डॉ. अभय बिसेन, सहायक प्राध्यापक (उद्यानिकी), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, कोरबा (छ.ग.)
डॉ. स्वाती बिसेन, वैज्ञानिक (पादप रोग विज्ञान), कृषि विज्ञान केंद्र, रायपुर (छ.ग.)

करेला हमारे देश के लगभग सभी प्रदेशों में एक लोकप्रिय सब्जी है। इसके फलों का उपयोग रसेदार, भरवाँ या तले हुए शाक के रूप में होता है। कुछ लोग इसे सुखाकर भी संरक्षित करते हैं। यह खीरा वर्गीय फसलों की एक मुख्य फसल है। करेला केवल सब्जी ही नहीं बल्कि गुणकारी औषधि भी है। इसके कडवे पदार्थ द्वारा पेट में उत्पन्न हुए सूत्रकृमि तथा अन्य प्रकार के कृमियों को खत्म किया जा सकता है। करेले का उपयोग अनेक दवाइयों में भी होता है। गठिया रोग के लिए यह एक अत्यंत गुणकारी औषधि है। इसको टॉनिक के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। अनेक रोग जैसे मधुमेह आदि के उपचार के लिये यह एक रामबाण है। करेला के फलों तथा पत्तियों का रस आदि से उदर (पेट) के अनेक प्रकार के रोगों को दूर किया जाता है। करेला में अनेक प्रकार के खनिज तत्वों का समावेश होता है। इसके फलों में प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन-ए तथा सी आदि पाए जाते हैं। करेला की खेती से अधिकतम पैदावार के लिए किसानों सामान्य तरीके से खेती की तुलना में वैज्ञानिक तकनीक से खेती करनी चाहिए। इस लेख में करेला की उन्नत या वैज्ञानिक खेती कैसे करें का विस्तृत उल्लेख किया गया है।

जलवायु
करेले की खेती भारत में सदियों से की जा रहे हैं। इसके अलावा इससे किसी भी मौसम में उगाया जा सकता हैं। करेला के लिए गर्म एवं आद्र जलवायु की आवश्यकता होती है करेला अधिक शीत सहन कर लेता है परन्तु पाले से इसे हानी होती है।

बीज की मात्रा और समय
5-7 किलो ग्राम बीज प्रति हे. पर्याप्त होता है एक स्थान पर से 2-3 बीज 2.5-5 मी. की गहराई पर बोने चाहिए बीज को बोने से पूर्व 24 घंटे तक पानी में भिगो लेना चाहिए इससे अंकुरण जल्दी, अच्छा होता है। करेले की बुवाई ग्रीष्म ऋतु में फरवरी से मार्च तथा वर्षा ऋतु में जुन से जुलाई के मध्य करना चाहिए।

मैदानी क्षेत्र- फरवरी से मार्च (सिंचित क्षेत्र) मई से जून (असिंचित क्षेत्र) बीजाई के लिए उपयुक्त है।

मध्य क्षेत्र- अप्रैल से मई बीजाई के लिए उपयुक्त है।

ऊँचे क्षेत्र- अप्रैल बीजाई के लिए उपयुक्त है।

वर्षा ऋतु- जुन से जुलाई उपयुक्त है।

करेले की उन्नत किस्में

पूसा दो मौसमी
नाम के अनुसार यह किस्म दोनों मौसम (खरीफ व जायद) में बोई जाती है। फल बुआई के लगभग 55 दिन बाद तुड़ाई योग्य हो जाते हैं। फल हरे, मध्यम मोटे तथा 18 से.मी. लम्बे होते हैं।

पूसा विशेष
इसके फल हरे, पतले, मध्यम आकार के तथा खाने में स्वादिष्ट होते हैं। औसतन एक फल का वनज 115 ग्राम होता है। इसकी उपज 114-130 क्विंटल प्रति हैक्टेयर होती है।

