ईश्वर साहू, प्रदीप कुमार साहू एवं सरिता

(एम.एससी.उद्यानिकी) रा.वि.सि.कृ.वि.ग्वालियर (म.प्र.)

ताजगी से भरपूर लौकी कद्दूवर्गीय खास सब्जी हैं। इसे बहुत तरह के व्यंजन जैसे रायता, कोफ्ता, हलवा व खीर वगैरह बनाने के लिए भी इस्तेमाल करते हैं। यह कब्ज को करने, पेट को साफ करने, खांसी या बलगम दूर करने में बहुत फायदेमंद हैं। इसके मुलायम फलों में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट व खनिज लवण के अलावा प्रचुर मात्रा में विटामिन पाए जाते हैं। लौकी की खेती पहाड़ी इलाकों से लेकर दक्षिण भारत के राज्यों तक की जाती हैं।

जलवायु
लौकी की अच्छी पैदावार के लिए गरम व आर्द्रता वाले रकबे मुनासिब होते हैं। इसकी फसल जायद व खरीफ दोनों मौसमों में आसानी से उगाई जाती हैं। इसके बीज जमने के लिए 30-35 डिग्री सेंटीग्रेड और पौधों की बढ़वार के लिए 32 से 38 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान मुनासिब होता हैं।

प्रमुख किस्में

पूसा समर प्रोलिफिक राउन्ड
यह अगेती किस्म है। इसकी बेलों का बढ़वार अधिक और फैलने वाली होती हैं। फल गोल मुलायम/कच्चा होने पर 15 से 18 सेमी तक के घेरे वाले होते हैं, जो हल्के हरे रंग के होते है। बसंत और ग्रीष्म दोनो ऋतुओं के लिए उपयुक्त हैं।

पुसा समर प्रोलेफिक लोंग
यह किस्म गर्मी और वर्षा दोनो ही मौसम में उगाने के लिए उपयुक्त रहती हैं। इसकी बेल की बढ़वार अच्छी होती हैं, इसमें फल अधिक संख्या में लगते हैं। इसकी फल 40 से 45 सेमी लम्बे तथा 15 से 22 सेमी घेरे वाले होते हैं, जो हल्के हरे रंग के होते हैं। उपज 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।

नरेंद्र रश्मि
यह फैजाबाद में विकसित प्रजाती हैं। प्रति पौधा से औसतन 10-12 फल प्राप्त होते है। फल बोतलनुमा और सकरी होती हैं, डन्ठल की तरफ गूदा सफेद औैर करीब 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है।

पूसा नवीन
यह संकर किस्म है, फल सुडोल आकर्षक हरे रंग के होते है एवं औसतन उपज 400-450 क्ंवटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है, यह उपयोगी व्यवसायिक किस्म है।

मिट्टी और खेत की तैयारी
बलुई, दोमट व जीवांश युक्त चिकनी मिट्टी जिस में पानी सोखने की कूवत अधिक हो और जिस का पीएच मान 6.0-7.90 हो। लौकी की खेती के लिए मुनासिब होती हैं। पथरीली या ऐसी भूमि जहां पानी भरता हो और निकासी का अच्छा इंतजाम न हों, इसकी खेती के लिए अच्छी नहीं होती हैं। खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और बाद में 2 से 3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करते हैं। हर जुताई के बाद खेत में पाटा चलाकर मिट्टी को भुर-भुरी व इकसार कर लेना चाहिए ताकि खेत में सिंचाई करते समय पानी बहुत कम या ज्यादा न लगे।

खाद एवं उर्वरक
अच्छी उपज के लिए 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 35 किलोग्राम फाॅस्फोरस व 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फाॅस्फोरस व पोटाष की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय देनी चाहिए। बची हुई नाइट्रोजन की आधी मात्रा 4-5 पत्ती की अवस्था में और बची आधी मात्रा पौधों में फूल बनने से पहले देनी चाहिए।

बीज की मात्रा
सीधी बीज बोवाई के 2.5-3 किलोग्राम बीज 1 हे. के लिए काफी होतो हैं। पाॅलीथीन के थैलों या नियंत्रित वातावरण युक्त गृहों में नर्सरी उत्पादन करने के लिए प्रति हे. 1 किलोग्राम बीज ही काफी होता हैं।

