सरिता, ईश्वर साहू एवं प्रीति साहू 
कृषि विस्तार विभाग, इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर (छ.ग.)
कृषि महाविद्यालय रायपुर (छ.ग.)

वैज्ञानिक नाम - कुकुमिस सटाइवस
कुल - कुकुरबिटेसी
उत्पति स्थान – भारत

परिचय 
इसके फलों का उपयोग मुख्य रूप से सलाद के लिए किया जाता है। इसके फलों के 100 ग्राम खाने योग्य भाग में 96.3 प्रतिशत जल, 2.7 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 0.4 प्रतिशत प्रोटीन, 0.1 प्रतिशत वसा और 0.4 प्रतिशत खनिज पदार्थ पाया जाता है, इसके अलावा इसमें विटामिन बी की प्रचुर मात्राएँ पाई जाती है।
    सलाद के रूप में सम्पूर्ण विश्व में खीरा का विशेष महत्त्व है। खीरा को सलाद के अतिरिक्त उपवास के समय फलाहार के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके द्वारा विभिन्न प्राकर की मिठाइयाँ भी तैयार की जाती है। पेट की गड़बडी तथा कब्ज में भी खीरा को औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है। खीरा में अधिक मात्रा में फाइबर मौजूद होता है खीरा कब्ज दूर करता है। पीलिया, प्यास, ज्वर, शरीर की जलन, गर्मी के सारे दोष, चर्म रोग में लाभदायक है। खीरे का रस पथरी में लाभदायक है। पेशाब में जलन, रुकावट और मधुमेह में भी लाभदायक है। घुटनों में दर्द को दूर करने के लिये भोजन में खीरे का सेवन अधिक मात्रा में करें।

उपयुक्त जलवायु
इसकी खेती के लिए सर्वाधिक तापमान 40 डिग्री सेल्शियस और न्यूनतम 20 डिग्री सेल्शियस होना चाहिएद्य अच्छी बढ़वार तथा फल-फूल के लिए 25 से 30 डिग्री सेल्शियस तापमान अच्छा होता है, अधिक वर्षा, आर्द्रता और बदली होने से कीटों व रोगों के प्रसार में वृद्धि होती है। अधिक तापमान और प्रकाश की अवस्था में नर फूल अधिक निकलते हैं, जबकि इसके विपरीत मौसम होने पर मादा फूलों की संख्या अधिक होती है।

भूमि का चयन
खीरा की खेती के लिए बलुई दोमट या दोमट भूमि जिसमें जल निकास का उचित प्रबंधन हो, सर्वोत्तम पायी गयी है। भूमि में कार्बन की मात्रा अधिक तथा पी एच मान 6.5 से 7 होना चाहिए। खीरा मुख्य रूप से गर्म जलवायु की फसल है, इस पर पाले का प्रभाव अधिक होता है।

किस्म

विदेशी किस्में

उन्नत किस्में

संकर किस्में

नवीनतम किस्म

जापानी लौंग ग्रीन, चयन, स्ट्रेट- 8 और पोइनसेट

स्वर्ण अगेती, स्वर्ण पूर्णिमा, पूसा उदय, पूना खीरा, पंजाब सलेक्शन, पूसा संयोग, पूसा बरखा, खीरा 90, कल्यानपुर हरा खीरा, कल्यानपुर मध्यम और खीरा 75, पीसीयूएच- 1, स्वर्ण पूर्णा और स्वर्ण शीतल

पंत संकर खीरा-1, प्रिया, हाइब्रिड-1 और हाइब्रिड- 2

पूसा उदय, स्वर्ण पूर्णा और स्वर्ण शीतल आदि

 



किस्मों की विशेषताएं और पैदावार

पंत संकर खीरा 1: इस संकर किस्म की बुआई के लगभग 50 दिनों के बाद फल तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं। फल मध्यम आकार के 20 सेंटीमीटर लम्बे और हरे रंग के होते हैं। यह संकर किस्म मैदानी भागों तथा पहाड़ी क्षेत्रों में लगाने के लिए उपयुक्त है। सामान्य दशा में एक हेक्टेयर क्षेत्रफल से 300 से 350 क्विंटल पैदावार प्राप्त होती है।

