कुमुदनी साहू (पीएचडी स्कालर, फल विज्ञान विभाग) एवं द्रोणक कुमार साहू (पीएचडी स्कालर, कृषि अर्थशास्त्र) इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)

पपीता कैरिकेसी परिवार का एक महत्त्वपूर्ण सदस्य है। पपीता के पके व कच्चे फल दोनो उपयोगी होते हैं। कच्चे फल से पपेन बनाया जाता है। यह हमारे देश में सभी जगह उत्पन्न होता है। देश की विभिन्न राज्यों आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, असम, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, जम्मू एवं कश्मीर, उत्तरांचल और मिजोरम में इसकी खेती की जा रही है। यह बारहों महीने होता है, लेकिन यह फ़रवरी-मार्च और मई से अक्टूबर के मध्य विशेष रूप से पैदा होता है। इसका कच्चा फल हरा और पकने पर पीले रंग का हो जाता है। पका पपीता मधुर, भारी, गर्म, स्निग्ध और सारक होता है। पपीता पित्त का शमन तथा भोजन के प्रति रुचि उत्पन्न करता है।
पपीता बहुत ही जल्दी बढ़ने वाला पेड़ है। साधारण ज़मीन, थोड़ी गरमी और अच्छी धूप मिले तो यह पेड़ अच्छा पनपता है, पर इसे अधिक पानी या ज़मीन में क्षार की ज़्यादा मात्रा रास नहीं आती। इसकी पूरी ऊँचाई क़रीब 10-12 फुट तक होती है। जैसे-जैसे पेड़ बढ़ता है, नीचे से एक एक पत्ता गिरता रहता है और अपना निशान तने पर छोड़ जाता है। तना एकदम सीधा हरे या भूरे रंग का और अन्दर से खोखला होता है। पत्ते पेड़ के सबसे ऊपरी हिस्से में ही होते हैं। एक समय में एक पेड़ पर 80 से 100 फल तक भी लग जाते हैं।

जलवायु
पपीता यद्यपि उष्ण जलवायु का पौधा है , फिर भी यह उपोष्ण जलवायु में अच्छी तरह उगाया जाता है इसका उत्पादन समुद्र तल से 100 मीटर कि उचाई तक सुगमता से होता है . 12 डिग्री से . से नीचे का तापमान इसकी उत्पादकता को प्रभावित करता है . इसके लिए 20-25 डिग्री से तापक्रम उचित रहता है . जल भराव , ओला तथा अधिक तेज हवाएं इसे नुकसान है पहुंचाती .यह मुख्य रूप से उष्ण प्रदेशीय फल है इसके उत्पादन के लिए तापक्रम 22-26 डिग्री से०ग्रे० के बीच और 10 डिग्री से०ग्रे० से कम नहीं होना चाहिए क्योंकि अधिक ठंड तथा पाला इसके शत्रु हैं, जिससे पौधे और फल दोनों ही प्रभावित होते हैं। इसके सकल उत्पादन के लिए तुलनात्मक उच्च तापक्रम, कम आर्द्रता और पर्याप्त नमी की जरुरत है।

खेती योग्य भूमि
इस पपीते के सफल उत्पादन के लिए दोमट मिट्‌टी अच्छी होती है। खेत में पानी निकलने का सही इंतजाम होना जरूरी है, क्योंकि पपीते के पौधे की जड़ों व तने के पास पानी भरा रहने से पौधे का तना सड़ने लगता है। इस पपीते के लिहाज से मिट्‌टी का पीएच मान 6.5 से 7.5 तक होना चाहिए। पपीता के लिए हलकी दोमट या दोमट मृदा जिसमें जलनिकास अच्छा हो सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए इसके लिए दोमट, हवादार, काली उपजाऊ भूमि का चयन करना चाहिए और इसका अम्ल्तांक 6.5-7.5 के बीच होना चाहिए तथा पानी बिलकुल नहीं रुकना चाहिए। मध्य काली और जलोढ़ भूमि इसके लिए भी अच्छी होती है ।

