बजरंग बली1, पद्माक्षी ठाकुर2, देवशंकर राम3, एवं उपेन्द्र कुमार नायक2,
1. एम.एस.सी, उद्यानिकी, सब्जी विज्ञान विभाग, इ.गा.कृ.वि.वि.,रायपुर (छ.ग.)
2. श.गु.कृ.महा.एवं अनुसंधान केन्द्र, जगदलपुर
3. निर्देशक विस्तार सेंवायें इ.गा.कृ.वि.वि.,रायपुर (छ.ग.)

शकरकंद एक कन्दीय फसल है जिसकी खेती मुख्यतः खरीफ एवं रबी में की जाती है। इसका वानस्पतिक नाम आइपोमिया बटाटास है तथा कोनवोलवुलेसी कुल में आता है। इसकी उत्पति उष्णकटिबंध उत्तर अमेरिका मानी जाती है। पूरे भारतवर्ष में इसके खेती इसके कंदो के लिये की जाती है। इसके विभिन्न नामो जैसे कि शकरकंदी, लाल कांदा, इत्यादि के नाम से जाना जाता है। छत्तीसगढ़ में इसे लाल कांदा या केवट कांदा के नाम से जाना जाता है। भारत में कंदीवर्गीय फसलों में शकरकंद का स्थान आलू एवं कसावा के बाद तीसरे स्थान पर आता है। छत्तीसगढ़ में इसकी खेती प्रायः सभी जिलों में किया जाता है, क्षेत्रफल की दृष्टि से कोण्डागांव, सरगुजा, बलरामपुर, महासमुन्द एवं कोरबा जिलो में ज्यादातर शकरकंद की खेती किया जाता है। उपयुक्त जिलों में सबसे ज्यादा कोण्डागांव में 716 हेक्टेयर क्षेत्रफल में 6.331 हजार मिट्रीक टन उत्पादन एवं कोरबा में अधिक उत्पादकता 18.95 मिट्रीेक टन प्रति हेक्टेयर वर्ष 2020 में उद्यानिकी एवं प्रक्षेत्र वानिकी विभाग छत्तीसगढ़ के द्वारा दर्ज किया गया।
    अच्छी सेहत के लिये शकरकंद का सेवन बहुत फायदेमंद होता है। इसमें कैल्शियम (30 mg/100g) मैग्नीशियम (24 मि.ग्रा.), पोटेशियम (373 मि.ग्रा.), सोडियम ( 13 मि.ग्रा.), फास्फोरस (49 मि.ग्रा.), क्लोरिन (85 मि.ग्रा.), सल्फर (26 मि.ग्रा.) एवं आयरन 0.8 मि.ग्रा. प्रति 100 ग्राम में पाया जाता है। इसके अलावा इसमें सुक्रोज, फ्रक्टोस, स्टार्च भी प्रचुर मात्रा में मौजूद होता है। शकरकंद का गुदा सफेद, नांरगी, गुलाबी, बैंगनी, इत्यादि रंग के भी होते है। नारंगी शकरकंद में बीटा कैरोटिन मौजूद होता है जो कि नारंगी रंग को देता है। बीटा कैरोटिन विटामिन- ए बनाने में मुख्य भूमिका निभाता है।
    शकरकंद को मुख्यतः उबालकर एवं भुनकर खाया जाता है एवं इससे विभिन्न उत्पाद चिप्स, रसगुल्ला, रबड़ी, बटाटा शेक जैसी पौष्टिक चीजे भी बनायी जाती है।
    शकरकंद का प्रवर्धन लताओं के द्वारा किया जाता है। चूूंकि इसका वानस्पतिक प्रवर्धन किया जाता है जिसकी उपलब्धता फसल लगाने के समय में होना एक बड़ी चुनौती है।

फसल लेने का समय
शकरकंद की मुख्यत खरीफ एवं रबी दोनों मौसम में की जाती है। खरीफ मे अगस्त-सितम्बर में मुख्य फसल लगाई जाती है जिसके लिये नर्सरी जुलाई अगस्त में तैयार की जाती है। एवं रबी की मुख्य फसल अक्टूबर-नवंबर में लगाई जाती है जिसके लिये अगस्त-सितम्बर से नर्सरी तैयार की जाती है।

रोपण सामग्री
एक हेक्टेयर में शकरकंद की खेती हेतु 72,000 से 83,000 शकरकंद लता कर्तन की आवश्यकता होती है।

रोपण सामग्री के लिए नर्सरी का निर्माण (Raising nursery for planting material)