स्वर्ण अगेतीः यह खीरे की एक अगेती किस्म है, बुआई के 40 से 42 दिनों बाद प्रथम तुड़ाई की जा सकती हैद्य इसके फल मध्यम आकार के, हल्के हरे सीधे तथा क्रिस्पी होते हैं, इस किस्म की बुआई फरवरी से जून के महीने में की जा सकती है, फलों की संख्या प्रति पौध लगभग 15 होती हैं, फलों की तुड़ाई फल लगने के 5 से 6 दिनों के अन्तराल पर करते रहना चाहिए, सामान्य दशा में एक हेक्टेयर क्षेत्रफल से 200 से 250 क्विंटल पैदावार प्राप्त होती है।

स्वर्ण पूर्णिमाः यह खीरे की मध्यम अवधि में तैयार होने वाली फसल हैद्य इसके फल लम्बे, हल्के हरे, सीधे तथा ठोस होते हैं, फलों की तुड़ाई बुआई के 45 से 47 के बाद शुरू हो जाती है, फलों की तुड़ाई 2 से 3 दिनों के अन्तराल पर करते रहना चाहिए, सामान्य दशा में एक हेक्टेयर क्षेत्रफल से 200 से 225 क्विंटल पैदावार प्राप्त होती है।

पूसा संयोगः यह एक हाइब्रिड किस्म हैं, फल 22 से 30 सेंटीमीटर लम्बे, बेलनाकार तथा हरे रंग के होते हैद्य जिन पर पीले कांटे पाये जाते है, गूदा कुरकुरा होता है। यह किस्म 50 दिन में तैयार हो जाती है। प्रति हेक्टेयर 200 क्विंटल तक पैदावार मिल जाती है।

पूसा बरखाः यह खीरे की किस्म खरीफ के मौसम के लिए तैयार की गई हैं, यह उच्च मात्रा वाली नमी, तापमान तथा पत्तों के धब्बे रोग को सहन कर सकती है। इस किस्म की औसत पैदावार 300 से 375 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।

स्वर्ण शीतलः इस खीरे की किस्म के फल मध्यम आकार के हरे व ठोस होते है। यह किस्म चूर्णी फफूंदी और श्याम वर्ण प्रतिरोधी किस्म है। प्रति हेक्टेयर 250 से 300 क्विंटल पैदावार देती है।

स्वर्ण पूर्णाः इस खीरे की किस्म के मध्यम आकार युक्त ठोस फल, चूर्णी फफूंदी के लिए सहन शील यह प्रति हेक्टेयर 300 से 350 क्विंटल पैदावार दे देती है।

पंजाब खीरा 1: इस किस्म के फल हरे गहरे रंग के होते हैं, जिनका स्वाद कम कड़वा और औसतन भार 125 ग्राम होता हैं, इस किस्म के खीरों की औसतन लंबाई 13 से 15 सेंटीमीटर होती है। इसकी तुड़ाई सितंबर और जनवरी महीने में फसल बोने से 45 से 60 दिनों के बाद की जा सकती है, सितंबर महीने में बोयी फसल का औसतन पैदावार 300 क्विंटल तथा जनवरी महीने में बोयी फसल की पैदावार 300 से 370 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।

पंजाब नवीनः इस किस्म के पौधे के पत्तों का रंग गहरा हरा, फलों का आकार बराबर बेलनाकार तथा तल मुलायम और फीके हरे रंग का होता है। इसके फल कुरकुरे एवं कड़वेपन रहित और बीज रहित होते हैैै। इसमें विटामिन सी की उच्च मात्रा पायी जाती है तथा सूखे पदार्थ की मात्रा भी ज्यादा होती है। यह किस्म 65 से 70 दिनों में पक जाती है। इसके फल स्वादिष्ट, रंग और रूप आकर्षित, आकार और बनावट बढिया होती है। इस किस्म की औसतन पैदावार 300 से 350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।

