डॉ. अभय बिसेन, सहायक प्राध्यापक (उद्यानिकी)
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, कोरबा (छ.ग.)
नींबूवर्गीय फलों का कुल उत्पादन की दृष्टि से देश में आम व केला के बाद तीसरा स्थान हैं। इन फलों की सभी जातियों में विटामिन ’सी’ प्रचुर मात्रा में पाया जाता हैं। यह नॉन-क्लाइमैक्ट्रिक फल में आता हैं। इसके रसीले प्लेसेन्टल हेयर्स को खाया जाता हैं अर्थात् इसे पूर्ण तक जाने की अवस्था में ही तोड़ना चाहिए।
जलवायु
नींबूवर्गीय पौधे समशीतोष्ण जलवायु में उगने वाले सदाबहार पौधे होते हैं। पौधे के फुलने-फलने पर तापमान का अधिक प्रभाव पड़ता हैं। सन्तरे के लिए उपोष्ण जलवायु अच्छी रहती हैं। मध्यम रूप से शीत तथा ग्रीष्म उत्तम हैं। वातावरण में पर्याप्त नमी अच्छी होती हैं। मोसम्बी के लिए सम वातावरण उत्तम रहता हैं। नींबू के लिए गर्म पाला रहित व शुष्क जलवायु अच्छी रहती हैं।
भूमि
नींबूवर्गीय पौधों के लिए गहरी, भुरभुरी तथा अच्छे जल निकास वाली भूमि उपयुक्त होती हैं, जिसका पी.एच. मान 5.5-6.5 हो। मृदा में सतह से 1.5-2 मीटर गहराई तक कैल्शियम कार्बोनेट की कठोर परत नहीं होना चाहिए। जिन मृदाओं का जल स्तर ऊँचा हो अथवा वर्षां होने पर अधिक पानी भरने की सम्भवाना होती हैं, ऐसी भूमि में बागवानी नहीं करनी चाहिए।
प्रवर्धन
नींबूवर्गीय पौधे का प्रवर्धन बीज द्वारा भी किया जा सकता हैं, परन्तु व्यापारिक दृष्टि से वानस्पतिक विधि द्वारा प्रवर्धन किया जाता हैं। माल्टा, गे्रप फ्रूट, किन्न्ाो, संतरा का प्रवर्धन षील्ड बडिंग द्वारा किया जाता हैं। मध्य भारत में कलिकायन का उचित समय मार्च-अप्रेल व अगस्त-सितंबर हैं। लाइम व लेमन का प्रवर्धन कलम या गूटी द्वारा किया जाता हैं। इसका उपयुक्त समय जुलाई-अगस्त हैं।
मूलवृन्त
माल्टा, मौसम्बी, सन्तरा व ग्रेप फ्रूट आदि के लिए खट्टा नींबू एवं करना खट्टा प्रयोग में लाए जाते हैं।
रोपण
पौधे लगाने के लिए एक माह पूर्व उचित दूरी पर 90×90 से.मी. आकार के गड्ढे सन्तरा में 6-8 मीटर, लेमन व लाइम में 5-6 मीटर तथा मौसम्बी में 6-7 मीटर दूरी पर खोदते हैं। गड्ढे की ऊपरी मिट्टी में 40-50 किलो गोबर की खाद, 2 किलो सुपर फास्फेट तथा 250 ग्रा. लिण्डेन पाउडर मिलाकर गड्ढे को भर दें। वर्षां के तुरन्त बाद पौध रोपण करते हैं एवं जहाँ सिंचाई की सुविधा हो वहाँ फरवरी-मार्च में भी पौधे लगा सकते हैं।
नींबूवर्गीय फलों प्रमुख प्रजातियाँ
1. मीठा ऑरेंज
इसके पौधे मध्यम ऊँचाई के तथा पत्तियाँ कम नुकिली, हरी व पंखाकार होती हैं। फलों का छिलका चिकना व गूदे से चिपका होता हैं। इसकी किस्में निम्न हैं-
मौसम्बी
पौधे मध्यम, घने व फैलने वाले होते हैं। मैडरिन या संतरे से पत्तियाँ अधिक चैड़ी, फल गोलाकार, मध्यम, छिलका चिकना व लम्बवत धारियाँ होती हैं। डंठल के बाद अंगूठी के आकृति होती हैं। रस से मिठास बहुत एवं अम्लता कम होती हैं।
माल्टा