प्रचलित क़िस्में
पपीता में नियंत्रित परगन के अभाव और बीज प्रवर्धन के कारण क़िस्में अस्थाई हैं और एक ही क़िस्म में विभिन्नता पाई जाती है। अतः फूल आने से पहले नर और मादा पौधों का अनुमान लगाना कठिन है। इनमें कुछ प्रचलित क़िस्में जो देश के विभिन्न भागों में उगाई जाती हैं और अधिक संख्या में मादा फूलों के पौधे मिलते हैं मुख्य हैं। हनीडियू या मधु बिंदु, कुर्ग हनीडियू, वाशिंगटन, कोय -1, कोय- 2, कोय- 3, फल उत्पादन और पपेय उत्पादन के लिए कोय-5, कोय-6, एम. ऍफ़.-1 और पूसा मेजस्टी मुख्या हैं। उत्तरी भारत में तापक्रम का उतर चढ़ाव अधिक होता है। अतः उभयलिंगी फूल वाली क़िस्में ठीक उत्पादन नहीं दे पाती हैं। कोय-1, पंजाब स्वीट, पूसा देलिसियास, पूसा मेजस्टी, पूसा जाइंट, पूसा ड्वार्फ, पूसा नन्हा (म्यूटेंट) आदि क़िस्में जिनमे मादा फूलों की संख्या अधिक होती है और उभयलिंगी हैं, उत्तरी भारत में काफी सफल हैं। हवाई की 'सोलो' क़िस्म जो उभयलिंगी और मादा पौधे होते है, उत्तरी भारत में इसके फल छोटे और निम्न कोटि के होते हैं।

सिंचाई व खाद
गर्मियों में हर सप्ताह तथा सर्दियों में 15-20 दिन बाद ¨सचाई करते रहें। पौधों के तने के पास पानी न खड़ा होने दें। पपीते में फूल आने पर ही नर व मादा पौधों की पहचान होती है तब उनमें से सारे खेत में अलग-अलग 10 प्रतिशत नर पौधे रखकर बाकि नर पौधे निकाल दें। 20 किलो गोबर खाद प्रति पौधा दें। फरवरी व अगस्त माह में 500 ग्राम मिश्रित उर्वरक एमोनियम सल्फेट, सगिल सुपर फोसफेट व पोटाशियम सल्फेट दो अनुपात चार अनुपात एक के अनुसार प्रति पौधा दें।
वर्षा ऋतु में तना गलन रोग का प्रकोप होता है। इसकी रोकथाम के लिए पौधों के पास पानी न खड़ा होने दें। लीफ कर्ल व मौजेक रोग से प्रभावित पौधों को निकालकर नष्ट कर दें तथा सफेद मक्खी व चेंपा की रोकथाम के लिए 250 मिली.मी. मैलाथियान 50 को 250 लीटर पानी में छिड़कें। पपीते में पैदावार मादा पौधों की संख्या पर निर्भर करती है। एक पौधे से औसतन 40 किलो फल तथा एक एकड़ में 200 से 300 क्विंटल फल मिल जाता है।

बोआई
पपीते का व्यवसाय उत्पादन बीजों द्वारा किया जाता है। इसके सफल उत्पादन के लिए यह जरूरी है कि बीज अच्छी क्वालिटी का हो। बीज के मामले में निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए :

