कुमुदनी साहू (पीएचडी स्कालर, फल विज्ञान विभाग), 
द्रोणक कुमार साहू (पीएचडी स्कालर, कृषि अर्थशास्त्र)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)

कद्दुवर्गीय सब्जियों के अन्तर्गत आने वाली यह ग्रीष्मकालीन महत्वपूर्ण फसलें हैं, इसके कच्चे परिपक्व फलों से सब्जी बनाई जा सकती हैं जबकि पके फल का उपयोग ताजे रूप में खाने के लिए किया जाता हैं। इसके बीज से गिरी निकालकर उसे भी कई रूपों में प्रयोग किया जाता हैं। पके फल मीठे, शीतल, दस्तावर एवं प्यास शांत करते हैं। खरबूज एवं तरबूज का खाया जाने वाला भाग लगभग 47-50 प्रतिशत तक होता हैं, इसमें विटामिन ए, बी एवं सी प्रचुर मात्रा में पायें जाते हैं, खरबूज एवं तरबूज में चीनी 10-12 प्रतिशत तक पायी जाती हैं।

पोषक मूल्य
तरबूज के पके फल रसदार व मीठे होते हैं। कभी-कभी इसके अधपके फलों से सब्जी भी बनाई जाती हैं। इसके बीजों से गिरियां निकालकर विभिन्न प्रकार से उपयोग किया जाता हैं। तरबूज का खाद्य-मूल्य नीचे दिया गया हैं-

खाद्य-मूल्य

प्रति 100 ग्राम खाद्यांश

नमी

92.00 ग्राम

प्रोटीन

7.00 ग्राम

कार्बोहाइडेªट्स

7.00 ग्राम

फास्फोरस

7.00 ग्राम

थायमिन

0.05 ग्राम

कैल्शियम

7.0 मिली ग्राम

रीबोफ्लेविन

0.05 मिली ग्राम

विटामिन

599.00 आई.यू.

जलवायु
तरबूज एवं खरबूज के अच्छी वृद्धि के लिए 36-39 डिग्री सेल्सियस का तापमान अनुकूल माना गया हैं, इसकी खेती के लिए नदी के किनारों की जलवायु उपयुक्त होती हैं।

भूमि
तरबूज को विभिन्न प्रकार के मृदाओं में उगाया जा सकता हैं, परन्तु इसकी अगेती फसल के रेतीली दोमट और अधिक उपज के लिए दोमट मृदाएं सर्वोत्तम मानी जाती हैं। विशेष रूप से नदियां किनारे के रेतीली भूमि में इसकी खेती की जाती हैं। मैदानी क्षेत्रों में उचित जल निकास वाली रेतीली दोमट भूमि सर्वोत्तम होती हैं। भूमि का पीएच 6.5-7.0 आदर्श माना जाता हैं।

किस्में
तरबूज- शुगर बेबी, अर्का ज्योति, अर्कामाणिक, दुर्गापुर, केसर, पूसा बेदना, इम्प्रूव्ड सिपर, आशायी यामातों।

संकर किस्में- मधु, मिलन, मोहिनी, इनके अलावा निजी कम्पनियों द्वारा भी कई किस्में विकसित की गयी हैं- पाटा नेगरा, मधु, पंतगरा।

इंडो अमेरिकन- पाटा नेगरा (संकर), मधु, पंतगरा।

नुंनहेम्स सीड्स- सुरभि, माया, माधुरी-64, खुशबू-10, मधुबाला-80, रेडहनी।

युनीकार्न सीड्स- रेडस्वीट, बेदना, सुल्तान।

खरबूज- पूसा शरबती, पूसा मधुरस, हरा मधु, पंजाब सुनहरी, दुर्गापुर मधु, अर्का राजहंस, अर्काजित।

संकर किस्में- सोना, स्वर्णा, एम-3, एम-4, पंजाब हाइब्रिड, पूसा रसराज आदि।

निजी कम्पनियों की किस्में- गंगा कावेरी-मीनाक्षी, मोहिनी।

सेंचुरी सीड्स- मधुमति, मधुबाला।

जुआरी सीड्स- दुब्बी।

नामधारी सीड्स- अभिजीत।

खेत की तैयारी
तरबूज एवं खरबूज को सामान्यतः गड्ढों में बुवाई करना हो या मेढ़ों में भूमि की पहले मिट्टी पलटनें वाले हल से एक गहरी जुताई करें, फिर दो बार बखर चलाकर खेत की मिट्टी को भुरभुरा और समतल करें। इसके बाद 1.5-2.5 मी. की दूरी पर बरहें निकालकर फिर इन बरहों की मेढ़ पर बुवाई करें। यदि गड्ढों में बुवाई हो तो 1×1×1 फीट आकार के गड्ढें बनायें और प्रत्येक गड्ढें में 15-20 किलो गोबर की खाद मिट्ट के साथ मिश्रित कर भर दें।

