प्रदीप कुमार साहू, एस.आर.एफ. (रोपण, मसाला, औषधीय एवं सुंगधित फसल विभाग)
उद्यानिकी महाविद्यालय, मंदसौर, रा.वि.सि.कृ.वि.वि. ग्वालियर (म.प्र.)

तोरई को लतादार सब्जियों में गिना जाता है। जिसकी खेती मुख्य रूप से नगदी फसल के रूप में की जाती है। इसको कई जगहों पर झिंग्गी, तोरी और तुराई के नाम से भी जाना जाता है। इसका पौधा बेल (लता) के रूप में फैलता है। जिस पर पीले रंग के फूल खिलते हैं। इसके फूलों में नर और मादा पुष्प अलग अलग वक्त पर खिलते हैं। इन पुष्पों पर लगने वाले फलों का ज्यादातर उपयोग सब्जी बनाने में किया जाता है। तोरई की खेती पुरे भारत में की जाती है। लेकिन तोरई की खेती मुख्य उत्पादक राज्य केरल, उड़ीसा, कर्नाटक, बंगाल और उत्तर प्रदेश है। यह बेल पर लगने वाली सब्जी होती है। इसकी सब्जी की भारत में छोटे कस्बों से लेकर बड़े शहरों में बहुत मांग है। क्योंकि यह अनेक प्रोटीनों के साथ खाने में भी स्वादिष्ट होती है। जिसे हर मनुष्य इसकी सब्जी को पसंद करता है।

उपयुक्त जलवायु
तोरई समशीतोष्ण जलवायु का पौधा माना जाता है। इसके पौधे शुष्क और आद्र मौसम में अच्छे से विकास करते हैं। भारत में इसकी खेती खरीफ और जायद के मौसम में की जाती है। इसके पौधे सर्दी के मौसम को सहन नही कर पाते और गर्मी के मौसम में आसानी से विकास करते हैं। इसके पौधों को बारिश की जरूरत शुरुआत में ही होती है क्योंकि बाद में पौधे पर फूल और फल बनने के दौरान होने वाली बारिश की वजह से इसके फूल और फल दोनों खराब हो जाते हैं जिसका असर इसकी पैदावार पर देखने को मिलता है। इसके पौधों को शुरुआत में अंकुरित होने के लिए सामान्य तापमान की जरूरत होती है उसके बाद गर्मियों के मौसम में इसका पौधा अधिकतम 35 डिग्री के आसपास तापमान को भी सहन कर सकता है।

उपयुक्त भूमि
इसको सभी प्रकार की मिट्टियों में उगाया जा सकता है परन्तु उचित जल निकास धारण क्षमता वाली जीवांश युक्त हलकी दोमट भूमि इसकी सफल खेती के लिए सर्वोत्तम मानी गई है वैसे उदासीन पीएच मान वाली भूमि इसके लिए अच्छी रहती है नदियों के किनारे वाली भूमि इसकी खेती के लिए उपयुक्त रहती है कुछ अम्लीय भूमि में इसकी खेती की जा सकती है पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करें इसके बाद 2-3 बार हैरो या कल्टीवेटर चलाएँ। खेत कि तैयारी में मिट्टी भुरभुरी हो जानी चाहिए यह फसल अधिक निराइ की फसल है।

बुवाई का समय, मात्रा
खरीफ़ में इसकी बुवाई का समय जून से जुलाई का उत्तम होता है और ग्रीष्म कालीन फसल के लिए जनवरी से मार्च उपयुक्त होता है। बुवाई के लिए 3 से 5 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से उपयुक्त रहता है।

बीज उपचार
बीज का शोधन इसलिए आवश्यक है, क्योकि तोरई फसल को फफूंदी रोग अत्याधिक नुकसान पहुंचाते है। बीज को बुवाई से पहले थीरम या बाविस्टीन की 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित करना अच्छा रहता है।

बुवाई की विधि
तोरई की खेती 2.5 से 3 मीटर की दूरी पर नालियाँ बनाकर इसकी बुवाई करते है और जो मेड़ें बनती है, उसमे 50 सेंटीमीटर की दूरी पौधे से पौध रखते हुए इसकी बुवाई करते है। बीज की गहराई 3 से 4 सेंटीमीटर रखें। एक स्थान पर 2 बीज बोने चाहिए बीज अधिक गहराई में नहीं लगाया जाता है यदि बीज गहराई में डाल दिया जाता है तो अंकुरण में कमी आ जाती है। बीज को खेत में लगाने से पहले गौ मूत्र में संशोधित करना चाहिए।