1. बीज बोने का समय जुलाई से सितम्बर और फरवरी-मार्च होता है।
2. बीज अच्छी किस्म के अच्छे व स्वस्थ फलों से लेने चाहिए। चूंकि यह नई किस्म संकर प्रजाति की है, लिहाजा हर बार इसका नया बीज ही बोना चाहिए।
3. बीजों को क्यारियों, लकड़ी के बक्सों, मिट्‌टी के गमलों व पोलीथीन की थैलियों में बोया जा सकता है।
4. क्यारियाँ जमीन की सतह से 15 सेंटीमीटर ऊंची व 1 मीटर चौड़ी होनी चाहिए।
5. क्यारियों में गोबर की खाद, कंपोस्ट या वर्मी कंपोस्ट काफी मात्रा में मिलाना चाहिए। पौधे को पद विगलन रोग से बचाने के लिए क्यारियों को फार्मलीन के 1:40 के घोल से उपचारित कर लेना चाहिए और बीजों को 0.1 फीसदी कॉपर आक्सीक्लोराइड के घोल से उपचारित करके बोना चाहिए।
6. जब पौधे 8-10 सेंटीमीटर लंबे हो जाएँ, तो उन्हें क्यारी से पौलीथीन में स्थानांतरित कर देते हैं।
7. जब पौधे 15 सेंटीमीटर ऊँचे हो जाएँ, तब 0.3 फीसदी फफूंदीनाशक घोल का छिड़काव कर देना चाहिए।

उत्पादन के लिए नर्सरी में पौधों का उगाना
इसके लिए बीज की मात्रा एक हेक्टेयर के लिए 500 ग्राम पर्याप्त होती है। बीज पूर्ण पका हुआ, अच्छी तरह सूखा हुआ और शीशे की जार या बोतल में रखा हो जिसका मुँह ढका हो और 6 महीने से पुराना न हो, उपयुक्त है। बोने से पहले बीज को 3 ग्राम केप्टान से एक किलो बीज को उपचारित करना चाहिए। बीज बोने के लिए क्यारी जो जमीन से ऊँची उठी हुई संकरी होनी चाहिए इसके अलावा बड़े गमले या लकड़ी के बक्सों का भी प्रयोग कर सकते हैं। इन्हें तैयार करने के लिए पत्ती की खाद, बालू, तथा सदी हुई गोबर की खाद को बराबर मात्र में मिलाकर मिश्रण तैयार कर लेते हैं। जिस स्थान पर नर्सरी हो उस स्थान की अच्छी जुताई, गुड़ाई, करके समस्त कंकड़-पत्थर और खरपतवार निकाल कर साफ़ कर देना चाहिए तथा ज़मीन को 2 प्रतिशत फोरमिलिन से उपचारित कर लेना चाहिए। वह स्थान जहाँ तेज़ धूप तथा अधिक छाया न आये चुनना चाहिए। एक एकड़ के लिए 4059 मीटर ज़मीन में उगाये गए पौधे काफी होते हैं। इसमें 2.5 x 10 x 0.5 आकर की क्यारी बनाकर उपरोक्त मिश्रण अच्छी तरह मिला दें, और क्यारी को ऊपर से समतल कर दें। इसके बाद मिश्रण की तह लगाकर 1/2' गहराई पर 3' x 6' के फासले पर पंक्ति बनाकर उपचारित बीज बो दे और फिर 1/2' गोबर की खाद के मिश्रण से ढ़क कर लकड़ी से दबा दें ताकि बीज ऊपर न रह जाये। यदि गमलों या बक्सों का उगाने के लिए प्रयोग करें तो इनमे भी इसी मिश्रण का प्रयोग करें। बोई गयी क्यारियों को सूखी घास या पुआल से ढक दें और सुबह शाम होज द्वारा पानी दें। बोने के लगभग 15-20 दिन भीतर बीज जम जाते हैं। जब इन पौधों में 4-5 पत्तियाँ और ऊँचाई 25 से.मी. हो जाये तो दो महीने बाद खेत में प्रतिरोपण करना चाहिए, प्रतिरोपण से पहले गमलों को धूप में रखना चाहिए, ज्यादा सिंचाई करने से सड़न और उकठा रोग लग जाता है। उत्तरी भारत में नर्सरी में बीज मार्च-अप्रैल, जून-अगस्त में उगाने चाहिए।