खाद एवं उर्वरक
250-300 क्विंटल गोबर की खाद या कम्पोस्ट 60-80 कि.ग्रा. नत्रजन, 50 कि.ग्रा. फास्फोरस एवं 50 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से दिया जाना चाहिए, इन खाद एवं उर्वरकों की पूर्ति करने हेतु गोबर की खाद, कम्पोस्ट, फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्राएं तथा नत्रजन की 1/3 मात्रा बीजों की बुवाई से पूर्व पूरे खेत में फैलाकर दें। बची हुई नत्रजन की मात्रा को पुनः दो भागों में बांटकर एक भाग बुवाई के 25 दिन बाद एवं दूसरा भाग बुवाई के 45 दिनों बाद दें।

बीजोपचार
बुवाई से पहले फफूंदनाशक दवा थाइरम 3 ग्राम प्रति किलों बीज की दर से सूखा उपचार करना चाहिए। यह भी पाया गया हैं कि बीजों को 24-36 घंटे तक सादे पानी में भिगोकर रखा जाये और फिर बीजों को छाया में फैलाकर अतिरिक्त पानी सूख जाने के बाद बोया जाये तो अंकुरण अच्छा एवं 7-10 दिन पहले होता हैं। बीजों की भिगोने के बाद बीजोपचार करना चाहिए।

बुवाई का समय 
बुवाई नदियों के किनारों पर दिसम्बर माह में बोया जाता हैं जबकि मैदानी भागों में इसे मध्य फरवरी से मध्य मार्च तक बोया जाता हैं।

बीज दर
तरबूज का प्रवर्धन बीज से किया जाता हैं। बीज की मात्रा इस बात पर निर्भर करती हैं कि पंक्ति और पौधों की आपसी दूरी कितनी रखनी हैं, इसके साथ किस्म की लता फैलने का स्वभाव कैसा हैं। आमतौर पर छोटे बीज वाली किस्मों व बड़े बीज वाली किस्मों वाली तरबूज के लिए 6-8 कि.ग्रा. बीज की मात्रा एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए आवश्यक होती हैं।

बुवाई की विधि
तरबूज व खरबूज का प्रवर्धन बीजों को पाॅलीथीन के थैलियों में उगाकर उनका रोपण भी किया जाता हैं। बीज को बुवाई से पूर्व 48 घण्टे पानी में भिगोया जाता हैं। ऐसा करने पर बीजों का अंकुरण जल्दी होता हैं। उच्च भूमि में अंकुरित बीजों को डौलियों बनाकर कूंडों और नालियों या नदियों के किनारे गड्ढों में बोया जाता हैं।

1. गड्ढा विधि
इस विधि में पहले गड्ढंे बनायें जाते हैं। सामान्यतः 1.5-2.5 मीटर की दूरी पर कतारों में गड्ढों का आकार 30-45 से.मी. लम्बा, चैड़ा एवं गहरा रखा जाता हैं। गड्ढें बनाकर एक सप्ताह के लिए उनकों खुला हुआ छोड़ देते हैं फिर प्रत्येक गड्ढों में 15-20 किलो गोबर की खाद या कम्पोस्ट की मिट्टी के साथ मिश्रण करके मिलाकर भर देते हैं। अंकुरण के बाद प्रत्येक गड्ढे में सिर्फ दो पौधे ही रखे जाते हैं। अन्य को हटा दिया जाता हैं। यह विधि नद के किनारे बुवाई पर अपनायी जाती हैं।

2. समतल या मेढ़ पर बुवाई
मैदानी क्षेत्रों में विशेषकर बुवाई की यह विधि के अन्र्तगत तैयार खेत में 1.5-2.5 मी. की दूरी पर इन मेढ़ पर 1.0-1.5 मी. की दूरी पर बीजों को बोया जाता हैं।