पौधे बौनाकार व घने होते हैं। फल पीले रंग के तथा छिलका पतला तथा कसा हुआ होता हैं। गूदा लाल रंग का रसयुक्त होता हैं।
महत्वपूर्ण प्रजातियाँ
सतगूड़ी, पाइन एप्पल, जाफा, हेमलिन।
2. सन्तरा
पौधेे मध्यम ऊँचाई तथा सीधे बढ़ने वाले होते हैं। फल मध्यम आकार के मीठे व पकने पर नारंगी रंग के होते हैं। छिलके को सरलता पूर्वक अलग किया जा सकता हैं। पत्तियाँ छोटी व नुकिली होती हैं। इनकी किस्में निम्न हैं-
नागपुर सन्तरा
यह पौधे व सीधे वृद्धि वाले होते हैं। यह घने व बिना काँटे वाले होते हैं। फल अंडाकार, भार 125-150 ग्राम, छिलका, मोटा, ढ़ीला, तेल की ग्रथियों से भरा, डंठल की तरफ उठा हुआ तथा धारीदार होता हैं।
कुर्ग
पौधा बड़ा सीधा तथा पत्तियाँ अधिक संख्या में, कभी-कभी कांटे भी दिखाई देते हैं। फल गोलाकार से अंडाकार, छिलका पतला से मध्यम मोटा व ढ़ीला होता हैं।
किन्नों
यह किंग (सिट्रस नोबीलिस) और विलोलीफ मेन्डरिन की प्रथम संतति संकर प्रजाति हैं। पौधा लम्बा, ओजस्वी व सहिष्णु होता हैं। फल अंडाकार, डंठल व शीर्ष सपाट या दबा हुआ, 9-11 फांके होती हैं। इसके फल सन्तरे के फलों से बड़े होते हैं। फल का मध्य भाग ठोस, गूदा पीला-नारंगी रंग का होता हैं।
3. लाइम
पौधे छोटे, झाड़ीदार तथा पत्तियाँ छोटी व पंखदार होती हैं। इसकी किस्में निम्न हैं-
कागजी
पौधे मध्यम, फैलते हुए झाड़ीनुमा कांटे छोटे व घनी पत्तियों वाले होते हैं। फल छोटा, गोलाकार, शीर्ष गोलाई, छिलका पतला, कागज के समान होता हैं। हरा-पीला रंग का व खटास तीव्र होता हैं।
सीडलेस
पौधे लगाने वाले झुकावदार कांटेयुक्त व घनी पत्तियों वाले होते हैं। फल मध्यम छोटे, अण्डाकार या आयताकार, बीज कम तथा छिलका पतला व चिकना होता हैं।
महत्पूर्ण प्रजातियाँ
प्रमलिनी, विक्रम, चक्रधर, पी.के.एम.-1।
4. लेमन
पौधा छोटा, फैलने वाला तथा पंख रहित पत्तियाँ होती हैं। फलों का छिलका गूदे से चिपका होता हैं।
यूरेका
वृक्ष फैलने वाला होता हैं। वृक्ष में कांटे नहीं होते हैं। फल मध्यम से छोटे दीर्घ वृत्ताकार से आयताकार, निपल छोटा, बीज कम, छिलका, मध्यम मोटा, गड्ढेदार तथा नियमित फलने वाला होता हैं।
लिस्बन
वृक्ष अधिक फैलने वाले, घनी पत्तियाँ व कांटेदार होते हैं। ग्रीष्म तथा शीत से प्रभावित नहीं होते हैं। फल मध्यम, दीर्घ वृत्ताकार से आयताकार, निपल बड़ा, बीज कम, छिलका महीन गड्ढेदार शीत ऋतु में फलता हैं।
महत्वपूर्ण प्रजातियाँ
लखनऊ सीडलेस, कागजीकलाँ, बारामासी, नेपाली ओब्लाग गलगल।
खाद एवं उर्वरक
सामान्यतः 600 ग्राम नत्रजन, 300 ग्राम फास्फोरस व 400 ग्राम पोटाश उर्वरक तथा 40-50 कि.ग्रा. गोबर की खाद प्रति पौधा प्रतिवर्ष देना चाहिए। नत्रजन उर्वरक को 2-3 बार देना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा वर्षा ऋतु आरम्भ होने पर तथा शेष मात्रा वर्षा समाप्त होने पर दें। खाद व उर्वरक को वृक्ष के फैलाव के अनुसार दें तथा हल्की गुड़ाई करके सिंचाई कर दें। सूक्ष्म तत्वों का 0.2 प्रतिशत् का छिड़काव भी उचित होता हैं। जैसे- जिंक मैगनीज, फैरस, बोराॅन व काॅपर, जिससे वृद्धि व फलन अच्छी हो सकें।े