जापानीज लौंग ग्रीनः यह खीरे की अगेती किस्म है, यह बुआई के 45 दिन में फल देना शुरू कर देती है। फल 30 से 40 सेंटीमीटर लम्बे तथा हरे रंग के होते है। गूदा हल्का हरा और कुरकुरा होता है।

पोइनसेटः इस किस्म के फल 20 से 25 सेंटीमीटर लम्बे होते है। इसके फल गहरे हरे रंग के होते है। यह किस्म मृदुरोमिल आसिता, चूर्णी फफूदी, श्यामवर्ण, कोणीय पत्ती धब्बा हेतु प्रतिरोधी किस्म है।

स्ट्रेट 8: यह खीरे की अगेती किस्म है, फल 25 से 30 सेंटीमीटर लम्बे, मोटो, सीधे, बेलनाकार तथा हरे रंग के होते है।

पूसा उदयः इस किस्म के फल हल्के हरे रंग का 13 से 15 सेंटीमीटर लम्बे व चिकने होते है। इस किस्म को बंसत ग्रीष्म और वर्षा ऋतु दोनो में उगाया जा सकता है।

चयनः यह खीरे की अधिक उपज देने वाली और मध्यम पछेती कठोर किस्म है, इसके फल 50 सेंटीमीटर लम्बे, सीधे और बेलनाकार होते है छिलका हरे रंग का होता है। जिस पर सफेद कांटे होते है गुदा सफेद एवं कुरकुरा होता है।

खेत की तैयारी
खीरा की फसल की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए, उसके बाद 2 से 3 जुताई हैरो या कल्टीवेटर से कर के मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए, उसके बाद पाटा लगा देना चाहिए, ताकि खेत समतल हो जाये। आखिरी जुताई से पहले 15 से 20 टन गोबर की गली सड़ी खाद या कम्पोस्ट मिटटी में भली भाती मिला देनी चाहिए।

खाद और उर्वरक
खीरा की खेती के लिए 15 से 20 टन गोबर की गली सड़ी खाद या कम्पोस्ट के साथ-साथ 80 किलोग्राम नत्रजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस और 60 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बुआई के समय मेड़ पर देना चाहिए। शेष नाइट्रोजन की मात्रा दो बराबर भागों में बाँटकर बुआई के 20 और 40 दिनों बाद गुड़ाई के साथ देकर मिट्टी चढ़ा देना चाहिए।

बुआई का समय
मुख्य फसल के रूप में मैदानी क्षेत्रों में बुआई फरवरी से जून के प्रथम सप्ताह में करते हैं। दक्षिण भारत में इसकी बुआई जून से लेकर अक्टूबर तक करते हैं, जबकि उत्तर भारत के पर्वतीय भागों में इसकी बुआई अप्रैल से मई में की जाती हैं, गर्मी की फसल को जल्दी लेने के लिए पालीथीन या प्रो-ट्रे की थैलियों में जनवरी में पौध तैयार कर फरवरी में रोपण करते है।

बीज की मात्रा
एक हेक्टेयर क्षेत्र की बुआई के लिए 2 से 3.25 किलोग्राम शुद्ध बीज की आवश्यकता पड़ती हैं, बीज की बुआई करने से पहले फफूंदनाशक दवा जैसे कैप्टान या थिरम (2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) से अच्छी तरह शोधित करना चाहिए।

बुआई की विधि
अच्छी तरह से तैयार खेत में 1.5 मीटर की दूरी पर मेड़ बना लें। मेड़ों पर 60 से 90 सेंटीमीटर की दूरी पर बीज बोने के लिए गढ्ढे बना लेना चाहिए और 1 सेंटीमीटर की गहराई पर प्रत्येक गड्डे में 2 बीजों की बुआई करते हैं।

