डॉ. अभय बिसेन. सहायक प्राध्यापक (उद्यानिकी), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, कोरबा छ.ग.

रजनीगंधा कन्दीय पौधों में एक विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान हैं, इसे गुलचरी और गुलशाब्बों के नाम से भी जाना जाता हैं। यह पोलिएन्थस जीनस का पौधा हैं और इसकी कई प्रजातियाँ हैं। यह एमेरलिडेसी परिवार का पौधा हैं, इसे गमलों, क्यारियों और बोर्डर में उगाया जाता हैं। इससे सम्बन्धित लगभग 12 प्रजातियों का उत्पत्ति स्थान मैक्सीको बताया जाता हैं। हमारे छत्तीसगढ़ में भी इसकी खेती कर अधिक उत्पादन लिया जा सकता हैं। यहां की जलवायु रजनीगंधा के लिए उपयुक्त हैं।

उपयोगिता
इसे इसकी खुशबू और काफी समय तक सुरक्षित रहने वाले फूलों के लिए उगाया जाता हैं। इसके फूलों से मालाएँ और वेणियों का निर्माण किया जाता हैं। इसके अलावा इसे कटे फूलों के लिए उगाया जाता हैं। रजनीगंधा के तेल का उपयोग इत्र के लिए किया जाता हैं। रजनीगंधा एक अर्ध कठोर, कंद वाला बहुवर्षीय पौधा हैं।

जलवायु
रजनीगंधा उगाने के लिए मृदुल जलवायु की आवश्यकता होती हैं। भारत में इसे 20-25 डिग्री सेल्सियस तापमान वाले, आर्द्र क्षेत्रों में व्यापरिक स्तर पर उगाया जा सकता हैं। इसके अच्छी बढ़वार के लिए उच्च आर्द्रता और लगभग 30 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती हैं।

मिट्टी
रजनीगंधा को विभिन्न्ा प्रकार की मृदा में उगाया जा सकता हैं। रेतीली दोमट या दोमट मृदाएँ, जिनका क्षारांक या पीएच मान 6.5-7.5 हो और उनका वायु संचार और जल निकास अच्छा हो, उसकी खेती के लिए उपयुक्त मानी गयी हैं। यदि आपको गमले में रजनीगंधा उगाना हैं तो निम्न वस्तुओं का मिश्रण भरना चाहिए-

बाग की मिट्टी    2 भाग

गोबर की खाद   1 भाग

रेत                     1 भाग

स्थान चयन
पौधों की अधिक बढ़वार और फूलों की अधिक पैदावार लेने के लिए स्थान चयन का विशिष्ट महत्व हैं। जहाँ तक संभव हो इसके लिए खुली धुप वाली भूमि का चयन करना चाहिए। गर्मी के दिनों में दोपहर के बाद थोड़ी छाया जरूरी हैं। रजनीगंधा के पौधे अधिक नमी को नहीं चाहते हैं, यदि किसी कारणवश पानी भर जाये तो उसे शीघ्र निकालने की व्यवस्था करना चाहिए।

किस्में
रजनीगंधा की किस्में तीन प्रकार की होती हैं-

अकेला (सिंगल फुल)
जिसमें दलपुंज खण्ड (कोरोला सेगमेन्ट) की पंक्ति होती हैं। रजत रेखा, श्रृंगार, प्रज्जवल।

थोड़ी डबल फुल
जिसमें दलपुंज खण्ड (कोरोला सेगमेन्ट) की दो या तीन पंक्ति होती हैं-वैभव।

डबल
जिसमें दलपुंजखण्ड (कोरोला सेगमेन्ट) की तीन से अधिक पंक्तियाँ होती हैं- स्वर्ण रेखा, सुवासिनी।

प्रवर्धन
रजनीगंधा की प्रवर्धन निम्न विधियों से किया जाता हैं-

(1) बीज द्वारा

(2) वानस्पतिक प्रवर्धन- यह दो प्रकार के होते हैं, कंदों द्वारा और कंदों के विभाजन करके इसका पौधा उगाया जाता हैं।