अर्का हरित
इस प्रजाति के फल चमकीले हरे, आकर्षक, चिकने, अधिक गूदेदार तथा मोटे छिलके वाले होते हैं। फल में बीज कम तथा कड़वापन भी कम होता है। इसकी उपज 130 क्विंटल प्रति हैक्टेयर होती है।

भूमि और भूमि की तैयारी
बलुई दोमट तथा जीवांश युक्त चिकनी मिट्टी जिसमें जल धारण क्षमता अधिक हो तथा पी.एच.मान. 6.0-7.0 हो करेले की खेती के लिए उपयुक्त होती है । पथरीली या ऐसी भूमि जहाँ पानी लगता हो तथा जल निकास का अच्छा प्रबन्ध न हो इसकी खेती के लिए अच्छी नहीं होती है । खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल तथा बाद में 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करते हैं । प्रत्येक जुताई के बाद खेत में पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरी एवं समतल कर लेना चाहिए जिससे खेत में सिंचाई करते समय पानी कम या ज्यादा न लगे ।

खाद एवं उर्वरक
करेले की फसल में अच्छी पैदावार के लिए उसमे आर्गनिक खाद, कम्पोस्ट खाद का होना बहुत ज़रूरी है। खेत तैयार करते समय 40-50 क्विंटल गोबर की खाद खेत तैयार करते समय डालें। 125 किलोग्राम अमोनियम सल्फेट या किसान खाद, 150 किलोग्राम सुपरफॉस्फेट तथा 50 किलोग्राम म्युरेट ऑफ पोटाश तथा फॉलीडाल चूर्ण 3 प्रतिशत 15 किलोग्राम का मिश्रण 500 ग्राम प्रति गड्ढे की दर से बीज बोने से पूर्व मिला लेते हैं। 125 किलोग्राम अमोनियम सल्फेट या अन्य खाद फूल आने के समय पौधों के पास मिट्टी अच्छी तरह से मिलाते हैं।
जब फसल 25-30 दिन नीम का काढ़ा को गौमूत्र के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर छिडकाव करें की हर 15 व 20 दिन के अंतर से छिडकाव करें। फसल में सफ़ेद ग्रब पौधों को काफी हानि पहुचाती हैं। यह जमीन के अन्दर पाई जाती है और पौधों की जड़ों को खा जाती है जिसके करण पौधे सुख जाते है । इसकी रोकथाम के लिए खेतों में नीम की खाद का प्रयोग करें। रासायनिक कीटनाशी दवाएं जहरीली होती हैं। प्रयोग सावधानीपूर्वक करें। फल तोड़ने के 10 से 15 दिन पूर्व दवाओं का प्रयोग बंद कर देना चाहिए।

कुदरती खाद बनाएं
बीज बुवाई के 3 सप्ताह पश्चात जब करेला के पौधे में 3-4 पत्ते निकलना प्रारम्भ हो जाएं, उस समय 2000 लीटर बायोगैस स्लरी अथवा 2000 लीटर संजीवक खाद अथवा 40 किलो गोबर से निर्मित जीवामृत खाद प्रति एकड़ की दर से फसल को दें।
दूसरी बार जब पौधों पर फूल निकलने प्रारम्भ हो जाएं, उस समय पुन: उपरोक्त कुदरती खाद फसल को देनी चाहिए। इसी प्रकार जब करेला फसल की प्रथम तुड़ाई प्रारम्भ हो, उस समय 200 किलोग्राम वर्मी कम्पोस्ट में 50 किलोग्राम राख मिलाकर फसल पर छिड़काव कर देना चाहिए, ताकि फसल की उपज अधिक से अधिक मिल सके।

