राधे लाल देवांगन एम.एस.सी. (उद्यानिकी, बी.पी.एम., कांकेर छ.ग.) एवं महेन्द्र कुमार साहू (अतिथि शिक्षक, पं.एस.के.एस. कृषि महा. राजनांदगांव छ.ग.), इं.गां. कृषि वि.वि. रायपुर

अरबी का कन्द वर्गीय में विशिष्ट एवं प्रमुख स्थान हैं। उत्तरी भारत में अरबी को नकदी फसल (cash crop) के रूप में उगाया जाता हैं। इसे खेत एवं गृह वाटिकाओं में उगाया जाता हैं। इससे प्राप्त घन कंदों एवं गांठों का उपयोग शाक (vegetable) के रूप में किया जाता हैं। इसकी पत्तियों से पकौड़े बनाएं जाते हैं। इसका उत्पादन विश्व के अनेक देशों में किया जाता हैं। अरबी के क्षेत्र एवं उत्पादन में अफ्रीका का प्रथम स्थान हैं। जबकि एशिया दूसरे नम्बर पर हैं। भारत में इसे मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पंजाब और हरियाणा में प्रमुख रूप से उगाते हैं। अब अन्य राज्यों में इनका विस्तार हो रहा हैं।
    ऐरेसी कुल के उपकुल से तीन जीनस कोलोकेसियेडी से तीन जीनस कोलेकेसिया, एलोकेसिया व जेन्थेसोमा खाने योग्य घन कन्द उत्पन्न करते हैं। इनको क्रमशः टारो या डशीन (taro or dasheen), जाइण्ट टारो (giant taro) और टेनिया (tania) की संज्ञा दी जाती हैं। भारत में टारो का सर्वाधिक उत्पादन किया जाता हैं।

पोषक मूल्य
अरबी सब्जियों के लिये विभिन्न रूप से उपयोग की जाती हैं। इसके कन्दों को उबालकर सब्जियों के रूप में उपवास में फलाहार के रूप में उपयोग किया जाता हैं इसकी पत्तियों से पालक की सब्जी बनाई जाती हैं व पकोेड़े भी बनाये जाते हैं। कन्दों से चिप्स बनाये जाते हैं, फिर उन्हें चीनी की चाश्नी में डालकर अलग कर लेते हैं। ये खाने में अत्यंत स्वादिष्ट होते हैं।

अरबी का खाद्य मूल्य

(प्रति 100 ग्राम खाद्यांश)

नमी

37.10 ग्राम

वसा

0.10 ग्राम

रेशा

1.00 ग्राम

खनिज पदार्थ

1.70 ग्राम

प्रोटीन

3.00 ग्राम

अन्य कार्बोहाइडेªट्स

21.10 ग्राम

सोडियम

9.00 मि.ग्रा.

कैल्शियम

40.00 मि.ग्रा.

लोहा

1.70 मि.ग्रा.

पोटेशियम

550.00 मि.ग्रा.

थियामिन

0.09 मि.ग्रा.

निकोटिनिक अम्ल

0.40 मि.ग्रा.

रीबोफ्लेविन

0.03 मि.ग्रा.

विटामिन ए

40.00 आई.यू.

कैलोरी

97.00



जलवायु
अरबी की फसल को गर्म एवं आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती हैं। गर्म मौसम इसकी वृद्धि एवं विकास हेतु आवश्यक होती हैं भूमि में नमी होने के साथ-साथ वायुमण्डल में नमी अत्याधिक होने से वृद्धि अच्छी होती हैं प्राकृतिक अवस्था में यह जल स्त्रोतों के समीप भली-भांति उगती हैं अरबी पहाड़ों पर काफी ऊंचाई पर पाले से मुक्त क्षेत्रों में भली भांति उगाई जा सकती हैं। 700-1000 मि.मी. वर्षा वाले क्षेत्र जहां पर सुविकसित वर्षा इसकी बढ़वार के समय होती हैं। वहां पर इसका उत्पादन अधिक मिलता हैं।

भूमि
अरबी के फसल उत्पादन हेतु उचित जल निकास वाली जीवांशयुक्त रेतीली दोमट भूमि सर्वोत्तम मानी गयी हैं, भूमि का पीएच मान 5.5-7.0 आदर्श माना गया हैं। यह भारी और जलमग्न मृदाओं में भी उगाई जा सकती हैं।