उन्नत किस्में

पूसा नसदार
फल धारीदार हल्के हरे रंग के होते हैं इसमें 60 दिनों में फूल आ जाते हैं और प्रति पौधे में 15-20 फल प्राप्त होते हैं।

पूसा चिकनी
फल चिकने व मुलायम और हरे होते हैं।

पंजाब सदाबहार
इसके पौधे मध्यम आकार के होते हैं। इसके एक फल की लम्बाई 20 सेमी की होती हैं और चैड़ाई 3 से 4 सेमी की होती हैं। इसका हर एक फल का रंग गहरा रा और धारीदार होता हैं। इसके अलावा फल कोमल और पतला होता हैं। तोरई की इस किस्म में सबसे अधिक प्रोटिन की मात्रा पाई जाती हैं।

खाद और उर्वरक
तोरई की अच्छी खेती के लिए खेत की तैयारी करते समय सड़ी कम्पोस्ट या गोबर की खाद 200 से 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से आखरी जुताई के समय मिटटी में मिला देनी चाहिए। इसके आलावा 120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 100 किलोग्राम फास्फोरस और 80 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर के हिसाब से तत्व के रूप में देते है, और आख़िरी जुताई करते समय आधी नाइट्रोजन की मात्रा, फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा को खेत में मिला देना चाहिए है।

सिंचाई प्रबंधन
वैसे खरीफ़ के फसल में बरसात का पानी लगता है, इसलिए सिंचाई की आवश्यकता नही पड़ती है लेकिन फिर भी कभी-कभी सूखा पड़ जाता है और पानी समय से नहीं बरसता है तो आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए और गर्मियों वाली फसल की 5 से 7 दिन के अंतर से सिचाई करें।

खरपतवार रोकथाम
तोरई फसल के साथ उगे खरपतवारों को निकालकर नष्ट करते रहे, इसमें कुल 2 से 3 निराइयां पर्याप्त होंगी और यदि खेत में खरपतवार अधिक उगता है, तो बुवाई से पहले खेत में बासालीन 48 ई सी 1।5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में मिला देना चाहिए, जिससे खरपतवार पर शुरु के 35 से 40 दिन तक नियंत्रण रहेगा।

किट एवं रोकथाम

लाल भृंग
प्रौढ़ कीट लाल रंग का होता हैं। इल्ली हल्के पीले रंग की होती हैं। इस कीट के दूसरे जाति का प्रौढ़ काले रंग का होता हैं। प्रौढ़ कीट पत्तियों, फूलों एवं फलों में छेद करके खाते हैं। शुरू की अवस्था में कीट का प्रकोप होने पर पत्तियां पूर्ण रूप से चर ली जाती हैं और केवल डंठल शेष रह जाती हैं। इस कीट इल्लियाँ मिट्टी के अन्दर घुसकर जड़ों को भी नुकसान पहुंचाती हैं। इल्लियाँ मिट्टी को छुते हुये फलों को भी खा जाती हैं।

नियंत्रण
1. फसलों की कटाई के बाद भूमि की गहरी जुताई करें।

2. जब पौधे 4-6 पत्तियों वाले हो जायें तो मैलाथिन 5% या एण्डोसल्फान 4% चूर्ण का 20 किलो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से भुरकाव करें।

3. कार्बोफ्युरान 3% दानेदार 7 किलो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से पौधों के पास 3-4 सेमी मिट्टी अन्दर उपयोग करें तथा दानेदार कीटनाशक डालने के बाद पानी चला दें।

4. प्रौढ़ कीट की संख्या अधिक होने पर डायक्लोरवास 76 ई.सी. 300 मिली प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।

(फ्रुट फ्लाई) फल मक्खी
इस कीट का प्रौढ़ घरेलु मक्खी के बराबर लाल भूरे या पीले भूरे रंग का होता हैं। इसके सिर पर काले तथा सफेद धब्बे पाये जाते हैं। फल मक्खी की इल्लियाँ मैले सफेद रंग की होती हैं। मादा कीट कोमल फूलों में छेदकर छिलके के अन्दर अण्डे देती हैं, जिससे फल सड़ने लगते हैं। क्षतिग्रस्त फल टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं। बरसाती फसल में इस कीट का आक्रमण अधिक होता हैं।