पौधरोपण समय व विधि
खेत में जून माह में दो मीटर की दूरी पर 50 गुणा 50 गुणा 50 सेमी. गड्ढे खोदकर उनमें गोबर की खाद व मिट्टी की बराबर मात्रा मिलाकर भरें तथा ¨सचाई करें ताकि मिट्टी बैठ जाए। जुलाई माह में एक गड्ढे में दो पौधे लगाएं। पौध पालीथिन के 25 गुणा 10 सेमी. के लिफाफे में रेत व गोबर की खाद बराबर मात्रा में भरकर इसमें दो-तीन बीज एक लिफाफे में उगाकर भी तैयार कर सकते हैं। उगने के बाद एक लिफाफे में एक स्वस्थ पौधा रखें।

रोपण
अच्छी तरह से तैयार खेत में 2x2 मीटर की दूरी पर 50x50x50 सेंटीमीटर आकार के गड्‌ढे मई के महीने में खोद कर 15 दिनों के लिए खुले छोड़ देने चाहिएं, ताकि गड्‌ढों को अच्छी तरह धूप लग जाए और हानिकारक कीड़े-मकोड़े, रोगाणु वगैरह नष्ट हो जाएँ।
पौधे लगाने के बाद गड्‌ढे को मिट्‌टी और गोबर की खाद 50 ग्राम एल्ड्रिन मिलाकर इस प्रकार भरना चाहिए कि वह जमीन से 10-15 सेंटीमीटर ऊँचा रहे। गड्‌ढे की भराई के बाद सिंचाई कर देनी चाहिए, जिससे मिट्‌टी अच्छी तरह बैठ जाए।
वैसे पपीते के पौधे जून-जुलाई या फरवरी -मार्च में लगाए जाते हैं, पर ज्यादा बारिश व सर्दी वाले इलाकों में सितंबर या फरवरी -मार्च में लगाने चाहिए। जब तक पौधे अच्छी तरह पनप न जाएँ, तब तक रोजाना दोपहर बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए।

खाद व उर्वरक का प्रयोग
पपीता जल्दी फल देना शुरू कर देता है। इसलिए इसे अधिक उपजाऊ भूमि की जरुरत है। अतः अच्छी फ़सल लेने के लिए 200 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फ़ॉस्फ़रस एवं 500 ग्राम पोटाश प्रति पौधे की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त प्रति वर्ष प्रति पौधे 20-25 कि.ग्रा. गोबर की सड़ी खाद, एक कि.ग्रा. बोनमील और एक कि.ग्रा. नीम की खली की जरुरत पड़ती है। खाद की यह मात्र तीन बार बराबर मात्रा में मार्च-अप्रैल, जुलाई-अगस्त और अक्टूबर महीनों में देनी चाहिए।
पपीता जल्दी बढ़ने व फल देने वाला पौधा है, जिसके कारण भूमि से काफी मात्रा में पोषक तत्व निकल जाते हैं। लिहाजा अच्छी उपज हासिल करने के लिए 250 ग्राम नाइट्रोजन, 150 ग्राम फास्फोरस और 250 ग्राम पोटाश प्रति पौधे हर साल देना चाहिए। नाइट्रोजन की मात्रा को 6 भागों में बाँट कर पौधा रोपण के 2 महीने बाद से हर दूसरे महीने डालना चाहिए।
फास्फोरस व पोटाश की आधी-आधी मात्रा 2 बार में देनी चाहिए। उर्वरकों को तने से 30 सेंटीमीटर की दूरी पर पौधें के चारों ओर बिखेर कर मिट्‌टी में अच्छी तरह मिला देना चाहिए। फास्फोरस व पोटाश की आधी मात्रा फरवरी-मार्च और आधी जुलाई-अगस्त में देनी चाहिए। उर्वरक देने के बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए।

कीट, बीमारी व उनकी रोकथाम

तने तथा जड़ के गलने से बीमारी: इसमें भूमि के तल के पास तने का ऊपरी छिलका पीला होकर गलने लगता है और जड़ भी गलने लगती है। पत्तियाँ सुख जाती हैं और पौधा मर जाता है। इसके उपचार के लिए जल निकास में सुधार और ग्रसित पौधों को तुंरत उखाड़कर फेंक देना चाहिए। पौधों पर एक प्रतिशत वोरडोक्स मिश्रण या कोंपर आक्सीक्लोराइड को 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर स्प्रे करने से काफ़ी रोकथाम होती है।