भूमि की तैयारी
रजनीगंधा की खेती में भूमि की तैयारी का विशेष महत्व हैं। खेत की भली-भांति जुताई व पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए। साथ ही उचित मात्रा में खाद भी डालना चाहिए। पूर्ण रूप से गली-सड़ी 50 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिए।

कंदों की रोपाई का समय
आमतौर पर पर्वतीय क्षेत्रों में अप्रेल-मई और मैदानी क्षेत्रों में फरवरी-मार्च में रजनीगंधा के कंदों की रोपाई की जाती हैं।

कंदों की रोपाई
कंदों करने से पहले निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-

(1) ताजे कंदों की रोपाई नहीं करनी चाहिए।

(2) कंदों को बोने के लिए उचित आकार का होना नितांत आवष्यक हैं।

(3) कंदों को रोपने से पहले ’’ब्लाइटोक्स’’ नामक दवा से उपचारित करके बोना चाहिए ताकि पौधों को फफूंदी वाले रोगों से बचाया जा सकें।(4) कंदों का आकार 2-3 से.मी. उपयुक्त होता हैं, जिसका वजन 30-50 ग्राम होना चाहिए।

(5) कंदों को 4-7 से.मी. की गहराई तक बोया जा सकता हैं, जो कंद के आकार, मिट्टी की स्वभाव और उसमें उगायें जाने वाले क्षेत्र पर निर्भर करता हैं।

(6) रजनीगंधा की फसल को तीन वर्ष तक फसल लेने के उपरांत दोबारा रोपाई करना आवश्यक हैं।

रोपण दूरी
रोपण की दूरी प्रति इकाई क्षेत्र पैदावार, फूल कंदों की गुणवत्ता प्रभावित करता हैं। कंदों को 20×20 से.मी. दूरी पर बोने से प्रति हेक्टेयर 250000 कंदों की आवश्यकता होती हैं। इससे अधिक से अधिक पुष्प डंडियाँ, फूल और कंदों की पैदावार मिलती हैं। कंदों को 30×30 से.मी. की दूरी पर बोने से अच्छी गुणवत्ता वाला पुष्प डंडियाँ प्राप्त होती हैं।

खाद एवं उर्वरक
रजनीगंधा की फसल के लिए कितनी मात्रा में पोषक तत्व चाहिए उसके लिए मृदा जांच कराना नितांत आवश्यक हैं। रजनीगंधा को अधिक मात्रा में पोषक तत्व की आवश्यकता होती हैं। रजनीगंधा की फसल के लिए 50 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद की आवश्यकता होती हैं।
200 किग्रा. नाइट्रोजन, 200 कि.ग्रा. फाॅस्फोरस, 150 कि.ग्रा. पौटेश्यिम प्रति हेक्टेयर देने से पैदावार अधिक मिलती हैं। 80-40-60 ग्राम प्रति वर्ग मीटर नाइट्रोजन, फाॅस्फोरस व पोटेश्यिम देने से फूलों और कंदों का उत्पादन अधिक होता हैं।

सिंचाई
रजनीगंधा की पौधों की उचित बढ़वार एवं उनके पुष्प में नमी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। रोपने से पूर्व सिंचाई करनी चाहिए। रोपने के उपरांत तब तक सिंचाई नहीं करनी चाहिए जब तक कंदों का फूटाव न हो जायें। रजनीगंधा के खेत की सिंचाई 10-15 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए। सिंचाई की टपक विधि बहुत ही उपयुक्त मानी जाती हैं।