शकरकंद की खेती के लिए बड़ी मात्रा में रोपण सामग्री की आवश्यकता होती है। इसलिए रोपण सामग्री को शुरू में नर्सरी में उगाया जाता है ताकि बेलों की मात्रा बढ़ाई जा सके और फिर 20 - 25 सेंटीमीटर बेल काटकर मुख्य खेत में रोपाई की जाती है।

शककर कंद नर्सरी दो तरह की होती है - (1) प्राथमिक (2) द्वितीयक नर्सरी

प्राथमिक नर्सरी (Primary Nursery)
प्राथमिक नर्सरी तैयार करने के लिये मुख्य फसल लगाने के 3 महीने पहले शुरू की जाती है। एक हेक्टेयर भूमि की खेती के लिए 100 वर्गमीटर की प्राथमिक नर्सरी की आवश्यकता होती है। इसे लगाने के लिए लगभग 100 किलोग्राम के छोटे से मध्यम आकार के घुन विविल मुक्त और स्वस्थ कंद (125-150 ग्राम) की आवश्यकता होती है। और यदि स्टेम कटिंग का उपयोग किया जाता है, तो 20 - 25 सेमी. लम्बाई के 1,500 लता (स्टेम कटिंग) की आवश्यकता होता है। नर्सरी क्षेत्र में गोबर खाद थ्ल्ड खाद की अच्छी मात्रा को शामिल करें और 60 सेंटीमीटर के अंतराल पर मेंड़ (Ridges) बनाया जाता है। कंद या बेलों को मेंड़ (Ridges) पर 20 सेमी की दूरी पर उगाया जाता है। कंदो को 5-10 सेमी. की गहराई में लगाया जाता है। रोपण के बाद 15 दिनों में 1-1.5 किलोग्राम यूरिया खाद दिया जाता है, जिससे शीर्ष लताओं में त्वरित वृद्धि होती है। मौसम और बारिश के आधार पर एवं शुरुआती के कुछ दिनों में प्रत्येक दिन नर्सरी की सिंचाई की जानी चाहिये। 45 दिनों के बाद बेलों को प्राथमिक नर्सरी से बढ़ने हेतु 20 - 25 सेमी. की लंबाई कटिंग करके द्वितीयक नर्सरी में बढ़वार हेतु लगाया जाता है।

द्वितीयक नर्सरी (Secondary Nursery)
(1) प्राथमिक नर्सरी से प्राप्त रोपण सामग्री के बढ़वार हेतु द्वितीयक नर्सरी लगाई जाती है। शकरकन्द 01 हेक्टेयर क्षेत्र हेतु 500 वर्ग मीटर द्वितीयक नर्सरी पर्याप्त होती है। प्राथमिक नर्सरी से प्राप्त ताजे लता कर्तन जिनकी लम्बाई 20-25 से.मी. होती है जिसमें 3-4 नोड होते है उन्हे द्वितीयक नर्सरी में 60 से.मी. के दूरी में मेड़ बनाकर 20 से.मी. की दूरी पर लगा दिया जाता है। नर्सरी लगाते समय लगभग 500 कि.ग्रा. गोबर खाद (FYM) लताओं को लगाते समय मिट्टी मे अच्छी तरह से मिला दिया जाता है। गोबर की खाद अच्छी तरह से सड़ी हुई होनी चाहिये। पर्याप्त वानस्पतिक वृद्धि हेतु 5 कि.ग्रा. यूरिया को दो चरणों में पहला: बेल लगाने के 15 दिन बाद और दूसरा बेल लगाने के 30 दिन बाद देना चाहिये। नर्सरी अच्छी तरह से तैयार हो जाय इस हेतु शुरूआत के दिनों में प्रत्येक दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिये। और उसके बाद एक सप्ताह में 3 बार सिंचाई जरूर करनी चाहिये। 45 दिनों के उपरांत यह नर्सरी, लताकर्तन निकालने हेतु तैयार हो जाती है।

लताओं की चयन (Selection of Vines)
लताओं का चयन बेल के किसी भी भाग को उपयोग से किया जा सकता है लेकिन लता के शीर्ष और मध्य भाग से प्राप्त कटिंग जिसकी लम्बाई 20-25 से.मी. एवं जिसमे 3-4 नोड उपस्थित हो, मुख्य क्षेत्र में रोपण के लिए बेहतर होते है, इससे कंद की अच्छी पैदावार होती है।