डेम्पिग ओंफ: इसमें नर्सरी में ही छोटे पौधे नीचे से गलकर मर जाते हैं। इससे बचने के लिए बीज बोने से पहले सेरेसान एग्रोसन जी.एन. से उपचारित करना चाहिए तथा सीड बेड को 2.5 % फार्मेल्डिहाइड घोल से उपचारित करना चाहिए।

मौजेक (पत्तियों का मुड़ना) : इससे प्रभावित पत्तियों का रंग पीला हो जाता है व डंठल छोटा और आकर में सिकुड़ जाता है। इसके लिए 250 मि. ली. मैलाथियान 50 ई०सी० 250 लीटर पानी में घोलकर स्प्रे करना काफ़ी फायदेमंद होता है।

चैंपा : इस कीट के बच्चे व जवान दोनों पौधे के तमाम हिस्सों का रस चूसते हैं और विषाणु रोग फैलाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए डायमेथोएट 30 ईसी 1.5 मिलीलीटर या पफास्पफोमिडाल 5 मिलीलीटर को 1 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें।

लाल मकड़ी : इस कीट का हमला पत्तियों व फलों की सतहों पर होता है। इसके प्रकोप के कारण पत्तियाँ पीली पड़ जाती है और बाद में लाल भूरे रंग की हो जाती है। इसकी रोकथाम के लिए थायमेथोएट 30 ईसी 1.5 मिलीलीटर को 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

पद विगलन : यह रोग पीथियम फ्रयूजेरियम नामक फफूंदी के कारण होता है। रोगी पौधें की बढ़वार रूक जाती है। पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं और पौध सड़कर गिर जाता है। इसकी रोकथाम के लिए रोग वाले हिस्से को खुरचकर उस पर ब्रासीकोल 2 ग्राम को 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

श्याम वर्ण: इस रोग का असर पत्तियों व फलों पर होता है, जिससे इनकी वृद्धि रूक जाती है। इससे फलों के ऊपर भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए ब्लाईटाक्स 3 ग्राम को 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।

पपीते के फल एवं उपज
अच्छी तरह वैज्ञानिक प्रबंधन करने पर प्रति पौधा 40-50 किलो उपज प्राप्त हो जाती है। पपीते की प्रति हेक्टेयर राष्ट्रीय स्तर पर उत्पादकता 317 क्विं/हे. है।

पपीते की उत्पादकता बढ़ाने के उपाय

1. पपीते की व्यावसायिक खेती में उभयलिंगी किस्मों जैसे सूर्या ( भारतीय बागवानी अनु. सं. बैंगलोर ) सनराइज सोलो, रेडी लेडी -786 के साथ किचिन गार्डन के लिए पूसा नन्हा, कुर्ग हनीड्यू, पूसा ड्वार्फ, पंत पपीता 1, 2 एवं 3 के चयन को प्राथमिकता दें।
2. रसचूसक कीटों के प्रभाव वाले क्षेत्रो में पपीते को अक्टूबर में रोपण करें। तथा पौधों की नर्सरी कीट अवरोधी नेट हाऊस के भीतर तैयार करें।
3. खाद व उर्वरक की संतुलित मात्रा 250 ग्राम नत्रजन, 250 ग्राम स्फुर तथा 250 -500 ग्राम पोटाश प्रति पौधा/वर्ष प्रयोग करें।
4. सिंचाई के लिए ड्रिप सिंचाई पद्धिति अपनाऐं।
5. फसल में रसचूसक कीटों के नियंत्रण हेतु फेरामोन ट्रेप, प्रकाश प्रपंच का प्रयोग करें तथा नीम सत्व 4 प्रतिशत का छिड़काव करें।
6. पपीते के पौधों को 30 सेमी उठी मेड़ पर 2 गुणा 2 मीटर की दूरी पर रोपाई करें। तथा अंतवर्तीय फसल के रूप में मिर्च, टमाटर बैंगन न लगाएं।