व प्रकंदों को 0.3 प्रतिशत् मैं कोजेब (3 ग्राम/लीटर) के घोल में आधे घण्टे तक डुबोयें एवं छाया में सुखाने के बाद बुवाई करना उपयुक्त रहता हैं।

उन्न्त किस्में
अनुसंधान के आधार पर हल्दी की सुरन्जना, नरेन्द्र हल्दी-1 एवं बी.एस.आर.-2 प्रजातियाँ उपयुक्त पाई गई हैं। इसके अलावा प्रतिभा, सुगना, राजेन्द्र सोनिया, प्रभा एवं रोमा किस्मों की खेती की जा सकती हैं जो 190 से 250 दिनों में तैयार होकर 20 से 35 टन/हे. उत्पादन देती हैं।

फसल-चक्र एवं मिलवा
हल्दी को प्रतिवर्ष एक ही खेत में लगातार नहीं लगाना चाहिए। फसल की खुदाई के बाद मूंग/उड़द/मूंगफली/सोयाबीन/बरबट्टी जैसी दलहनी फसल या सब्जी वाली फसलें लेना चाहिए। चूँकि फसल की बुवाई के लगभग एक माह बाद बीजों का अंकुरण होता हैं। अतः कम अवधि की कोई फसल मेड़ों में बोई जा सकती हैं। हल्दी को थोड़ी छाया की आवश्यकता होती हैं, जिसे कृषक खेतों में 6-7 मीटर की दूरी पर अरहर को कतारों में बोनी कर दोहरा लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

खाद एवं उर्वरक प्रबंधन
भूमि की उर्वरा शक्ति को कायम रखने तथा फसल से भरपूर पैदावार प्राप्ति हेतु आवश्यक हैं कि अच्छी सड़ी हुई गोबर या कम्पोस्ट खाद (25 टन/हे.) और नीम खली (1 टन/हे.) का मिश्रण प्रयोग में लायें। इसके साथ ही साथ मृदा जांच के अनुसार नाइट्रोजन फास्फोरस एवं पोटाश तत्वों को डालें। सामान्यतया इनकी कुल मात्रा क्रमशः 150, 100 एवं 120 कि.ग्रा./हे. होती हैं।
    कार्बनिक खाद की आधी मात्रा खेत की अंतिम तैयारी के समय भूमि में अच्छी तरह मिला देवें। शेष आधी मात्रा बुवाई के समय कतारों में बनें कूड़ों में प्रकंद के ठीक नीचे एवं ऊपर डालकर बोये गये बीजों को ढ़ंक देवें। अकार्बनिक उर्वरकों की फास्फोरस की पूरी मात्रा एवं पोटाश की आधी मात्रा बुवाई पूर्व मिट्टी में मिलाते हुए कूड़ों में डालें। पोटाश की बची आधी मात्रा को बुवाई के 90 दिन बाद नाइट्रोजन की निर्धारित मात्रा के साथ देवें। नाइट्रोजन उर्वरक को तीन बराबर-बराबर भागों में बांटकर बोनी के 30, 50 एवं 90 दिनों बाद निंदाई-गुड़ाई के समय कतारों में देवें। एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन में निर्धारित नाइट्रोजन की मात्रा को आधा कार्बनिक तथा आधा अकार्बनिक स्त्रोतों से एवं पी.एस.बी. एजोस्पाइरेलम, स्यूडोमोंनास फ्लोरोसेन्स एवं ट्राईकोडर्मा का उपयोग करने पर उत्पादन में अच्छी वृद्धि पाई गई हैं। सूक्ष्म पोषक तत्वों में जिंक सल्फेट (0.05 प्रतिशत्), बोरेक्स (0.2 प्रतिशत्) एवं फेरस सल्फेट (0.1 प्रतिशत्) का छिड़काव फसल के 60 एवं 90 दिन की उम्र में करने से उत्पादन में वृद्धि होती हैं। इन सूक्ष्म पोषक तत्वों को बुवाई के समय मृदा परीक्षण के आधार पर दिया जाना चाहिए।

निंदाई-गुड़ाई एवं मिट्टी चढ़ाना
फसल को कम से कम 60 दिनों तक खरपतवार रहित रखें। खेत में खरपतवार को कभी पनपने न देवें। उर्वरक प्रयोग के पूर्व निंदाई एवं बाद में हल्की गुड़ाई करना चाहिए, जिससे छिड़के गये उर्वरक भूमि में मिल सकें। उर्वरक छिड़कने के समय नमी न हो तो हल्की सिंचाई करें फिर ओल की स्थिति में आने पर मेड़ों में मिट्टी चढ़ावें।

पलवार का प्रयोग
बीजों के शीघ्र अंकुरण, खेत में उचित ताप एवं नमी बनायें रखने, मृदाक्षरण को रोकने तथा खरपतवारों के नियंत्रण के लिए धान का पैरा या पौधों की चैड़ी पत्तियाँ (ढ़ाक, बरगद, महुआ, सागौन, तेन्दू इत्यादि) आदि से बीज बोनी एवं सिंचाई के बाद मेड़ों को ढ़ंक देना चाहिए। इसके लिए 5-6 टन/हे. पलवार की आवश्यकता पड़ती हैं।