सिंचाई
पौध रोपण के कुछ माह तक पानी प्रत्येक तीसरे-चैथे दिन देना उचित रहता हैं। गर्मियों में एक सप्ताह के उपरान्त पर तथा शीत में दो सप्ताह के अन्तराल में करना चाहिए। फलने वृक्ष में फूल आते समय सिंचाई पूर्ण रूप से रोक देनी चाहिए तथा पुनः सिंचाई फलों के पकने के समय करनी चाहिए। यह अवस्था क्रान्तिक अवस्था कहलाती हैं। इस अवस्था में पानी की कमी से फल अधपके ही गिर जाते हैं तथा पानी की अधिकता से लेमन के फल फटने लगते हैं और छिलका मोटा होता हैं।
कृन्तन एवं बोर्डो पेस्ट लगाना
पौधों की प्रारंभिक अवस्था में इनको उचित आकार देने के लिए कृन्तन किया जाता हैं। भूमि से 75-90 से.मी. की ऊँचाई तक मुख्य तने से कोई शाखा नहीं निकलने देना चाहिए तथा सूखी, मरी हुई ग्रस्त जल प्ररोह तथा एक दूसरे से रगड़ खाती शाखाओं को काटकर निकाल देते हैं। वर्षा ऋतु केक पश्चात् 1 प्रतिशत् बोर्डो पेस्ट को पौधों को तने पर लगाएं। बोर्डो पेस्ट वर्ष में दो बार फरवरी व अक्टूबर में लगाना चाहिए।
बहारउपचार
नींबूवर्गीय पौधों में वर्ष में तीन बार फूल आते हैं- जुलाई-अगस्त, सितम्बर-अक्टूबर (हस्त बहार) फरवरी-मार्च। तीन समय फूल व फल लेने से पौधों की उपज कम व गुणवत्ता में कमी आती हैं। अतः केवल एक समय ही उपज लेनी चाहिए। किसी विशेष समय पर अधिक से अधिक फूल होने लेने के लिए एक विशेष उपचार करते हैं, जिसे बहार उपचार कहते हैं। इसमें फल तोड़ने के बाद पौधों को पानी देना बन्द कर देना चाहिए, जिससे नमी की कमी हो जाती हैं, फिर बाद में सिंचाई करके उनकी वृद्धि व फूलने की दशा में लाए जाते हैं। इससे एक साथ अत्यधिक फूल आते हैं और गुणवत्तायुक्त फल प्राप्त होते हैं, जिससे उपज में आशातीत वृद्धि मिलती हैं।
फलों की तुड़ाई व उपज
नींबू लेमन व मीठा पुष्पन के पश्चात् लगभग 6-7 माह में तुड़ाई के योग्य हो जाते हैं। सन्तरा माल्टा 8-9 माह का समय पकने में लेते हैं। मध्य भारत में फलों की तुड़ाई फरवरी से मार्च माह में की जाती हैं। माल्टा की उपज 500 फल प्रति वृक्ष, सन्तरे की 1000-1500 फल प्रति वृक्ष नींबू के 1000 फल प्रति वृक्ष, लेमन से 500 फल प्रति वृक्ष व ग्रेप फ्रूट से 300 फल प्रति वृक्ष प्राप्त कर सकते हैं।
रोग
कैकर
यह रोग जीवाणु के द्वारा होता हैं, जिसे जेन्थोमानाज कहते हैं। पत्तियों, टहनियों व फलों पर हल्के-पीले धब्बे दिखाई देते हैं। यह बाद में खुरदुरे हो जाते हैं। कागजी नींबू में यह रोग होता हैं। नियंत्रण हेतु मानसून के प्रारम्भ में 0.3 प्रतिशत् काॅपर ऑक्सीक्लोराइड का छिड़काव 15-20 दिन के अन्तर पर करते हैं। स्ट्रेटोमाइसिन 500 पी.पी.एम. का छिड़काव भी प्रभावी होता हैं।
गमोसिस