लताओ की तैयारी (Preparation of Vine)
मुख्य खेत में रोपण से पहले दो दिनों के लिए छाया के नीचे गुच्छो मे पत्तियों के साथ कटे हुए बेल को संग्रहित करें। यह तेजी से जड़ों के विकास को प्रोत्साहित करता है। किसी भी कीट-पतंगों विशेष रूप से जड़ घुन (Root we evil) के नियंत्रण के लिए बेलों को मोनोक्रोटोफॉस के 0.5% घोल में डुबा कर उपचारित किया जाना चाहिए जिससे स्वस्थ फसल की वृद्धि होती है । यदि बेलों को लंबी दूरी ले जाना हो, तो पैकिंग और परिवहन से पहले सभी पत्तियों को हटा दिया जाता है।

भूमि की तैयारी (Preparation of Soil)
सर्वप्रथम भूमि को मोल्ड बोर्ड हल से गहरी जोताई करके मिट्टी तैयार किया जाता है। जिसके बाद कल्टीवेटर, देशी हल या टिलर से 15-20 सेमी. की गहराई तक मिट्टी को पलटने के बाद रोटावेटर द्वारा मिट्टी को भूरभुरा किया जाता है। शकरकंद खेती के लिए आम तौर पर लताएँ और रोपण की विधि का पालन किया जाता है। कुछ स्थानों पर फ्लैट बेड पद्धति का भी अभ्यास किया जाता है, लेकिन बाद में टयूबराइजेशन को बढ़ावा देने के लिए अर्थिंग किया जाता है। आम तौर पर जलयुक्त मिट्टी में टीले की विधि को प्राथमिकता दी जाती है, जबकि मृदा क्षरण और जल संरक्षण को रोकने के लिए ढलान, पहाड़ी क्षेत्रों में रिज और फरो विधि को प्राथमिकता दी जाती है। ढलान क्षेत्रों में आम तौर पर रिज और फरो विधि का पालन किया जाता था। भारतीय परिस्थितियों में टीलों में लगाए जाने पर उच्च कंद की पैदावार दर्ज किया गया जो मिट्टी के बेहतर गुड्वत्ता के कारण हुआ।

भूमि की तैयारी

लताओं की रोपण 


अर्थिंग विधि

लता कर्तन लगानें की विधि -
मुख्य खेत में लता कर्तन दो तरह से लगाया जाता है:-

1. कटिंग मिट्टी में लगाये जाते है, जिसके दोनों सिर उजागर होते है, मध्य भाग मिट्टी में दबाया जाता है। लताओं को भी झुके हुए स्थान पर लगाया जाता है, जिसके आधे सिरे को मिट्टी में दबा दिया जाता है।

2. 25-30 से.मी. लता कर्तन को 60 से.मी. के मेंड़ बनाकर 20-20 से.मी. दूरी रखते हुये लगाना

क्षैतिज रोपण के परिणाम स्वरूप उच्च पौधे के जिवित रहने से जड प्रणाली का बेहतर विकास होता है। गहराई रोपण से कोई लाभ नहीं है जहां 3 से अधिक नोड मिट्टी की सतह से नीचे है क्योंकि यह कन्द की उपज में बहुत कम योगदान देता है और छोटे गैर-विपणन योग्य ग्रेड कंद का उत्पादन करता है।

उपरोक्त बताये गये विधि से रोपण सामग्री तैयार करना एवं उससे मुख्य फसल की खेती करने से अधिक उपज की प्राप्ति होती है।

छत्तीसगढ के लिए उपयुक्त उन्नत किस्म -
क्र. उन्नत किस्म विवरण
1. छत्तीसगढ़ शकरकंद प्रिया उत्पादन 35 टन प्रति हेक्टेयर एवं औसत उत्पादन 28 टन प्रति हेक्टेयर
अवधिः 100-110 दिन मध्यमपरिपक्वता।
2. छत्तीसगढ़ शकरकंद नांरगी उत्पादन 28.66 टन प्रति हेक्टेयर एवं औसत उत्पादन 23.79 टन प्रति हेक्टेयर
अवधि 90 दिन अगेती परिपक्वता।
3. इंदिरा मधुर औसत उत्पादन उत्पादन 26 टन प्रति हेक्टेयर
अवधि 100-120 दिन।
4. इंदिरा नंदिनी उत्पादन 26 टन प्रति हेक्टेयर एवं औसत उत्पादन 25.33 टन प्रति हेक्टेयर
अवधि 120 दिन मध्यम परिपक्वता।
5. इंदिरा नवीन औसत उत्पादन 33.8 टन प्रति हेक्टेयर
अवधि 90-100 दिन अगेती परिपक्वता।