सिंचाई प्रबंधन
बुआई के समय खेत में नमी पर्याप्त मात्रा में रहनी चाहिए अन्यथा बीजों का जमाव एवं वृद्धि अच्छी प्रकार से नही होती है। बरसात वाली फसल के लिए सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। औसतन गर्मी की फसल को 5 दिन और सर्दी की फसल को 10 से 15 दिनों पर पानी देना चाहिए। तने की वृद्धि, फूल आने के समय और फल की बढ़वार के समय पानी की कमी नहीं होनी चाहिए।

निराई-गुड़ाई
वर्षाकालीन फसल में खरपतवार की समस्या अधिक होती है। अंकुरण से लेकर प्रथम 20 से 25 दिनों तक खरपतवार फसल को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं, इससे फसल की वृद्धि पर प्रतिकूल असर पड़ता है और पौधे की बढ़वार रूक जाती हैद्य इसलिए खेत में समय-समय पर खरपतवार निकालते रहना चाहिए। खरपतवार निकालने के बाद खेत की गुड़ाई करके जड़ों के पास मिट्टी चढ़ाना चाहिए, जिससे पौधों का विकास तेजी से होता है।

प्रमुख कीट एवं उनके रोकथाम

1. लाल कीट
 इस कीट की सूण्ड़ी जमीन के अन्दर पायी जाती है। इसकी सूण्डी व वयस्क दोनों खीरा फसल में क्षति पहुँचाते हैंै। अक्टूबर तक खेत में इनका प्रकोप रहता है। फसलों के बीज पत्र तथा 4 से 5 पत्ती अवस्था इन कीटों के आक्रमण के लिए सबसे अनुकूल है। प्रौढ़ कीट विशेषकर खीरा फसल की मुलायम पत्तियां अधिक पसन्द करते है। इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर कीटनाशी जैसे डाईक्लोरोवास 76 ई सी, 1.25 मिलीलीटर प्रति लीटर या ट्राइक्लोफेरान 50 ई सी, 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से जमाव के तुरन्त बाद और दुबारा 10 वें दिन पर पर्णीय छिड़काव करें।

2. खीरे का फतंगा (डाइफेनीया इंडिका) 
वयस्क मध्य आकार के और अग्र पंख सफेदी लिए हुए एवं किनारे पर पारदर्शी भूरे धब्बे पाये जाते है। सुंडी लम्बे, गहरे हरे और पतली होती है। ये खीरा फसल की पत्तियों के क्लोरोफिल युक्त भाग को खाते हैं, जिससे पत्तियों में नसो का जाल दिखाई देता हैं। क्लोरेंट्रानीलीप्रोल 18.5 एस सी 0.25 मिलीलीटर प्रति लीटर या डाईक्लारोवास 76 ई सी, 1.25 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से भी छिड़काव कर सकते हैं। बैसिलस थूजेंसिस किस्म कुर्सटाकी 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से एक या दो बार 10 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें।

3. सफेद मक्खी
यह सफेद और छोटे आकार का एक प्रमुख कीट है। पूरा शरीर मोम से ढका होता है, इसलिए इससे सफेद मक्खी के नाम से जाना जाता हैं, इस कीट के शिशु और प्रौढ़ खीरा फसल के पौधों की पत्तियों से रस चूसते हैं एवं विशाणु रोग फैलाते हैं, जिसके कारण पौधों की बढ़ोत्तरी रूक जाती है, पत्तियाँ तथा शिराएं पीली पड़ जाती हैं, अधिक प्रकोप होने पर कीटनाशकों जैसे इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल 0.5 मिलीलीटर प्रति लीटर या थायामेथेक्जाम 25 डब्लू जी 0. 35 ग्राम प्रति लीटर या लीटर की दर से छिड़काव करें।