यह रोग फाइटोप्थोरा जाति के कवक द्वारा होता हैं। इसके लक्षण छोटी जड़ों का सड़ना, तनों की छाल का सड़ना व झुलसी पत्ती का गिरना पाया जाता हैं। तनों तथा टहनियों से गोंद पदार्थ निकल कर पत्तियों में इकट्ठा हो जाता हैं। नियंत्रण हेतु प्रतिरोधी मूलवृन्त का चूनाव जैसे- रफलेमन, रंगपूर लाइम आदि। बोर्डो मिश्रण का लेप लगाना। गड्ढों को 0.2 प्रतिशत् केप्टान से उपचारित करना चाहिए। मेन्कोजेब 0.2 प्रतिशत् घोल के 4-5 छिड़काव 15 कदन के अन्तर से करें।
सूखारोग
पत्तियों पर भूरे बैंगनी धब्बे बन जाते हैं। टहनियों ऊपर से नीचे की ओर सूखती हैं तथा पत्तियाँ सूखकर गिर जाती हैं। नियंत्रण हेतु काॅपर ऑक्सीक्लोराइड 3 ग्राम या मेन्कोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करें।
ट्रिस्टेजा
यह विषाणु जनित रोग हैं। इससे प्रभावित पेड़ अस्वस्थ दिखाई देते हैं, जड़े सड़ जाती हैं तथा अचानक सूख जाती हैं। यह रोग एफिट कीट द्वारा फैलता हैं। अतः ऑक्सीडिमोटोन मिथाइल का छिड़काव करें। प्रतिरोधी मुलवृन्त ट्राइफोलिएट ऑरेंज, ट्रायोर सिट्रेन्ज आदि का उपयोग करें।
ग्रीनींग
यह भी विषाणु जनित रोग हैं। जस्ते की कमी की तरह यह रोग अपने लक्षण दर्शाता हैं। फल पकने पर हरे ही रहते हैं। राग वाला कीट सीट्रस सिला हैं। नियंत्रण हेतु आॅक्सी डिमोटोन मिथाइल 0.01 प्रतिशत् कीटनाशक से करें।
कीट
नींबू की तितली
यह पीले-काले रंग की तितली की तरह (केटर-पिलर) होती हैं। यह पौधों की कोमल पत्तियों और शाखाओं के अग्र भाग को खाकर हानि पहुँचाती हैं। नियंत्रण हेतु 2 मि.ली. क्विनालफाॅस प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करें।
नींबू की सफेद मक्खी
यह हल्के पीले रंग की होती हैं। यह पत्तियों का रस चूसती हैं, जिससे पत्तियाँ मुड़कर गिर जाती हैं। नियंत्रण हेतु 2 मि.ली. मेलाथियान प्रति लीटर पानी का घोल बना कर छिड़काव करें।
लीफमाइनर
यह छोटी चमकदार सफेद रंग की तितली होती हैं। इसकी लट के ऊपर व नीचे की सतह के बीच सुरंग बनाती हुई पत्तियों को खाती हैं, जिसकी पत्तियाँ सुख जाती हैं। नियंत्रण हेतु 1 मि.ली. मोनोक्रोटोफास या 1 मि.ली. फेनवलेरेट प्रति लीटर पानी के घोल से छिड़काव करें।
तना छेदक
यह तना तथा षाखाओं को खाकर गहरी सुरंग बना देती हैं। नियंत्रण हेतु रूई को कीटनाशक में डुबोकर छिद्रों में डालते हैं।
फल चूसक
यह पतंगा अपनी सूंड से फलों में छेद करके उनका रस चूसता हैं, जिससे फल पीले पड़ सूख जाते हैं। 1 मि.ली. मेलाथियान को प्रति लीटर पानी में घोल बनकर छिड़काव करें।
निमेटोड
टाइलेनकुलस सेमीपैनीटास नामक सूत्रकृमी में नींबू की जड़ें प्रभावित होती हैं, जिससे बढ़वार रूक जाती हैं। पौधों में कम फुटाव, फल छोटे तथा कम लगते हैं। जड़े गुच्छेदार होती हैं। नियंत्रण हेतु कार्बोफ्यूरान 250 ग्राम प्रति पौधा भूमि में 30 से.मी. गहराई में डालते हैं।
सिट्रस सिला
यह नई व कोमल पत्तियों तथा फलों का रस चूसते हैं। यह एक प्रकार मीठा द्रव्य छोड़ते हैं, जिससे सूटी मोल्ड फफूँद उत्पन्न होता हैं। इसके नियंत्रण हेतु मेलाथियान 0.05 प्रतिशत् का छिड़काव करते हैं।
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