ईश्वर साहू, प्रदीप कुमार साहू, प्रीति साहू, सरिता एवं हेमंत कुमार
राजमाता विजयाराजे सिंध्या कृषि विश्वविद्यालय ग्वालियर (म.प्र.) 474002
कृषि महाविद्यालय, ग्वालियर (म.प्र.)

परिचय

भारतवर्ष में गेंदा खुले फूलों हेतु उगाई जाने वाली फसलों में से एक मुख्य फसल है। गेंदा को सजावटी पौधे के रूप में उद्यानों की क्यारियों तथा गमलों में उगाया जाता है। इसके फूलों का प्रयोग धार्मिक म स्थलों,सामाजिक अवसरों व औद्योगिक स्तर पर काफी अत्यधिक बढ़ रहा है।

वानस्पतिक नाम : टेजेटिस स्पीसीज

सामान्य नाम: गेंदा

कुल: एस्टरेसि

गेंदे के फूलों के विभिन्न उपयोग

ताजे फूलों के रूप में:

हमारे देश में इसके ताजे फूल माला बनाने, पूजा करने तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में अत्यधिक रूप में उपयोग किये जाते हैं।

औद्योगिक उपयोगः

गेंदा एक बहुआयामी पौधा है जिसके कारण वर्ष भर इसकी मांग बनी रहती है। इस तरह जब ज्यादा उत्पादन होने के बाद बाजार में फूलों की मांग कम हो जाती है, तब फूलों को औद्योगिक रूप में प्रयोग करके किसान को उचित दम मिल सकता है। गेंदे के फूलों एवं पत्तियों के कुछ औद्योगिक उपयोग निम्न प्रकार हैः

कैरोटीनाइड उत्पाद:

गेंदे के फूलों की पंखुड़ियों का प्रयोग औद्योगिक स्तर पर कैरोटीनाइड निकालने के लिए किया जाता है, जिसका प्राकृतिक रंग एवं औषधीय उत्पाद क्षेत्र में जबरदस्त उपयोग हो रहा है। इस प्रकार खाद्य एवं औषद्यीय क्षेत्र में इसकी मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। भारत में केरल, कर्नाटक व आन्ध्र प्रदेश इसके उत्पाद के अग्रणी राज्य हैं और इसका निर्यात भी किया जाता है। गेंदे के फूलों से प्राप्त उत्पादों को निम्न रूप में प्रयोग किया जाता है। 

कुक्कुट खाद्य में: 

अंडे के योक में पीलापन बढ़ाने के लिए कुक्कुट खाद्य में कैरोटीनाॅइड का प्रयोग किया जाता है। इसके लिए गंदे की पंखुडियों को सुखाने के बाद कुक्कुट खाद्य में मिश्रित किया जाता है। 

प्राकृतिक रंगों के लिएः

कृत्रिम रंगों के दुष्प्रभाव को देखे हुए आजकल प्राकृतिक खाद्य रंगों की ओर लोगों का झुकाव बढ़ रहा है। गेंदे से निकला गया प्राकृतिक रंग (कैरोटीनाइड) खाद्य सामग्री बनाने में प्रयोग किया जाता है।

औषधीय प्रयोगः

गंदे के पौधे के हर भाग का कोई न कोई औषद्यीय उपयोग है। फूलों से प्राप्त कैरोटीनाइड (ल्यूटिन) का प्रयोग आंखों की बीमारी की औषधि बनाने के लिए किया जाता है। इसके अलावा कैंसर, प्लू, चर्म रोग आदि में भी यह काफी महत्वपूर्ण हैं।

हर्बल और पौष्टिक उत्पादः

आजकल गेंदे की पत्तियों से प्राप्त तेल का सौंदर्य व प्रसाधन सामाग्री बनाने के लिये प्रयोग किया जाता है, क्योंकि इसमें कोई हानिकारक तत्व नहीं होने के कारण हर्बल/प्राकृतिक उत्पादन तैयार होते है। पश्चिमी देशों मे आजकल इसकी काफी मांग है।

प्रजातियां एवं किस्में:

गेंदा ऐस्ट्रेसी कुल से सम्बधित है। इसकी लगभग 33 प्रजातियां है इनमें से खुले फूलों हेतु मुख्यतया अफ्रीकन गेंदा (टेजेटिस इरेक्टा ) व फ्रांसीसी गेंदा (टेजेटिस पेटुला) उगायी जाती है। तेल निकालने के लिये गेंदे की प्रजाति टेजेटिस माइनूटा को प्रयोग किया जाता है।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित गेंदा की किस्में

1.पूसा नारंगी गेंदाः

यह अफ्रीकन गेंदा वर्ग की खुले परागण वाली प्रजाति है। इस प्रजाति के पौधे औसतन 60-70 सेंमी. ऊँचे तथा स्वस्थ होते है। इसके फूल नारंगी रंग के बहुपंखुडियो तथा 7-8 सेंमी. व्यास वाले होते हैं। इसके फूलों की उपज 300-350 कुन्तल प्रति हैक्टेयर होती है। यह प्रजाति बगीचों की क्यारियों व गमले में सजावट हेतु उगाने के लिये अति उत्तम है। इसके फूल माला बनाने, धार्मिक अनुष्ठानों के लिए तथा प्राकृतिक रंग निकालने लिये भी उपयुक्त हैं। उत्तरी भारत के मैदानी क्षेत्रों में यह प्रजाति मुख्यतः फरवरी-मार्च पुष्पन करती है। 


1. पूसा बसन्ती गेंदाः यह अफ्रीकन गेंदा वर्ग की खुले परागण वाली प्रजाति हैं। इस प्रजाति के पौधे औसतन 60-70 सेंमी. ऊंचे तथा स्वाथ्य होते है। फूल गन्धक के समान पीले रंग के बहुपंखुडियों वाले 6-7 सेंमी.के व्यास वाले होते है। यह किस्म घरों के आसपास उद्यानों, बगीचों, गमलों तथा क्यारियों में लगाने के लिए अति उपयुक्त है। उत्तरी भारत के मैदानी क्षेत्रों मे यह प्रजाति मुख्यतया फरवरी-मार्च में पुष्पन करती है। 

2. पूसा अर्पिताः यह फ्रांसीसी गेंदा वर्ग की खुले परागण वाली प्रजाति है। इसके पौंधे जोड़दार वृद्धि तथा 90 से 100 सेंमी. ऊंचाई वाले होते हैं। इसके पुष्प सुगंठित व मध्य आकर के नांरगी रंग के होते हैं। यह फ्रांसीसी गेंदा वर्ग में प्रचुर मात्रा में फूल देने वाली प्रजाति है, जिसकी औसत उपज 18 से 20 टन प्रति हेक्टेयर होती है। उत्तरी भारत के मैदानी क्षेत्रों में यह प्रजाति मुख्यतया मध्य दिसम्बर से मध्य फरवरी तक पुष्पन करती हैं। 

3. पूसा बहारः यह अफ्रीकन गेंदा वर्ग की खुले परागण वाली प्रजाति है, इसके पौंधे जोरदार वृद्धि तथा 75 से 85 सेंमी. ऊंचाई वाले होते है। इसके पुष्प सुगंठित, चपटे, आकर्षक व बडे़ आकार वाले (8-9 सेंमी. व्यास) पीले रंग के होते हैं। यह प्रचुर मात्रा में फूल देने वाली प्रजाति है जिसमें प्रति पौधा औसतन पुष्पों की संख्या 50-60 होती है । यह प्रजाति उद्यानों में उगाने एवं पुष्प सज्जा हेतु उपयुक्त है। उत्तरी भारत के मैदानी क्षेत्रों में यह प्रजाति मुख्यतया फरवरी व मार्च में पुष्पन करती है। 

जलवायुः 

गेंदे के पौधे काफी सहिष्णु होते हैं। यह उष्ण कटिबंधीय एवं उपोष्ण जलवायु वाले भागों में वर्ष भर सफलतापूर्वक उगाये जा सकते हैं। गेंदे के पौधों की अच्छी बढ़वार व पुष्पन के लिए धूप वाली जगह उपयुक्त होती है। 