नियंत्रण
1. क्षतिग्रस्त नीचे गिरे हुये फलों को नष्ट कर देना चाहिए।

2. सब्जियों के जो फल भूमि पर बढ़ रहे हों, उन्हें समय-समय पर पलटते रहें।

3. विष प्रलोभिकाओं का उपयोग करे- दवाई का साधारण उपयोग करने से वह सुख जाता हैं। अतः कीटनाशक के घोल में मीठा, पदार्थ मिलाना इसके लिये 50 मि.ली. मेलाथियान 50 ई.सी. एवं 500 ग्राम गुड 50 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

4. खेत में प्रपंची फसल के रूप में मक्का या सनई की फसलें लगायें। इन फसलों की ओर यह कीट आकर्षण होते हैं और ऐसी फसलों पर विष प्रलोभिका का प्रभावशाली रूप में किया जा सकता हैं।

रोग एवं रोकथाम

1. चूर्णिल आसिता
पत्तियों पर सफेद पाउडर सा दिखाई देता हैं। रोग तेजी से बढ़ता हुआ पत्तियों की दोनों सतह पर फैल जाता हैं। पौधे के आस-पास की सतह की नमी होना 26-28 तापक्रम रोग के लिए अनुकुलतम परिस्थितियाँ हैं।

नियंत्रण
रोग की प्रारंभिक अवस्था में केराथेन (2%) या सलफेक्स (0.3%) का 10-15 दिन के अन्तराल घोल बनाकर प्रयोग करें।

2. उकठा (ग्लानि)
रोग का आक्रमण पौधों की किसी भी अवस्था में हो सकता हैं। यदि रोग का आक्रमण नये पौधों पर हुआ तो पौधे के तनों का जमीन की सतह से लगा हुआ भाग विगलित हो जाता हैं और पौधा मर जाता हैं।

नियंत्रण
यह रोग बीजोढ़ व मृदोढ़ होने के कारण नियंत्रण हेतु बीजोपचार बाविस्टन 2.5 ग्राम दवा प्रति कि.ग्रा. बीज दर से करते हैं। लम्बी अवधी का फसल चक्र अपनाना जरूरी हैं।

3. मृदुरोमिल आसिता
यह रोग पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले रंग के कोणीय धब्बे बनते हैं। वातावरण में पर्याप्त मात्रा में आर्द्रता होने पर धब्बों के नीचे रोगजनक कवक की वृद्धि दिखाई देती हैं। पत्तियां प्रायः मर जाती हैं।

नियंत्रण
1. जंगली खरपतवार जो रोग को प्रक्ष्य देते हैं, उन्हें नष्ट करें।

2. कवक नाशियों जैसे- डायथेन एम-45 (0.3%) या डायथेन जेड-78 (0.3%) या ट्रईकाप-50 (0.4%) का छिड़काव करते हैं। छिड़काव 10 दिन के अन्तराल से करें।

4. मोजेक
यह रोग विषाणु जनित रोग हैं। यदि रोग का प्रकोप शुरूवात में ही होता हैं, तो हानि अधिक होता हैं।

नियंत्रण
1. खरपतवारों को जो विषाणुओं को शरण देते हैं, पहचान कर नष्ट करें।

जैसें- चैलाई की प्रजातियाँ व मकोय आदि।

2. कीट नियंत्रण के लिये कीटनाशियों का नियमित छिड़काव करें।

जैसे- थायोडान (0.07%) ताकि कीट नियंत्रण में रहे।

फलों की तुड़ाई
फलों की छोटी अवस्था से ही तुड़ाई कर लें अन्यथा फल कठोर हो जाते है जिसके कारण तोरई के गुणों में कमी आ जाती है और बाजार भाव भी कम मिलता है। तोरई की फसल की तुड़ाई फलों के आकार को देखकर तथा कच्ची अवस्था या अनुभव या बाजार भाव के आधार पर की जाती है। फल तोड़ते समय ध्यान रहे कि चाकू आदि से काटने पर अन्य फल या शाखा न कटें। फलों को देर से तोड़ने पर उसमें रेशे बन जाते है, जिससे बाजार भाव अच्छा नही मिल पता है।

पैदावार
तोरई की उपज किस्म के चयन और खेती की तकनीक पर निर्भर करती है। यदि उपरोक्त उन्नत विधि और उन्नत किस्म के साथ खेती की जाये तो प्रति हेक्टेयर 125 से 150 क्विंटल तक पैदावार मिल जाती है।