राधेलाल देवांगन, एम.एससी. (उद्यानिकी), बी.टी.एम. भानुप्रतापपुर, कांकेर (छ.ग.)
महेन्द्र कुमार साहु, अतिथि शिक्षक (कृषि अर्थशास्त्र), पं. एस.के.एस. कृषि महाविद्यालय, राजनांदगांव (छ.ग.)

परवल की खेती प्रायः भारत में बहुत ही पहले से की जा रही हैं यद्यपि यह कद्दूवर्गीय परिवार की अति महत्वपूर्ण फसल हैं। यह कद्दू कुल की बहुत ही पौष्टिक सब्जी हैं। प्रायः अपने पोषण मूल्यांकन के लिए इसे विशेष स्थान दिया गया हैं। इसकी खेती का विस्तारण दिन प्रतिदिन लगातार बढ़ता ही जा रहा हैं और परवल की खेती आर्थिक दृष्टि से भी बहुत अधिक लाभ देती हैं। बहुत से निम्नलिखित कारण हैं, जो इसकी विशेषता को बताते हैं- 
  • परवल प्रायः भारतीय मूल का बहुवार्षिक कद्दूवर्गीय सब्जी हैं। 
  • इसका प्रयोग प्रायः सब्जी, मिठाई और आचार बनाने में भी होता हैं। 
  • यह शीघ्र पचने वाला मस्तिष्क को बलशाली, दस्तावार होता हैं। 
  • यह रोगी व्यक्तियों के लिए उनको रोग से उभारने के लिए यह अधिक उपयोगी होता हैं। 
  • शुद्ध लाभ के रूप में यह बहुत ही अच्छी सब्जी हैं क्योंकि इसमें ना तो कीटों का बहुत ज्यादा प्रकोप होता हैं और साथ-साथ यह बहुवार्षिक सब्जी हैं जो सालों भर पाई जाती हैं। 
  • यह कद्दूवर्गीय फसल प्रायः दूर-दूर षहरों में बेचने पर भी फलों की गुणवत्ता बनी रहती हैं इसका व्यापार आसान और लाभप्रद हैं। 
उत्पत्ति एवं भारत में वितरण 
भारत देश में प्राचीनकाल से ही परवल की खेती हो रही हैं। अतः भारत ही परवल का उत्पत्ति स्थान हैं। इसका विस्तार यहीं से अन्य देशों पाकिस्तान, बांग्लादेष, श्रीलंका, नेपाल और अन्य देषों में भी परवल की खेती होती हैं। 
भारत देख के उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात और अनेक राज्यों में विस्तृत रूप से इसकी खेती की जा रही हैं इसकी खेती विशेषरूप से बक्सर जिला से राधानगर साहेबगंज जिला तक गंगा के किनारे बहुत ही विशेष रूप से की जाती हैं। 

जलवायु 
परवल की खेती के लिए अधिक आर्द्रता एवं गर्म जलवायु की अधिक आवश्यकता होती हैं। ऐसे क्षेत्र जिसकी औसत वार्षिक वर्षा 100-150 सेमी. हो तो वह क्षेत्र परवल की खेती के लिए उचित होता हैं। लेकिन जहां वर्षा कम होती हैं वहां पर भी जल प्रबंधन करके परवल की खेती की जा सकती हैं। 

भूमि का चुनाव तथा तैयारियां 
परवल की खेती के लिए प्रायः भारी मिट्टी को छोड़कर अन्य मृदाओं में उगाई जा सकती हैं लेकिन परवल की उचित खेती के लिए दोमट, बलुई दोमट, जल निकास भूमि उचित होती हैं। इसकी खेती दियारा क्षेत्रों में भी आसानी से की जा सकती हैं। खेत को तैयार करने के लिए 3-4 जुताई कल्टीवेटर से करते हैं और कुछ दिनों के लिए छोड़ देते हैं ताकि हानिकारक कीट और खरपतवार नष्ट हो जाये। इसकी रोपाई से पहले खेत में पाटा लगा कर समतल कर लेना चाहिए। 

उन्नतिशील प्रजातियां 
स्वर्ण रेखा, स्वर्ण अलौकिक, शाकोलिया, डंठाली, छोटा हिल, थहली, सी.एच.ई.एस. इलाइट लाइन, सी.एच.एस.ई.एस., हाइब्रिड उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में परवल- 1,2,3,4,5 लोकप्रिय हैं। दामोदर, काजिल, बिहार शरीफ और बहुत सी स्थानीय प्रजातियां हैं जो विभिन्न क्षेत्रों के लिए उपयुक्त होती हैं। 