निंदाई-गुड़ाई
तरबूज एवं खरबूज के पौधे जब तक छोटे रहें उस समय तक दो बार अच्छी तरह गुड़ाई करें ताकि खेत के पूरे खरपतवार निकल जायें। जब पौधों से बैलें चलने लगती हैं तब खरपतवार की वृद्धि स्वतः ही रूक जाती हैं। नींदा नियंत्रण के लिए एलाक्लोर 50 ई.सी. 2 लीटर सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से बीज बुवाई के बाद एवं अंकुरण के पूर्ण छिड़काव कर मृदा में गुड़ाई कर के मिला दें। छिड़काव हेतु 500 लीटर पानी का प्रयोग करें और स्प्रेयर में फ्लेट फेन नोजल का उपयोग करें, छिड़काव के सभी भूमि में नमी की उचित मात्रा होनी चाहिए।

सिंचाई
तरबूज एवं खरबूज ग्रीष्म ऋतु की फसल होने के कारण बलुई मिट्टी में उगाई जाने के कारण सिंचाई की कम अन्तराल पर आवश्यकता होती हैं। नदी के किनारे लगाई गयी फसल को पौधों के स्थापित होने तक (लगभग डेढ़ माह तक) सिंचाई की आवश्यकता होती हैं बाद में स्वयं ही नदी का पानी ग्रहण करने लगते हैं। अन्य स्थानों पर तीसरे-चैथे दिन सिंचाई करनी चाहिए।

हारमोन नियंत्रण
इनमें भी मादा फूल ढ़ेर से और कम संख्या में आते हैं जिससे उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं। अतः पौधों में मादा फूलों का अनुपात घटाने के लिए हारमोन का उपचार करने की आवश्यकता होती हैं। हारमोन के अन्तर्गत जब पौधों में दो एवं 4 पत्तियों की अवस्था होती हैं। (बुवाई के 15 दिन से 20 दिनों तक) तब इथे्रल के 250 पी.पी.एम. सान्र्द्रता का घोल बनाने के लिए 2 मि.ली. इथरेल 1 ली. पानी में घोलना चाहिए। इस हारमोन उपचार से अधिक उपज प्राप्त होती हैं।

कीट एवं उसक नियंत्रण

लालड़ी
यह लाल रंग का चमकीला, 7 मि.मी. लम्बा और 2.5 मि.मी. चौड़ा कीट होता हैं। इसका शरीर लाल रंग के कठोर पंखों से ढ़का होता हैं। शरीर की निचली सतह पर काले पतले रोम होते हैं। इसके छोटे कीट पौधों की कोमल पत्तियों को खाकर बिल्कूल नष्ट कर देते हैं। जिसके कारण पौधों का विकास एवं बढ़वार रूक जाता हैं। इसके प्रौढ़ फसल को काफी क्षति पहुंचाते हैं। इस कीट के प्रकोप के कारण पत्तियां छलनी सदृश्य हो जाती हैं।

नियंत्रण
सूर्योदय के पूर्व यह कीट सुस्त रहते हैं अतः उस समय इन्हें हाथ से पकड़कर मार देना चाहिए। पौधों पर उसके उपचार के लिए कार्बोरिल डस्ट 5 प्रतिशत की 20 किलो मात्रा/हेक्टेयर के मान से भुरकाव करें या पौधों पर इमिडाक्लोप्रिड या क्विनाल फाॅस 500 मि.ली. 600 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करें।

फल मक्खी
यह फलों के छिलकों के नीचे अंडे देती हैं। जिनसे सूंडियां निकलकर गूदे में प्रवेश कर जाती हैं जिसके कारण फल सड़कर जमीन पर गिर जाते हैं। सूखे मौसम में इस कीट की संख्या बहुत कम हो जाती हैं। परन्तु वर्षा के मौसम में इसकी संख्या में वृद्धि हो जाती हैं। मक्खी जिस जगह अंडे देती हैं। वहां पर छोटे-छोटे निशान दिखाई देते हैं। जो गोंद जैसे पदार्थ से ढ़के रहते हैं। मादा अंडे देने से पूर्व कई बार फल में छिद्र करती हैं जिससे फल के ऊपर रस निकल आता हैं। कीट ग्रस्त फल या तो विकृत हो जाते हैं या फिर ऊपर से देखने में सामान्य-मालूम पड़ते हैं। प्रौढ़ मक्खी प्रत्यक्ष रूप से कोई क्षति नहीं पहुंचाती हैं।

नियंत्रण
कीट से प्रभावित फलों को तोड़कर नष्ट कर देना चाहिए। इसके नियंत्रण के लिए प्रारंभिक अवस्था में इमिडाक्लोप्रिड 1000 मि.ली. 600 लीटर पानी में घोल बनाकर दो छिड़काव 15 दिनों के अंतर से करें। प्रौढ़ मक्खी हेतु लुभावने चारों का प्रयोग करना चाहिए। इसके निर्माण के लिये फैनाथियोन (0.5 प्रतिशत) 5 प्रतिशत शक्कर की चाशनी मिलाकर छिड़कते हैं।