सिंचाई एवं जल निकास
अच्छे अंकुरण, हेतु बीज बोनी के तुरन्त बाद सिंचाई करें। भूमि एवं मौसमानुसार मानसूनी वर्षा के पूर्व 7 दिनों के अंतराल से खेतों में देवें। वर्षा समाप्ति के बाद यह अंतराल 10-15 दिनों का होना चाहिए। फसल की खुदाई करने के 15 दिन पूर्व सिंचाई बंद कर देना जरूरी हैं। आधुनिक खेती में सिंचाई टपक (ड्रिप) पद्धति लाभप्रद पाई गई हैं। शीत ऋतु में 15 दिन एवं गर्मी में 7 दिन के अंतराल से सिंचाई करें। खेत में जरूरत से ज्यादा एवं अनावष्यक पानी जमा हो जाने से उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं। प्रकंद विगलन बीमारी का प्रकोप भी पड़ सकता हैं। अतः खेत में जल निकास की समुचित व्यवस्था रखें। खेत तैयारी के समय ढ़ाल की तरफ जल निकास हेतु नाली तैयार की जा सकती हैं।

रोग नियंत्रण

1. पत्ती धब्बा रोग
हल्दी की फसल में प्रमुख रूप से पत्ती धब्बा बीमारी आती हैं। ये दो प्रकार की होती हैं। पहला ट्रेफाइना पत्ती धब्बा एवं दूसरा कोलेटोट्राइकम पत्ती धब्बा की बीमारी।

अ. ट्रेफाइना पत्ती धब्बा
ट्रेफाइना मैकुलैंस कवक द्वारा उत्पन्न्ा रोग के लक्षण सर्वप्रथम पुरानी पत्तियों पर पत्ती के दोनों तरफ बनते हैं। सामान्यतया 23 से 25 डिग्री सेल्सियस तापमान एवं 80 प्रतिशत् से ज्यादा आर्द्रता की स्थिति में रोग का प्रकोप बढ़ जाता हैं। इसमें पत्ती पर 1-2 मि.मी. आकार के लाल भूरे रंग के धब्बे बनते हैं। पत्ती पर इन धब्बों के परस्पर मिल जाने से पूरा पौधा नहीं मरता लेकिन प्रकाष संश्लेषण के लिए प्रभावी स्थान कम हो जाने के कारण उत्पादन प्रभावित होता हैं।

ब. कोलेटोट्राइकम पत्ती धब्बा रोग 
इस रोग का कारक कोलेटोट्राइकम कैंप्सिकी फफुँद हैं। इसमें पत्ती पर छोटे काले गोल धब्बे बनते हैं, जो पत्ती की सतह पर दिखाई पड़ते हैं। धब्बों का बाहरी किनारा काला एवं बीच का भाग हल्के नीले भूरे रंग का होता हैं। धब्बों के आपस में मिल जाने से पत्ती का रंग हल्का भूरा हो जाता हैं एवं पत्ती सूख जाती हैं। इस रोग के लिए 28 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान एवं 90 प्रतिशत् से ज्यादा आर्द्रता पर रोग का प्रकोप बढ़ जाता हैं। रोग से पौधे के प्रकंद पर बुरा प्रभाव पड़ता हैं और उत्पादन कम हो जाता हैं।

रोकथाम
प्रयोगों के आधार पर इन रोगों के बचाव के लिए बीज का उपचार कार्बेन्डाजिम मैंकोजेब (1ः1) 2 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी के हिसाब से बीजोपचार एवं 45 और 90 दिन बुवाई के बाद छिड़काव करना चाहिए।

खुदाई
बाजार मांग एवं बीज उत्पादन की दृष्टि से परिपक्व फसल की खुदाई किया जाना चाहिए। पौधों की तना एवं पत्तियाँ जब पीली पड़ जाये और पत्तियाँ सूखने लगें तो समझना चाहिए कि फसल खुदाई योग्य हो गई हैं। किस्मों के आधार पर खुदाई किया जा सकता हैं।

भण्डारण
प्रायः हल्दी बीज भण्डारण में विशेष समस्या नहीं रहती हैं। खुदाई के बाद मातृ प्रकंद से अंगुलिकायें अलग कर 0.3 प्रतिशत् मैंकोजेब के घोल में 30 मिनट डुबोने के बाद छाया में सुखावें तथा कच्चे व ठंडे घरों में 2 फीट ऊँची तह लगाकर भंडारित करें। आधुनिक भण्डारण के लिए खिड़की से कूलर चलावें एवं गर्म हवा को एक्झास्ट पंखे से बाहर निकालें जिससे खुदाई से बुवाई तक हल्दी का भण्डारण सुनिश्चित किया जा सकता हैं। कम मात्रा में बीज भण्डारण के लिए किसी छायेदार वृक्ष के नीचे 2 फीट गहरा एवं आवश्यक आकार के गड्ढ़े खोद कर उसके नीचे पत्तियाँ बिछा लेवें। हल्दी बीज को गड्ढ़ों में रखकर पुनः पत्तियों से ढं़क कर ऊपर से बालू या मिट्टी से ढ़ंक देवें। वर्षा के पानी को रोकने के लिए गड्ढ़ों के ऊपर 2 फीट ऊँचाई पर घास/पैरा का छप्पर बनाकर बांस के सहारे रखें, जिससे हवा के आवागमन के साथ वर्षा का पानी गड्ढ़े में न जा सके। भण्डारण के लिए जीरों इनर्जी कुल चेम्बर का उपयोग कर सकते हैं।