भूमिः

गेंदे की सफल खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी सर्वोतम होती है। वह मिट्टी जिसका पीएच मान 6.5-7.5 हो तथा जिसमें वायु संचार एवं उपयुक्त मात्रा में कार्बनिक यौगिक हों, अतिउपयुक्त होती है। भूमि समतल तथा जल निकास की समुचित व्यवस्था वाली होनी चाहिए। इससे फसल उत्पादन में गुणात्मक वृद्धि होती है। 

भूमि की तैयारीः 

पौधों को खेत में लगाने से पहले भूमि को भली-भांति तैयार कर लेना चाहिए। पहली जुताई हैवी डिस्क या मिट्टी पलट हल को भूमि पलट हल से करनी चाहिए। तदुपरान्त कल्टीवेटर से 2-3 जुलाई करते हैं। जुताई के समय ही सड़ी हुई गोबर की खाद को भूमि में अच्छी तरह मिला देना चाहिए तथा अंतिम जुताई के समय नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा भूमि में मिला देनी चाहिए। इसके बाद खेत को नालियों एवं क्यारियों में विभाजित कर रोपाई हेतु तैयार कर लिया जाता है। 

नर्सरी तैयार करनाः 

नर्सरी तैयार करने हेतु भूमि को अच्छी तरह से लगभग 30 सेंमी. गहरी जुताई करके उसमें अच्छी तरह गोबर या  केचुए की खाद मिलाकर समतल बना लेते हैं। इसके बाद खेत में उठी हुुई क्यारियां बना लेनी चाहिए जो कि 15 सें.मी. ऊंची, एक मीटर चैड़ी तथा 5-6 मीटर लम्बी होती है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल की नर्सरी तैयार करने के लिए 800-1000 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है। क्यारियां तैयार होने के बाद बीजोें को 6-8 सेंमी. की दूरी तथा 2 सेंमी. गहराई पर बुवाई कर देते हैं। इसके बाद बीजों को अच्छी तरह से छनी हुई गोबर की खाद से ढ़क देते हैं। आवश्यकतानुसार क्यारियों के ऊपर महीन फुव्वारे से सुबह एवं शाम के समय पानी का छिड़काव करते रहना चाहिए। जब बीज पूर्णतया अंकुरित होकर जमीन से बाहर आ जायें तो नाली द्वारा हल्की सिंचाई करनी चाहिए। ग्रीष्मकालीन फसल लेने के लिए बीज की बुवाई जनवरी-फरवरी में कर लेना चाहिए। वर्षाकालीन फसल के लिए बुवाई मई-जून में करें तथा शीतकालीन फसल के लिए सितम्बर-अक्टूबर में बीज की बुवाई करें। 

पौधों की रोपाईः 

बीज की बुवाई के 25-30 दिन बाद पौधे रोपाई के लिये तैयार हो जाते हैं। जब पौधें 4-6 पत्तियों वाले हो जाते हैं तब उन्हें मुख्य खेत में रोप देना चाहिए। पौधों को प्रायः शाम के समय ही खेत में रोपना चाहिए, हो सके तो पहले से तैयार खेत में पानी देकर अच्छी तरह तरह नमी बनाकर रोपाई करें तो पौधे कम भरते हैं। रोपाई करते समय लाइन से लाइन व पौधे की दूरी प्रजाति पर निर्भर करती है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा विकसित गेंदा की किस्मों के लिये लाइन से लाइन व पौधे से पौधे की संस्तुत दूरी निम्न प्रकार हैः

क्र.

किस्म

लाइन से लाइन की दूरी

पौध से पौधे की दूरी

1.

पूसा नारंगी गेंदा

45 सेंमी.

45 सेंमी.

2.

पूसा बसंती गेंदा 

45 सेंमी.

45 सेंमी.

3.

पूसा अर्पिता

60 सेंमी.

45 सेंमी.

4.

पूसा बहार

45 सेंमी.

45 सेंमी.