खरपतवार नियंत्रण
रजनीगंधा की फसल को अधिक खाद और पानी दिये जाते हैं, तो फूलों की बढ़वार के साथ-साथ खरपतवार भी उग जाते हैं। खरपतवारों को खुरपी से निराई-गुड़ाई करना अधिक प्रभावोत्पादक रहता हैं। प्रत्येक सिंचाई उपरांत निराई-गुड़ाई करना चाहिए। खरपतवार की विनाश के लिए कुछ रसायनों का उपयोग भी उपयुक्त पाया गया हैं, जिनमें एट्राजिन 3.0 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर अधिक उपयोगी पाया गया हैं।

पौध संरक्षक

रोग
रजनीगंधा में भयंकर रोग तो नहीं होता पर फिर भी कभी-कभी इसकी फसल को तना सड़न, पुष्प कलिका सड़न जैसे रोग लग जाते हैं।

तना सड़न
यह एक फफूंदी जनित रोग हैं, जिसके प्रभाव से भूमि स्तर से तना सड़ जाता हैं। रोगी पौधों की पत्तियों पर हल्के हरे रंग के धब्बे पड़ जाता हैं, जो बाद में पूरी पत्ती पर फैल जाते हैं। इस रोग की रोकथाम के लिए बाविस्टिन 0.5-1 प्रतिशत 20 दिन की अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए।

पुष्प कलिका सड़न
यह रोग इरविनिया प्रजाति की कीटाणु द्वारा फैलता हैं। इस रोग के लक्षण छोटी कलियों पर मुख्य रूप से दिखाई देते हैं जो बाद में सड़ जाते हैं। कुछ कलियाँ सिकुड़ जाते हैं और कुछ सूख भी जाती हैं। इस रोग की रोकथाम के लिए रोगोर 0.1 प्रतिशत का 2-3 बार छिड़काव करें।

कीट
रजनीगंधा को प्रमुख रूप से एफिड, थ्रिप्स हानि पहुंचाते हैं।

एफिड्स
यह कीट बहुत छोटे होते हैं, जो बढ़ते अंगों और पुष्प कलिकाओं को खाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए 10 दिन के अंतराल पर रोगोर 0.1 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए।

थ्रिप्स
ये पत्तियों, फूलों के तनों और फूलों को क्षति पहुँचाते हैं। कभी-कभी ये संक्रामक रोग, जिसे ’’बन्चीटाप’’ की संज्ञा दी जाती हैं, को फैलाने में सहायता प्रदान करते हैं, जिसके कारण ’’पुष्प गुच्छ’’ कुरूप हो जाते हैं। इसके रोकथाम के लिए 0.1 प्रतिशत रोगोर या 0.1 प्रतिशत मैलाथियान का छिड़काव करना चाहिए।

फूलों की तुड़ाई
रजनीगंधा की फूलों की तुड़ाई उसके फूलों के उपयोग पर निर्भर करती हैं। यदि उसके फूलों का उपयोग करना हैं तो उस स्थिति में पुष्प डंडियों को आधार से काटना चाहिए। यदि उसके फूलों का उपयोग माला या अन्य वस्तुओं के निर्माण के लिए करना हैं तो फूलों को एक-एक करके सावधानी से तोड़ना चाहिए। फूलों की तुड़ाई सदैव ठण्डे मौसम वाले करने से अर्थात् सुबह या शाम को करनी चाहिए।

उपज
फूलों की पैदावार कई बातों पर निर्भर करती हैं, जिसमें रजनीगंधा की किस्म, कंद का आकार, पौधों का घनत्व और कृषि कार्य महत्वपूर्ण हैं। रजनीगंधा की सिंगल किस्म से 15000 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर पैदावार होती हैं या 275000 स्पाइक्स प्राप्त होते हैं। रजनीगंधा की औसत पैदावार 20 टन प्रति हेक्टेयर होती हैं। रजनीगंधा की औसत पैदावार 20 टन प्रति हेक्टेयर होती हैं। 9-10 कि.ग्रा. तेल की प्राप्ति होती हैं। 20×20 की दूरी पर रोपने से 3 वर्ष की फसल से 21-23 टन कंदों की प्राप्ति होती हैं।