4. माइट (लाल मकड़ी)
लाल माइट बहुत छोटे कीट हैं। जो पत्तियों पर एक ही जगह बनाकर बहुत अधिक संख्या में रहते हैं। इनका प्रकोप ग्रीष्म ऋतु खीरा फसल में अधिक होता हैं, इसके प्रकोप के कारण पौधे अपना भोजन नहीं बना पाते जिसके फलस्वरूप पौधे की वृद्धि रूक जाती है और उत्पादन में भारी कमी हो जाती हैं। मकड़ीनाशक जैसे स्पाइरोमेसीफेन 22.9 एस सी 0.8 मिलीलीटर प्रति लीटर या डाइकोफाल 18.5 ई सी 5 मिलीलीटर प्रति लीटर या फेनप्रोथ्रिन 30 ई सी 0.75 ग्राम प्रति लीटर की दर से 10 से 15 दिनों के अंतराल पर छिडकाव करें।

प्रमुख रोग एवं उनके रोकथामः

1. चूर्णी फफूंद (चूर्णिल आसिता)
यह रोग विशेष रूप से खीरा की खरीफ वाली फसल पर लगता हैं, प्रथम लक्षण पत्तियाँ और तनों की सतह पर सफेद या धुंधले धूसर धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं, तत्पश्चात् ये धब्बे चूर्णयुक्त हो जाते हैं, ये सफेद चूर्णिल पदार्थ अन्त में समूचे पौधे की सतह को ढंक लेते हैंद्य जिसके कारण फलों का आकर छोटा हो जाता है एवं बीमारी की गम्भीर स्थिति में पौधों से पत्ते भी गिर जाते हैं, फफूंदनाशक दवा फ्लूसिलाजोल का 1 ग्राम प्रति लीटर या हेक्साकोनाजोल का 1.5 मिलीलीटर प्रति लीटर के साथ 7 से 10 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें।

2. मृदुरोमिल आसिता 
यह रोग खीरा फसल में वर्षा के उपरान्त जब तापमान 20 से 22 डिग्री सेंटीग्रेट हो, तब तेजी से फैलता है। उत्तरी भारत में इस रोग का प्रकोप अधिक हैं इस रोग से पत्तियों पर कोणीय धब्बे बनते हैं, जो कि बाद में पीले हो जाते हैं, अधिक आर्द्रता होने पर पत्ती के निचली सतह पर मृदुरोमिल कवक की वृद्धि दिखाई देती हैद्य बीजों को एप्रोन नामक कवकनाशी से 2 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए। इसके अलावा खीरा फसल में मैंकोजेब 0.25 प्रतिशत 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी घोल का छिड़काव करें।

3. खीरा मोजैक वायरस 
इस खीरा फसल रोग का फैलाव, रोगी बीज के प्रयोग एवं कीट द्वारा होता है। इससे पौधों की नई पत्तियों में छोटे, हल्के पीले धब्बों का विकास सामान्यतः शिराओं से शुरू होता हैद्य पत्तियों में मोटलिंग, सिकुड़न शुरू हो जाती है। पौधे विकृत और छोटे रह जाते है। हल्के, पीले चित्तीदार लक्षण फलों पर भी उत्पन्न हो जाते हैं। विषाणु वाहक कीट के नियंत्रण के लिए डाई मेथोएट 0.05 प्रतिशत रासायनिक दवा का छिड़काव 10 दिन के अन्तराल पर करें, लेकिन फल लगने के बाद रासायनिक दवा का प्रयोग न करें।

फलों की तुड़ाई
खीरा के फल कोमल एवं मुलायम अवस्था में तोड़ने चाहिए, फलों की तुड़ाई 2 से 3 दिनों के अन्तराल पर करते रहना चाहिए, समय पर फल तुड़ाई से पैदावार में बढ़ोतरी पाई गई है।

पैदावार
खीरा की पैदावार किस्म के चयन, फसल प्रबंधन और अनुकूलता पर निर्भर करती है। फिर भी उपरोक्त वैज्ञानिक तकनीक से खीरा की खेती करने पर औसत पैदावार 200 से 350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है। संकर किस्मों की पैदावार इससे अधिक प्राप्त होती है।