बीज बुआई
खेत में पहले 45 सेंटीमीटर चौडी नालियां 90 से 150 सेंटीमीटर की दूरी पर बना लें। उसके बाद नालियों के दोनों तरफ बनी मेढों की ढाल पर बीज की बोआई करें। बीजों की बोआई इस तरह करने से पौधों की सिंचाई सुचारू व सही ढंग से होती है। बीज 2 से 3 सेंटीमीटर की गहराई में तथा प्रत्येक नाली या क्यारी में 2 से 3 बीज बोते हैं। इसके अलावा करेले की बुआई प्रो ट्रे या पॉलीथीन की थैलियों में भी कर सकते हैं। इन प्रो ट्रे या पॉलीथीन की थैलियों में गोबर की सडी खाद और मिट्टी को बराबर मिलाकर भर देते हैं। हर थैली में 2 से 3 बीज बोते हैं। थैलियों को दिन के समय धूप में तथा रात के समय छायादार स्थान आदि के नीचे रख दिया जाता है।

इसके बाद जो पौधे तैयार हो जाएं, उनको तैयार किए गए खेत में 45 सेंटीमीटर की दूरी पर बनी हुई नालियों या क्यारियों में लगा दिया जाता है। गड्ढ़ों का आकार 20 x 20 x 20 सेंटीमीटर बना उसमें आधी मिट्टी तथा आधी गोबर की खाद मिलायें। उसके बाद ही रोपण करना चाहिए। पौधों को लगाने से पहले तैयार किए गए थैली के पौधों में चीरा लगाकर पॉलीथीन की थैली को अलग कर लेते हैं। ताकि इसके द्वारा जड़ो का विकास आसानी से हो सके। पौधे लगाने के बाद हल्की सिंचाई करें।

सिंचाई
करेले की अच्छी उपज के लिए सिंचाई बहुत हि जरुरी हैं। फसल की सिंचाई वर्षा पर भी आधारित हैं। समय-समय पर करेले की निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिए। जब भी खेतो में नमी की कमी हो जए तब खेतों की सिंचाई करें। खरपतवार को खेत से बाहर निकाल दे ताकि फल और फूल ज्यादा मात्रा में लगे।

तुड़ाई उपज
तुड़ाई हमेशा फसल के नरम होने पर ही की जानी चाहिए ज़्यादा दिन फसल को रखने पर वह सख्त हो जाती हैं। और बाजार में जाने के बाद लोग उससे खरीदना भी पसंद नहीं करते आमतौर पर फल बोने के 70-90 दिन बाद तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती हैं। फसल की तुड़ाई हफ्ते में 2 से 3 बार की जानी चाहिए। औसत उपज प्रति हेक्टेयर लगभग 150-175 क्विंटल तक होती हैं।

कीट नियंत्रण

फल मक्खी
यह कीट, गूदे में अण्डे देते हैं तथा फल को तेजी से खाते हैं, जो बाद में खाने योग्य नहीं रहते।

नियंत्रण
जब मक्खी फसल पर नजर आए तभी उन्हें आकर्षित करने के लिए 50 ग्राम गुड या चीनी तथा 10 मिलीलीटर मैलाथियान 50 ई सी को 5 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें।

माईट्स
ये छोटे कीट कोमल पत्तों से रस चूसते हैं तथा वहां पर सफेद स्थान बन जाते हैं। इस तरह पौधों की बढवार रूक जाती है या कम हो जाती है।

नियंत्रण
कीट का प्रकोप होने पर मैलाथियान 750 मिलीलीटर मैलाथियान 50 ई सी का 750 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव करें, 10 दिन बाद फिर छिडकाव करें।

रैड बीटल
यह एक हानिकारक कीट है, जोकि करेला के पौधे पर प्रारम्भिक अवस्था पर आक्रमण करता है। यह कीट पत्तियों का भक्षण कर पौधे की बढ़वार को रोक देता है। इसकी सूंडी काफी खतरनाक होती है, जोकि करेला पौधे की जड़ों को काटकर फसल को नष्ट कर देती है।

नियंत्रण
रैड बीटल से करेला की फसल सुरक्षा हेतु पतंजलि निम्बादी कीट रक्षक का प्रयोग अत्यन्त प्रभावकारी है। 5 लीटर कीटरक्षक को 40 लीटर पानी में मिलाकर, सप्ताह में दो बार छिड़काव करने से रैड बीटल से फसल को होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है।