बोवाई का समय
आमतौर पर लौकी की बोवाई गर्मी यानी जायद में 15-25 फरवरी तक और बरसात यानी खरीफ में 15 जून से 15 जुलाई तक कर सकते हैं। पहाड़ी इलाकों में बुवाई मार्च-अप्रेल के महीनों में की जाती हैं।

बोवाई की विधि
लौकी की बोवाई के लिए गर्मी के मौसम में 2.5-3.5 मीटर व बारिष के मौसम में 4-4.5 मीटर की दूरी पर 50 सेंटीमीटर चैड़ी व 20-25 सेंटीमीटर गहरी नालियां बना लेते हैं। इन नालियों के दोनों किनारे पर गर्मी में 60-75 सेंटीमीटर व बारिश में 80-85 सेंटीमीटर फासले पर बीजों की बुवाई करते हैं। एक जगह पर 2-3 बीज 4 सेंटीमीटर की गहराई पर बोने चाहिए।

सिंचाई
खरीफ मौसम में खेत की सिंचाई करने की जरूरत नहीं होती, पर बारिश न होने पर 10 से 15 दिनों के बाद सिंचाई की जरूरत पड़ती हैं। अधिक बारिश की हालत में पानी निकालने के लिए नालियों का गहरा व चैड़ा होना जरूरी हैं। गर्मी में ज्यादा तापमान होने के कारण 4 से 5 दिनों के फासले पर सिंचाई करनी चाहिए।

निराई एवं गुड़ाई
आमतौर पर खरीफ मौसम में या सिंचाई के बाद खेत में काफी खरपतवार उग आते हैं, लिहाजा उनको खुरपी की मदद से 25-30 दिनों में निराई करके निकाल देना चाहिए। पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए2-3 बार निराई-गुड़ाई करके जड़ों के पास मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए। रासायनिक खरपतवारनाशी के रूप में व्यूटाक्लोरा रसायन की 2 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बोवाई के तुरंत बाद छिड़कनी चाहिए।

कीट एवं नियंत्रण

लाल कीट
इस कीट का प्रौढ़ चमकीले नारंगी रंग का होता हैं। सूंडी जमीन के अंदर पाई जाती हैं। इसकी सूंडी व प्रौढ़ दोनों जमीन के अंदर पाए जाते हैं। सूंडी व वयस्क दोनों ही नुकसान करते हैं। ये प्रौढ़ पौधों की छोटी पत्तियों को ज्यादा नुकसान पहुंचाती हैं। प्रौढ़ कीट खासतौर पर मुलायम पत्तियां अधिक पसंद करते हैं। इस कीट के अधिक आक्रमण से पौधे पत्ती रहित हो जाते हैं।

नियंत्रण
  • सुबह ओस पड़ने के समय राख का बुरकाव करने से प्रौढ़ कीट पौधों पर नहीं बैठते हैं, जिससे नुकसान कम होता हैं।
  • जैविक विधि से रोकथाम के लिए अजादी रैक्टिन 300 पी.पी.एम. 5-10 मिली लीटर या अजादी रैक्टिन 5 फीसदी 0.5 मिली लीटर की दर से 2 या 3 बार छिड़कने से फायदा होता हैं।

फल मक्खी
इस कीट की सूंडी नुकसान करती हैं। प्रौढ़ मक्खी गहरे भूरे रंग की होती हैं। इसके सिर पर काले व सफेद धब्बे पाए जाते हैं। प्रौढ़ मादा छोटे मुलायम फलों के अंदर अंडे देना पसंद करती हैं। अंडों से ग्रब्स सूंडी निकलकर फलों के अंदर का भाग खाकर खत्म कर देते हैं। कीट फल के जिस भाग पर अंडे देते हैं, वह भाग वहां से टेढ़ा होकर सड़ जाता हैं और नीचे गिर जाता हैं।