खाद एवं उर्वरकः 

व्यवसायिक स्तर पर गेंदा की खेती के लिए 120 कि. ग्रा. नाइट्रोजन, 80 कि.ग्रा.फारस्फोरस तथा 80 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। फास्फोरस एवं पोटाश की पूर्ण मात्रा भूमि की तैयारी करते समय तथा नाइट्रोजन की एक चैथाई मात्रा क्यारियों में पौधे लगाने के लगभग एक माह बाद एवं बाकी एक चैथाई मात्रा पौधे लगाने के दो महीनें बाद खड़ी फसल में बिखेर कर देना चाहिए। अगर पौधों की बढ़वार समुचित नहीं होती है तो पौधों की रोपाई के एक माह बाद से 15 दिन के अन्तराल पर एवं पुष्प कालिका बनने से पहले तक 0.2 प्रतिशत यूरिया का घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करना चाहिए, इससे पौधों की वृद्धि अच्छी होती है। 

पिंचिंगः 

सामान्यतया पौधे रोपाई के लगभग एक माह बाद खेत में अच्छी तरह से स्थापित हो चुके होते हैं, और उनकी वृद्धि शुरू हो जाती है। इस समय पौधों की शीर्ष कलिका को दो पत्तियों सहित ऊपर से तोड़ देना चाहिए, जिससे सहायक कालिकायें अधिकता में निकलती हैं। इसके एक माह पश्चात सहायक तनों की संख्या ज्यादा हो जाती हैं। इस प्रकार दो बार पिंचिंग करने (कलिकायें तोड़ने) से प्रति पौधा अधिक फूल प्राप्त होता है। 

सिंचाईः 

गर्मी के दिनों में पौधों को 4-5 दिनों के अन्तराल पर पानी देना चाहिए और सर्दियों में 8-10 दिनों के अन्तराल पर ही सिंचाई की आवश्यकता होती है। वर्षा के दिनों में सिंचाई पौधों की आवश्यकतानुसार ही की जाती है। गेंदे की फसल में प्रत्येक बार हल्की सिंचाई की आवश्यकता होती है। 

खरपतवार नियंत्रण: 

अधिक पुष्पोत्पादन के लिए गेंदे की फसल में 3-4 बार खरपतवार निकालकार खेत की हल्की गुड़ाई करनी चाहिए। जहां पर ज्यादा खरपतवार उगते हैं वहां पर भूमि में पौधे रोपने से पहले खरपतवारों को नियंत्रण करने वाली दवाई उपयोग करने से मुख्य फसल में खरपतवारों का प्रकोप कम होता है तथा निराई-गुड़ाई भी कम करनी पड़ती है। 

फूलों का आना (पुष्पन काल): 

ग्रीष्म कालीन फसल मई के मध्य में फूल देना आरम्भ कर देती है। वर्षा कालीन फसल सितम्बर के मध्य से फूलों का उत्पादन आरम्भ कर देती है और शीतकालीन फसल में मध्य जनवरी से फूलों का आना शुरू हो जाता है। 

फूलों की तुड़ाईः 

गेंदा के पूर्ण विकसित पुष्पों को सुबह व शाम के समय जब गर्मी कम हो, तोड़ना चाहिए। फूलों को तोड़ने के बाद ठन्डे स्थान पर एकत्र करना चाहिए। फूलों को तोड़ते समय अगर खेत में पर्याप्त नमी होती है। तो तो़ड़ने के बाद फूल ज्यादा समय तक ताजे बने रहते हैं। फूलों को तुड़ाई करके एक स्थान पर एकत्र करने के पश्चात् उन्हें बांस की टोकरियों में  भरकर सुविधानुसार वाहन द्वारा बाजार में भेज देना चाहिए। 

रोग तथा कीट एवं उनका नियंत्रण:

पौध गलन (डेम्पिंग ऑफ़) बीमारी से बचने के लिये बुवाई से पहले क्यारियों को 0.2 प्रतिशत बाविस्टीन घोल द्वारा उपचारित करना चाहिए। गेंदे में लाल रंग की लाल रंग की जाल बनाने वाली मकड़ी पौधों का रस चूसकर हानि पहुंचाती है। उसे डाईकोफोल (0.1 प्रतिशत) के घोल को पौधों पर छिड़क कर नियंत्रित किया जा सकता है। कीटनाशक दवाओें जैसे नुवान (0.15 प्रतिशत) या मैटास्टिाक्स (0.2 प्रतिशत) के घोल का छिड़काव करने से विषाणु बीमारियां फैलाने वाले कीटों को नियंत्रण में रखा जा सकता है।