रोग एवं नियंत्रण

पाउडरी मिल्ड्यू रोग
यह रोग करेला पर एरीसाइफी सिकोरेसिएटम की वजह से होता है। इस कवक की वजह से करेले की बेल एंव पत्तियों पर सफेद गोलाकार जाल फैल जाते हैं, जो बाद में कत्थई रंग के हो जाते हैं। इस रोग में पत्तियां पीली होकर सूख जाती हैं।

नियंत्रण
इस रोग से करेला की फसल को सुरक्षित रखने के लिए 5 लीटर खट्टी छाछ में 2 लीटर गौमूत्र तथा 40 लीटर पानी मिलाकर, इस गोल का छिड़काव करते रहना चाहिए। प्रति सप्ताह एक छिड़काव के हिसाब से लगातार तीन सप्ताह तक छिड़काव करने से करेले की फसल पूरी तरह सुरक्षित रहती है।

एंथ्रेक्वनोज रोग
करेला फसल में यह रोग सबसे ज्यादा पाया जाता है। इस रोग से ग्रसित पौधे की पत्तियों पर काले धब्बे बन जाते हैं, जिससे पौधा प्रकाश संश्लेषण क्रिया में असमर्थ हो जाता है। फलस्वरुप पौधे का विकास पूरी पूरी तरह से नहीं हो पाता।

नियंत्रण
रोग की रोकथाम हेतु एक एकड़ फसल के लिए 10 लीटर गौमूत्र में 4 किलोग्राम आडू पत्ते एवं 4 किलोग्राम नीम के पत्ते व 2 किलोग्राम लहसुन को उबाल कर ठण्डा कर लें, 40 लीटर पानी में इसे मिलाकर छिड़काव करने से यह रोग पूरी तरह फसल से चला जाता है।

चूर्णिल आसिता
रोग का लक्षण पत्तियां और तनों की सतह पर सफेद या धुंधले धुसर दिखाई देती हैं। कुछ दिनों के बाद वे धब्बे चूर्ण युक्त हो जाते हैं। सफेद चूर्णी पदार्थ अंत में यमूचे पौधे की सतह को ढ़ंक लेता हैं। जो कि कालान्तर में इस रोग का कारण बन जाता हैं। इसके कारण फलों का आकार छोटा रह जाता हैं।

नियंत्रण
इसकी रोकथाम के लिए रोग ग्रस्त पौधों को खेत में इकट्ठा करके जला देते हैं। फफूंदनाशक दवा जैसे ट्राइडीमोर्फ 1/2 मिली/लीटर या माइक्लोब्लूटानिल का 1 ग्राम/10 लीटर पानी के साथ घोल बनाकर सात दिन के अंतराल पर छिड़काव करें।

मोजेक विषाणु रोग
यह रोग विशेषकर नई पत्तियों में चितकबरापन और सिकुड़न के रूप में प्रकट होता हैं। पत्तियां छोटी एवं हरी-पीली हो जाती हैं। सवंमित पौधे का ह्नास शुरू हो जाता हैं और उसकी वृद्धि रूक जाती हैं। इसके आक्रमणसे पर्ण छोटे और पत्तियों में बदले हुए दिखाई पड़ते हैं। कुछ पुष्प गुच्छों में बदल जाते हैं ग्रसित पौधा बौना रह जाता हैं और उसमें फल बिल्कुल नहीं होता हैं।

नियंत्रण
इस रोग की नियंत्रण के लिए कोई प्रभावी उपाय नहीं हैं लेकिन विभिन्न उपायों के द्वारा इसको काफी कम किया जा सकता हैं। खेत में से रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए। इमिडाक्लोरोप्रिड 0.3 मिली/लीटर का घोल बनाकर दस दिन के अन्तराल में छिड़काव करें।