नियंत्रण
  • गर्मी की गहरी जुताई या पौधे के आसपास खुदाई करें ताकि मिट्टी की निचली परत खुल जाए जिससे फल मक्खी का प्यूपा धूप द्वारा नष्ट हो जाए।
  • फल मक्खी द्वारा खराब किए गए फलों को इकट्ठा करके खत्म कर देना चाहिए।
  • नर फल मक्खी को नष्ट करन के लिए प्लास्टिक की बोतलों को इथेनाल कीटनाशक डाइक्लोरोवास या कार्बारिल या मैलाथियान क्यूल्यूर को 6ः1ः2 के अनुपात के घोल में लकड़ी के टुकड़े को डुबोकर 25-30 फंदे खेत में स्थापित कर दने चाहिए। कार्बारिल 50 डब्यूपी, 2 ग्राम प्रति लीटर पानी या मैलाथियान 50 ईसी 2 मिली लीटर प्रतिलीटर पानी को लेकर 10 फीसदी षीरा या गुड़ में मिलाकर जहरीले चारे को एक हेक्टेयर खेत में 250 जगहों पर इस्तेमाल करना चाहिए।
  • प्रतिवर्षी 4 फीसदी नीम की खली का इस्तेमाल करें, जिससे जहरीले चारे की ट्रैपिंग की कूवत बढ़ जाए। जरूरतानुसार कीटनाशी जैसे क्लोरेंट्रानीलीप्रोल 18.5 एस.पी. 0.25 मिली लीटर या डाईक्लारोवास 76 ईसी 1.25 मिली लीटर का प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव कर सकते हैं।

रोग एवं नियंत्रण

चूर्णिल आसिता
रोग की शुरूआत में पत्तियों और तनों पर सफेद या धूसर रंग पाउडर जैसा दिखाई देता हैं। कुछ दिनों के बाद ये धब्बे चूर्ण भरे हो जाते हैं। सफेद चूर्णी पदार्थ आखिर में समूचे पौधे की सतह को ढ़ंक लेता हैं। अधिक प्रकोप के कारण पौधे जल्दी बेकार हो जाते हैं। फलों का आकार छोटा रह जाता हैं।

नियंत्रण
इसकी रोकथाम के लिए खेत में फफंूदनाशक दवा जैसे 0.05 फीसदी ट्राइडीमोर्फ 1 लीटर पानी में घोलकर 7 दिनों के फासले पर छिड़काव करें। इस दवा के न होने पर फ्लूसिलाजोल 1 ग्राम प्रति लीटर पानी या हेक्साकोनाजोल 1.5 मिली लीटर पानी की दर से छिड़काव करें।

मृदुरोमिल फफूंदी
यह रोग बारिश वाली व गर्मी वाली फसलों में बराबर लगता हैं। उत्तरी भारत में इस रोग का हमला ज्यादा होता हैं। इस रोग की खास पहचान पत्तियों पर कोणीय धब्बे पड़ना हैं। ये कवक पत्ती के ऊपरी भाग पर पीले रंग के होते हैं और नीचे की तरफ रोएंदार बढ़वार करते हैं।

नियंत्रण
  • बचाव के लिए बीजों को मेटलएक्सिल नामक कवकनाशी की 3 ग्राम दवा से प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर के बोना चाहिए और मैंकोजेब 0.25 फीसदी का छिड़काव रोग की पहचान होने के एकदम बाद फसल पर करना चाहिए।
  • यदि संक्रमण भयानक हालत में हो तो मैटालैक्सिल व मैंकोजेब का 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से या डाइमेयामर्फ का 1 ग्राम प्रति लीटर पानी व मैटीरैम का 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से 7 से 10 दिनों के फासले पर 3 से 4 बार छिड़काव करें।

फलों की तोड़ाई व उपज
लौकी के फलों की तोड़ाई मुलायम हालत में करनी चाहिए। फलों का वजन किस्मों पर निर्भर करता हैं। फलों की तोड़ाई डंठल लगी अवस्था में किसी तेज चाकू से करनी चाहिए। तोड़ाई 4 से 5 दिनों के अंतराल पर करनी चाहिए ताकि पौधों पर ज्यादा फल लगे। औसतन लौकी की उपज 300-400 क्विं. प्रति हेक्टेयर होती हैं।