खेत की तैयारी
प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से किया जाता हैं उसके बाद 2-3 बार हैरो व कल्टीवेटर से जुताई करें। प्रत्येक जुताई के उपरान्त पाटा अवश्य लगायें ताकि मिट्टी भूरभूरी व समतल हो जाएं।

खाद एवं उर्वरक
मृदा जांच के अनुसार खाद एवं उर्वरकों का उपयोग करना चाहिए यदि मृदा जांच न हो सके तो उस स्थिति में प्रति हेक्टेयर निम्न मात्रा में गोबर की खाद एवं उर्वरकों का उपयोग करना नितान्त आवश्यक हैं।

गोबर का खाद

30 टन

नाइट्रोजन

100 किलो ग्राम

फास्फोरस

60 किलो ग्राम

पोटाश

80 किलो ग्राम


गोबर की खाद प्रथम जुताई से पूर्व खेत में समान रूप से बिखेर देते हैं फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा का मिश्रण बनाकर अन्तिम जुताई के समय भूमि में डाल देना चाहिए नाइट्रोजन की शेष मात्रा को दो बराबर भागों में बांटकर बुवाई के 35-40 दिन और 70 दिन बाद खड़ी फसल में उपरिवेशन (टाप ड्रेसिंग) के रूप में देनी चाहिए।

किस्में
अरबी को घन-कन्दों के आकार-प्रकार के आधार पर कई नामों से पुकारा जाता हैं जैसे पंचमुखी सहस्त्रमुखी आदि। इसकी कुछ स्थानिय किस्में भी उगाई जाती हैं जिनमें फैजाबादी, लाघरा बंसी, बंगाली बड़ा, सरकाजू, आस काजू, काला काजू आदि प्रमुख हैं। अरबी का अब कई किस्में उपलब्ध हैं जिनमें श्री रश्मि, श्री पल्लवी प्रमुख हैं, व्हाइट गौर्या एन.डी.सी.-1,2,3, कदमा, मुक्ताकेश बाडिया स्बनीय अहिना स्थानिया तेलिया झखरी आदि किस्में पूर्वी क्षेत्रों के लिये आशाजनक किस्में हैं जबकि सतमुखी और सहस्त्रमुखी किस्में पश्चिम क्षेत्रों के लिये आशाजनक हैं और सतमुखी श्री पल्लवी और सी-16, दक्षिणी क्षेत्रों के लिए आवश्यक आशाजनक किस्में हैं।

विभिन्न राज्यों के उगाने हेतु उपयुक्त किस्में
  • पंजाब- एस-3, एस-11
  • उत्तर प्रदेश- एन.डी.एस.-1 व 2
  • महाराष्ट्र- वार्न-1 व 2, ग्यानी-12,22,36 एवं 40
  • मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़- गौरया, काशी, बुग्गा, कुबेर, बरकात्रा
  • नवीनतम किस्में
  • नरेन्द्र अरबी-1
  • नरेन्द्र अरबी-2
प्रवर्धन
अरबी का प्रवर्धन वानस्पतिक विधि से किया जाता हैं बीज के लिये स्वस्थ एवं मोटी गांठों का ही उपयोग करते हैं।

बुवाई का समय
अरबी को वर्ष में दो बार बोया जाता हैं यहां फरवरी-मार्च और जून-जुलाई विभिन्न राज्यों में अरबी बुवाई का समय नीचे दिया गया हैं।

बीज-मात्रा
आमतौर पर प्रति हेक्टेयर लगभग 8-12 क्विंटल गांठों की आवश्यकता हैं। अरबी की बुवाई निम्न तीन प्रकार से की जाती हैं।

समतल क्यारियों में
इस विधि में पत्ती की आपसी दूरी 45 से.मी. और पौधों की आपसी दूरी 30 से.मी. पर 7.5 से.मी. गहराई पर गांठों को बोया जाता हैं।

डौलियों पर
इस विधि में 45 से.मी. की दूरी पर डौलियां बनाकर उनके बीच दोनों किनारों पर 30 से.मी. की दूरी पर गांठे बोई जाती हैं।

कूंडों पर
इस विधि में देशी हल की सहायता से 45 से.मी. की दूरी पर कूंड बना लिये जाते हैं, इन कूंडों में 30 से.मी. के फासलें पर 7-8 से.मी. की गहराई पर गांठे बोई जाती हैं इन्हें ढ़कने हेतु पाटा चलाया जाता हैं।