चैंपा
यह कीट पौधे के कोमल अंगों का रस चूसता हैं। जिसके कारण पौधों के ओज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं। यह कीट विषाणु रोग फैलानें में सहायता करता हैं।

नियंत्रण
इस कीट के नियंत्रण के लिए 0.5 प्रतिशत इमिडाक्लोप्रिड या थायोमैक्साम 70 डब्ल्यू.एस. का छिड़काव करना चाहिए।

प्रमुख रोग एवं उसका नियंत्रण

मृदुरोमिल आसिता रोग
यह रोग स्यूडोपेरोनेस्पोरा कुबेनसिस नामक फफूंदी से होता हैं। हल्के पीले रंग के कोणीय पत्तियों की ऊपरी सतह पर बनते हैं। पत्ती के निचली सतह पर रूई की तरह बैंगनी रंग के धब्बे बढ़ते आकार में दिखाई देते हैं। वातावरण में नमी की अधिकता बढ़ने पर इस रोग का प्रकोप बढ़ जाता हैं, जिससे पौधों की रोगग्रस्त पत्तियां नष्ट होकर पौधा भी नष्ट हो जाता हैं ऐसे में फल आदि बनते भी हैं तो बहुत छोटे रह जाते हैं।

नियंत्रण
रोगी पौधों को उखाड़कर जमीन में नीचे दबा दें जल निकास का प्रबंध करें, लताओं को सहारा दें। कवकनाशी का प्रयोग खड़ी फसल में छिड़काव के लिए मैंकोजेब 2.5 ग्राम दवा का प्रति लीटर का काॅपर ऑक्सीक्लोराइड 50 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. 0.25 प्रतिशत का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। पहला छिड़काव रोग के लक्षण दिखाई पड़ते ही, शेष 10-12 दिन के अन्तर पर करना चाहिए।

चूर्णी फफूंदी
यह रोग ऐरीसाइफी सिकोरेसिएरम नामक फफूंदी के कारण होता हैं। इस रोग के कारण पुरानी पत्तियों की निचली सतह पर सफेद धब्बे उभर आते हैं। धीरे-धीरे इन धब्बों की संख्या एवं आकार में वृद्धि हो जाता हैं और बाद में पत्तियों के दोनों ओर चूर्णिल वृद्धि दिखाई देती हैं। पत्तियों की सामान्य बढ़वार रूक जाती हैं व पीली पड़ जाता हैं और पौधा मर जाता हैं।

नियंत्रण
पौधे के रोगी भाग को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए। उचित जल निकास का प्रबंधन करना चाहिए। कवकनाशी का छिड़काव रोग के लक्षण दिखते ही दवा के रूप में गंधक का चूर्ण 25-30 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव करना चाहिए या सलफेक्स 2 कि.ग्रा. एक हजार लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।

फलों की तुड़ाई
इनकी फसल बीज बुवाई के 90-120 दिन बाद फल तोड़ाई करने के लिये तैयार हो जाते हैं, जो इसकी किस्म एवं मौसम पर निर्भर करती हैं। हल्के हरे रंग के फल का जो भू-भाग भूमि से लगा रहता हैं वह सफेद से क्रीम कैसे हो जाए और गहरे हरे रंग की त्वचा वाले पीले रंग के हो जाए व इसकी परिपक्वता के लाभप्रद संकेत हैं, भारी मंद आवाज से इसकी परिपक्वता का पता चलता हैं। प्रतान जमदकतपस जो तरबूज के आधार होते हैं, जब सूख जाए, वह परिपक्वता की अच्छी पहचान होती हैं। परागण के 30-40 दिन बाद तोड़ाई के लिये तैयार हो जाते हैं। फलों को चाकू से काटकर अलग करना चाहिए।

उपज
तरबूज की उपज कई बातों पर निर्भर करती हैं। जिनमें भूमि की उर्वराशक्ति, उगाई जाने वाली किस्म, मौसम और फसल की देखभाल पर निर्भर करती हैं। प्रति हेक्टेयर 200-250 क्विंटल तक उपज मिल जाती हैं जबकि संकर किस्मों से 300 क्विंटल तक प्रति हेक्टेयर उपज मिल जाता हैं।