बुवाई की विधि 
लताओं द्वारा-इस विधि में एक वर्ष पुरानी लताएं जो 120-160 सेमी. की हो लच्छी बनाकर लगाई जाती हैं। इस विधि में लताओं के मध्य भाग को मिट्टी में दबा दिया जाता हैं और दोनों किनारे खुले रहते हैं। जड़ों की कलम द्वारा-इस विधि में जड़ों के साथ 2-3 इंच भाग जिस पर प्रायः 4-5 गांठ लगी हो उचित होती हैं। इस विधि का प्रमुख लाभ यह हैं कि पौधा बहुत जल्दी बढ़ता हैं। इसमें एक कठिन समस्या हैं कि यह अत्यधिक पैमाने पर उत्पादन करने के लिए जड़ों की कलम उपलब्ध होना एक प्रमुख समस्या हैं। 

बुवाई का समय 
बुवाई का समय भिन्न-भिन्न स्थानों पर अलग-अलग होता हैं दियारा क्षेत्रों के लिए बुवाई का उचित समय मध्य नवंबर होता हैं। मैदानी क्षेत्रों के लिए बुवाई का उचित समय फरवरी-मार्च होता हैं। 

बीजदर 
बोवर पद्धति से बुवाई के लिए प्रायः 8000 लताएं/हेक्टेयर और कतार से कतार और पौधे से पौधे की दूरी 1.0-1.5 मीटर होती हैं। मैदानी क्षेत्रों के लिए 4500 से 5000 लताएं/हेक्टेयर और दियारा क्षेत्रों के लिए 3500 से 4000 लताएं/हेक्टेयर। 

खाद एवं उर्वरक 
सामान्यतः हमें खेत को तैयार करने के लिए कार्बनिक खाद या कम्पोस्ट का इस्तेमाल करना चाहिए। हमें लगभग 1 हेक्टेयर में 200-250 टन कम्पोस्ट का प्रयोग करना चाहिए। हमें 10 ग्राम यूरिया, 100 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट, 25 ग्राम क्यूरेट आॅफ पोटाश, 25 ग्राम एलड्रीन/पौधा देना चाहिए। जिस मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी हो उसमें मिट्टी की जांच उसके उसी के अनुरूप देना चाहिए। 

खरपतवार नियंत्रण 
रोपन के उपरांत समय-समय पर निकाई करनी चाहिए ताकि लताओं की वृद्धि में रूकावट न हों। लताओं को समय-समय पर पलटते रहना चाहिए। 

सहारा देना 
जब पौधों में से नई षाखायें फूटने लगती हैं तब पौधों को बांस के टुकड़ों पर या अन्य लकड़ियों के टुकड़ों पर या मचान के रूप में बनाया जाता हैं। मचान के ऊपर पतली-पतली लंबी डंठलों को फैलाकर सुतली से बांध दिया जाता हैं। परवल के दो कतारों के बीच 2 मीटर चैड़ाई और लगभग 2 मीटर लम्बाई की दूरी पर डण्डे गाड़ देते हैं। 

सिंचाई 
समय-समय पर उचित ध्यान रखकर सिंचाई करनी चाहिए। प्रायः गर्मी के मौसम में 5-6 दिनों बाद और अन्य मौसम में लगभग 8-10 दिन के अन्तराल पर समय-समय पर सिंचाई करनी चाहिए। 

उपज 
इसकी पैदावार 120 से 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती हैं- 
  • पहला वर्षः लगभग 50 से 75 क्विंटल प्रति हेक्टेयर 
  • दूसरा वर्षः लगभग 50 से 75 क्विंटल प्रति हेक्टेयर 
  • तीसरा वर्षः लगभग 50 से 75 क्विंटल प्रति हेक्टेयर 

रोग एवं उनका नियंत्रण 

चूर्णिल आसिता 
पौधे के हरे भागों पर सफेद पाउडर जैसा दिखाई देता हैं और बाद में पत्तियां मुरझाकर सूख जाती हैं और पौधों की वृद्धि रूक जाती हैं। 

नियंत्रण 
सल्फेक्स की 2-5 किग्रा या कैरोथेन की 1 लीटर मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। 

मृदुरोमिल आसिता 
पत्तियों की ऊपरी सतह पर कुछ पीले रंग के धब्बे बनते हैं। पत्ती के निचली सतह पर धूल जैसा फफूँद दिखाई पड़ते हैं। पत्तियां मर जाती हैं और पौधों की वृद्धि रूक जाती हैं। 

नियंत्रण 
इण्डोफिल ड.4 की 2 किग्रा मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। 

फल सड़न रोग 
फलों पर गहरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं, ये धब्बे बड़े होकर फल को सड़ा देते हैं। इसके लिए जमीन पर पुआल डाल देते हैं। 

नियंत्रण 
इंडोफिल ड.4 की 2 किग्रा मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव कर देना चाहिए। 

सूत्रकृमि 
पत्तियों का रंग पीला पड़ सकता हैं और पत्तियां का विकास ठीक तरीके से नहीं हो पाता हैं। 

नियंत्रण 
रोग से ग्रसित पौधों को खेत से निकाल देना चाहिए और नीम की खली या लकड़ी का बुरादा 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से 4 सप्ताह पहले खेत में डालने से इसका नियंत्रण किया जा सकता हैं।