सिंचाई
अरबी की सिंचाई कई बातों पर निर्भर करती हैं जिससे फसल उगाने का समय, तापमान, मिट्टी की किस्म प्रमुख हैं, मार्च-अप्रेल में बोई गई फसल में जून-जुलाई में बोई गई फसल की तुलना में अधिक सिंचाइयों की आवश्यकता होती हैं, यदि भूमि रेतिली हैं तो उसमें चिकनी मिट्टी की तुलना में अधिक सिंचाइयों की आवश्यकता होती हैं जबकि खरीफ में उगाई जाने वाली फसल की सिंचाई वर्षा के ऊपर निर्भर करती हैं। भूमि में नमी बनी रहनी चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से कन्दों का विकास एवं बढ़वार अच्छी होती हैं।

कल्लों को निकालना
जब फसल 70-80 दिन की होती हैं उनके नीचे अनेक कल्ले निकल आते हैं जो भूमि से नमी व पोषक तत्व लेते हैं जिसके परिणाम स्वरूप उपज में भारी कमी हो जाती हैं। अतः एक दो प्रमुख कल्ले के अतिरिक्त अन्य कल्लों को निकाल देना चाहिए इसके उपरान्त पौधों पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए इन दोनों क्रिया द्वारा अरबी की उपज में वृद्धि हो जाती हैं।

वृद्धि नियामक का उपयोग
साइक्रो सिल के 100-150 पी.पी.एम. घोल का 3 बार छिड़काव करना चाहिए। ऐसा करने से उपज में वृद्धि हो जाती हैं।

खरपतवार नियंत्रण
अरबी के साथ उगे खरपतवारों के नियंत्रण के लिए दो बार निराई, गुड़ाई करनी चाहिए पहली निराई-गुड़ाई गांठे बोने के 3 सप्ताह बाद करें और दूसरे बार 6 सप्ताह बाद करना चाहिए, इसी समय नाइट्रोजन की आधी मात्रा को उपरिवेशन के रूप में दिया जाता हैं।

कीट एवं उसका नियंत्रण

पत्ती खाने वाली सूंडी
अरबी की फसल को यह सूंडी सबसे अधिक क्षति पहुंचाती हैं क्योंकि यह नयी पत्तियों को खा जाती हैं, जिसके फलस्वरूप पत्तियों के भोजन निर्माण में बाधा उत्पन्न होती हैं तथा पौधों के विकास एवं बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं।

नियंत्रण
इस कीट की नियंत्रण हेतु 0.2 प्रतिशत थायोडान की छिड़काव करना चाहिए।

प्रमुख रोग एवं उसका नियंत्रण

झुलसा रोग
यह रोग फाइटोफ्थोरा कोलीकेसी नामक कवक से होता हैं। जो निशिक्ताड के रूप में मिट्टी एवं प्रसुप्त कवक जाल के रूप में रोगग्रस्त घन कन्दों में उत्तरजीवी बना रहता हैं और प्राथमिक निवेश द्रव का काम करता हैं। इस रोग के विकास हेतु 100 प्रतिशत आर्द्रता व 21 सेंटीगे्रट तापमान अनूकूल होता है रोग का फैलाव खेतों की सिंचाई जल वर्षा या हवा द्वारा होता हैं।

नियंत्रण
फसल के रोगी पौधों के मलवे को इकट्ठा करके जला देना चाहिए।
खड़ी फसलों पर मैंकोजेब (2.5 कि.ग्रा. या कापर ऑक्सीकलोराइड) (3 कि.ग्रा.) का 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। छिड़काव करते समय इस घोल में स्टीकर सैण्डोविट या ट्राइटोन अवश्य मिला देना चाहिए ताकि घोल पत्तियों से भली-भांति चिपक जाएं। घनकंदों को बोने से पूर्व उपरोक्त कवकनाशी घोल में उपचारित कर लेना चाहिए।

खुदाई
अरबी के घनकन्दों की खुदाई का समय उनके आकार, किस्म, जलवायु और भूमि की उर्वरा शक्ति पर निर्भर करता हैं। बुवाई के 100-140 दिन में फसल तैयार हो जाती हैं, परन्तु जिस फसल के कन्दों से आगामी वर्ष में प्रवर्धन करना हो तो उसके कन्द 180 दिन बाद खोदने चाहिए।

उपज
अरबी की उपज कई बातों पर निर्भर करती हैं जिनमें भूमि की उर्वरा शक्ति, उगाई जाने वाली किस्म उगाने की विधि और फसल की देखभाल प्रमुख हैं। यदि उपरोक्त वर्णित विधि और फसल की देखभाल प्रमुख हैं।